10 अप्रैल 1919 को डा. किचलू और डा. सत्यपाल को कांगड़ा घाटी में निर्वासित करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया. गांधी जी को एक दिन पहले ही पलवल में गिरफ्तार किया गया था. अपने नेताओं के आसन्न निर्वासन की खबर सुनते ही अमृतसर में हजारों लोग सड़कों पर उतर आए. वे लोग ‘हड़ताल’ करना चाहते थे, जुलूस में मार्च करना चाहते थे और इन दो नेताओं की रिहाई के लिए फरियाद करना चाहते थे. हालांकि यह विशाल भीड़ शांतिपूर्ण थी और किसी पर हमला नहीं कर रही थी, फिर भी इसे धारा 1860, दंड संहिता 144 का उल्लंघन करने वाली “गैरकानूनी जुटान” के रूप में देखा गया. नतीजतन, बरतानवी सैनिकों ने गोलियां बरसाईं और अनेक निहत्थे लोगों को मार डाला. किसी उकसावे के बगैर की गई इस फायरिंग से लोग और ज्यादा आक्रोशित हो उठे. इसके बाद, गुस्साई भीड़ ने कुछ बरतानवी नागरिकों को निशाना बनाया जिनमें दो रेलवे गार्ड, एक महिला डॉक्टर (जिसने नस्लवादी टिप्पणी करते हुए फायरिंग को उचित बताया था) और एक शिक्षिका मिस शेरउड शामिल थे.
बरतानियों ने यह समझने से इनकार कर दिया कि खुद उनकी कार्रवाइयों के चलते ही 10 अप्रैल के दिन आक्रोशपूर्ण और हिंसक प्रदर्शन हुए. बाद में भी, उन लोगों ने प्रतिवादकारियों की मांगों पर वार्ता नहीं बुलाई. इसके बजाए उन लोगों ने मान लिया कि एक दूसरा ‘गदर’ सन्निकट है, लूट और हत्या के लिए उस “भीड़ की योजना बनाई गई है” और इसीलिए उसका दमन करना होगा जिसके लिए उन्होंने अमृतसर में अतिरिक्त सैन्यबल तथा मशीनगनों की तैनाती करवा ली. 13 अप्रैल को बैसाखी था, और उस दिन तक भीड़ का गुस्सा शांत पड़ गया था. 4:30 बजे शाम में लगभग 20,000 लोग जालियांवाला बाग के पास इकट्ठा हो गए थे - उनका एक हिस्सा तो अपने नेताओं के निर्वासन और प्रतिवादकारियों पर हुई फायरिंग के खिलाफ आम सभा में राजनीतिक नेताओं का भाषण सुनने आए थे, लेकिन उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा तो बैसाखी में अमृतसर घूमने आए ग्रामीणों का था. इन ग्रामीणों को तो जनसंहार की कोई भनक या आशंका तक नहीं थी. उस सुबह जनरल डायर के सैनिकों ने शहर भर में मार्च करते हुए एलान किया था कि किसी भी किस्म की जुटान को “जरूरत पड़ने पर हथियारों के बल पर तितर-बितर कर दिया जाएगा”. जहां ग्रामीणों को इस घोषणा की कोई जानकारी नहीं थी, वहीं आम सभा सुनने आए अन्य लोग भी सचमुच किसी हिंसा की उम्मीद नहीं कर रहे थे, क्योंकि पुलिस ने लोगों को वहां एकत्र होने से रोकने का कोई प्रयास नहीं किया था - यहां तक कि उसने सभा के लिए लोगों को गोलबंद करने की खातिर कार्यकर्ताओं को सड़कों पर नगाड़े बजाने से भी नहीं रोका था.
जनरल डायर ने मशीनगनों से लैस गाड़ियों को “मैदान” से बाहर ही छोड़ दिया था, क्योंकि उसके दरवाजे उन गाड़ियों के प्रवेश के लिए संकरे पड़ गए थे. सैनिकों ने पोजीशन लेकर निशाना साध लिया, तब भी उस भीड़ को यकीन नहीं हुआ कि फायरिंग होगी, क्योंकि तितर-बितर होने के लिए कोई चेतावनी नहीं दी गई थी. किसी घोषणा के बगैर ही फायरिंग शुरू कर दी गई - 1650 राउंड गोलियां चलाई गईं, और बच्चों समेत कम से कम 379 लोगों को निर्दयतापूर्वक मार डाला गया.
उसके बाद के सप्ताह में जनरल डायर ने “घुटनों के बल रेंगने का आदेश” लागू किया और जिस सड़क पर मिस शेरउड पर हमला किया गया था वहां भारतीयों को उस प्रकार से रेंगने पर मजबूर किया गया.
जब ब्रिटिश प्रधान मंत्री डेविड कैमरून 2013 में जालियांवाला बाग गए, तो उन्होंने यात्री पुस्तिका में अपने संदेश में विंस्टन चर्चिल की टिप्पणी का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने इस जनसंहार को “दानवी” कहा था. 8 जुलाई 1920 को चर्चिल ने हॉउस ऑफ कॉमन्स में अपने भाषण के दौरान कहा था कि यह जनसंहार “एक असाधारण घटना, एक दानवी घटना थी - बिल्कुल अकेली और पापमय ढंग से अलग-थलग घटना थी.” उन्होंने दावा किया था कि वह जनसंहार और हिंसा और आम तौर पर वह कब्जा “काम करने की ब्रिटिश प(ति से एकदम अलग था”.
