फासीवादी राजनीति “अन्य” को यौनिक खतरे के स्रोत के बतौर कैसे पेश करती है, इसका विस्तार से वर्णन करते हुए स्टैनली इस बात को विशेष रूप से चिन्हित करते हैं कि नाजियों के यहूरी-विरोध, अमरीका में गोरी चमड़ी वालों की श्रेष्ठता और म्यांमार एवं भारत में इस्लाम विरोध के बीच सम्पर्क-सूत्र क्या हैं. स्टैनली लक्ष्य करते हैं कि फ्पफासीवादी प्रचार” किस प्रकार “अन्य से होने वाले खतरे” का यौनिकीकरण करता है. इसके लिये वे “नस्ल के मिश्रण” के खिलाफ नाजी नीतियों के उदाहरण को पेश करते हैं, और साथ ही अमरीका में “अमरीकी श्वेतांग नारियों की शुद्धता की रक्षा करने” के बहाने काले लोगों की पीट-पीटकर हत्या की मिसाल देते हैं. वे लक्ष्य करते हैं कि म्यांमार में “रोहिंग्या लोगो के खिलाफ जनसंहार” किस प्रकार बौद्ध फासीवादी समूहों द्वारा “बौद्ध महिलाओं को शिकार बनाने की मुसलमानों की साजिशों” के बारे में “उन्मादी संकल्पनाओं के द्वारा भड़काया जाता है”.
स्टैनली भारत के बारे में भी विस्तार से चर्चा करते हैं:
“भारत में हिंदू राष्ट्रवादी नियमित रूप से ऐसे प्रचार अभियानों के जरिये मुस्लिम-विरोधी भावनाएं भड़काते रहते हैं जिनमें हिंदू पौरुष के सामने मुस्लिम पुरुषों द्वारा पेश एक कल्पित खतरे की ओर ध्यान खींचा जाता है. बिल्कुल हाल के जमाने में इस प्रचार अभियान ने एक कल्पित “लव जिहाद” के बारे में आतंक का रूप ले लिया है. संघ परिवार के प्रचार में जिस तरीके से “कानून व्यवस्था” और फ्लव जिहाद” के जुमलों को मिलाया जाता है, उसकी चरम अभिव्यक्ति भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह द्वारा 2014 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दिये गये भाषणों में प्रकट होती है, जहां उन्होंने मुस्लिम विरोधी हिंसा को यह कहकर न्यायोचित ठहराया है कि “जब कोई समुदाय हमारी बेटियों-बहनों की इज्जत लूटता है और प्रशासन कुछ नहीं करता, तो लोगों कोे दंगा करने पर मजबूर होना पड़ता है.” ;पश्चिमी यूपी के शामली में जाट सभा को सम्बोधित करते हुए अमित शाह का नफरत भरा भाषण, न्यूजक्लिक द्वारा 7 अप्रैल 2014 को यूट्यूब में पोस्ट)य
भारत आजकल मोदी द्वारा पैदा की गई आर्थिक आपदा और बेरोजगारी के संकट से गुजर रहा है. जबकि यह मोदी शासन के खिलाफ आक्रोश में तब्दील हो सकता है और ऐसा हो भी रहा है, पर आरएसएस और भाजपा इस आक्रोश को “हमारी बेटियों-बहनों की इज्जत लूटने वाले एक समुदाय” के खिलाफ, या फिर नारीवादियों और छात्राओं के खिलाफ, जिन्हें वह फ्री सेक्स” (स्वच्छन्द यौन सम्बंध) को बढ़ावा देने वालों के बतौर चित्रित करते हैं, के खिलाफ मोड़ देने के लिये पितृसत्तात्मक भावनाओं का इस्तेमाल करने की जीतोड़ कोशिश करते हैं. महिलाओं की आजादी और अंतर्धार्मिक प्रेम दोनों को संघ परिवार द्वारा जातिगत एवं पितृसत्तात्मक ऊंच-नीच अनुक्रम के लिये खतरा बताकर शैतानी कृत्य ठहराया जाता है.
