वर्ष - 33
अंक - 30
20-07-2024

(पीटीआई के शो में कामरेड दीपंकर भट्टाचार्य: एक साक्षात्कार)

See Link: [ CPI(ML) General Secretary  Com.Dipankar Bhattacharya in conversation with PTI editors ]
 

विजय जोशी, सीईओ पीटीआई: हैलो, 4 पार्लियामेंट स्ट्रीट पर पीटीआई के शो में आपका स्वागत है. विपक्षी इंडिया ब्लाॅक इंद्रधनुषी गठबंधन है, जिसका विस्तार राजनीतिक विचारधाराओं के संपूर्ण फलक को समेटे हुए है. इसलिए इसमें एक छोर पर शिवसेना है तो दूसरे छोर पर है, अति वामपंथी पार्टी - भाकपा(माले). इस मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी का उदय मई 1967 के नक्सलबाड़ी विद्रोह से हुआ और पार्टी का गठन लेनिन कीे जयंती पर 22 अप्रैल 1969 को हुआ. पार्टी का नयी लोकसभा में बीते दो दशक में पहली बार प्रतिनिधित्व होगा, उसने दो सीटें जीती हैं, दोनों ही बिहार से.

हमारे साथ आज मौजूद हैं, पार्टी के महासचिव – दीपंकर भट्टाचार्य. दीपंकर उन लोगों में से हैं, जो अपनी बात कहने से चूकते नहीं हैं. हम उनसे इंडिया ब्लाॅक में पार्टी की भूमिका, वामपंथी विचारधारा के भविष्य, लोकतंत्र, भाजपा, कांग्रेस के बारे में उनके विचार, अन्य विविध विषयों जैसे वंशवादी राजनीति और पिट्ठू पूंजीवाद आदि पर बात करेंगे.

दीपंकर जी हमारे शो में शामिल होने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, पीटीआई में आपका स्वागत है. आइये पार्टी और पार्टी में आपकी अपनी यात्रा के बारे में थोड़ी बात करते हैं. पार्टी की स्थापना लेनिन की जयंती पर हुई थी, पार्टी से आपका जुड़ाव कैसे हुआ ?

कामरेड दीपंकर: हां, पार्टी का गठन लेनिन की जयंती पर हुआ, लेकिन यह मूल रूप से नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के आलोक में हुआ. वह 1967 था, मई 1967, जब नक्सलबाड़ी घटित हुआ और पार्टी 1969 में बनी. मैं समझता हूं कि उस समय एक दौर था, जब लोग यह बहस कर रहे थे कि पार्टी होनी चाहिए या नहीं, क्या यह सही समय होगा एक पार्टी के लिए या किसी प्रकार के ढीले-ढाले समन्वय से चल जाएगा. यह दो साल तक चला, 1969 तक.

मेरा अपना संबंध औपचारिक तौर पर पार्टी के साथ 1979-1980 से शुरू हुआ, जब मैं छात्र था. लेकिन इसकी भी एक पृष्ठभूमि है. दरअसल मेरे पिताजी रेलवे में काम करते थे. जब नक्सलबाड़ी घटित हो रहा था, वो दार्जीलिंग जिले में था, तो हम अलीपुरद्वार में थे, उस समय वह जलपाईगुड़ी जिले में था, अब अलीपुरद्वार खुद भी एक जिला है.

1967 में मैं कक्षा एक में पढ़ता था, प्राथमिक विद्यालय में. जब नक्सलबाड़ी घटित हुआ तो उसका अत्याधिक प्रभाव था, वो सारी वाल राइटिंग (दीवार लेखन), वहां वो बहुत सारे नारे थे. उन्होंने मेरे दिमाग में बहुत सारे सवाल खड़े किए, बहुत अधिक प्रभाव ग्रहण करता दिमाग था, मेरी अपने पिताजी से बहुत सारी चर्चा होती थी.

विजय जोशी: 5 या 6 साल की उम्र में?

