वर्ष - 29
अंक - 24
30-04-2020

वश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हमें कोरोनावायरस की आपातकालीन चेतावनी दिये जाने के बाद से अब लगभग चार महीने गुजर गये हैं, और भारत सरकार द्वारा समूचे देश में लाॅकडाउन घोषित किये जाने के बाद भी दो महीने पार हो चुके हैं. इस वायरस का उद्गम स्थल और साथ ही साथ इससे निपटने के लिये लाॅकडाउन की रणनीति का प्रणेता देश चीन है. इसी रणनीति को दुनिया भर में, जरूर काफी हद तक भिन्नताओं के साथ, अपनाया गया. खुद चीन तथा अन्य कुछेक देशों ने इस महामारी से कमोबेश छुटकारा पा लिया है. मगर, अमरीका और यूरोप के बड़े हिस्से में, और अत्यंत महत्वपूर्ण रूप से खुद हमारे भारत और बाकी दक्षिण एशिया में यह महामारी अभी भी पुरजोर ढंग से पैर पसार रही है. और अगर दुनिया के किसी भी देश में लाॅकडाउन की कीमत महामारी से हुए नुकसान की तुलना में कहीं ज्यादा चुकानी पड़ी है, तो वह देश है भारत. विडम्बना यह है कि एक अव्यवस्थित, दिशाहीन और निष्ठुर लाॅकआउट को दो महीने के बाद, जब भारत लाॅकडाउन से बाहर निकलने की किसी किस्म की रणनीति को अंधेरे में टटोलने की कोशिश कर रहा है, तब महामारी बढ़ती ही जा रही है और लाॅकडाउन के जरिये देश में कोरोना के ग्राफ के ठहर जाने व नीचे उतरने का जो वादा किया गया था, वह कहीं नजर नहीं आ रहा है.

जरूर दुनिया ने अतीत में इससे भी अधिक जानलेवा वायरल महामारियों का प्रकोप झेला है. 1918 का स्पैनिश फ्रलू आधुनिक इतिहास में सबसे ज्यादा प्राणघातक सिद्ध हुआ था, और उसके बाद हाल के दशकों में दुनिया ने ईबोला, जिका, सार्स और निपाह जैसे विभिन्न किस्म के अन्य प्राणनाशक वायरसों का हमला भी झेला है. लेकिन कोविड-19 ने अपने विस्तार के पैमाने और उसके फैलने की तेज गति से समूची दुनिया को अचम्भे में डाल दिया है. और लाॅकडाउन ने जो विध्वंस मचाया, उसके साथ जोड़कर तो संकट सचमुच अभूतपूर्व और अकल्पनीय रहा है. कई तरह से यह वैश्विक पूंजी के विस्तार और तीव्रता से पैदा हुई और उसके ही चलते तीव्र हुई वैश्विक महामारी है. बिना विचारे प्रकृति के विनाश की अंधी दौड़, अत्यधिक बढ़ चुकी वैश्विक यात्राएं और लोगों का प्रवासन, खेती का कारपोरेटीकरण, और जन-स्वास्थ्य प्रणाली की सुनियोजित अवहेलना, जो सारी चीजें वैश्वीकरण के सांचे और उसके गतिपथ से अत्यंत अभिन्न रूप से जुड़ी हुई हैं, इन सभी ने कोविड-19 की वैश्विक महामारी के जरिये हो रहे महाविध्वंस में योगदान किया है.

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जहां तक भारत का सवाल है, अब तक जो तहस-नहस मची है उसके पीछे महामारी से कहीं ज्यादा लाॅकडाउन का हाथ रहा है. इसका अर्थ इस तथ्य को घटाकर आंकना कत्तई नहीं है कि हाल के अरसे में इस महामारी का प्रसार सचमुच उल्लेखनीय गति से तेज हुआ है. हमारे देश में जांच की दर अत्यधिक कम होने के बावजूद कोविड-19 से संक्रमित सिद्ध हो चुके मामलों की तादाद अब एक लाख को पार कर चुकी है (इस अंक के प्रकाशित होने तक दो लाख हो रही है), मगर वैश्विक औसत की तुलना में भारत में महामारी की तीव्रता उल्लेखनीय रूप से कम रही है. भारत में इस महामारी से मरने वालों की दर 3 प्रतिशत से थोड़ी ज्यादा है मगर यह वैश्विक औसत दर या अमरीका में दर्ज की गई दर के आधे से भी कम है, और कई यूरोपीय देशों में चल रही 10-20 प्रतिशत की दर से तो बहुत नीचे है. मगर भारत की तैयारी-विहीन स्वास्थ्य-रक्षा प्रणाली को महामारी की यह अपेक्षाकृत कम तीव्रता भी बहुत बुरी तरह से चुनौती दे रही है. इसके साथ यह तथ्य जोड़ दें कि कई मरीज एकमात्र इसी महामारी पर जोर दिये जाने के फलस्वरूप अन्य बीमारियों के इलाज के लिये रोजमर्रे की स्वास्थ्य सेवा से वंचित हो गये, तो हमें भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पर कोविड-19 का असर एक हद तक समझ में आ जाता है.

