वर्ष - 32
अंक - 20
13-05-2023

– आकाश भट्टाचार्य

[एनसीईआरटी सिलेबस में बदलाव पर टिप्पणी]

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधन और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने इतिहास पाठ्यपुस्तक के ‘थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री - पार्ट 2’ से ‘किंग्स एंड क्रोनिकल्स : मुगल दरबार (16वीं और 17वीं शताब्दी)’ वाले अध्याय को हटा दिया है. यह बदलाव काफी दुखद है क्योंकि मुगल प्रशासकीय एकीकरण ने भारत के भौगोलिक और सांस्कृतिक नक्शा – जैसा कि आज हमारे सामने है – को शक्ल देने में मुख्य भूमिका निभाई थी.

लेकिन जिस देश को हम जानते आए हैं, वह तेजी से लुप्त होता जा रहा है. इसके विविधतापूर्ण इतिहास को मिटा देना हिंदू राष्ट्र के निर्माताओं की मुख्य कार्य-विध है. नवंबर 2022 में असम में एक सभा के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने कहा : ‘हमें अब गर्व के साथ अपने इतिहास को पुनः लिखने से कौन रोक सकता है ? हमें इसे संशोधति करना होगा और गर्व के साथ दुनिया के सामने अपने इतिहास को रखना होगा.’

हमें सोचकर हैरत होती है कि भारतीय इतिहास के किस हिस्से को फिर से लिखने की जरूरत है, और क्यों. हिंदुत्व ब्रिगेड ने भारत के राष्ट्रवादी महागाथा के पुनर्लेखन का औचित्य बताने के लिए ‘वि-औपनिवेशीकरण’ और ‘लोकतांत्रीकरण’ के जुमले का इस्तेमाल किया है. ये दोनों जुमले तीन कार्यभारों को पूरा करने के लिए आवरण का काम करते हैं : हिंदू-मुस्लिम द्वंद्व को भारत के अतीत की चीज बताना, हिंदूवाद को झूठे तौर पर भारत की मूल विचारधारा बताना, और हिंदूवाद के आंतरिक मतभेदों, श्रेणी-विभाजन व टकरावों को नजरअंदाज करना. हिंदुत्व के ऐतिहासिक औचित्य के ये तीन मूलभूत तत्व हैं.

शिक्षाशास्त्र के लिहाज से, हिंदू राष्ट्र के शिक्षण में औपचारिक और अनौपचारिक तरीकों से हिंदुत्ववादी इतिहास का प्रस्तुतीकरण शामिल है. आधकिरिक पाठ्यक्रम के अलावा आम लोगों के बीच सनसनीखेज और पूर्वाग्रहपूर्ण विमर्शों को थोपने के साथ-साथ विविधतापूर्ण बहुलतावादी परिप्रेक्ष्यों को मिटाने का काम भी चलता रहता है.

हिंदूवादी इतिहास में खुली तथ्यगत त्रुटियां, जानबूझ कर की गई विकृतियां और विलोपन भरे होते हैं. लेकिन, उनकी शैली लोकलुभावनी होती है, और सोशल मीडिया अभियानों में वे आसानी से जगह बना लेते हैं. राज्य सत्ता द्वारा समर्थित इन इतिहासों को आधिकारिक पाठ्यक्रमों के अलावा साहित्यिक समागमों और सांस्कृतिक समारोहों में भी काफी स्थान मिलने लगा है.

मुकम्मल रूपांतरण

इतिहास तो सरकार द्वारा किए जा रहे बौद्धिक गठन का सिर्फ एक अंग है. पाठ्यक्रम में किए जा रहे अन्य बदलावों पर नजदीकी नजर डालने से और भी गहरे शिक्षाशास्त्रीय रूपांतरण की स्पष्ट झलक मिल जाती है.

पाठ्यपुस्तकों का भगवाकरण करने के लिए 2014 के बाद किए जा रहे प्रयासों के तहत ही तीन विषयवस्तुओं को हटाया गया है अथवा इन्हें ढीला बनाया गया है. पहला, भारतीय इतिहास के अभिन्न अंग के बतौर मुस्लिमों का वर्णन; दूसरा, इस देश में लोकप्रिय सामाजिक-राजनीतिक जन आन्दोलनों का उल्लेख; और तीसरा, आरएसएस और उनके विचारकों द्वारा किए गए अत्याचारों की चर्चा.