कामरेड दीपंकर: 7-8 या 9  साल की उम्र में, जब स्कूल जाते थे तो रास्ते में बड़ी-बड़ी वाल राइटिंग होती थी – ‘सत्तर के दशक को मुक्ति के दशक में बादल दो!’ 1972 तक, जब भारत अपनी स्वतंत्रता की रजत जयंती मना रहा था, यह सब घटित हो रहा था. मैं यह पूछा करता था कि यह दोबारा से भारत को मुक्त कराने का सवाल क्यूं है? यह तो पहले ही आजाद देश है! मेरे पिताजी ने मुझे इन चर्चाओं में कभी हतोत्साहित नहीं किया. बचपन के सालों में इस तरह की हमारी राजनीतिक चर्चाएं होती थीं. वह प्रभाव मौजूद था. फिर 1974 में मैं नरेन्द्रपुर रामकृष्ण मिशन आया, वो एक आवासीय विद्यालय है. वहां पूरी तरह अलग माहौल था. वह आपातकाल का दौर था. हमें अखबार तक नहीं मिलते थे. फिर 1979 में मैंने भारतीय सांख्यकी संस्थान (इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट) में प्रवेश ले लिया. मैं समझता हूं कि 1977 चीजों को ज्यादा स्पष्ट  करने वाला साल था. उस समय लोकतंत्र को फिर से कायम किया गया. एक भावना थी कि हमने अपने लोकतंत्र को वापस प्राप्त कर लिया है. यही वो समय था, जब राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिए आंदोलन चल रहा था. पीयूसीएल, पीयूडीआर, नागरिक स्वतंत्रता आंदोलन, पर्यावरण से जुड़े आंदोलन, ये सब आंदोलन हो रहे थे. और हमारा इंडियन स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट बहुत छोटी जगह थी. बहुत थोड़े छात्र थे, वाम-उदार किस्म का माहौल था.

इस तरह, 1979 तक मैंने तय कर लिया था कि यही है, जो मैं करने जा रहा हूं. उस समय बिहार से बहुत सारी रिपोर्टें आ रही थी और कामरेड नागभूषण पटनायक....  हम दरअसल उनकी रिहाई के लिए संघर्ष कर रहे थे. वो उन बहुत थोड़े से राजनीतिक बंदियों में थे, जो रिहा किए गए और उनकी रिहाई के लिए एक कमेटी भी थी. इस तरह से यह सब हुआ, 1979 से...मैं तब तक छात्र ही था, मुझे अपनी डिग्री 1984 में प्राप्त हुई पर उस समय तक मैं लगभग पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता की तरह काम करने लगा था.

विजय जोशी: यह काफी रोचक है. भाकपा(माले) के दो सांसद होंगे, आपके लगभग तीन ही सांसद हो गए थे पर आप नालंदा बड़े नजदीकी से हार गए.....

कामरेड दीपंकर: हां, दरअसल हम तो कोडरमा के बारे में भी आशान्वित थे पर वो परिणाम थोड़ा आश्चर्यजनक, थोड़ा निराश करने वाला है....हमें उसको देखना पड़ेगा.... हमने इंडिया के घटक के तौर पर चार सीटें लड़ी, बिहार में तीन और झारखंड में एक.

विजय जोशी: और आपको ये दो सांसद लगभग दो दशक के अंतराल के बाद हासिल हुए हैं?

कामरेड दीपंकर: हां, हम भी यही सोच रहे थे कि इनका सबसे बेहतरीन प्रयोग हम कैसे कर सकते हैं. इस समय ये जो दो सांसद हैं, वे दो कार्यकालों के लिए विधायक रहे हैं. दोनों के पास बिहार विधानसभा में दस साल का अनुभव है. दोनों ही किसान नेता हैं. वे पिछले तीन-चार सालों से चल रहे किसान आंदोलन का हिस्सा रहे हैं. इसे किसान आंदोलन की जीत के तौर पर भी देखा जाएगा. तो लोग हमसे उस मोर्चे पर भी कुछ करने की उम्मीद रखेंगे. पर किसानों का मोर्चा बिहार में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान मोर्चे से काफी अलग है. तो यही कुछ है जो हम कर रहे होंगे.