बेशक, जिस ढंग से 1857 के विद्रोह को दबाया गया था - वह खूनखराबा, सार्वजनिक उत्पीड़न, हत्या और पेड़ों पर शवों का प्रदर्शन - यह सब साबित करता था कि वह क्रूरता “काम करने की ब्रिटिश पद्धति से अलग” से हर्गिज नहीं था.
जैसा कि वागनर ने लिखा है, “अमृतसर जनसंहार के बारे में चर्चिल का बयान ... बिल्कुल भ्रामक था और डायर का कारनामा ... न तो ‘अ-भूतपूर्व’ था और न ‘काम करने की ब्रिटिश पद्धति से अलग’ ही था.” इसके बजाय वागनर ने लेबर पार्टी के सांसद जेसी वेजउड का हवाला दिया जिन्होंने कहा था कि “हम उस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं जो जनरल डायर जैसे लोगों को पैदा करती है.”
दरअसल, वागनर हमें याद दिलाते हैं कि फ्रेडरिक हेनरी कूपर, जो 1857 विद्रोह के समय अमृतसर के डिपुटी कमिश्नर थे, ने हिंदुस्तानी सिपाहियों के कत्लेआम को “अर्ध-बर्बर लोगों के मन में दहशत पैदा करने के एकमात्र तरीके” के बतौर जायज ठहराया था. डायर ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में अपना बचाव किया था, “मैं समझता हूं कि यह कम से कम मात्रा की फायरिंग थी जो जरूरी नैतिक और बड़े पैमाने का असर डाल सके और ऐसा असर पैदा करना मेरा कर्तव्य था. ... यह महज किसी भीड़ को तितर-बितर करने का सवाल नहीं था, बल्कि सिर्फ वहां मौजूद लोगों में ही नहीं, संपूर्ण पंजाब के लोगों में पर्याप्त नैतिक असर डालने का सवाल था.” बर्मा, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पर्सिया और बलूचिस्तान में काम कर चुका वह डायर “औपनिवेशिक युद्धखोरी की परंपरा में डूबा हुआ था और मिसाल बनाने वाले बल-प्रयोग के तर्क से पूरी तरफ वाकिफ था.”
डायर ने स्पष्ट किया कि उसे महसूस हुआ कि उसे जरूर फायरिंग करवाना और अधिकतम जख्म देना चाहिए, क्योंकि “देशी” आबादी के मन में ब्रिटिश सैनिकों के प्रति हास्य का नहीं, बल्कि दहशत का मनोभाव पैदा हो सके. उसने कहा कि अगर फायरिंग के बिना ही वह भीड़ को तितर-बितर कर देता, तो वे लोग “हंस देते”. बाद में डायर ने स्वीकार किया कि बहादुर बनने के लिए मन में बड़ा भय का होना जरूरी है. लेकिन जैसा कि वागनर ने लिखा है, “उसका भय सनकभरी औपनिवेशिक कल्पना से पैदा हुई थी, न कि उसके सामने मौजूद हालात के स्पष्ट मूल्यांकन से.”
वागनर ने अपनी पुस्तक के अंतिम अध्याय में जालियांवाला बाग के चिरस्थायी प्रभाव के बारे में अपनी सोच रखी है. उन्होंने अमृतसर में पले-बढ़े सादत हसन मंटो की कहानी “आजादी के लिए” से उद्धरण दिए हैं:
“तुम जानते हो गुलाम अली, नहीं जानते हो न, कैसे यह कुंआ एक बार फायरिंग में मारे गए लोगों की लाशों से मुंह तक पट गया था? आज हर कोई इससे पानी पीता है. इस पार्क में खिले हर फूल को इससे पानी मिलता है. लोग आते हैं और ये फूल तोड़ ले जाते हैं. लेकिन ताज्जुब है कि पानी की एक बूंद में भी खून का नमकीन स्वाद नहीं है. किसी भी फूल की एक भी पंखुड़ी में खून की वह लाली नहीं है. ऐसा क्यों?
“मुझे अच्छी तरह याद है, जैसा कि मैंने कहा, मैंने पड़ोस के एक घर की खिड़की की ओर देखा, जहां ये कहा जाता है कि जनरल डायर ने एक छोटी लड़की को गोली मार दी जो वहां खड़ी होकर वह जनसंहार देख रही थी. उसके खून की धार का रंग उस खिड़की के पीछे चूने की दीवार पर अब उड़ने लगी थी. खून इतना सस्ता हो गया था कि उसके बहने से एक समय लोगों के मन में जो असर पैदा होता था, वह असर अब नहीं था.