ऐसा क्यों और कैसे होता है, इसको समझने में स्टैनली का विश्लेषण हमारे लिये मददगार है. वे लिखते हैं:
“पितृसत्तात्मक पौरुष भाव पुरुषों के अंदर यह उम्मीद पैदा कर देता है कि समाज उनको अपने परिवार की सुरक्षा एवं सुविधाएं प्रदान करने वाले एकमात्र कर्णधार की भूमिका सौंप देगा ... फासीवादी राजनीति आर्थिक बेचैनी से तीव्र हुई पुरुषों की बैचैनी को इस भय में बदल देता है कि उसके परिवार को उन लोगों से अस्तित्व का खतरा है जो उसके ढांचे और परम्पराओं को खारिज करते हैं. यहां फिर एक बार, फासीवादी राजनीति द्वारा इस्तेमाल किया गया हथियार है यौन हमले का कल्पित, संभावित खतरा.”
मोहन भागवत ने बलात्कार के लिये शहरों पर दोष क्यों मढ़ा? संभवतः इसलिये कि आरएसएस कोशिश करता है कि ऊंच-नीच अनुक्रम पर आधारित ग्रामीण समुदायों को नव उदरवादी नीतियों के चलते जो हाशियाकरण और संकट झेलना पड़ रहा है, उसके खिलाफ उपजे उनके स्वाभाविक क्षोभ को उदारवाजी शहरी परिसरों, बौद्धिकों और युवाओं, जिन्हें “अभिजात” और नैतिक रूप से भ्रष्ट बताया जाता है, की ओर मोड़ने की अपील की जाये.
स्टैनली इसकी व्याख्या करते हैं: “वैश्वीकृत अर्थतंत्रा ग्रामीण इलाकों को जो नुकसान पहुंचाता है, फासीवादी राजनीति उसको रेखांकित करती है तथा उसके साथ आत्म-निर्भरता के परम्परागत ग्रामीण मूल्यों पर केन्द्रित विषय को जोड़ देती है, जिनको उदारवादी नगरों की सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से विजय से कल्पित खतरा है.”
“फासीवादी राजनीति बहुलतावाद और सहनशीलता को खारिज करती है... इसीलिये विशाल शहरी केन्द्रों में पाई जाने वाली विविधता, जिसके साथ मतभेद या असहमति सहजात रूप से जुड़े रहते हैं, फासीवादी विचारधारा के लिये एक खतरा है.”
विडम्बना यह है कि जहां फासीवादी राजनीतिज्ञ जेएनयू एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों को, और सुधा भारद्वाज जैसे ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं को “खान मार्केट के अभिजात” के बतौर चित्रित करते हैं, वहीं वे अपने खासुलखास, आश्चर्यजनक रूप से भ्रष्ट, अति धनाढ्य कारपोरेट पिठ्ठुओं (अम्बानियों और अडानियों) को “अभिजात” के बजाय “सम्पत्ति सृजनकर्ता” बताते हैं!
याद है कि कैसे भाजपा सांसद तेजस्वी सूर्य ने मुसलमानों को “पंक्चर मम्मत वाला” बताकर उनका मखौल उड़ाया था, और अमित शाह उनको “दीमक” (यानी परजीवी) बताते हैं? स्टैनली का लेख इसकी व्याख्या करने में सहायक हो सकता है कि ये लोग इस किस्म के जुमलों का इस्तेमाल क्यों करते हैं:
“फासीवादी विचारधारा में, संकट और जरूरत के मौकों पर, राज्य के संरक्षित संसाधन सर्वोत्तम चुनिंदा राष्ट्र के सदस्यों का सहारा बनते हैं, “हमारे” लिये, “उनके” लिये नहीं. इसको अनिवार्यतः इस आधार पर जायज ठहराया जाता है कि “वे” आलसी हैं, उनमें काम करने की नैतिकता नहीं होती, और उनको राज्य द्वारा पैसा दिये जाने के भरोसे काबिल नहीं समझा जा सकता और क्योंकि “वे” अपराधी प्रवृत्ति के होते हैं और केवल राज्य की दरियादिली पर जिंदा रहना चाहते हैं. फासीवादी राजनीति के अनुसार, कठोर काम के जरिये “उनको” आलसीपन और चोरी के रोग से छुटकारा दिलाया जा सकता है. यही कारण है कि औश्विट्ज और बुचेनवाल्ड कंसन्ट्रेशन कैम्पों के गेट पर बड़े बड़े अक्षरों नारा लिखा था ‘अरबीइट माच्ट फ्रेइ’, जिसका अर्थ है कि काम ही तुमको आजाद करेगा. फासीवादी विचारधारा में कठोर काम के आदर्श को अल्पसंख्यक आबादियों के खिलाफ हथियार के बतौर किया जाता है.” स्टैनली स्वतंत्रतावादी और फासीवादी विचारधाराओं के बीच सम्बंध के बारे में एक महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि पेश करते हैं:
“व्यक्तिगत स्वतंत्रता की फासीवादी दृष्टि व्यक्तिगत अधिकारों – प्रतियोगिता करने का अधिकार मगर जरूरी नहीं कि वह सफलता अथवा अस्तित्व रक्षा का अधिकार हो – की स्वतंत्रतावादी अवधरणा से मिलती जुलती है... यद्यपि फासीवाद में मूल्यों के सामूहिक ऊंच-नीच अनुक्रम के साथ प्रतिबद्धता रहती है, जो सच्चे आर्थिक स्वतंत्रतावाद के साथ बिल्कुल संगतिपूर्ण नहीं है, जो व्यक्तिगत से परे सामान्यीकरण नहीं करता, पर दोनों दर्शनों में एक साझा उसूल होता है जिसके जरिये मूल्य को मापा जाता है.”
