वर्ष - 29
अंक - 11
07-03-2020

भीड़ में पलथी मारे बैठी राफिया संकोच कर रही थी. और जब उसने बोलना भी शुरू किया तो जल्द ही दूसरी औरतों ने उसकी आवाज को दबाते हुए बोलना शुरू कर दिया.

मगर तब उसके कंधे पर किसी ने थपकी दी कि वह मंच पर जा सकती है. अचानक एक परिवर्तन नजर आया. राफिया ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के बारे में एक आत्मविश्वास भरा भाषण दिया और भारत के लोगों से अपील की कि वे इस कवायद का बहिष्कार करें. चमकती आंखों से सुदृढ़ आवाज में उन्होंने कहा, “जब एनपीआर भरने वाले लोग आयें तो उनको अच्छी तरह खिलाइये पिलाइये, गरम चाय दीजिये, और तब उनसे कहिये कि वे वापस चले जायें.”

कानपुर के चमनगंज इलाके में राफिया एकमात्र ऐसी महिला नहीं है जिसकी जिंदगी नरेन्द्र मोदी सरकार के नागरिकता सम्बंधी नये कदमों के चलते रूपांतरित हो गई है. पिछले छह सप्ताह से शहर की महिलाओं ने मोहम्मद अली पार्क पर कब्जा जमा रखा है और वे मांग कर रही हैं कि सरकार नागरिकता संशोधन कानून को वापस ले ले, जिस कानून में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये अवैध आप्रवासियों को तीव्र गति से नागरिकता दे दी जायेगी, मगर शर्त यह है कि वे मुसलमान न हों.

राफिया जैसे सीएए के आलोचकों को डर है कि यह कानून सुनियोजित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के साथ मिलाकर इस्तेमाल किये जाने से मुसलमानों की नागरिकता का हरण करने, या फिर उन्हें राज्यविहीन बना देने में काम आयेगा. जिस राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का उन्होंने अपने भाषण में उल्लेख किया, उनके मुताबिक वह राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की तैयारी में पहला कदम होगा.

फिर भी जहां एनआरसी उनका अंतिम निशाना है, इन कनपुरिया महिलाओं के अभूतपूर्व कदम का परिणाम इसके साथ ही कई और चीजों के परिवर्तन में भी नजर आ रहा है. सबसे उल्लेखनीय बात है कि महिलाओं ने स्थानीय प्रशासन द्वारा प्रतिवाद को खत्म किये जाने के लिये बारम्बार किये गये कई प्रयासों का – यहां तक कि ऐसा करने के लिये किये गये बलप्रयोग का भी – प्रतिरोध किया है.

लेकिन यह केवल राजनीति नहीं है: यह अनूठा प्रतिवाद कई सामाजिक परिवर्तनों को भी अंजाम दे रहा है. महिलाएं स्वतःस्फूर्त रूप से, किन्हीं स्थानीय नेताओं और धर्मगुरुओं के परम्परागत नेटवर्क के बिना ही, संगठित हो रही हैं. अन्य स्थानीय निवासियों के साथ सम्पर्क व बातचीत करने के लिये और देश के अन्य भागों में प्रतिवादकारियों के अनुभवों से सीखने के लिये भी, दोनों कामों के लिये सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा है.

इस सम्पूर्णतः नई राजनीति का ही नतीजा है कि कानपुर का स्थानीय मुस्लिम नेतृत्व टूटकर बिखर गया है. कोई भी नेता, चाहे वह जितना भी जाना-माना हो, उत्तर प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी सरकार और उसकी प्रशासनिक मशीनरी के साथ उसकी किसी किस्म की समझौता वार्ता ही उसकी साख खत्म करने के लिये काफी है. आंदोलनकारियों का मकसद – नागरिकता और संविधान की रक्षा करना – इतना महत्वपूर्ण है कि इसे हासिल करने के लिये चमनगंज की औरतों की राह में चाहे जो भी बाधा बनकर खड़ा हो, उसे बहा दिया जा रहा है.

धरना कैसे शुरू हुआ

कानपुर के मोहम्मद अली पार्क में प्रतिवाद धरना की शुरूआत जनवरी की शुरूआत में, दिल्ली के शाहीन बाग की महिलाओं द्वारा किये गये धरने से प्रेरणा प्राप्त करके हुई. हालांकि यह धरना बहुत छोटे रूप में शुरू हुआ था, जिसमें शाम को छोटे से पार्क में लोग इकट्ठा हो जाते थे.