जी. सुधाकर नायर, कार्यकारी संपादक: तो कामरेड भट्टाचार्य, संसद में उपस्थिति के अर्थ में, आपकी पार्टी का पुनः उभार, ऐसे समय में हुआ है जबकि वामपंथी पार्टियां ज्यादा कुछ कर नहीं सकी हैं. वामपंथ के लिए बंगाल में आफत जारी है, आपके कामरेड केरल में सत्ता में हैं पर ज्यादा कुछ नहीं कर पाये हैं. वाम मोर्चे किस व्याधि से ग्रसित है और आपकी सोच अन्य वामपंथी पार्टियों की तुलना में कैसे अलग है ?

कामरेड दीपंकर:  (हंसते हुए) यह एक स्वाभाविक सवाल है, जो हमेशा ही पूछा जाता है और इसका जवाब देना काफी मुश्किल है. मैं समझता हूं कि वामपंथ की कहानी राज्य दर राज्य, अलग-अलग है. जैसे बंगाल में वाम मोर्चा 34 साल तक सत्ता में रहा और जब वाम मोर्चा सत्ता में रहा तो हम कभी वाम मोर्चे का हिस्सा नहीं रहे. हमने अपने स्वतंत्र अस्तित्व को, एक स्वतंत्र वामपंथी पार्टी के तौर पर कायम रखा, कतिपय मुद्दों पर सरकार का समर्थन किया और जब भी जरूरत पड़ी सरकार का विरोध भी किया, उससे असहमति भी प्रकट की.

बंगाल का मामला तो सिंगूर और नंदीग्राम से शुरू हुआ, यही वो वक्त था, जब चीजें नीचे जाना शुरू हुई और किसी तरह वो उससे उबर नहीं सके. बंगाल में संभवतः जिस प्रकार की सफलता उन्हें हासिल थी और जितने लंबे अरसे के लिए थी, उसने, उनके लिए, उससे उबरना ज्यादा मुश्किल बना दिया है. केरल थोड़ा अलग है, जहां सरकारें बदलती रहती हैं. हालांकि इस बार वहां वे लगातार दूसरी बार सत्ता में हैं. मैं अभी भी उम्मीद करता हूं कि केरल, बंगाल के रास्ते पर न जाये. त्रिपुरा भी लगभग बंगाल की तरह है, जहां भाजपा काबिज हो गयी है और वामपंथ का उबरना काफी मुश्किल हो रहा है.

पर हमारी भिन्नता मूलतः उनसे इस रूप में है कि वे जब से सत्ता में आए तो तब से उनकी अधिकांश राजनीति सत्ता केंद्रित है, जैसे जब उन्होंने केरल में शुरू किया 1957 में, अगर मैं गलत नहीं हूं तो, उस सरकार को ज्यादा लंबे समय तक काम नहीं करने दिया गया, बंगाल में जब 1960 के मध्य में, 1967 में या कभी, जब उन्हें दूसरा मौका मिला, वह भी अल्पकालिक ही था, तो माकपा के लिए सरकार की स्थिरता महत्वपूर्ण चीज बन गयी और बंगाल की स्थितियों ने उन्हें काफी लंबा अरसा प्रदान किया. मैं समझता हूं कि इस तरह संघर्ष, सरकार की स्थिरता के मुकाबले दोयम हो गए. जैसे आप सिंगूर और नंदीग्राम को देखें तो यह समाज को समझने वाले किसी भी व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से समझ में आता कि किसान, बड़े पूंजी निवेश के लिए, जमीन अधिग्रहण के इस पूरे मामले से बिल्कुल खुश नहीं थे. कोई पार्टी जिसके आंख-कान खुले हों, जो विचारों के लिए खुली हो, उसने पुनर्विचार किया होता, उसमें बदलाव किया होता पर किसी तरह से वे उसी पर अड़े रहे और उन्होंने सोचा कि वे सही हैं और लोग गलत हैं!