राजस्थान की भाजपा सरकार ने 2016 में स्कूली पाठ्यपुस्तकों की एक नई श्रृंखला लागू की थी, जिसके अंतर्गत विज्ञान की पुस्तकें मिथकीय विषयवस्तुओं पर आधारित थीं, और साहित्य व समाज विज्ञान के पाठ्यपुस्तकों में जाति व्यवस्था की बुराइयों को छिपा लिया गया था, जातीय और लैंगिक रूढ़ियां पुनर्स्थापित की गई थीं, सशस्त्र शक्तियों के प्रति सम्मान को ही देशभक्ति मान लिया गया था, और हल्दीघाटी की लड़ाई जैसी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया था.

इसके पहले एनसीईआरटी के सिलेबस में 2002 के गुजरात जनसंहार से जुड़े संदर्भों को हटाया गया; आम जनता और संस्थाओं पर आपात्काल के भयावह प्रभावों के उल्लेख वाले पैराग्राफों को छोड़ दिया गया; महत्वपूर्ण प्रतिवादों और सामाजिक आन्दोलनों – जैसे कि नर्मदा बचाओ आन्दोलन, दलित पैंथर्स और भारतीय किसान यूनियन के आन्दोलनों – वाले अधयायों को भी समाज विज्ञान के पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया गया था.

हिंदू-मुस्लिम एकता बनाने के महात्मा गांधी के प्रयासों, गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध, इस हत्या में नाथूराम गोडसे की भूमिका और उसकी ब्राह्मण पृष्ठभूमि – इन सबको हाल के अतीत में एनसीईआरटी सिलेबस की समीक्षा करने वाले सरकारी मान्यताप्राप्त ‘विशेषज्ञों’ के गुस्से का शिकार होना पड़ा है.

इसी प्रकार, ‘सेंट्रल इस्लामिक लैंड’, ‘संस्कृतियों का टकराव’, और ‘औद्योगिक क्रांति’ जैसे अध्यायों को भी 11वीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक ‘थीम्स इन वर्ल्ड हिस्ट्री’ से हटा दिया गया है. कक्षा 7 और 8 के लिए समाज विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों से दलित लेखक ओम प्रकाश वाल्मीकि के संदर्भों को हटा दिया गया है.

एनसीएफ 2005 को धवस्त करना

एनसीईआरटी पाठ्यक्रमों पर इस हमले पर ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि मौजूदा पाठ्यपुस्तकों में इसके पहले के पाठ्यपुस्तकों की तुलना में लोकतांत्रिक परंपराओं और संवैधानिक भावना की कहीं ज्यादा झलक मिलती है. पाठ्यक्रम का यह ढांचा 2005 में कांग्रेस-नीत सरकार के दौरान पेश किया गया था; लेकिन ये पाठ्यपुस्तकें भारतीय समाज और इतिहास के कांग्रेसी विमर्श से परे चली जाती थीं.

मिसाल के तौर पर, 2005 के बाद के स्कूली इतिहास पाठ्यक्रम में आंचलिक इतिहासों पर जोर दिया जाता था, जातीय व लैंगिक अत्याचारों की चर्चा होती थी ताकि इनपर काबू पाया जा सके; साथ ही, उनमें बच्चों पर अतीत के बारे में सूचनाओं का बोझ लादने की बजाय उन्हें ऐतिहासिक रूप से सोचने की प्रेरणा जगाई जाती थी. शायद यही वजह है कि एनसीएफ 2005 हिंदू राष्ट्र की शिक्षाशास्त्रीय परियोजना के लिए बड़ा खतरा है. एनसीएफ 2005 शिक्षा के सीमित, किंतु महत्वपूर्ण लोकतांत्रीकरण की उपज था, जो 1970 के दशक में हुआ था. इसने दलित बहुजन, नारीवादी, आदिवासी और मार्क्सवादी विद्वानों की कई पीढ़ियों के परिप्रेक्ष्यों को समाविष्ट किया था.