कोविड-19 की चुनौती का सामना करने के लिये मोदी सरकार के कदम मुख्य तौर पर लाॅकडाउन के इर्द-गिर्द घूमते रहे, जिसको इस लड़ाई को जीतने के निर्णायक हथियार के बतौर पेश किया गया है. जब नरेन्द्र मोदी ने शुरूआत में लाॅकडाउन की घोषणा की थी, जो बाद में लम्बे अरसे तक चलने वाले लाॅकडाउन का केवल पहला चरण साबित हुआ, तो उन्होंने कहा था कि अगर हम इन 21 दिनों के दौरान लाॅकडाउन के नियमों का पालन नहीं कर सके तो देश 21 साल पीछे चला जायेगा. उन्होंने अपने लोकसभा क्षेत्र वाराणसी के लोगों को याद दिलाया कि महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीत लिया गया था और कोविड-19 के खिलाफ जंग हम 21 दिनों में जीत लेंगे. उसके बाद जब लाॅकडाउन की अवधि बढ़ाई गई तो नीति आयोग, जो सरकार का मुख्य आधिकारिक थिंक टैंक (चिंतन मंच) है, उसने अप्रैल के अंतिम दिनों में भविष्यवाणी करते हुए कहा कि मई के मध्य तक कोरोना का ग्राफ निश्चित तौर पर ढलान पर पहुंचेगा और 16 मई के बाद भारत में कोरोना के नये मामले आने बंद हो जायेंगे! लगभग उसी समय भारत में कोरोना के दैनिक रिकार्ड में बड़ा उछाल आया और सर्वाधिक नये मामले दर्ज किये गये और तबसे यह उछाल थम ही नहीं रहा है, और हर दो दिन में दस हजार से ज्यादा (अब तो प्रतिदिन आठ हजार से ज्यादा) नये मामले जुड़ते जा रहे हैं.

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इस प्रकार, भारत में लाॅकडाउन वांछित परिणाम हासिल करने में स्पष्टतः नाकाम रहा है. चीन में लाॅकडाउन सफल रहा, जहां उसको एक सीमित एवं लक्षित रणनीति के बतौर अपनाया गया था और उसके पीछे हाथ था लाॅकडाउन को बिना कोई छेद छोड़े, बिना किसी कोताही के लागू करवाने की चीनी राज्य की सिद्ध हो चुकी क्षमता का. वियतनाम, न्यूजीलैंड तथा अन्य कई देशों में विभिन्न किस्म के लाॅकडाउन के प्रयोग सफल रहे, जहां उसे सही समय पर लागू किया गया और उसके साथ-साथ राज्य ने उपयुक्त मेडिकल एवं लोगों को सामान व सुविधाएं पहुंचाने की उचित रणनीति पर अमल की गारंटी की. ये तमाम राज्य इस बात को स्पष्ट रूप से जानते थे कि लाॅकडउान केवल थोड़ा वक्त हासिल करने का एक रास्ता है, मगर असली बात है उस वक्त का इस्तेमाल करके महामारी को रोकने तथा उसका मुकाबला करने के लिये तेजी से मेडिकल तैयारियां करना और एक सुसम्बद्ध योजना को लागू करना. इस संदर्भ में देखा जाय तो भारत में एक राज्य के बतौर केवल केरल में तथा कुछेक अन्य राज्यों के चंद जिलों में लाॅकडाउन सर्वोत्तम रूप से सफल रहा है, जहां राज्य का मुख्य जोर लाॅकडाउन को लागू करने के बजाय समग्र रणनीति के पूरक अंगों की गारंटी करने पर रहा है.