हमारा कहीं भी सत्ता से कोई लेना-देना कहीं नहीं रहा तो इसलिए हमारा मामला ज्यादा जनोन्मुखी है, ज्यादा संघर्षाेन्मुखी है और हम समझते हैं कि हम यहां हैं ताकि हम जो भी दबाव बना सकते हैं, बनाएं क्यूंकि अंततः चाहे कोई अच्छी नीति हो, संविधान हो, जैसा मैंने आपको वोट के अधिकार के बारे में बताया कि यह संवैधानिक रूप से प्रदत्त मौलिक अधिकार है, जब वास्तव में कभी भी अस्तित्व में नहीं था (संदर्भ बिहार के दलित गरीबों का है, जहां दलितों को वोट का अधिकार पाने के संघर्ष में पार्टी ने जनसंहार झेले), तो हमें लोगों के जीवन में किसी अधिकार को हासिल करने के लिए लोगों के जीवन में बेहतरी के लिए हर इंच पर संघर्ष करना है. हमारा दृष्टिकोण, हमारी पूरी यात्रा में बहुत ही संघर्षाेन्मुखी रहा है. संक्षेप में यही मुख्य अंतर हमारी पार्टियों के बीच में है. पर हम साथ काम करने की कोशिश करते हैं, जितना भी संभव हो सकता है. और इस समय, यह दौर तो अभूतपूर्व है, उदाहरण के लिए जैसे यह इंडिया गठबंधन है, यह तो ऐसा कुछ है जो हम संभवतः चार साल पहले सोच भी नहीं सकते थे या जिस तरह का सीटों का तालमेल हमारा, राजद के साथ बिहार में है, वह भी पांच साल पहले सोचा भी नहीं जा सकता था. चूंकि यह परिस्थितियों की मांग है, इसलिए हम इस समय तो वाम के दायरे के बाहर की ताकतों की एक बड़ी श्रृंखला से भी तालमेल बनाने की कोशिश कर रहे हैं, वैचारिक पफ़लक की एक व्यापक श्रृंखला से. यह हमारे लिए नया अनुभव है पर इसमें भी संयुक्त वाम की एक भूमिका है. हम लोग कोशिश करेंगे कि अन्य वामपंथी पार्टियां भी उबर सकें. यह सही है कि वाम की ताकत (संसद में) 60 से अधिक थी, अब यह 09 पर आ गयी है तो यह बहुत अधिक गिरावट है.

बरुन झा, उप कार्यकारी संपादक: श्री भट्टाचार्य, आपने 60 से 09 पर आने की बात की, यह काफी नीचे आ गया है और फिर केरल की एक सीट, जहां माकपा जीती है, को छोड़ कर, सभी जगह.....आपके मामले में भी, आप इंडिया ब्लाॅक के साथ, कांग्रेस और अन्य पार्टियों के साथ गठबंधन में थे तो आप विचारधारा के अर्थ में सहयोगियों पर इस निर्भरता को कैसे देखते हैं ?

