दिसंबर 2023 में भाजपा ने संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान तीन महत्वपूर्ण कानूनों - भारतीय साक्ष्य संहिता, 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और भारतीय न्याय संहिता, 2023 को पेश किया जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, आपराधिक प्रक्रिया और भारतीय दंड संहिता की जगह लेगा. इन नई आपराधिक संहिताओं को 25 दिसंबर 2023 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई है, लेकिन ये तब तक लागू नहीं होंगे जब तक कि केंद्र सरकार द्वारा इस आशय की अधिसूचना जारी नहीं की जाती.
नए आपराधिक कानून मुख्य रूप से मौजूदा तीन कानूनों के प्रावधानों का पुनः क्रमांकन और/या पुनर्गठन की एक कवायद भर है. इसके अलावा ‘शून्य एफआईआर’ को वैधानिक आधार देना, समलैंगिकता और मर्जी से बनाये गए संबन्धों को अपराधमुक्त करना, जांच पूरी करने के लिए समय सीमा निर्धारित करना, इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य को प्राथमिक साक्ष्य के रूप में मान्यता देना, सेकंडरी एविडेंस के दायरे का विस्तार करना जैसे और कुछ जरूरी बदलाव शामिल किए गए हैं.
पर कुछ ऐसे छोटे-छोटे बदलाव किए गए है जो संख्या में कम होते हुए भी जनविरोधी है. इसके परिणाम से देश में बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता के हनन होने की पर्याप्त संभावना है.
एक बड़ी चिंता की वजह ‘आतंकवाद अधिनियम’ की शुरूआत है, जो आईपीसी में मौजूद नहीं था. बीएनएस यूएपीए की धारा 15 से ‘आतंकवादी कृत्य’ की परिभाषा को अपनाती है, जबकि यूएपीए में मौजूद (चाहे कितने भी अपर्याप्त हों) हिफाजत के दो प्रावधानों को समाप्त कर देती है, यानि कि मुकदमा चलाने के लिए सरकार की मंजूरी और साक्ष्यों का अध्ययन करने के लिए एक स्वतंत्र प्राधिकार की अनिवार्य आवश्यकता को खत्म कर दिया गया है.
बीएनएस और यूएपीए परिभाषाओं के बीच एकमात्र अंतर अपेक्षाकृत मामूली है - यूएपीए में आतंकवादी कृत्य की परिभाषा में उच्च गुणवत्ता वाले नकली रुपया, सिक्का का उत्पादन या तस्करी या सर्कुलेशन से भारत की मौद्रिक स्थिरता को बड़े दायरे में नुकसान शामिल है जो बुनियादी तौर से मूल आतंकवादी कृत्य की बीएनएस की परिभाषा में शामिल है.
अपरिहार्य निष्कर्ष यह है कि इस नए बीएनएस कानून के साथ सरकार के पास राजनीतिक विरोधियों पर मुकदमा चलाने और कैद करने का बेलगाम विकल्प है. इस प्रावधान का उपयोग कर सरकार लोकतंत्र या सामाजिक, राजनीतिक या आर्थिक न्याय के लिए किसी भी अहिंसक संघर्ष और आंदोलन, या किसी भी सार्वजनिक सभा मे दिए गए भाषण को आतंकवादी गतिविधि घोषित कर सकती है जिसमें सरकार की आलोचना हो.
राजद्रोह कानून को एक नए नामकरण के तहत बरकरार रखना
आम धारणा के विपरीत राजद्रोह कानून (आईपीसी की धारा 124ए) को बीएनएस की धारा 152 के तहत एक नए नाम से और भी अधिक कठोर सजा के तहत बरकरार रखा गया है.
