वर्ष - 29
अंक - 7
07-02-2020

हम जानते हैं कि किसी सर्वसत्तावादी राज्य से फासीवाद इस बात में भिन्न होता है कि फासीवाद एक आंदोलन है, जिसे जनता के एक उल्लेखनीय हिस्से का समर्थन प्राप्त होता है और इसमें उनकी भागीदारी भी रहती है. ‘हाउ फासिज्म वक्र्स: द पाॅलिटिक्स ऑफ अस एंड देम’ (फासीवाद कैसे काम करता है: ‘हम’ और ‘वे’ की राजनीति), जो प्रोफेसर जैसन स्टेनली द्वारा 2018 में लिखी एक किताब है, फासीवादियों द्वारा यह जन-समर्थन हासिल करने के लिये जो दस प्रमुख तरीके अपनाये जाते हैं, उनको सुदक्ष रूप से चिन्हित करती है. यह किताब जो इतिहास एवं वर्तमान विश्व राजनीति से चुनकर पेश किये गये उदाहरणों से समृद्ध है, हमें भारत की वर्तमान यथार्थ स्थिति का विश्लेषण करने में भी मदद करती है. इस किताब को पढ़ने से हम आसानी से समझ सकते हैं कि मोदी शासन ने कैसे फासीवाद की मूल पुस्तक से पन्ने-दर-पन्ने नकल की है. इस पुस्तक में चिन्हित की गई फासीवादी राजनीति की दस चारित्रिक विशेषताओं को लिबरेशन के इस लेख में सार रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसके साथ ही इस बात पर संक्षिप्त नोट्स भी हैं कि कैसे मोदी शासन और आरएसएस एवं भाजपा की राजनीति इन दसों विशेषताओं को पूर्णरूपेण दर्शाती है.

1. मिथकीय अतीत

इस अध्याय में प्रोफेसर स्टेनली चर्चा करते हैं कि भाजपा ने एक मिथकीय अतीत की रचना करने में खुद कैसे इस कार्यनीति का इस्तेमाल किया है. वे नेपल्स (इटली) में 1922 में आयोजित फासीवादी महाधिवेशन में बेनिटो मुसोलिनी द्वारा दिये गये भाषण से उद्धरण देते हैं जिसमें मुसोलिनी ने घोषणा की थी:

हमने खुद अपने मिथक का सृजन किया है. मिथक एक आस्था होता है, एक जुनून होता है. इसके लिये जरूरी नहीं कि वह यथार्थ या सच्चाई हो ... हमारा मिथक हमारा राष्ट्र है, हमारा मिथक अपने राष्ट्र की महानता है! और इस मिथक को, इस महानता को, जिसे हम सम्पूर्ण यथार्थ में रूपांतरित करना चाहते हैं, हम सब कुछ को उसके अधीन कर देते हैं.

स्टैनली ने इस पर टिप्पणी की है कि “यहां मुसोलिनी ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि फासीवादी मिथकीय अतीत जान-बूझकर गढ़ा गया मिथक है. फासीवादी राजनीति में मिथकीय अतीत का काम है अतीत व्यामोह के आवेग का इस्तेमाल फासीवादी विचारधारा के केन्द्रीय सिद्धांतों – प्राधिकारवाद, ऊंच-नीच की सीढ़ी पर आधारित व्यवस्था, शुद्धता और संघर्ष – को पुष्ट करने के लिये करना”. स्टैनली इसमें जोड़ देते हैं, “फासीवादी मिथकीय अतीत का अस्तित्व वर्तमान को बदलने में मदद करने के लिये रहता है.”

स्टैनली ने फासीवादी मिथक में पितृसत्तात्मक परिवार का केन्द्रीय तत्व होने की परिघटना पर जो टिप्पणी की है वह भारत में आरएसएस की कार्यनीति को समझने में खास तौर पर प्रासंगिक है. स्टैनली कहते हैं:

