वर्ष - 29
अंक - 31
31-07-2020

भयानक दौर से गुजर रहे कोरोना संकट के बीच केंद्र की मोदी सरकार कृषि क्षेत्र के लिये तीन नये अध्यादेश लाई है, इन्हें राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल चुकी है. इन सुधाारों को ‘एक देश, एक कृषि बाजार’ नारे के तहत लाया जा रहा है, मगर इसका मकसद है किसानों को बड़ी-बड़ी कम्पनियों का गुलाम बना देना और राज्यों के अधिकारों को केन्द्र सरकार द्वारा छीन लिया जाना, खासकर पहले से ही बदहाली में चल रहे राज्यों से उनके कृषि उत्पाद की बिक्री पर कर वसूलने के अधिकार को छीन लेना. नए कृषि अध्यादेशों को लेकर देश के किसान संगठन लगातार आवाज उठा रहे हैं. भारत के किसान संगठनों का कहना है कि नए कृषि अध्यादेशों से किसानों का शोषण बढ़ेगा. ये तीनों अध्यादेश भारत के करोड़ों किसान परिवारों के भविष्य से जुड़े हुए हैं. एक तरफ केन्द्र सरकार व अनेक अर्थशास्त्री इस बात को मानते हैं कि कोरोना वायरस काल में सिर्फ किसानों की मेहनत के बल पर, कृषि क्षेत्र के आधार पर ही देश की अर्थव्यवस्था का पहिया घूम रहा है. दूसरी तरफ केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद बन्द करके किसानों का शोषण करने में लगी हुई है. अगर देखा जाए तो आज भी किसानों को फसल के सी-2 सहित लागत मूल्य में 50 प्रतिशत मुनाफे के अनुसार फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल रहा है. लेकिन उसके बावजूद किसान किसी तरह अपना जीवन यापन कर रहे हैं. यदि सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद को बंद कर दिया तो खेती-किसानी के साथ-साथ देश की खाद्यान्न सुरक्षा भी बड़े संकट में फंस जाएगी.

आप सब जानते ही होंगे कि हमारी केंद्र सरकार के ऊपर विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का दबाव है कि किसानों को मिलने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य और हर प्रकार की सब्सिडी केंद्र सरकार समाप्त करे. इसी के तहत मोदी सरकार ने 2014 में सत्ता में आते ही राज्यों द्वारा किसानों की फसल पर दिए जा रहे बोनस पर रोक लगा दी थी. इससे पहले भी कांग्रेस व बीजेपी की सरकारों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाने की असफल कोशिश की थी लेकिन किसानों के दबाव के सामने उन्हें अपने कदम पीछे खींचने पड़े. अब केंद्र सरकार कोरोना वायरस के कारण लगे लाकडाउन का अनैतिक तरीके से फायदा उठाकर ये तीनों अध्यादेश लेकर आई है, सरकार को लगता है कि कोरोना वायरस के कारण किसान बड़े पैमाने पर इकठ्ठे होकर प्रदर्शन नहीं कर सकते इसलिये सरकार ने यह कदम उठाया. सरकार ने भांपने की भी कोशिश की है कि उनकी फसल की सरकारी खरीद न होने पर किसान किस हद तक विरोध कर सकते हैं. इसलिये अब की बार उसने मक्के और मूंग का एक भी दाना न्यूनतम समर्थन मूल्य पर नहीं खरीदा. आगे आने वाले समय में केंद्र सरकार गेहूं और धान की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद भी बन्द करने की दिशा में बढ़ रही है.

केंद्र सरकार जो तीन कृषि अध्यादेश लेकर आई है, उन्हें बहुत बारीकी से समझने की जरूरत है. पहला अध्यादेश है, ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धान और सुविधा) अध्यादेश, 2020’, जिसके तहत केंद्र सरकार एक देश, एक कृषि मार्केट बनाने की बात कह रही है. इस अध्यादेश के माध्यम से पैन कार्ड धारक कोई भी व्यक्ति, कम्पनी या सुपर मार्केट किसी भी किसान का माल किसी भी जगह पर खरीद सकते हैं. कृषि माल की बिक्री केवल कृषि उत्पाद बाजार यार्ड में होने की शर्त केंद्र सरकार ने हटा ली है. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि कृषि माल की जो खरीद कृषि उत्पाद बाजार मार्केट से बाहर होगी, उस पर किसी भी तरह का टैक्स या शुल्क नहीं लगेगा.  यह राज्य को उसके आर्थिक संसाधान जुटाने के अधिकार पर भी चोट है. इसका अर्थ यह हुआ कि कृषि उत्पाद बाजार मार्केट व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी क्योंकि कृषि उत्पाद बाजार व्यवस्था में टैक्स व अन्य शुल्क लगते रहेंगे.