मोदी सरकार के कदमों का सभी मामलों में अगर उल्टा नतीजा नहीं हुआ हो, तो भी वे आधे-अधूरे ही साबित हुए हैं. फरवरी और मार्च के पहले तीन हफ्तों में महत्वपूर्ण समय को जाया किया गया. सरकार और संघ-भाजपा ब्रिगेड तथा भारत के मुख्यधारा के मीडिया ने अन्य प्राथमिकताएं पाल रखी थीं – अगर भारत के तड़क-भड़क समारोह आयोजित करने वाले सत्ता-प्रतिष्ठान द्वारा इस अवधि में किये गये दो सबसे लक्षणीय कारनामों का जिक्र किया जाये तो वे हैं अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रम्प’ का भव्य आयोजन और मध्य प्रदेश में सत्ता पलट की घटना. उन्होंने इस पूरी अवधि में कोविड-19 का कहीं अगर जिक्र किया भी, तो वह था भारत के लिये इसके खतरे से सरासर इन्कार करने के लिये और उसे घटाकर आंकने के लिये. और जब अंततः सरकार की नींद टूटी, तो उसने एक बार फिर, नवम्बर 2016 में की गई नोटबंदी की तरह अचानक कहर ढाने वाले अंदाज में, बस केवल लाॅकडाउन के विचार को झपट लिया, उसको दुनिया के अब तक के सबसे बड़े लाॅकडाउन का नजारा दिखाने का मौका मान लिया! उन तमाम लोगों के बारे में एक क्षण के लिये भी चिंता नहीं की गई जिनके पास अपना कोई घर नहीं है, और वे रोजगार खत्म होते ही उन जगहों को लौट जाने के लिये बेताब हो उठेंगे जिन्हें वे अपना घर कहते हैं. उन लोगों का जरा भी खयाल नहीं किया गया जिन्हें दो जून की रोटी पाने के लिये रोजाना काम करना पड़ता है और रोजाना मजूरी हासिल करनी होती है.

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इस प्रकार भारत में लाॅकडाउन सुपरिकल्पित अनुशासन का नजारा कत्तई नहीं बन सका, जैसा कि सरकार बनाना चाहती थी, बस बीच-बीच में उद्घाटन स्वरूप ताली-थाली बजाने और दिया-मोमबत्ती जलाने अथवा आसमान से गुलाब की पंखुड़ियों की बरसात करने जैसे दृष्टि-आकर्षण करने वाले आयोजनों के सिवाय. लाॅकडाउन को इन ध्वनियों, दीपों और फूलों के प्रदर्शन के चलते या फिर रात 8 बजे मोदी के भाषणों और 20 लाख करोड़ रुपयों के पैकेज तथा आत्मनिर्भर भारत अभियान की धोखाधड़ी से भरपूर लफ्फाजी के लिये नहीं याद किया जायेगा. लाॅकडाउन को वायु और ध्वनि प्रदूषण में अचानक आई कमी के कारण, प्रकृति की खो चुकी ध्वनियों और नजारों तथा उसकी वनस्पतियों एवं जीवों की समृद्धि, जो हमारे लगातार बढ़ते शहरीकृत, उपभोगवादी अस्तित्व के चलते गायब होने लगी थी, उसकी स्वप्निल वापसी के लिये नहीं याद किया जाएगा. भारत में लाॅकडाउन को याद किया जाएगा तो भारत के दबे हुए सामाजिक यथार्थ, जिसे ट्रम्प के आगमन के दौरान मोदी ने दीवार खड़ी करके ढकने की कोशिश की थी, की वापसी के लिये – वह तकलीफदेह यथार्थ, जो वैश्वीकरण की भड़कीली चमक में अदृश्य बना रहता है, विकास के ढोल-नगाड़ों के तीखे शोर में डूबा रहता है. लाॅकडाउन को भारत के प्रवासी मजदूरों के चलते याद किया जाएगा.