मगर एक महीने के अंदर ही प्रतिवाद दिन-दूना-रात-चौगुना बढ़ता चला गया और अब सातों दिन चौबीसों घंटे लोग इकट्ठा रहने लगे. महिलाएं भाषण देती थीं, बम्बइया फिल्मों के देशभक्तिपूर्ण गाने गाती थीं और यकीनन, मोदी सरकार द्वारा धर्म के आधार पर भारतीय नागरिकता दिये जाने के फैसले की आलोचना करती थीं. प्रतिवाद क्षेत्र के मुख्य भाग पर महिलाओं का कब्जा है, उनमें से कई ने नकाब पहन रखी है, और वे गांधी, अम्बेडकर, आजाद तथा विशाल भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के नीचे बैठी हैं. हिंदी में एक बैनर है जिस पर लिखा है कि यह प्रतिवाद फ्कानपुर की महिलाओं द्वारा सीएए-एनआरसी-एनपीआर के विरोध में अनिश्चितकालीन सत्याग्रह” है.

इसमें पुरुष भी उपस्थित हैं – मगर उनकी भूमिका स्पष्टतः मंच के बाहर की है. युवक, जिनके बारे में अक्सर सोचा जाता है कि वे महिलाओं की रक्षा करने के लिये हैं, यहां छोटे-मोटे काम कर रहे हैं जैसे दिन में इस स्थान की साफ-सफाई करना अथवा माइक लाउड-स्पीकर इत्यादि को दुरुस्त रखना. पार्क के पिछवाड़े में इससे कुछ बड़ी संख्या में पुरुष टहलते रहते हैं, जो प्रतिवाद के दौरान चल रही जोरदार कार्यवाही का नजारा देखते रहते हैं. वे इस बात को जानते हैं कि यह उनका प्रदर्शन नहीं है, जबकि दर्शकों के बतौर उनका स्वागत है.

राजनीतिक चेतना

24-वर्षीया कमर ने विस्तार से बताया कि वे चमनगंज में क्यों एकत्रित हुई हैं. उन्होंने बताया, “हमें परदे के अंदर रहने को कहा गया है. मगर हम बाहर निकली हैं तो केवल भारत के संविधान को बचाने के लिये इस पार्क में आयोजित इस धरना पर बैठने के लिये. हम पीटकर हत्या किये जाने के खिलाफ प्रतिवाद के लिये बाहर नहीं निकलीं. जब बाबरी मस्जिद हमसे छीन ली गई [जब नवम्बर 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में 1992 में हिंदुत्व के समर्थकों द्वारा ढहाई गई बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाने की इजाजत दे दी थी] तब भी हम बाहर नहीं निकलीं. मगर अब तो मनुवादी भाजपा सोचती है कि वह संविधान को भी परे फेंक सकती है. इसको तो हम होने नहीं दे सकते.”

यह राजनीतिक चेतना एनआरसी के बाहर तक भी विस्तृत है. 44-वर्षीया नाज ने उत्तेजित स्वर में कहा, “उत्तर प्रदेश में अब अपराध बहुत ज्यादा बढ़ गये हैं. हर दिन हमें बलात्कार और हत्या की एक नई घटना की खबर मिलती है. इन सारी चीजों पर काबू पाना उन्होंने क्यों छोड़ रखा है और बस एनआरसी पर अपनी सारी ताकत लगा दी है? यह तो केवल लोगों का ध्यान असली मुद्दों से भटका देने के लिये ही है.”

कानपुर में किये जा रहे इस प्रतिवाद का एक अंग भाजपा द्वारा दिल्ली चुनाव के खातिर शाहीन बाग की लानत-मलामत किये जाने के प्रयासों के खिलाफ भी है. कमर कहती हैं, “प्रधान मंत्री एवं सरकार में रहने वाले अन्य लोगों को हमारा आदर्श होना चाहिये. हम उनका सम्मान करते हैं. मगर फिर यही लोग हैं जो लोगों को गोली मार देने को कहते हैं. तब हम क्या करें?” वह उस नारे का भी हवाला देती हैं “देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को”, जो नारा दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी की कई प्रचार सभाओं में सुनाई दिया था.