कामरेड दीपंकर: मैं इसे महज निर्भरता के रूप में नहीं देखता बल्कि यह अंतरनिर्भरता है. क्यूंकि हमने अर्जित किया है तो हमारे सहयोगियों ने भी अर्जित किया है बल्कि संभवतः उन्होंने ज्यादा अर्जित किया है. यह सही है कि अब चुनाव इतने ध्रुवीकृत हो गए हैं कि आपको एक लोकसभा चुनाव के लिए पांच लाख वोट या छह लाख वोट चाहिए. एक पार्टी, एक स्वतंत्र वामपंथी पार्टी के लिए अपने दम पर छह लाख वोट लाना, हो सकता है कि बहुत मुश्किल हो, हो सकता है कि यह सिर्फ केरल में संभव हो या किन्हीं समयों में अंशतः किन्ही और राज्यों में, तो गठबंधन निर्माण वक्त की जरूरत है और यह हर पार्टी की जरूरत है. इसलिए मैं इसे किसी स्थायी निर्भरता के तौर पर नहीं देखता. यह एक अभूतपूर्व परिस्थिति है, भारत ने कभी ऐसी परिस्थिति का सामना नहीं किया है. इसलिए यह हर पार्टी के लिए चाहे वामपंथी हो, समाजवादी, यहां तक कि कांग्रेस के लिए भी, हर पार्टी के लिए जरूरी है कि इस अभूतपूर्व परिस्थिति का अभूतपूर्व जवाब खोजे.

विजय जोशी: जो गठबंधन आपका है, वो इसलिए भी आसान है क्यूंकि अन्य जो गठबंधन के सहयोगी हैं वे या तो मध्यमार्गी हैं, मध्य-वाम झुकाव वाले हैं?

कामरेड दीपंकर: मैं समझता हूं कि उस वैचारिक निकटता से ज्यादा जरूरत सामाजिक अनुरूपता की है. उदाहरण के लिए आप बिहार की तरफ देखें जहां हमारी सर्वाधिक ताकत है, बिहार और झारखंड में. हमारी पार्टी सामंतवाद विरोधी संघर्षों से बढ़ी और वो कांग्रेस के वर्चस्व के दशक थे तो राजनीति में मुख्य सामंती शक्ति कांग्रेस ही थी. हमने उस कांग्रेसी वर्चस्व को बड़े झटके दिये, पर हमें उससे ज्यादा लाभ नहीं हुआ क्यूंकि हम सर्वाधिक गरीबों का प्रतिनिधित्व करते थे. लेकिन हमने ऐसी राजनीति का प्रारम्भिक सृजन कर दिया, जिसमें दूसरी पार्टियां भी सामने आ गयी, जैसे जनता दल. अगर आप हमारा इतिहास देखें तो 70 के दशक में हम वही चीजें कर रहे थे, जिनका श्रेय लोग लालू यादव को देते हैं कि उन्होंने गरीबों को स्वर दिया, उन्होंने ये दिया और उन्होंने वो दिया, बिहार में. पर मूलतः वही दमित गरीब अपनी गरिमा के लिए लड़ रहे थे, अपने मानवाधिकारों के लिए लड़ रहे थे, 70 के दशक में हमारी पार्टी के झंडे तले. तो कह सकते हैं कि बहुत से मध्यम किसान जो अंतरवर्ती जातियों से आते थे, अन्य  पिछड़ा वर्ग से या अति पिछड़ा वर्गों से थे. और हमारा सामाजिक आधार दलितों और अति पिछड़े वर्गों में था, तो मैं समझता हूं कि यह सामाजिक सामंजस्यता है, जो बहुत महत्वपूर्ण है. सामंजस्यता और मैं कहूंगा आजकल पूरकता भी महत्वपूर्ण है. क्यूंकि उदाहरण के लिए राजद जैसी पार्टी जिसका आधार बीते वर्षों में संकुचित हुआ है, लोग कहते हैं कि यह दो समुदायों या दो जातियों की पार्टी है, तो हम कुछ ना कुछ लाते हैं पटल पर, जिससे अन्य लोग लाभांवित होते हैं. और हां वैचारिक अर्थों में जब तक आप भी संविधान के पक्ष में खड़े हो तो ठीक है. जैसे शिवसेना भी इस इंडिया गठबंधन का हिस्सा है. हालांकि, हमको उनसे सीधा सरोकार नहीं है क्यूंकि हमारी महाराष्ट्र में ज्यादा उपस्थिति नहीं है, पर हमें इस गठबंधन को न्यायोचित ठहराना होता है. वैचारिक रूप से बात करें तो शिव सेना एक और हिंदुत्व पक्षधर पार्टी है पर जब तक वह संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है तो ठीक है. मैं समझता हूं कि यही वह मूल वैचारिक एकता का बिंदु है, जहां पर ये सारी पार्टियां एक साथ काम कर सकती हैं.