याद है कि कैसे भाजपा मजदूर-मालिक सम्बंध को “औद्योगिक परिवार” की शक्ल में ढालने की कोशिश करती है? पता चलता है कि यह भी एक परम्परागत फासीवादी औजार है, जिसकी कारपोरेट विचारधारा के साथ भी काफी हद साझेदारी दिखती है. स्टैनली लिखते हैं:
“हिटलर ने सही कहा था कि किसी लोकतांत्रिक समाज में परिवारों, कार्यस्थलों, सरकारी निकायों और नागरिक समाज के विविधतापूर्ण रीति-रिवाजों और ढांचों के बीच तनाव मौजूद होते हैं. फासीवाद इन विभिन्नताओं को खत्म करने के जरिये इन तनावों का समाधान करने का वादा करता है. इसके बजाय, फासीवादी विचारधारा में तमाम संस्थाएं, परिवार से लेकर व्यवसाय और राज्य तक, को फ्युहरर (अधिनायक) सिद्धांत के अनुसार चलाया जायेगा. फासीवादी विचारधारा में पिता परिवार का नेता होता है; व्यवसाय में सीईओ (मुख्य कार्यकारी अधिकारी) नेता होता है; अधिनायकवादी नेता राज्य का पिता या सीईओ होता है. जब किसी लोकतांत्रिक समाज में जनता किसी सीईओ को राष्ट्रपति बनाने की आकांक्षा करने लगते हैं, तो वे खुद अपने अंदर छिपे फासीवादी आवेगों से प्रभावित हो रहे होते हैं.”
क्या यह दावा करना बहुत बढ़ा-चढ़ा कथन नहीं है कि भारत फासीवाद के गड्ढे में गिर रहा है? यह एक ऐसा सवाल है जिसे अक्सर पूछा जाता है, खासकर उन उदारवादी टिप्पणीकारों द्वारा, जो अब भी दावा करना चाहते हैं कि हालात उतने नहीं बिगड़े हैं. उपसंहार में स्टैनली इस मुद्देे पर चर्चा करते हैं:
“सामान्यीकरण यही करता है कि नैतिक रूप से असामान्य चीज को भी सामान्य में बदल देता है. यह हमें उस चीज के प्रति सहनशील बना देता है जो पहले असहनीय थी, उसे ऐसा प्रतीत करा देता है मानो चीजें हमेशा से ही इसी प्रकार रही थीं. इसके विपरीत, “फासीवादी” शब्द एक चरम सीमा की अनुभूति बन गया है, जैसे चीखता भेड़िया.... सामान्यीकरण का अर्थ ठीक यही है कि विचारधारात्मक रूप से चरम स्थितियों द्वारा लगातार जगह कब्जा करते जाने को उस रूप में पहचाना नहीं जाता क्योंकि वे अब सामान्य लगने लगी हैं. फासीवाद का हमला हमेशा चरम प्रतीत होगा; जबकि सामान्यीकरण का अर्थ होता है कि “चरम” शब्दावली के उपयुक्त इस्तेमाल के लिये लक्ष्यों को लगातार बदलते रहा जाये.”