जहां कानपुर का प्रतिवाद शाहीन बाग से प्रेरित है, वहीं महिलाओं के नेतृत्व में चल रहे इस अनोखे प्रतिवादों की जड़ें और भी गहरी हैं. 37-वर्षीया सोफिया कहती हैं कि मोदी ने जीएसटी या वस्तु एवं सेवा कर के जरिये इस इलाके के हर व्यवसायी को मार डाला है. और नोटबंदी के जरिये उन्होंने हर औरत के पास संचित रकम को छीन लिया है. और अब वे चाहते हैं कि एनआरसी का इस्तेमाल करके हमें देश से बाहर निकाल फेंकें. हम औरतें कितने दिनों तक चुप बैठी रह सकती हैं?”

पुलिस की धौंस-धमकी सहने से इन्कार

इन महिलाओं का लड़ाकूपन केवल भाषणों और मीडिया में साक्षात्कार तक सीमित नहीं है बल्कि तब और भी स्पष्ट रूप से सामने आता है जब वे पुलिस का मुकाबला करती हैं. आदित्यनाथ सरकार ने साफ कह दिया है कि उत्तर प्रदेश में प्रतिवाद करने का लोकतांत्रिक अधिकार अभी निलम्बित कर दिया गया है. उसने समूचे दिसम्बर और जनवरी के दौरान हुए शांतिपूर्ण आंदोलनों में प्रतिवादकारियों के खिलाफ बर्बर पुलिस बल का इस्तेमाल किया है.

मगर चमनगंज की महिलाएं कानपुर प्रशासन के मुकाबले में भिड़ गईं और उन्होंने जीत भी हासिल की है.

इस साल जनवरी के महीने में कानपुर प्रशासन द्वारा इस प्रतिवाद को बंद कराये जाने के कई प्रयास किये गये. इनमें मुख्यतः कानपुर के स्थानीय समुदाय के नेताओं के साथ वार्ता करना शामिल था. कम से कम दो बार जिला प्रशासन और पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी पार्क में भी पहुंचे और उन्होंने स्मारपत्र ग्रहण किये – जो कि प्रतिवादों को खत्म करने की सधी-सधाई तरकीब है.

मगर फिर भी इस तरकीब ने यहां काम नहीं किया. महिलाओं ने पार्क पर कब्जा बरकरार रखा.

कठोर कार्यवाही

7 फरवरी को प्रशासन ने तुरुप का पत्ता खेला और दो शहर काजियों को – जो कानपुर शहर के दो शीर्षस्थ इस्लामी धर्मगुरु हैं – मोहम्मद अली पार्क में बुलाया और उनसे अपील करवाई कि प्रतिवाद को खत्म कर दिया जाये. देवबंदी शहर काजी अब्दुल कुद्दुस हादी, जो उस प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य थे, ने परेशानी भरे स्वर में बताया कि “हमने इसलिये अपील की क्योंकि प्रशासन द्वारा प्रतिवाद को खत्म करने के लिये हम पर भारी दबाव डाला गया था.”

मगर यह तरकीब भी काम न आई. काजियों की यह कहकर आलोचना हुई कि वे प्रशासन के हाथों बिक गये हैं, और उनको उपेक्षित कर दिया गया. महिलाओं का धरना जारी रहा. अंत में कानपुर प्रशासन बलप्रयोग पर उतर आया. उसने 9 फरवरी की आधी रात के बाद भोर होने से पहले ही पुलिस के जरिये पार्क को घेर लिया. स्क्राॅल.इन को एक महिला ने, जो वहां पर मौजूद थी, बताया कि पुलिस ने लगभग 2.30 बजे रात में इस पार्क को छावनी में तब्दील कर दिया. उन्होंने हमारा मजाक उड़ाते हुए कहा, “धरना देगी? जिसको धरना देना है, पुलिस जीप में जाकर बैठो”.

इसके बाद लाठीचार्ज हुआ और पार्क को खाली करवा लिया गया. यह सरकार की जीत है, मगर अनिष्टकारी जीत है. (स्क्राॅल.इन में शोएब दानियाल के लेख के संक्षिप्त अंश)