केंद्र सरकार ने इस चिंता को नजरअंदाज कर दिया है कि राजद्रोह एक ऐसी मनमानी व्याख्या वाला अपराध है जिसका संवैधानिक गणतंत्र में कोई स्थान नहीं है. राजद्रोह कानून को नए नाम से बरकरार रखना सुप्रीम कोर्ट की धज्जियां उड़ाना है, जिसने केंद्र सरकार को राजद्रोह के सभी मामलों को निलंबित करने का आदेश दिया था. यह आदेश असहमति को दबाने, अभिव्यक्ति के अधिकार में बाधा डालने और क्रोनी पूंजीवाद और शासक वर्ग की हिंदुत्व विचारधारा के किसी भी विरोध का सरकार द्वारा इस कानून का अंधाधुंध दमन करने के खिलाफ लाया गया था. 2010 - 2021 के पिछले दशक को काले दशक के बतौर याद किया जाता है, जब 13,000 लोगों के खिलाफ 800 से अधिक राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए थे. वास्तव में 2014 और 2019 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से राजद्रोह के 500 से अधिक मामले दर्ज किए गए और यह भी पाया गया कि सजा दर महज 0.1% रही है.
बीएनएस में धारा 226 पेश की गई है जो किसी भी लोक सेवक को अपने आधिकारिक कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए मजबूर करने या रोकने के इरादे से आत्महत्या करने के किसी भी प्रयास को अपराध मानती है. इस कथित अपराध के लिए एक वर्ष तक की साधारण कारावास, जुर्माना या सामुदायिक सेवा की सजा का प्रावधान है.
स्पष्ट रूप से इस प्रावधान का एकमात्र उद्देश्य लोगों के शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक विरोध के अधिकार को छीनकर भूख हड़ताल पर रोक लगाना है. भूख हड़ताल असहमति और प्रतिरोध का लोकतांत्रिक रूप है, और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के गौरवशाली इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है - चाहे वह गांधी हों या भगत सिंह.
यह विडंबना है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान भूख हड़ताल के दम पर सत्ता में आए मोदी ने विरोध के इस रूप को अपराध घोषित कर दिया है और लोगों को इससे वंचित कर दिया है.
बीएनएस की धारा 69 में कहा गया है कि जो कोई भी, धोखे से या बिना किसी इरादे के किसी महिला से शादी करने का वादा करके उसके साथ यौन संबंध बनाता है, जो बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता है, पर उसे दंडित किया जाएगा. किसी एक अवधि के लिए कारावास जिसे दस साल तक बढ़ाया जा सकता है और जुर्माना भी लगाया जा सकता है. धारा 69 के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि ‘धोखेबाजी’ का मतलब है प्रलोभन देना, या रोजगार या पदोन्नति का झूठा वादा करना, या पहचान छिपाकर शादी करना.
दक्षिणपंथी समूह जोर-शोर से दावा करते हैं कि यह कानून तथाकथित ‘लव जिहाद’ का मुकाबला करने में सहायक होगा, क्योंकि स्पष्टीकरण में स्पष्ट रूप से ‘पहचान छिपाकर शादी करना’ शामिल है.
यह शब्द अंतर-धार्मिक विवाहों के लिए अपमानजनक और सांप्रदायिक दावों पर एक निराधार साजिश रचता है कि मुस्लिम पुरुष अपनी धार्मिक पहचान को छिपाते हैं और हिंदू महिलाओं से रिश्ता बनाते हैं और फिर उन्हें इस्लाम कबूल करवाते हैं. यह दावा फर्जी होने के बावजूद मुस्लिम समुदाय का अमानवीयकरण करने में इस्तेमाल हो रहा है. यहां तक कि केंद्र के गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी ने हाल ही में संसद के पटल पर यह स्वीकार किया है कि केंद्रीय एजेंसियों द्वारा ‘लव जिहाद’ का ऐसा कोई मामला रिपोर्ट नहीं किया गया है.
अंतर-धार्मिक विवाहों के साथ-साथ, अंतर-जातीय रिश्तों को भी निशाना बनाया गया है, और इस कानून को उनके खिलाफ हथियार बनाया जा सकता है. भाजपा सरकार ने अपने सांप्रदायिक जातिवादी एजेंडे को मजबूत करने के लिए अलग जाति के प्रेमियों की बड़े पैमाने पर होने वाली हत्याओं (ऑनर किलिंग) को नजरअंदाज कर असमानता, घृणा पफैलाने वाली और इस देश के लोगों के अधिकारों को छीनने वाली पितृसत्तात्मक धारणाओं को वैधानिक आधार दिया है, जहां महिलाओं को ‘हिंसक’ पुरुषों से ‘बचाने’ की जरूरत है. इस तरह से महिलाओं की स्वतंत्रता और स्वायत्तता से ही इनकार कर दिया गया है.
