वर्ष - 32
अंक - 29
15-07-2023

नई शिक्षक नियमावली, 2023 पर जारी विरोध के मद्देनजर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार वाम दलों के नेताओं और शिक्षक संगठनों के प्रतिनिधियों से वार्ता करने को अंततः तैयार हुए. बिहार विधानमंडल के मानसून सत्र के पहले दिन 10 जुलाई 2023 को महागठबंधन के विधायकों की हुई बैठक में उन्होंने कहा कि सरकार सत्र की समाप्ति के बाद इस मसले पर वार्ता करेगी.

विदित हो कि नई शिक्षक नियमावली में सरकारी कर्मी का दर्जा प्राप्त करने के लिए बीपीएससी द्वारा परीक्षा आयोजित करने के प्रावधान से 15-20 सालों से कार्यरत नियोजित शिक्षकों में आक्रोश था. वे महागठबंधन के घोषणापत्र के मुताबिक बिना शर्त सरकारी कर्मी का दर्जा चाहते हैं. नीतीश सरकार का समर्थन करते हुए भी भाकपा(माले) शुरू से ही शिक्षकों की उपर्युक्त मांग के साथ खड़ी रही और सरकार को आगाह किया कि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण का रास्ता अख्तियार किया जाना चाहिए, न कि परीक्षा ली जानी चाहिए. इसके कारण एक ही विद्यालय में कई तरह के शिक्षक हो जाएंगे, जो शिक्षा की व्यवस्था को सुधारने की बजाए और नुकसान पहुंचाएगा.

बिहार के विभिन्न शिक्षक संगठनों ने भाकपा(माले) के विधायक संदीप सौरभ (पालीगंज) को अपना संरक्षक बनाते हुए बिहार शिक्षक संघर्ष मोर्चा का गठन किया. भाकपा(माले) और अन्य वाम दलों ने महागठबंधन के दूसरे दलों के नेताओं से मुलाकात कर सरकार से शिक्षक नियमावाली पर पुनर्विचार की मांग की. मोर्चा ने शिक्षक नियमावली पर अपने विरोध को जारी रखते हुए विगत 11 जुलाई को पटना में विशाल धरना का आयोजित किया. लंबे अर्से बाद शिक्षकों का ऐसा बड़ा प्रदर्शन पटना में हुआ. छिटपुट गिरफ्तारियों को छोड़ दिया जाए तो शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न उस धरने ने सरकार पर प्रभाव जमाने में कामयाबी हासिल की. धरना में भाकपा(माले) के सभी विधायक शामिल हुए. उसी दिन विधानपरिषद में वित्त मंत्री  विजय चौधरी ने एक बार फिर कहा कि सत्र की समाप्ति के बाद आंदोलनरत शिक्षक संगठनों से वार्ता की जाएगी.

सरकार का समर्थन करते हुए शिक्षक आंदोलन का नेतृत्व करना जटिल था, लेकिन अंततः ‘डेडलाॅक’ ‘डाॅयलाग’ में बदला. सरकार द्वारा वार्ता की घोषणा के बाद शिक्षक संगठनों और शिक्षकों का भाकपा(माले) के ऊपर भरोसा बढ़ा है. यह इससे भी साबित होता है कि भाजपा द्वारा 13 जुलाई को आहूत विधानसभा मार्च में शिक्षकों की भागीदारी न के बराबर रही. लाख प्रयास और भाकपा(माले) पर लगातार हमले के बावजूद शिक्षकों का विश्वास भाजपा यदि नहीं जीत सकी, तो यह अकारण नहीं है. वे भाजपा की चाल अच्छी तरह से समझते हैं. बिहार शिक्षक संघर्ष मोर्चा इस लड़ाई का अगुआ दस्ता बनकर उभरा है.

भाजपा की देन है नियोजन के आधार पर शिक्षक बहाली

नीतीश कुमार व तेजस्वी यादव से शिक्षकों की नाराजगी का भाजपा ने राजनीतिक इस्तेमाल करना चाहा, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सकी. दरअसल, शिक्षकों को यह अच्छे से पता है कि नियोजन पर शिक्षक बहाली की प्रक्रिया तो भाजपा राज में ही शुरू हुई थी. 2001 में वाजपेयी सरकार ने सभी राज्यों को स्थानीय निकाय अंतर्गत बंधुआ मजदूर शिक्षकों की बहाली की अनुमति दी थी. 1500 रु. मासिक वेतन और 11 महीने के अनुबंध पर शिक्षा मित्र की बहाली पूरी तरह से वाजपेयी सरकार की देन थी. वहीं से शिक्षा की बर्बादी की कहानी शुरू हुई. उसके पहले बिहार में शिक्षकों की स्थाई बहाली होती थी. सर्व शिक्षा अभियान लागू होने के बाद पहली बार 2002 से 2005 के बीच श्रीमति राबड़ी देवी की सरकार में महज 1500 रु. महीना पर शिक्षा मित्रों की बहाली की गई थी. उस समय माना गया था कि यह बहाली अस्थायी है लेकिन 2005 के बाद भाजपा-जदयू सरकार में उसे स्थायी बना दिया गया. भाजपा-जदयू शासन की शुरूआत ही नियमित व स्थायी शिक्षकों के पदों को मृत संवर्ग घोषित करने के साथ हुई. 4 से 5 हजार के वेतन पर पंचायती राज द्वारा बहालियां की जाने लगीं. प्रक्रिया ही ऐसी ली गई कि उसमें कई प्रकार की असंगतियों का होना लाजिमी था. इस प्रकार बिहार की शिक्षा व्यवस्था में एक खतरनाक व संविधान विरोधी अध्याय की शुरूआत हुई.