इस अधयादेश के तहत किसानों का माल खरीदने वाले पैन कार्ड धारक व्यक्ति, कम्पनी या सुपर मार्केट को तीन दिन के अंदर किसानों के माल की पेमेंट करनी होगी. सामान खरीदने वाले व्यक्ति या कम्पनी और किसान के बीच विवाद होने पर उपखण्ड मजिस्ट्रेट (एसडीएम) इसका समाधाान करेंगे. पहले उपखण्ड मजिस्ट्रेट द्वारा सम्बन्धित किसान एवं माल खरीदने वाली कम्पनी के अधिकारी की एक कमेटी बना के आपसी बातचीत के जरिये समाधान के लिए तीस दिन का समय दिया जाएगा, अगर बातचीत से समाधान नहीं हुआ तो उपखंड मजिस्ट्रेट द्वारा मामले की सुनवाई की जाएगी. एसडीएम के फैसले व निर्देश से सहमत न होने पर जिला अधिकारी (डीएम) के पास अपील की जा सकती है, एसडीएम और जिला अधिकारी को तीस दिन में विवाद का समाधान करना होगा. एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि किसान व कम्पनी के बीच विवाद होने की स्थिति में इस अध्यादेश के तहत कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकता. यहां गौर करने की बात यह है कि प्रशासनिक अधिकारी हमेशा सरकार के दबाव में रहते हैं और सरकार हमेशा व्यापारियों व कम्पनियों के पक्ष में खड़ी होती है क्योंकि चुनावों के समय व्यापारी और कम्पनियां राजनीतिक पार्टियों को चंदा भी देती हैं. पर न्यायालय सरकार के अधीन नहीं होते और न्याय के लिए कोर्ट में जाने का हक हर भारतीय को संविधान में दिया गया है. मगर नए अध्यादेश केे प्रावधानों के तहत किसानों को कोर्ट जाने ही नहीं दिया जाएगा.

ध्यान रखने योग्य बात यह भी है कि केंद्र सरकार ने इस बात की कोई गारंटी नहीं दी है कि प्राइवेट पैन कार्ड धारक व्यक्ति, कम्पनी या सुपर मार्केट द्वारा किसानों के माल की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही होगी. केंद्र सरकार के इस अध्यादेश से सबसे बड़ा खतरा यह है कि जब फसलें तैयार होंगी, उस समय बड़ी-बड़ी कम्पनियां जानबूझ कर किसानों के माल का दाम गिरा देंगी और उसे बड़ी मात्रा में खरीदकर गोदामों में भंडारण कर लेंगी जिसे वे बाद में ऊंचे दामों पर ग्राहकों को बेचेंगी. मंडियों में किसानों की फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद सुनिश्चित करने के लिए और व्यापारियों पर लगाम लगाने के लिए कृषि उत्पाद बाजार ऐक्ट अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा बनाया गया था. कानून के अनुसार कृषि उत्पाद बाजार मंडियों का कंट्रोल किसानों के पास होना चाहिए लेकिन वहां भी व्यापारियों ने गिरोह बना के किसानों को लूटना शुरू कर दिया. कृषि उत्पाद बाजार ऐक्ट में जहां एक तरफ कई समस्याएं हैं जिनमें सुधाार की जरूरत है, इसके बावजूद दूसरी तरफ इसका एक सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसके तहत सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि किसानों के माल की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर हो.

अब नए अध्यादेश के जरिये सरकार किसानों के माल की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद की अपनी जिम्मेदारी व जवाबदेही से बचना चाहती है. जब किसान व कम्पनी के बीच विवाद होने की स्थिति में कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया जा सकेगा और किसानों की उपज की खरीद निश्चित स्थानों पर नहीं होगी तो सरकार इस बात को विनियमित व नियंत्रित नहीं कर पायेगी कि किसानों के माल की खरीद एमएसपी पर हो रही है या नहीं. कृषि उत्पाद बाजार अधिनियम में सुधार करने के बजाय उसे खारिज करके किसानों के माल खरीदने की इस नई व्यवस्था से किसानों का शोषण बढ़ेगा. उदाहरण के तौर पर 2006 में बिहार सरकार ने कृषि उत्पाद बाजार कमेटी (एपीएमसी) ऐक्ट को खत्म कर के किसानों के उत्पादों की एमएसपी पर खरीद खत्म कर दी. उसके बाद किसानों का माल एमएसपी पर बिकना बन्द हो गया और प्राइवेट कम्पनियां किसानों का सामान एमएसपी से बहुत कम दाम पर खरीदने लगीं, जिससे वहां किसानों की हालत खराब होती चली गयी और उसके परिणामस्वरूप बिहार में किसानों ने बड़ी संख्या में खेती छोड़कर मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों का रुख किया.