“पितृसत्तात्मक परिवार एक ऐसा आदर्श है जिसे फासीवादी राजनीतिज्ञ समाज में सृजित करना चाहते हैं – या उसी अतीत के आदर्श की ओर वापस लौटना चाहते है, जैसा कि फासीवादी दावा करते हैं. पितृसत्तात्मक परिवार को हमेशा राष्ट्रीय परम्पराओं के केन्द्रीय अंग के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जो यहां तक कि हाल में उदारवाद तथा महानगरीय जीवन शैली के आने के चलते घट गया है. मगर यह पितृसत्ता फासीवादी राजनीति के लिये रणनीतिक रूप से इतना केन्द्रीय तत्व क्यों बना हुआ है? फासीवादी समाज में राष्ट्र के नेता को परम्परागत पितृसत्तात्मक परिवार में पिता के समान माना जाता है. नेता राष्ट्र का पिता बन जाता है, और उसकी शक्ति एवं सत्ता उसके कानूनी प्राधिकार का स्रोत बन जाते हैं, ठीक जैसे पितृसत्ता के तहत किसी परिवार में पिता की शक्ति और सत्ता को उसके बच्चों एवं पत्नी पर चरम नैतिक प्राधिकार का स्रोत माना जाता है. नेता अपने राष्ट्र को ठीक उसी प्रकार सब कुछ प्रदान करता है, जिस प्रकार परम्परागत परिवार में पिता अपने परिवार को सब कुछ प्रदान करता है... ठीक किसी पितृसत्तात्मक परिवार के ढांचे की ही तरह राष्ट्र के अतीत का प्रतिनिधित्व करके फासीवादी राजनीति अतीत व्यामोह को केन्द्रीय सांगठनिक ऊंच-नीच अनुक्रम पर आधारित प्राधिकारवादी ढांचे से सम्बद्ध करता है, ऐसा ढांचा जिसका अपना सबसे शुद्ध प्रतिनिधित्व उपरोक्त रीति-नीतियों में निहित होता है.”

“इंडियन डेमोक्रेसी: कंटेस्ट फाॅर द नेशन्स कोर” (भारतीय लोकतंत्र: राष्ट्र की केन्द्रीय अंतर्वस्तु के लिये प्रतियोगिता) शीर्षक एक निबन्ध (यह ‘इंडियन डेमोक्रेसी ओरिजिन्स, ट्रैजेक्टरीज, कंटेस्टेशन्स’ नामक पुस्तक, जो एल्पफ गुनवाल्ड नील्सन, केनेथ बो नील्सेन और आनन्द वैद्य द्वारा सम्पादित और प्लूटो प्रेस द्वारा 2019 में मुद्रित है, में प्रकाशित हुआ है) में लिबरेशन की सम्पादक कविता कृष्णन ने दिखाया है कि कैसे आरएसएस ‘घर’ और उससे बहनापा जताने वाले शब्द ‘परिवार’ की उपमाओं का इस्तेमाल फ्पितृसत्तात्मक परिवार और महिलाओं की अधीनता को महिमामंडित करने के लिये करता है – यहां तक कि गलती करने वाली पत्नियों को आवश्यक अनुशासनात्मक सजा देने के लिये पत्नियों की पिटाई को भी जायज ठहराता है.”उन्होंने चिन्हित किया है कि “आरएसएस की महिला शाखा राष्ट्र सेविका समिति की नेतागण खुद को ‘नारीवादी नहीं परिवारवादी’ बताती हैं, और महिलाओं की स्वायत्तता के लिये की गई नारीवादी दावेदारियों को भारत के सामंजस्यपूर्ण परिवार में पश्चिम द्वारा प्रेरित तोड़फोड़ के बतौर पेश करती हैं. सभी उत्पीड़नकारी सामाजिक रिवाजों को बलात्कारी मुसलमानों से महिलाओं की “रक्षा” करने के लिये बनाए गये रिवाज बताकर तर्कपूर्ण ठहराया जाता है.” इसके अलावा, “घर शब्द का इस्तेमाल दलितों और मुसलमानों के लिये हिंदू धर्म को अपना घर बताने के लिहाज से भी किया जाता है और उनको घर वापसी का नुस्खा बताने से लेकर आदेश देने के लिये किया जाता है, यानी जो लोग दूसरे धर्मों में धर्मांतरित हुए हैं उनके लिये अपने घर में वापसी. परिवार शब्द का इस्तेमाल मजदूरों और मालिकों के बीच सम्बंधों को ‘औद्योगिक परिवार’ के अंदर सामंजस्यपूर्ण सम्बंधों में ढालने के लिये किया जाता है, और इस तरह श्रम कानूनों को शिथिल करने और उनका क्षय करने को जायज ठहराया जाता है. ... श्रम कानूनों एवं यूनियन बनाने को ‘औद्योगिक परिवार’ में सामंजस्यपूर्ण सम्बंधों को तोड़ना बताया जाता है. परिवार शब्द का इस्तेमाल मसविदा नागरिकता संशोधन विधेयक में भारत को हिंदुओं के वैश्विक घर के बतौर ढालने के लिये भी किया जाता है... जो पिछले दरवाजे से हिंदू राष्ट्र विधेयक है, जो गैर-हिंदुओं की तुलना में हिंदुओं को भारत का नागरिक बनने का ज्यादा बड़ा प्राकृतिक अधिकार देने की कोशिश है.”