कलियां भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से
वे पौधे व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है
हा ! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है
ओ प्रिय रितुराज ! किंतु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहां शोर मत मचाना
-सुभद्रा कुमारी चौहान, जालियांवाला बाग में बसंत (1929)
देश के स्वतंत्रता संघर्ष पर और उस पीढ़ी के नौजवानों की कल्पनाओं को गढ़ने में जालियांवाला बाग जनसंहार का बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा. ऐसा विश्वास किया जाता है कि भगत सिंह, जो उस जनसंहार के समय बच्चा ही थे, उस बाग में गए थे और उन्होंने स्मृति के बतौर मुट्ठी भर वहां की माटी रख ली थी. शहीद उधम सिंह (जिन्होंने उस जनसंहार का बदला लेने के लिए ओ’ डायर को मार डाला था) के बारे में भी माना जाता है कि उन्होंने अपने बचपन में ही वह जनसंहार होते हुए देखा था. ये विश्वास सही हों या नहीं, लेकिन यह तो तथ्य है कि 1857 की भांति यह नरसंहार भी ब्रिटिश राज की असली प्रकृति को साफ-साफ दिखा देता है.
1853 में (1857 के विद्रोह के पहले ही) माक्र्स ने भारत में ब्रिटिश शासन के बारे में लिखा था, “बुर्जुआ सभ्यता का गहरा पाखंड और उसकी अंतर्निहित बर्बरता हमारी आंखों के सामने खुली पड़ी है - अपने मूल स्थान जहां वह सम्मानजनक स्वरूप अख्तियार करती है, से लेकर उपनिवेशों तक, जहां वह नग्न रूप में सामने आती है.” (कार्ल मार्क्स, भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम)
यही वह नग्न सत्य था जिसे जालियांवाला बाग ने भारतीयों के सामने उजागर किया. लेकिन आज उस जनसंहार को औपनिवेशिक क्रूरता के एक नमूने और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण अध्याय के बतौर याद करने से ही काम नहीं चलेगा. ब्रिटिश शासक और डायर जैसे सैनिक भारतीय जनता को किस रूप में देखते थे, यह समझते हुए हमें पूछना होगा कि भारत के अपने शासक और सैनिक जनता के विशाल तबकों को उसी तरह से देखते हुए क्यों प्रतीत होते हैं ऋ और कैसे भारत की “व्यवस्था” बारंबार जालियांवाला बाग कांडों और डायर जैसे लोगों को पैदा कर रही है.
भगत सिंह ने गोरे शासन जितना ही उत्पीड़नकारी भूरे शासन द्वारा उसका स्थान लेने की चेतावनी दी थी ऋ अम्बेडकर ने भी चेताया था कि भारतीय शासक भी औपनिवेशिक शक्तियों की भांति ही इस आजादी का इस्तेमाल भारतीयों पर गोलियां चलाने में करेंगे. आइए, जालियांवाला बाग की शतवार्षिकी मनाते हुए हम उनकी चेतावनी को याद करें, जिसे इस किस्म की प्रत्येक भारतीय घटना के समय जोरदार तरीके से पढ़ा जाना चाहिए.
1939 में तत्कालीन बंबई विधान सभा के अंदर उन्होंने मजदूरों पर पुलिस फायरिंग की एक घटना के संदर्भ में बोलते हुए कहा था, “मैं स्पष्ट तौर पर कहता हूं कि मैं उस तर्क से भयभीत हो गया जो उन्होंने (सर एडवर्ड थॉम्पसन ने - सं.) पेश किया था (भारतीयों की ‘होम रूल’ की मांग के समर्थन में - सं.) .... उन्होंने कहा कि आयरिश होम रूल के समर्थन में जिस एक बात से वे सहमत थे, वह यह थी: जबतक वह विद्रोह चलता रहेगा तबतक कोई भी अंगरेज किसी भी आयरिश (आयरलैंड निवासी) पर गोली नहीं चला सकेगा, चाहे उसकी कार्रवाई कितनी भी हिंसक क्यों न हो ; क्योंकि अगर कोई अंगरेज किसी आयरिश पर गोली चलाता है, तो समूचा आयरलैंड विद्रोह में खड़ा हो जाएगा. उन्होंने कहा कि जैसे ही होम रुल की मांग पूरी हो जाती है तो कोसग्रेव के लिए आयरलैंडवासियों पर गोली चलाना संभव हो जाएगा, और तब कोई भी इसके खिलाफ विद्रोह में खड़ा नहीं हो पाएगा. उन्होंने कहा कि भारत में होम रूल देने से अंगरेजों को एक फायदा यह होगा कि भारतीय मंत्री गण बेहिचक भारतीयों पर गोली चलाने में समर्थ हो जाएंगे.
... अगर होम रूल का मतलब इसके सिवा और कुछ न हो कि हमारे अपने मंत्री हमारे अपने ही लोगों पर गोलियां चलवा सकें, और बाकी हम सब उस पूरे वाकयात पर हंस सकें या उन मंत्रियों के समर्थन में खड़े हो सकें, क्योंकि वे एक खास पार्टी के होते हैं तो मैं कहता हूं कि यह होम रूल पूरे भारत के लिए फायदे की चीज नहीं, बल्कि एक अभिशाप बन कर रह जाएगा.” (बंबई विधान सभा में वाद-विवाद, खंड-5, 17 मार्च 1939)