हिंदुत्व ब्रिगेड आनन-फानन इन विद्वानों को ‘वामपंथी’ कहकर खारिज कर देता है, क्योंकि उनके विद्वतापूर्ण विचार उनकी लोकतंत्र-विरोधी राजनीति और विचारधारा के लिए खतरा हैं. ये परिप्रेक्ष्य औपनिवेशोत्तर-कालीन विद्वतापूर्ण परंपरा के अंग हैं जो औपनिवेशिक और बहुसंख्यावादी, दोनों किस्म के दृष्टिबिंदुओं के प्रति आलोचनात्मक रुख रखती थी.

गोपाल गुरु, निवेदिता मेनन, रोमिला थापर सरीखे असाधारण विद्वानों के लिए वि-औपनिवेशीकरण (उपनिवेशवाद से मुक्ति) का मतलब सनातन र्धम को बचाने की हिंदुत्ववादी परियोजना से बिल्कुल भिन्न था. इस उपमहाद्वीप और अन्यत्र भी वि-औपनिवेशीकरण का असल मतलब राजनीतिक आजादी की प्राप्ति से कहीं ज्यादा रही है. उसका मतलब जाति, वर्ग, लिंग, और नस्ल के ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़क ढांचे को खत्म करना भी रहा है.

र्धमनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक सामाजिक विज्ञानी इस खतरे के प्रति बारंबार आगाह करते रहे हैं कि लोकतंत्र का इस्तेमाल बहुसंख्या के खिलाफ उत्पीड़न के विचार को वैधता दिलाने के लिए किया जा सकता है. एनसीएफ 2005 पाठ्यक्रम और शिक्षाशास्त्र, दोनों में उनके लोकतांत्रिक दृष्टिबिंदुओं की मजबूत छाप सुनिश्चित करता है.

एनईपी (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) अधिगम उद्देश्यों को पुनर्परिभाषित करती है

अतीत में, जब भी आरएसएस से संबद्ध संगठन – चाहे वह भारतीय जन संघ (1977-80) हो या भाजपा (1996-2004) – सत्ता में रहे हैं, तो ऐसे पाठ्यक्रम को लाने की कोशिशें की गईं जो उनकी राजनीति से मेल खाता हो, अर्थात ब्राह्मणवादी रूढ़ियों को स्थापित करना, सर्वसत्तावाद का महिमामंडन करना, हमारे मुस्लिम शासकों को क्रूर बताना, आर्यों के बाहर से आने के ऐतिहासिक रूप से स्थापित सिद्धांत को इन्कार करना, और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को प्रोत्साहित करना. साथ ही साथ, पाठ्यक्रम की उनकी दृष्टि में हमारे समाज को परिभाषित करने वाली गहरी जातीय, वर्गीय और लैंगिक विषमताओं को स्वीकार करने में भी ना-नुकुर मौजूद रही है.

मौजूदा परिस्थिति आरएसएस के लिए बड़ी छलांग लगाने का मौका साबित हुई है, क्योंकि वे इन बदलावों को ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ (एनईपी) में शामिल कराने में कामयाब हो गए हैं. आरएसएस का प्रभाव इस नीति दस्तावेज में उल्लिखित अधिगम उद्देश्यों में साफ नजर आता है.

इस दस्तावेज में अधिगम के मुख्य उद्देश्यों के बतौर अन्य बातों के अलावा ‘बुनियादी नैतिक विवेक, पारंपरिक भारतीय मूल्यों और तमाम मानवीय व संवैधानिक मूल्यों’ को समाविष्ट करने की बात कही गई है. जिन मूल्यों को सूचीबद्ध किया गया है (खंड 4.28), वे इस प्रकार हैं :

.... सेवा, अहिंसा, स्वच्छता, सत्य, निष्कम कर्म, शांति, त्याग, सहिष्णुता, विविधता, बहुलतावाद, सदाचार, लैंगिक संवेदनशीलता, बड़ों के लिए आदर, लोगों की पृष्ठभूमि का लिहाज किए बिना सब लोगों और उनकी अंतर्निहित क्षमताओं के प्रति सम्मान, पर्यावरण के लिए आदर-भाव, सहायता करने की भावना, विनम्रता, धैर्य, क्षमाशीलता, संवेदना, करुणा, देशभक्ति, लोकतांत्रिक दृष्टिकोण, मर्यादा, जिम्मेदारी, न्याय, समानता, और बंधुत्व.