दूसरा अध्यादेश है आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिानियम, 2020, जिसको सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन करके लागू किया गया है. पहले व्यापारी फसलों को किसानों के औने-पौने दामों में खरीदकर उसका भंडारण कर लेते थे और कालाबाजारी करते थे, उसको रोकने के लिए ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955’ बनाया गया था जिसके तहत व्यापारियों द्वारा कृषि उत्पादों के एक सीमा से अधिक भंडारण पर रोक लगा दी गयी थी. अब इस नए अध्यादेश के तहत आलू, प्याज, दलहन, तिलहन व तेल को आवश्यक वस्तुओं की सूची से ही हटा दिया गया है और उसके भंडारण पर लगी रोक को हटा लिया गया है. अब समझने की बात यह है कि हमारे देश में 85 प्रतिशत लघु किसान हैं, किसानों के पास लंबे समय तक भंडारण की व्यवस्था नहीं होती है, और किसानों को सस्ती दर पर सरकारी कोल्ड स्टोरेज की उपलब्धता नहीं के बराबर हैं. यानी यह अध्यादेश बड़ी कम्पनियों द्वारा कृषि उत्पादों की जमाखोरी और कालाबाजारी के लिए लाया गया है, ये कम्पनियां और सुपर मार्केट अपने बड़े-बड़े गोदामों में कृषि उत्पादों का असीमित भंडारण करेंगे और बाद में उन्हें ऊंचे दामों पर बाजार में बेचेंगे.

तीसरा अध्यादेश सरकार द्वारा कान्ट्रैक्ट (अनुबंध) फार्मिंग के विषय पर लागू किया गया है जिसका नाम है ‘मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा सम्बंधी किसान समझौता (सशक्तिकरण एवं सुरक्षा) अध्यादेश, 2020’. इसके तहत कान्ट्रैक्ट फार्मिंग को कानूनी आधार प्रदान करके बढ़ावा दिया जाएगा जिसमें बड़ी-बड़ी कम्पनियां खेती करेंगी और किसान उसमें सिर्फ कम्पनी के लिए उसकी मांग के आधार पर उत्पादन करेंगे. इस नए अध्यादेश के तहत किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर बनकर रह जायेगा. इस अध्यादेश के जरिये केंद्र सरकार कृषि का पश्चिमी माडल हमारे किसानों पर थोपना चाहती है. लेकिन सरकार यह बात भूल जाती है कि हमारे किसानों की तुलना विदेशी किसानों से नहीं हो सकती, क्योंकि हमारे यहां भूमि-जनसंख्या अनुपात पश्चिमी देशों से अलग है और हमारे यहां खेती-किसानी जीवन-यापन करने का साधन है वहीं पश्चिमी देशों में यह व्यवसाय है. अनुभव बताते हैं कि कान्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों का शोषण बढ़ जाता है. इसमें किसान कम्पनियों का गुलाम बन जाता है क्योंकि कांट्रैक्ट के तहत किसान को कम्पनियों के कहने के अनुसार उत्पादन करके उसे सिर्फ उन्हीं कम्पनियों को उनके द्वारा निर्धारित दामों पर ही बेचने की अनुमति होती है.

पिछले साल गुजरात में पेप्सिको कम्पनी ने उन किसानों पर कई करोड़ का मुकदमा कर दिया था जिन्होंने पेप्सिको के बजाय मुक्त बाजार में पेप्सिको से ज्यादा दामों पर अपनी आलू की फसल बेच दी थी. कोर्ट ने भी पेप्सिको के दावे को मान लिया, जिसे बाद में किसान संगठनों के विरोध के चलते कम्पनी ने मुकदमा वापस ले लिया था. कान्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत फसलों की बुआई से पहले कम्पनियां किसानों का माल एक निश्चित गुणवत्ता होने पर एक निश्चित मूल्य पर खरीदने का वादा करती हैं लेकिन खरीद की कोई गारंटी नहीं होती. बाद में जब किसान की फसल तैयार हो जाती है तो कम्पनियां किसानों को कुछ समय इंतजार करने के लिए कहती हैं और बाद में किसानों के उत्पाद को खराब बता कर रिजेक्ट कर दिया जाता है.