यह किताब, जो फासीवादी कार्यनीति की रूपरेखा प्रस्तुत करती है और स्वीकार करती है कि फासीवादी राजनीति कितनी शक्तिशाली और यकीन दिलाने वाली होती है, अपना अंत लेकिन एक आशाजनक वक्तव्य के जरिये करती है. जब हम अपने चारों ओर एनपीआर-एनआरसी-सीएए के खिलाफ उमड़ पड़े आंदोलनों को देखते हैं तो हम सावधानी के साथ यह कह सकते हैं कि भारत में भी हमें बहुत हद तक इसी आशा का पोषण करना होगा.
स्टैनली लिखते हैं: “जब भय और असुरक्षा हमें सम्मान बोध की निरर्थक तलाश में मिथकीय श्रेष्ठताबोध की आरामदेह गोद में पलायन की ओर ले जायेगी, तब हम साझी मानवता के बोध को कैसे बरकरार रख सकते हैं?... हम प्रगतिशील सामाजिक आंदोलनों के इतिहासों की शरण ले सकते हैं, जो अतीत में लम्बे अरसे की प्रतिकूलताओं और कठिन संघर्षों का सामना करते हुए सह-अनुभति प्राप्त करने की परियोजना में सफल रहे हैं.”
“फासीवादी राजनीति के प्रत्यक्ष निशानों – शरणार्थी, नारीवाद, मजदूर यूनियनें, नस्लीय, धार्मिक एवं लैंगिक अल्पसंख्यकों – में हम देख सकते हैं कि वे हमें विभाजित करने के लिये क्या तरीके अपनाते हैं. मगर हमें इस बात को कभी नहीं भूलना होगा कि फासीवादी राजनीति का मुख्य निशाना उसका अपना आकांक्षित श्रोतावर्ग होता है, जिन लोगों को वह अपनी मायावी मुठ्ठी में फंसाने की कोशिश करता है, उन्हें एक ऐसे राज्य में भर्ती करना चाहता है जहां हर व्यक्ति जिसे मानवीय दर्जे के “काबिल” समझा जाता है उसे ज्यादा से ज्यादा सामूहिक सम्मोहन का शिकार बनाया जाता है.”
संभवतः यही वह अंतर्दृष्टि है जो आज के जमाने में सबसे ज्यादा कानों में गूंज रही है. जहां मुसलमान यकीनी तौर पर एनपीआर-एनआरसी-सीएए के सबसे कमजोर निशाने हैं, पर हमें यह कत्तई नहीं भूलना होगा कि गैर-मुस्लिम लोग, जो इस्लाम-विरोधी नफरत भरे प्रचार के लिये संघ परिवार के सबसे आकांक्षित श्रोतावर्ग हैं, वे भी निशाने पर हैं और उसके शिकार हैं जिन्हें मोदी सरकार सम्मोहित करने की कोशिश कर रही है. एनपीआर-एनआरसी-सीएए भारतवासियों की विशाल बहुसंख्या को (जिनमें गैर-मुस्लिम गरीब शामिल हैं) को सर्वशक्तिमान राज्य सरकार की दया पर छोड़ देगा, जो उनको “संदिग्ध नागरिक” के बतौर चिन्हित करने तथा उनसे नागरिकता एवं मानवीय अस्तित्व को छीन लेने की सर्वदा मौजूद धमकी के जरिये अपने अंकुश में रख सकेगी. इसलिये स्टैनली उन बहुसंख्यकों की भी, जो ट्रम्प और मोदी जैसों के वफादार भक्त बन चुके हैं, निन्दा करने के खिलाफ चेतावनी देते हैं:
“जिन्हें उस श्रोतावर्ग और दर्जे में शामिल नहीं किया गया है वे दुनिया के शिविरों में इंतजार करते हैं, कठपुतले और कठपुतलियां बलात्कारियों, हत्यारों, आतंकवादियों की भूमिका में ढाले जाने को तैयार रहते हैं. फासीवादी मिथकों से सम्मोहित हो से इन्कार करके हम एक दूसरे से वार्तालाप के लिये आजाद रहते हैं, हम सभी गलतियां करते हैं, हम सभी अपने वैचारिक अनुभव और समझदारी में आंशिक होते हैं, मगर हममें से कोई शैतान नहीं होता.”