इन अधिगम उद्देश्यों में संघ के अपने मूल्यों और संवैधानिक मूल्यों का अजीब घोलमट्ठा दिखता है, और इसे इस प्रकार से तैयार किया गया है कि संवैधानिक अधिकारों के महत्व के बारे में इस दस्तावेज में कोई चर्चा ही नहीं है. इसमें प्राचीन भारतीय परंपरा के अनेकानेक संदर्भ देकर उन्हें ही मूल्यों का स्रोत बताया गया है, लेकिन उसमें इस्लाम की कोई चर्चा नहीं है. इसमें मौलिक अधिकारों से ज्यादा मौलिक कर्तव्यों पर जोर दिया गया है.

संस्थागत परिवर्तन

पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन हिंदू राष्ट्र की शिक्षाशास्त्रीय परियोजना का महज एक छोटा हिस्सा है. यह एनईपी के उन अनेक तत्वों में से सिर्फ एक है, जो शिक्षा के भगवाकरण की ओर निर्देशित हैं. आरएसएस-समर्थित संस्थाओं को औपचारिक शिक्षा प्रणाली के साथ जोड़ना सार्वजनिक शिक्षा के फासिस्ट अधिग्रहण का अभिन्न अंग है.

पिछले तमाम वर्षों में आरएसएस ने अपने खुद के स्कूलों का विशाल नेटवर्क विकसित कर लिया हैः औपचारिक स्कूल (12,363), एकल शिक्षक स्कूल (12,001), और हजारों संस्कार केंद्र – ये सब अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान, विद्या भारती और आरएसएस के अन्य मोर्चों के जरिये संचालित होते हैं. एनईपी शिक्षा में निजी लोकोपकारी पहलकदमियों को खूब प्रोत्साहित कर रही है, और औपचारिक शिक्षा नेटवर्क के अंदर आरएसएस के इस ढांचे को समाविष्ट करने के प्रयास किए जाएंगे.

इसके पहले आरएसएस ने इस पैरा प्रणाली का इस्तेमाल औपचारिक स्कूल प्रणाली के प्रभाव को कम करने में किया था, क्योंकि इसपर उनका कोई नियंत्रण नहीं था. अब, सत्ता में गहरे रूप से पांव जमा लेने के बाद ऐसा लग रहा है कि यह एकीकरण ही इस खेल का नाम बन गया है.

एनईपी सरकार को निजी हाथों में कई कामों की आउटसोर्सिंग करने के लिए प्रोत्साहित करती है – जैसे कि शिक्षक प्रशिक्षण, एसेसमेंट, शैक्षिक परिसरों में सुरक्षा सेवा आदि. शिक्षा में एनजीओ और निजी संगठनों की हिस्सेदारी के नियम-कानूनों पर किसी स्पष्टता के बगैर यह आशंका सही तौर पर उठती है कि आरएसएस-समर्थित एनजीओ और अन्य निजी निकायों को शिक्षा प्रणाली के अंदर पहले से अधिक भूमिका दी जाएगी.

एनजीओ-आधारित हस्तक्षेप के एक उदाहरण के बतौर, एनईपी की प्रस्तावना में, केंद्र सरकार ने सलाहकार समितियां गठित की हैं जिनमें आरएसएस के पदाधिकारियों और उसके सहयोगियों को शामिल किया गया है, ताकि शिक्षा का ‘भारतीयकरण’ किया जा सके. दीनानाथ बतरा की अगुवाई में आरएसएस से संबद्ध एक महत्वपूर्ण निकाय भारतीय शिक्षा नीति आयोग ने पहले सलाह दी थी कि स्कूली पाठ्यपुस्तकों से पंजाबी कवि पाश की कविता, मिर्जा गालिब की शायरियों, ‘हिंदू’ पार्टी के रूप में भाजपा का उल्लेख, और भाजपा शासनों के अंतर्गत दंगे की घटनाओं की चर्चा को हटा दिया जाए, और स्कूली पाठ्यक्रम में अंग्रेजी, अरबी या उर्दू को शामिल करने से बचा जाए. बतरा और उनके जैसे लोगों ने एनईपी का दस्तावेज तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, और उनलोगों ने इस नए खाके का स्वागत किया है.