2011 के बाद विभिन्न विषयों में राज्य शिक्षक पात्रता परीक्षा का आयोजन होने लगा. पहले से कार्यरत शिक्षकों का शिक्षण-प्रशिक्षण करवाया गया और उनसे दक्षता परीक्षा ली गई. सरकार अबतक 6 चरणों में शिक्षक बहाली कर चुकी है. सातवें चरण के अभ्यर्थी 2019 की पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत अपनी बहाली का इंतजार कर रहे थे. वहीं शिक्षक समुदाय समान काम के लिए समान वेतन और सरकारी कर्मी का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहा था. इन्हीं स्थितियों में सरकार नई शिक्षक नियमावली, 2023 लेकर आई जिसमें अब सीधे बीपीएससी से परीक्षा का प्रावधान कर दिया गया. सरकारी कर्मी बनने के लिए शिक्षकों पर भी यह परीक्षा लाद दी गई. इसी कारण शिक्षकों व सातवें चरण के अभ्यर्थियों में आक्रोश पनपा.

सर्व शिक्षा अभियान ने शिक्षा की गुणवत्ता को गिराया

नियोजन पर शिक्षक बहाली की प्रक्रिया ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था के स्तर को काफी नीचे गिराया है. लेकिन इसकी पहली जिम्मेवारी किसी पर जाती है तो वह भाजपा ही है. पूरे देश की रिपोर्ट यह है कि नामांकन अनुपात और बुनियादी ढांचे में कुछ सुधार तो हुए, लेकिन प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता की समस्या हल करने में सर्व शिक्षा अभियान पूरी तरह असफल रहा है. प्राथमिक शिक्षा की निम्न गुणवत्ता उच्च शिक्षा की संभावना को बेहद कम कर देती है. इसी पैटर्न पर बिहार की शिक्षा व्यवस्था चलती रही है और उसी के अनुरूप शिक्षक बहाली भी हुई.

भाजपा-जदयू सरकार ने शिक्षकों की मांगों की लगातार उपेक्षा की. उनसे कई प्रकार के गैरशैक्षणिक कार्य लिए जाते रहे. समाज में उनकी प्रतिष्ठा पहले वाली नहीं रही. यह भला कौन भूल सकता है कि उपमुख्यमंत्री रहते हुए सुशील कुमार मोदी ने कई बार शिक्षक समुदाय का अपमान किया था. उन्होंने कहा था कि यदि भगवान भी आ जाए तो नियोजित शिक्षकों को सरकारी कर्मी का दर्जा नहीं दिया जा सकता. भला शिक्षक समुदाय भाजपा के इस आधिकारिक लाइन को कैसे भूल सकते हैं? भाजपा उन राज्यों में जहां उसका शासन है, इसी प्रकार की शिक्षा व्यवस्था बना कर रखे हुए है. यही वजह रही कि शिक्षकों ने भाजपा पर एक आना भरोसा नहीं किया और वे भाकपा(माले) के नेतृत्व में अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं.

फंड में भी कटौती करती गई केंद्र सरकार

सर्व शिक्षा अभियान की परियोजना केंद्र व राज्य सरकार की संयुक्त परियोजना थी. शुरूआती दौर में इस मद का पूरा पैसा केंद्र सरकर ही देती थी. धीरे-धीरे केंद्र सरकार अपना हाथ पीछे खींचती गई और राज्य सरकार पर भार बढ़ाते गई. अभी इस परियोजना में केंद्र 60 और राज्य 40 प्रतिशत पैसा देता है. लेकिन केंद्र सरकार हर साल अपनी हिस्सेदारी 5 प्रतिशत घटा रही है. बिहार जैसे गरीब प्रदेश के लिए यह बहुत भारी है. भाजपा-जदयू गठबंधन टूटने के बाद तो केंद्र सरकार अपने हिस्से का पैसा भी नहीं दे रही है. इसलिए बिहार सरकार के समक्ष कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं और वह नियोजित शिक्षकों को समय पर वेतन नहीं दे पा रही है.

अतः शिक्षक समुदाय को भाजपा की राजनीतिक चाल को समझना होगा. मामला केवल बिहार सरकार का नहीं है, बल्कि यह लड़ाई मूलतः केंद्र सरकार के खिलाफ है. हमें केंद्र सरकार और भाजपा पर दबाव बनाना होगा ताकि वह अपनी जिम्मेदारी से पीछे न हट सके. यह महागठबंधन की ही सरकार है जिसने 2001 के बाद पहली बार शिक्षकों को सरकारी कर्मी बनाने का निर्णय किया है. जरूर इसमें कुछ विसंगतियां हैं, लेकिन इनके ठीक होने की संभावना अब काफी बढ़ गई है.

– कुमार परवेज

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