विनाशकारी सीएबी-एनआरसी साजिश को नाकाम करो

अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस से एक दिन पहले भारत की लोकसभा ने नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी), 2019 को पारित कर दिया जो स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक के सर्वाधिक निरंकुश और भेदभावमूलक कानूनों में से एक है, जो भारत की नागरिकता की बुनियादी शर्तों को ही बदल देता है, और इसी वजह से भारतीय संविधान के बुनियादी ढांचे तथा भारतीय गणराज्य के मूलभूत चरित्र का उल्लंघन करता है; बस इसमें इतना ही बाकी है कि संविधान की प्रस्तावना में जो ‘धर्मनिरपेक्ष’ विशेषण जुड़ा हुआ है उसको जाहिरा तौर पर हटाया नहीं गया है.

अयोध्या पर फैसला: साम्प्रदायिक विध्वंसों को प्रोत्साहित किया जा रहा है

1949 में बाबरी मस्जिद के भीतर चोरी-छिपे ‘राम लला’ की मूर्ति रख दिये जाने को प्रस्थान-बिंदु बनाकर 1990 के दशक के एकदम शुरूआती वर्षों की राजनीति की रचना हुई थी, जिसके बाद एक हिंसक अभियान चला जिसका परिणाम भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं के नेतृत्व में एक फासीवादी भीड़ द्वारा बाबरी मस्जिद के विध्वंस में हुआ. इस अभियान के दौरान और मस्जिद के विध्वंस के तुरंत बाद समूचे उत्तर भारत में साम्प्रदायिक भीड़-गिरोहों द्वारा मुसलमानों का जनसंहार हुआ.

गैर-कानूनी जासूसी कांड : संविधान और नागरिक अधिकार के खिलाफ मोदी सरकार का अपराध

हाल ही में ह्वाट्सऐप (जो फेसबुक की मिल्कियत वाली एक कम्पनी है) ने एक विस्फोटक खुलासा किया है. उसने भारत के कई पत्रकारों, वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं विपक्ष के राजनीतिज्ञों को आगाह करते हुए सूचित किया है कि उनकी जासूसी करने के लिये एक इजरायली कम्पनी द्वारा भारत सरकार को बेचे गये एक साफ्टवेयर का इस्तेमाल किया गया है.

महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में चुनावों के संदेश

महाराष्ट्र और हरियाणा के राज्य विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिये जीत की राह बिल्कुल आसान मानी जा रही थी. तमाम एक्जिट पोलों ने भी कारपोरेट मीडिया द्वारा किये गये इसी प्रचलित राजनीतिक आकलन को प्रतिबिम्बित किया था. हरियाणा में भविष्यवाणी की गई थी कि भाजपा भारी बहुमत से जीत हासिल करेगी और एक एक्जिट पोल ने तो 90 सदस्यीय विधानसभा में 83 सीटें तक भाजपा की झोली में दे डाली थीं. महाराष्ट्र में भविष्यवाणी यह थी कि भाजपा अकेले दम पर बहुमत हासिल कर ले जायेगी. मगर अंतिम नतीजों ने वास्तविकता को सामने ला दिया है जो यकीनन सुखद आश्चर्य है.

स्थायी भुखमरी और लड़खड़ाते बैंक: भारत मोदी-मेड तबाही से त्रस्त है

भारतीय अर्थतंत्र का गहराता संकट और शासन का चरम पतन अब रोजमर्रे की सच्चाई हो गई है – इससे अब कत्तई इन्कार नहीं किया जा सकता. हर मोर्चे पर इसकी मिसालों की भरमार है, हर क्षेत्र में इसके सबूत बढ़ते जा रहे हैं. आर्थिक संकट अब किसी किताबी बहस का मामला नहीं रह गया, जिससे सरकार आंकड़ों की बाजीगरी के जरिये इन्कार कर सके. विश्व मुद्रा कोष (आईएमएफ) से लेकर भारतीय रिजर्व बैंक तक, हर अंतर्राष्ट्रीय अथवा भारतीय संस्थान रोज ही भारत की समग्र वृद्धि की दर में गिरावट का इशारा दे रहा है. मगर सबसे करारी चोट यह है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत का दर्जा लगातार गिरता जा रहा है.