उपरलिखित संस्थागत बदलावों का मतलब है भगवाकृत पाठ्यक्रमों के साथ राग अलापना, ताकि शिक्षा में भय, विभाजन और मातहती का मनोभाव पैदा किया जा सके और इस प्रकार आलोचनात्मक और संविधान-अनुकूल शिक्षाशास्त्र को तहस-नहस कर दिया जाए.

हिंदू राष्ट्र को खारिज करना

हिंदू राष्ट्र को खारिज करने के लिए सिलेबस में किए गए इन बदलावों के खिलाफ सिर्फ मौखिक प्रतिवादों से काम नहीं चलेगा. एनईपी के क्रियान्वयन के विभिन्न मोड़ों पर सिर्फ सिलेबस में आए इन बदलावों को ही नहीं, बल्कि पूरी की पूरी एनईपी को ही चुनौती देनी होगी. वर्तमान में केवल कुछ वामपंथी और दलित संगठन ही ऐसा करते दिख रहे हैं. सिलेबस परिवर्तन से चिंतित तामाम लोगों को समग्र तौर पर एनईपी के बारे में सोचना पड़ेगा.

इस लेख में जितनी प्रक्रियाओं का उल्लेख किया गया है, वह तो एनईपी द्वारा हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए अपनाई गई अनेकानेक प्रक्रियाओं का अंश भर है. यह एनईपी ऊंची जातियों / वर्गों के प्रभुत्व को पुनः सुदृढ़ करने के लिए सटीक संस्थागत तौर-तरीके भी पेश कर रही है.

एनईपी उन महत्वपूर्ण परिभाषाओं में भी बदलाव ला रही है जो जाति-विरोधी, नारीवादी और वामपंथी संघर्षों के दौरान उभरी हैं. सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों में लिंग (जेंडर) को एक पहचान के बतौर बताया गया है, जाति को अनुसूचित जातियों तक सीमित कर दिया गया है, जबकि एक श्रेणी के बतौर वर्ग पूरी तरह गायब है (खंड 6.2). जैसा कि पहले कहा गया है, अधिगम उद्देश्यों में छात्रों को संवैधानिक अधिकारों के बारे में शिक्षण को नजरअंदाज कर दिया गया है. यह शिक्षा को उसी हद तक सीमित करने का प्रयास है जिसमें हमारी शिक्षा सत्ता के मौजूदा ढांचे को शक्तिशाली वैचारिक चुनौती देने की प्रेरणा न दे सके.

जाहिर है, बड़े कॉरपोरेशन इस ढांचे से फायदा उठाएंगे और हैरत की बात नहीं कि उन्होंने एनईपी के लिए रास्ता साफ करने में बड़ी भूमिका निभाई है. तथाकथित ‘उदारहृदय’ कॉरपोरेट संगठन – जैसे कि अजीम प्रेमजी फाउंडेशन – वास्तव में सिलेबस बदलाव की चल रही प्रक्रिया में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं.

कई तरीकों से, एनईपी वर्तमान के अत्यंत असमान और शोषणकारी रोजगार परिदृश्य को सुस्थिर बना रही है और स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को इसी मकसद से नए सांचे में ढाल रही है. एनईपी ऐसा सामाजिक-आर्थिक ढांचा तैयार करना चाहती है जो बड़े कॉरपोरेट प्रभुत्व – सांप्रदायिक-कॉरपोरेट राज का दूसरा पहलू – के अनुकूल हो. इसीलिए, एनईपी को दी जा रही चुनौती को इस कंपनी राज के खिलाफ चल रही लड़ाइयों के साथ समन्वित करना होगा.

अंततः, जहां तक कि इतिहास का सवाल है, तो यह जरूरी है कि इतिहासकारों के पुराने और नए नेटवर्कों के जरिये एक प्रति-विमर्श खड़ा किया जाए. एनईपी अपने साथ जो सांगठनिक चुनौतियां सामने ला रही है, वह विमर्शात्मक चुनौतियों से कहीं ज्यादा बड़ी हैं. प्रति-विमर्श खड़ा करते समय हमें इतिहास को पुरानी-धुरानी न्याय प्रणाली को पुनर्स्थापित करने के हिंदुत्ववादी-प्रयासों से अलग करने के तौर-तरीके ढूंढने होंगे. यह बड़ी चुनौती है, कठिन लड़ाई है, मगर इसे जीता जा सकता है!