यूरोपीय फासीवादियों हिटलर और मुसोलिनी का आरएसएस पर कर्ज के बारे में स्टैनली की टिप्पणी:

“भारत में हिंदुत्व आंदोलन के पैरोकारों के अनुसार, हिंदू भारत में रहनेवाले मूलवासी थे, जो मुसलमानों, और उसके बाद क्षयकारी पश्चिमी मूल्य घुसाने वाले ईसाइयों के आगमन से पहले, कठोर पवित्रतावादी यौन रीतियों से बंधे पितृसत्तात्मक रिवाजों के अनुसार जीवन-यापन कर रहे थे. हिंदुत्व आंदोलन ने एक मिथकीय भारतीय इतिहास गढ़ा है, जिसका मकसद विद्वानों द्वारा स्वीकृत भारत के वास्तविक इतिहास को हटकार ड्रामाई अंदाज में उसकी जगह लेना है. भारत की वर्चस्वशाली राष्ट्रवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने हिंदुत्व की विचारधारा को अपने आधिकारिक पंथ के बतौर अपना लिया और इस काल्पनिक, पितृसत्तात्मक, कठोर रूप से पोंगापंथी, नृवंशीय और धार्मिक रूप से पवित्र अतीत की ओर वापस लौटने का आह्वान करते हुए भावनात्मक जुमलेबाजी का इस्तेमाल करके हुए देश में सत्ता हासिल कर ली. भाजपा का निर्माण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की राजनीतिक शाखा के बतौर किया गया है, जो एक उग्रपंथी, धुर-दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी पार्टी है, जो गैर-हिंदू अल्पसंख्यकों का दमन करने की पैरवी करती है. नाथूराम गोडसे, जिसने गांधी की हत्या की थी, आरएसएस का ही सदस्य था, जैसे भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उसके सदस्य हैं. आरएसएस यूरोप के फासीवादी आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित था और उसके नेतृत्वकारी राजनीतिज्ञ 1930 के दशक के अंतिम भाग और 1940 के दशक के दौरान नियमित रूप से हिटलर और मुसोलिनी की प्रशंसा किया करते थे.”

लेकिन फासीवादी अगर अतीत का गौरवगान और उसका मिथकीकरण करते हैं, तो वे इतिहासकारों और इतिहास पर शोध पर इतना हमला क्यों करते हैं? स्टैनली इसकी गहराई में जाकर बताते हैं:

“इतिहास की इस ऊंच-नीच सीढ़ीक्रम पर आधारित पुनर्रचनाओं का रणनीतिक उद्देश्य है सच्चाई को हटाकर उसकी जगह लेना, और गौरवशाली अतीत की खोज में असुविधाजनक यथार्थ को पोंछकर मिटा देना. जबकि फासीवादी राजनीति अतीत को पूजनीय वस्तु बना देती है, तो यह कभी भी वास्तविक अतीत नहीं होता जिसकी पूजा की जाती है. यह आविष्कार किया गया इतिहास राष्ट्र के अतीत के कुकृत्यों को भी तुच्छ बना देते हैं या फिर उनको एकदम ही साफ कर देता है. देश के वास्तविक इतिहास को साजिशाना प्रस्तुतीकरण बताना फासीवादी राजनीतिज्ञों की चारित्रिक विशेषता है; वे वास्तविक इतिहास को सच्चे “राष्ट्र” के लोगों को शिकार बनाने के लिये उदारवादी अभिजातों एवं सार्वदेशिक (कास्मोपाॅलिटन) विचारकों द्वारा गढ़े गये वृत्तांत के बतौर पेश करते हैं.”

भारत के सर्वोत्तम इतिहासकारों और इतिहास लेखन के साथ आरएसएस जिस तरह पेश आ रहा है, उसके साथ उपरोक्त कथन बिल्कुल फिट बैठता है.

2. प्रचार

फासीवादियों को प्रचार की जरूरत क्यों पड़ती है? स्टैनली लिखते हैं: फ्जो नीति लोगों के विशाल समूह को सीधासीधी नुकसान पहुंचाये, ऐसी नीति को आगे बढ़ाना बहुत कठिन होता है. राजनीतिक प्रचार का मकसद है राजनीतिज्ञों अथवा राजनीतिक आंदोलनों के स्पष्टतः समस्याग्रस्त लक्ष्यों को ढक कर छिपाने के लिये उन पर ऐसे आदर्शों का पर्दा डालना, जो व्यापक तौर पर स्वीकृत होते हैं.”

