वर्ष - 31
अंक - 51
17-12-2022

गौरीनाथ के उपन्यास ‘कर्बला दर कर्बला’ पर चर्चा 

विगत 9 दिसंबर, 2022 को पटना के कालिदास रंगालय में 1980 के दशक के भागलपुर पर केंद्रित गौरीनाथ के उपन्यास ‘कर्बला दर कर्बला’ पर हिरावल की ओर से एक चर्चा आयोजित हुई.

इसकी शुरूआत करते हुए युवा आलोचक श्रीधरम ने कहा कि एक ऐसे समय में जब सांप्रदायिकता पर बात करने पर राष्ट्रद्रोही करार दिया जाता है, ऐसा उपन्यास लिखना अपने समय की चुनौतियों से जूझने की तरह है. इसमें अल्पसंख्यकों के भय के मनोविज्ञान को समझने की अच्छी तरह से कोशिश की गयी है. यह उपन्यास पत्रकारिता और फिक्शन की दूरी मिटाता है.

आलोचक सुधीर सुमन ने कहा कि इस उपन्यास में इतिहास, समाज, सामंती पारिवारिक ढांचा, संप्रदायों की बीच के संबंध, शहर का भूगोल, शहर की स्थानीय घटनाएं और शहर पर राष्ट्रीय घटनाओं, तत्कालीन राजनैतिक माहौल और बहसों के पड़ने वाले प्रभावों का उपन्यास की कथा के साथ इतना बेहतरीन सामंजस्य है कि इसे विश्वसनीय ऐतिहासिक तथ्यों की तरह भी पढ़ा जा सकता है. यह बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को एक तुले पर रखकर नहीं दिखाता, बल्कि तथ्यों के साथ बहुसंख्यक सांप्रदायिकता यानी हिंदुत्ववादी राजनीतिक सांप्रदायिकता को कत्लेआम और तबाही के लिए जिम्मेवार ठहराता है. इस सांप्रदायिक राजनीति के लिए मौजूदा सामंती-वर्णवादी संरचना मददगार साबित होती है. नई पीढ़ी के पाठक इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह जान सकते हैं कि दंगा केवल शहर में नहीं था, बल्कि भागलपुर जिले के 250 से अधिक गांवों में फैला था और कई महीनों तक चलता रहा था.

उन्होंने कहा कि आज जब हिन्दुत्ववादी गौरव के फर्जी नैरेटिव गढ़ने वाली नृशंस राजनीतिक-धार्मिक सत्ता का उन्माद चरम पर है, तब गौरीनाथ ने एक एक काउंटर नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की है. यह उपन्यास सत्ताधारी सेक्यूलर राजनीति, विशेषकर कांग्रेस की दक्षिणपंथी कमजोरियों को स्पष्ट तौर पर प्रश्नचिह्नित करता है. अस्सी केे दशक में जो आत्मकेंद्रित मध्यवर्ग निर्मित हो रहा था, वह आसानी से हिंदू राष्ट्र के पाले में खड़े भीड़ का हिस्सा बन रहा था और तर्कशील विचार वाले संवेदनशील छात्र-नौजवानों की चुनौतियां बढ़ रही थीं, इसकी ओर भी यह उपन्यास संकेत करता है. इस उपन्यास में एक साथ सामाजिक-सांस्कृतिक तथा राजनीतिक धार्मिक घटनाएं और प्रसंग आते जाते हैं, पर मूल कथा शिव और जरीना की ही है. भागलपुर की यह कथा पूरे देश की कथा है, भागलपुर के सवाल पूरे देश के सवाल हैं. यह उपन्यास ‘सब कुछ याद रखा जाएगा’ संकल्प का ही हिस्सा है और यही इसकी सार्थकता है.

युवा कवि अंचित ने कहा कि क्या शिव के जरिए प्रतिरोध बन रहा है, इस पर विचार करना चाहिए. सत्ता जिस चीज को आज पुनस्र्थापित  करना चाहती है, उसका बीज रूप इस उपन्यास में देखा जा सकता है. यह एक कठिन और असाधारण किताब है.

चर्चित शायर संजय कुमार कुंदन ने कहा कि यह एक प्रेम कहानी है. इसे पढ़ते हुए लगता ही नहीं कि कोई कहानी पढ़ रहा हूं, ऐसा लगा कि भागलपुर में जी रहा हूं.

उपन्यासकार गौरीनाथ ने कहा कि जब विचारों और साहित्य की अंत की बात की जा रही थी, तब उन्हें लगा कि ये तो लेखक के अंत की बात की जा रही है. इसका प्रतिवाद तो लिखकर ही किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि आज सबसे ज्यादा संकट तथ्यों पर है. खबरों से तथ्य गायब हैं. लेखक का समाजशास्त्र, इतिहास और राजनीति से संबंध होना चाहिए. कुछ लोगों ने कहा कि सांप्रदायिकता के संदर्भ में यह उपन्यास संतुलित नहीं है. लेकिन तथ्य यह बताते हैं कि हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता को लेकर कोई भी कहानी यदि बैलेंस बनाती है, तो वह अविश्वसनीय होगी. यह उपन्यास बैलेंस बनाने के बजाय इसके जिम्मेवार लोगों को तथ्यों के साथ सामने लाने की कोशिश है.

चर्चित कथाकार पंकज मित्र ने कहा कि वे उस पूरे कालखंड में भागलपुर में थे और इस उपन्यास को पढ़ना फिर से एक दुःस्वप्न को जीने की तरह था. उसी समय पहली बार सियाराम से सिया को अलग करके जय श्रीराम के नारे लगने की शुरुआत हुई थी. मुहल्लों के लुच्चे-लफंगों ने लीडरशिप अपने हाथ में ली ली थी. बुजु्र्रग लोग भी उस लहर मेें बह चले थे. पुलिस और सेना के लोग भी सांप्रदायिक नफरत से भरे थे. वह खुले बाजार और आक्रामक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आहट थी.

इस अवसर पर कथाकार अवधेश प्रीत, डाॅ. विनय कुमार, संतोष सहर, संतोष झा, युवा कवि बालमुकुंद व कौशलेंद्र, उमेश सिंह, अनिल अंशुमन, दिव्यम, राजन कुमारआदि मौजूद थे.

– संतोष झा