अगर भारत की विख्यात “व्यवहारिक अराजकता” लगातार जारी रहती है तो उसका कारण हमारी युगों पुरानी सभ्यता नहीं है. वह राज्य और उसके सामंती-औपनिवेशिक सत्ता के ढांचे, उसके निरंकुश अत्याचारी कानूनों, उसके बात-बात पर गोली चलाने वाले सशस्त्र बलों और अपनी पीठ ठोकने वाली नौकरशाही के कारण नहीं है. हमारी जाति प्रथा और रीति-रिवाजों, प्राचीन धर्मविश्वासों और आधुनिक उमंगों के कारण नहीं है. यह भारत की असली जनता है, भारत की लाखों-करोड़ों मेहनतकश जनता है, उनकी मौत को शिकस्त देने वाली भावना और अदम्य साहस है, जो भारत को गतिशील रखती है. चाहे मुख्यधारा का मीडिया उनको हाशिये पर रख दे और उन्हें अदृश्य ही बनाये रखने की कोशिश करता रहे, चाहे न्यायपालिका उनकी गिनती ऐसे मनुष्यों में करने से इन्कार कर देती हो, जिनकी अपनी जरूरतें और अपने अधिकार होते हैं, मगर फिर भी वे भारत के मानस-पटल पर एक बार फिर पलटकर छा गये है. वे आधुनिक भारत के असली योद्धा और निर्माता बनकर उभरे हैं.

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लाॅकडाउन ने हमें लोकतंत्र और न्याय के लिये भारतीय जनता की आकांक्षा की गहराई को भी दिखा दिया है. बहुतेरे अपेक्षाकृत सुविधाप्राप्त लोगों ने, जो अपने घरों के अंदर आराम से रह सकते हैं, अपने अस्तित्व को सरकार के “घर में रहो” आदेश अथवा राजधानी की नई “घर से काम करो” संहिता, अथवा “घरों में मनोरंजन” के मंत्र तक सीमित रखने से इन्कार कर दिया है. इसके बजाय उन्होंने प्रतिरोध के नये सृजनात्मक रूप विकसित किये हैं, अपनी नई खोज “घर से प्रतिवाद” के साजो-सामान और “घर से लड़ाई करो” की भावना के साथ.

यह कहना कि कोविड-19 के बाद दुनिया अपनी पुरानी स्वाभाविक स्थिति में नहीं लौट सकेगी, अपर्याप्त ही नहीं बल्कि अर्थहीन भी है. भारत में हम उस “नई स्वाभाविक स्थिति” की रूपरेखा को स्पष्ट देख सकते हैं, जिसे हमारे शासक लोगों के लिये परिभाषित कर रहे हैं. सरकार द्वारा लोकतंत्र को जितना व्यापक तौर पर एवं जितने स्थायी रूप से सम्भव है, निलम्बित करने और उसमें काट-छांट करने की कोशिश की जा रही है. श्रम कानूनों को खत्म किया जा रहा है, भूमि के अधिकारों का मनमाना उल्लंघन करने की कोशिश हो रही है; मैन्युफैक्चरिंग एवं सेवा क्षेत्रों के बाद कृषि को ज्यादा से ज्यादा कारपोरेटों के नियंत्रण में लाने की कोशिश की जा रही है. लोगों की निगरानी करने के नये-नये औजार लागू किये जा रहे हैं और हर तरीके से असहमति का गला घोंटने के लिये लाॅकडाउन का लाइसेन्स के बतौर इस्तेमाल किया जा रहा है.

यह “नई स्वाभाविक स्थिति” भारत के लिये बिल्कुल औपनिवेशिक जमाने की स्वाभाविक स्थिति के समान है, और इसके साथ संघ-भाजपा के साम्प्रदायिक फासीवादी एजेंडा का जहरीलापन तथा वैश्विक पूंजी की कारपोरेट ताकत तथा भारत के अपने राज्य द्वारा संपोषित पिठ्ठू पूंजीपति जैसे कारक भी जुड़े हुए हैं. जब हम इस वैश्विक महामारी के साये से और लाॅकडउान के भूलभुलैये से बाहर निकलेंगे तो हमारे सामने खड़ी चुनौती स्पष्ट है: पुराने जमाने की इस प्रतिगामी वापसी को रोकना और और नये जमाने के उदय के लिये लड़ना, और लाॅकडाउन के शिकार लोगों को एक नई सामाजिक शक्ति में बदल देना. प्रवासी मजदूरों की चरम अपमानजनक घर वापसी, विपरीत प्रवासन, और वर्तमान व्यवस्था में सहजात रूप से निहित निर्दयता झेलने के उनके अपने कड़वे अनुभव, इस सब को ग्रामीण एवं शहरी गरीबों के बीच एक नई एकता में बदलना होगा और मेहनतकश जनता की एक नए स्तर की वर्ग-चेतना एवं जुझारू दावेदारी के उत्थान की ओर ले जाना होगा.