2019 का अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार और उसके निहितार्थ

इस साल अल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में दिया जाने वाला आर्थिक विज्ञान में स्वरिजेज रिक्सबैंक पुरस्कार, जिसे आम बोलचाल की भाषा में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है, उल्लेखनीय रूप से मीडिया में तथा आम लोगों के बीच चर्चा का विषय बना है. इसका कारण यह है कि पुरस्कार पाने वाले तीन व्यक्तियों में से एक अभिजित विनायक बनर्जी भारतीय मूल के अमरीकी अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने कोलकाता के सुविख्यात प्रेसिडेन्सी काॅलेज (अब विश्वविद्यालय) से स्नातक और नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की थी.

जब भीड़-हत्या के खिलाफ प्रतिवाद पर राजद्रोह का आरोप लगे

क्या आपको झारखंड के एक गरीब मजदूर तबरेज अंसारी की याद है, जो अपनी आजीविका चलाने के लिये पुणे में काम कर रहे थे और अपनी शादी के लिये घर वापस आये थे, जबकि नरेन्द्र मोदी इतने जोरदार बहुमत से सत्ता में वापस आ रहे थे? उनकी शादी यकीनन कोई अखबार में छपने वाली खबर नहीं थी, लेकिन उस शादी के चंद हफ्तों बाद ही तबरेज घर-घर में चर्चित नाम बन गया. ठीक दादरी के मोहम्मद अखलाक, मेवात के पहलू खान और रामगढ़ के अलीमुद्दीन अंसारी की ही तरह तबरेज को भी बिजली के खंभे से बांध दिया गया और भीड़ द्वारा घंटों तक पिटाई की गई और ‘जय श्रीराम’ और ‘जय हनुमान’ के नारे लगाने पर मजबूर किया गया.

हिंदी थोपना बंद करो : भारत की विविधता और लोकतंत्र पर भाजपा के हमलों का प्रतिरोध करो!

इस वर्ष 14 सितम्बर को (जिसे भारत सरकार ने ‘हिंदी दिवस’ बना दिया है), केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा, “भाषाओं और बोलियों की विविधता हमारे राष्ट्र की ताकत है. मगर हमारे देश को एक भाषा अपनाने की जरूरत है ताकि विदेशी भाषाओं को यहां कोई जगह न मिले. इसी कारण हमारे स्वतंत्रत सेनानियों ने हिंदी को राजभाषा बनाने की कल्पना की थी.” उसके कुछ देर बाद ही उन्होंने एक भाषण में सुझाव दिया कि “बहु-पार्टी लोकतांत्रिक प्रणाली हमारे देश के नागरिकों की आकांक्षाओं को पूरा करने में नाकाम रही है” और इसी कारण से मतदाताओं ने मोदी सरकार को पूर्ण बहुमत दिया है.

मोदीनाॅमिक्स को खारिज करो और भारत को आर्थिक मंदी के दलदल से खींच निकालो

मोदी शासन की दूसरी पारी के शुरूआती 100 दिन गुजर चुके हैं. मोदी राज का ढोल पीटने वाले प्रचारक मोदी-शाह जोड़ी की विस्मयकारी “उपलब्धियों” को गिनाने में जुटे हुए हैं – तीन तलाक, कश्मीर, चन्द्रयान मिशन. वे हर चीज पर बढ़चढ़कर बातें करते हैं, बस एक चीज को छोड़कर, जिसको लेकर सारे देश में चर्चा है – वह है आर्थिक मंदी. उन्होंने सोचा था कि वे इस मंदी को अस्थायी, चक्रीय मंदी का मामला बताकर अपना पल्लू झाड़ लेंगे, मगर अब हर तिमाही में, हर मानक के तुलनात्मक आंकड़ों से जाहिर हो रहा है कि स्पष्ट रूप से और खतरनाक ढंग से अर्थव्यवस्था ढलान पर जा रही है.

एनआरसी की अंतिम सूची और उसके बाद : विराट मानवीय संकट – जिसे भारत को टालना ही होगा

असम में ऐतिहासिक विवादों और विभाजनों के तमाम पक्षों के लोगों ने उम्मीद की थी कि असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की अंतिम सूची के प्रकाशन के साथ ही उनकी दुश्चिंताओं का अंत हो जायेगा और उन्हें झंझट खत्म होने का चैन और सुकून मिलेगा. इसके बजाय, सच्चाई यह है कि एनआरसी के प्रकाशन ने राज्य में पफूटपरस्ती की राजनीति को एक नई जिंदगी दे दी है और असम के किसी भी तबके के लोगों की दुश्चिंताओं को दूर नहीं किया है.