साथ ही नये कानून पुलिस को गिरफ्तारी के वक्त एहतियात बरतने वाले सुरक्षा उपायों के बिना व्यक्तियों को हिरासत में लेने, 24 घंटे के लिए हिरासत में रखने और सार्वजनिक रूप से आरोपी का विवरण प्रदर्शित करने की अनुमति देता है. साथ ही कुछ अपराधों के लिए गिरफ्तारी के दौरान हथकड़ी लगाने की अनुमति देता है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अमानवीय कहा है, और पुलिस के पास कुछ मामलों में एफआईआर दर्ज करने से बचने का भी विकल्प है. साथ ही, पुलिस हिरासत की अवधि भी 15 दिन से बढ़ाकर 60/90 दिन कर दी गयी है, जिससे पुलिस द्वारा हिरासत में धमकी, यातना और दुर्व्यवहार का खतरा बढ़ गया है. नए कानून स्पष्ट रूप से धर्म का उल्लेख किए बिना मॉब लिंचिंग के लिए मनमाने और अमानवीय दंडों को मंजूरी देते हैं.
नए आपराधिक कानूनों की धारा 11 न्यायाधीशों को अपराधियों को उनके कारावास की अवधि के आधार पर 3 महीने तक एकांत कारावास की सजा देने की अनुमति देती है. इससे न्यायाधीशों को यह तय करने की शक्ति मिलती है कि किसी अपराधी को कब और कितने समय के लिए अलग रखा जाएगा. सरकार का दावा है कि ये कानून न्याय प्रणाली को उपनिवेशमुक्त करने के लिए हैं, लेकिन हकीकत में ये पिछले कानूनों से भी ज्यादा दमनकारी और बदतर हैं. पुराने कानूनों में एकान्त कारावास के दौरान कुछ हिफाजत के प्रावधान थे, जैसे जेल अधिकारियों और चिकित्सा अधिकारियों से मुलाकात की आवश्यकता. नए कानूनों में हिफाजत के ये प्रावधान गायब हैं.
नए आपराधिक कानूनों के अलावा अन्य कानून भी पारित किए गए हैं जो राज्य की पुलिस शक्तियों को बढ़ाते हैं. डाकघर विधेयक, 2023 निगरानी करने की शक्तियों की अनुमति देता है, जैसे शिपमेंट को रोकना और शिपमेंट को खोलना, रोकना या नष्ट करना. प्रेस और पत्रिकाओं का पंजीकरण विधेयक, 2023 राज्य की सुरक्षा के खिलाफ कुछ अपराधों के दोषी लोगों के लिए पत्रिकाएं निकालने के अधिकार को प्रतिबंधित करता है. दूरसंचार विधेयक, 2023 दूरसंचार सेवाओं पर कार्यकारी शक्तियों और नियंत्रण को केंद्रीकृत करता है जो सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति की आवाज को दबाने के लिए व्यापक अधिकार देता है.
मोदी सरकार द्वारा आपराधिक कानूनों में ये बदलाव लोकतंत्र को कमजोर करने और भारत को एक पुलिस राज्य में बदलने की शक्ति प्रदान करता है, जिसका इस्तेमाल राजनीतिक असहमति और शोषण के खिलाफ विरोध को दबाने के लिए किया जा सकता है. नए आपराधिक कानून पुलिस की मनमानी शक्तियों में इजाफे का इस्तेमाल धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और गरीबों के खिलाफ किया जा सकता है. इन कानूनों के खिलाफ किसानों और ट्रक चालक संघ का आंदोलन फूट पड़ा है. सभी को इन काले कानूनों के खिलाफ मुकम्मल आवाज उठाने की जरूरत है.
(लिबरेशन, फरवरी 2024 में छपे लेख का संक्षिप्त रूपांतरण)