केंद्र सरकार का कहना है कि इन तीन कृषि अध्यादेशों से किसानों के लिए मुक्त बाजार की व्यवस्था बनाई जाएगी, जिससे किसानों को लाभ होगा. लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि अमेरिका व यूरोप में मुक्त बाजार यानी बाजार आधारित नीति लागू होने से पहले 1970 में खुदरा कीमत की 40 प्रतिशत राशि किसानों को मिलती थी, अब मुक्त बाजार नीति लागू होने के बाद किसानों को खुदरा कीमत की महज 15 प्रतिशत राशि मिलती है, यानी मुक्त बाजार से कम्पनियों व सुपर मार्केट को ही फायदा हुआ है. मुक्त बाजार नीति होने के बावजूद यूरोप में किसानों को बचाये रखने के लिए हर साल लगभग सात लाख करोड़ डालर की सरकारी मदद मिलती है. अमेरिका व यूरोप का अनुभव बताता है कि मुक्त बाजार नीतियों से किसानों को नुकसान होता है. अगर किसानों का फायदा करना सरकार की मंशा हो तो केंद्र सरकार को कृषि उत्पाद बाजार ऐक्ट में सुधार करना चाहिए और 1999 में तमिलनाडु में लागू की गई ‘उझावर संथाई’ (बाजारों के संचालन) योजना को पूरे देश में लागू करना चाहिए.

1999 में तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने किसानों और ग्राहकों के बीच सीधा संबंध स्थापित करने के लिए इस योजना को शुरू किया था. इसके तहत तमिलनाडु में ‘उझावर संथाई’ मार्केट स्थापित की गई जहां पर किसान सीधे आकर अपना माल बेचते हैं और वहां पर ग्राहक सीधे किसानों से माल खरीदते हैं.

इस योजना से खुले मार्केट के मुकाबले किसानों को 20 प्रतिशत ज्यादा कीमत मिलती है और ग्राहकों को 15 प्रतिशत कम कीमत पर सामान मिलता है. इन बाजारों के कड़े नियमों के अनुसार सिर्फ किसान ही अपना माल बेच सकता है और किसी व्यापारी को इन बाजारों में घुसने की अनुमति नहीं होती. सम्पूर्ण दस्तावेज चेक करने के बाद ही किसान इस मार्केट में अपना सामान बेच सकते हैं. इन बाजारों में किसानों से दुकान का कोई किराया नहीं लिया जाता और किसानों को अपने माल के भंडारण के लिए राज्य सरकार द्वारा निशुल्क कोल्ड स्टोरेज व्यवस्था दी जाती है. इसके साथ ‘उझावर संथाई’ मार्केट से जुड़े किसानों को अपना माल लाने के लिए सरकारी बसों में निशुल्क ट्रांसपोर्ट की सुविधा मिलती है. जाहिर है कि केंद्र सरकार की मंशा कत्तई किसानों को फायदा पहुंचाने की नहीं है, इसलिये उसने ऐसी कोई व्यवस्था कायम करने के बजाय उसके उलट अध्यादेश लागू कर दिया.

ये तीनों अध्यादेश किसानों के अस्तित्व के लिए खतरा हैं क्योंकि सरकार इनके माध्यम से आने वाले समय में किसानों की फसलों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर करने की प्रणाली को बन्द करने की तैयारी कर रही है. ये अध्यादेश असंवैधानिक हैं और संविधान के संघीय ढांचे पर चोट हैं. कृषि राज्य सरकारों का विषय है इसलिए केंद्र सरकार को कृषि के विषय में हस्तक्षेप करने का कोई संविधानिक अधिकार नहीं है. ये तीनों अध्यादेश’ अलोकतांत्रिक हैं क्योंकि जब पूरा देश कोरोना वायरस महामारी से लड़ रहा है और संसद भी बन्द है, उस समय सरकार बिना किसी विधायी प्रक्रिया के ये तीनों अध्यादेश सरकार लेकर आई है. इन अध्यादेशों को लाने से पहले सरकार ने किसी भी किसान संगठन से विचार-विमर्श नहीं किया. देश के सभी किसानों को गोलबंद होकर देशव्यापी आंदोलन खड़ा करना होगा, क्योंकि मोदी सरकार जमीन हड़पने के लिए कई प्रकार के हथकंडे और भी अपनाएगी. यह सही मौका है कि सभी किसान संगठनों को एक मंच पर इकठ्ठा होकर मुहिम छेड़ देनी चाहिए वरना खेती योग्य भूमि कारपोरेट घरानों के कब्जे का पूरा इंतजाम सरकार द्वारा पुख्ता कर लिया गया है.

(प्रस्तुति: बृज बिहारी पांडे) 

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