फासीवादियों के लिये भ्रष्टाचार का विरोध एक पसंदीदा मुद्दा है. ट्रम्प द्वारा “दलदल साफ करने” (यानी वाशिंगटन से भ्रष्ट कारपोरेट लाॅबीकर्ताओं का सफाया करने) के (झूठे) दावों का हवाला देते हुए स्टैनली लिखते हैं कि “फासीवादी आंदोलन पीढ़ियों से “दलदलों को साफ” करते रहे हैं.”

स्टैनली ने नोट किया है कि “भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान अक्सर फासीवादी आंदोलनों की मर्मवस्तु बन जाते हैं. फासीवादी राजनीतिज्ञों की यह चारित्रिक विशिष्टता है कि वे जिस राज्य पर कब्जा जमाने की कोशिश में होते हैं, उसमें होने वाले भ्रष्टाचार की निंदा करते हैं, जो आश्चर्यजनक बात है क्योंकि व्यापक तौर पर फासीवादी राजनीतिज्ञ खुद ही निरपवाद रूप से उनसे कहीं ज्यादा भ्रष्ट होते हैं जिनकी वे जगह लेना चाते हैं या जिन्हें पराजित करना चाहते हैं.” यह बात तो यकीनी तौर पर मोदी और भाजपा के बारे में बिल्कुल सच है, जो अन्ना हजारे के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के बाद सत्ता में आये, लेकिन यह व्यापक तौर सच साबित हुआ है कि उन्होंने जिस यूपीए सरकार को गद्दी से उतारा, उसकी तुलना में वे बहुत ज्यादा भ्रष्ट हैं.

इतिहासकार रिचार्ड ग्रुनबर्गर ने अपनी किताब ‘द 12-ईयर राइख’ में नाजियों के बारे में अपने प्रेक्षण पर जो लिखा है उससे स्टैनली ने निम्नलिखित उद्धरण लिया है जिसकी आज भारत में हमें असाधारण समानता नजर आती है:

“बार-बार एक ही बात दुहराने के जरिये सामूहिक चेतना में यह बात घुसाकर कि लोकतंत्र और भ्रष्टाचार, दोनों एक ही चीज के नाम हैं, नाजियों ने एक ऐसी सरकारी प्रणाली का निर्माण शुरू किया जिसके सामने वीमर रिपब्लिक (हिटलर के सत्ता में आने से पहले जर्मनी में कायम लोकतंत्र) के घोटाले राजनीतिक जगत पर लगे कलंक के बस छोटे से धब्बे भर नजर आने लगे. वास्तव में भ्रष्टाचार ही थर्ड राइख (हिटलर का शासन) का केन्द्रीय सांगठनिक सिद्धांत था – और फिर भी बहुतेरे नागरिकों ने न सिर्फ इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया बल्कि वास्तव में नये शासन-सत्ता में आये व्यक्तियों को नैतिक रूप से सम्पूर्ण ईमानदारी के प्रति पूरी सादगी से समर्पित व्यक्ति मान लिया था.”

मोदी सरकार द्वारा प्रेस, न्यायपालिका, चुनाव आयोग तथा विभिन्न जांच एजेन्सियों एवं निगरानी रखने वाली संस्थाओं की स्वतंत्रता का क्षय भी एक पसंदीदा फासीवादी कार्यनीति है. स्टैनली लिखते हैं, “भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने और तथाकथित पक्षपात का खात्मा करने के नाम पर फासीवादी राजनीतिज्ञ उन तमाम संस्थाओं पर, जो अन्यथा उनकी सत्ता पर नियंत्रण रख सकती हैं, हमला करते हैं और उनका क्षय कर देते हैं.”

महज यह तथ्य कि ट्रम्प, मोदी और बोल्सोनारो चुनाव जीतकर सत्ता में आये हैं, उनको कत्तई कम फासीवादी नहीं साबित करता. स्टैनली के अनुसार, “ऐतिहासिक रूप से फासीवादी नेतागण अक्सर लोकतांत्रिक चुनाव के जरिये ही सत्ता में आये हैं. मगर उनकी स्वतंत्रता के लिये प्रतिबद्धता, जैसा स्वतंत्रता मतदान करने के अधिकार में अंतर्निहित है, उनकी जीत के साथ ही समाप्ति की ओर जाने लगती है.”

नाजी प्रचार मंत्री जोसेफ गोयबल्स का एक कथन, जिसे स्टैनली ने अपनी किताब में उद्धृत किया है, खास तौर पर चौंकाने वाला है: “लोकतंत्र का हमेशा के लिये यह सबसे बड़ा मजाक बना रहेगा कि उसने अपने सबसे घातक शत्रुओं को वह साधन दे दिया जिससे खुद उसका ही विनाश कर दिया गया.”

(अगले अंक में जारी)

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