अंजलि ओझा, सहायक संपादक: हम वामपंथी पार्टियों को साथ चुनाव लड़ते देखते हैं, अब हम छात्र संघ के स्तर पर भी एकता देख रहे हैं तो फिर अलग पहचान रखने के पीछे क्या तर्क है और क्या हम भविष्य में किसी समय, यह उम्मीद कर सकते हैं कि वामपंथी पार्टियों साथ आयें या विलय कर लें?

कामरेड दीपंकर: मैं इसे नकारुंगा नहीं पर मैं अभी तत्काल कोई संभावना नहीं देख पाता हूं. 1964 तक भारत में एक कम्युनिस्ट पार्टी थी. यह इतिहास है कि मतभेद र्हुए और मतभेदों के चलते अलग-अलग पार्टियां बनीं. तो संभव है कि भविष्य में, ऐसा हो क्यूंकि भारत को एक मजबूत वामपंथी निर्मिति की जरूरत है. इन जनसगठनों का जो फैलाव है, अंशतः तो अलग-अलग पार्टियों की वजह से है परंतु अंशतः इसलिए भी क्यूंकि वास्तव में मतभेद हैं, राजनीतिक और वैचारिक भिन्नताएं हैं. हो सकता है वे बहुत प्रमुख मतभेद ना हों पर हां जब तक मतभेद सुलझाए नहीं जाते तब तक संपूर्ण एकता या विलय की आशा करना मुश्किल है. 

अश्विनी तलवार, राष्ट्रीय संपादक: भाकपा(माओवादी) जैसी पार्टियों के बारे में क्या ऐसे प्रयास हो रहे हैं कि उन्हें मुख्यधारा में लाया जाये ताकि वे भी चुनाव लड़ सकें?

विजय जोशी: और हिंसा छोड़ दें ?

कामरेड दीपंकर: वो समझते हैं कि अपने अर्थों में वे मुख्यधारा की पार्टी हैं. मैं सोचता हूं कि ये तय करना हमारा काम नहीं है कि क्या मुख्यधारा है, क्या धारा से बाहर है, क्या, क्या है. पार्टियां दरअसल अपने अनुभवों के जरिये सीखती हैं. अपने अनुभव से जब उन्हें महसूस होगा कि संभवतः उनको संघर्ष के अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए दूसरे तरीके भी आजमाने चाहिए, तब तक हमें इंतजार करना होगा. जैसे नेपाल में एक माओवादी पार्टी होती थी और सालों तक जिसे हम संसदीय तरीके की राजनीति कहते हैं, वो उसमें नहीं थे. पर जैसे ही नेपाल में परिस्थितियां बनीं तो उन्होंने रास्ता बदला और कुछ और करना शुरू किया. तो हम इंतजार करेंगे कि माओवादी यहां अपने अनुभव का मूल्यांकन करें और काम करने का अपना रास्ता तय करें.

विजय जोशी: पर आप उनको सलाह नहीं देना चाहेंगे?

कामरेड दीपंकर: मैं नहीं समझता कि यह हमारा काम है....लोग सलाह दिये जाने से नाराज होते हैं, यह हमारा काम नहीं है कि हम किसी को बिना मांगे कोई सलाह दें.

अम्मार जैदी, उप कार्यकारी संपादक, व्यापार एवं अर्थव्यवस्था: इंडिया ब्लाॅक ने हाल में सम्पन्न लोकसभा चुनाव में जोरदार मुकाबला किया पर बहुमत से पीछे रह गया, आपके आकलन के अनुसार क्या खामियां रह गईं, आप बहुमत के आंकड़े तक क्यूँंनहीं पहुंच पाए? दूसरा, क्या यह गठबंधन अगले चुनाव में भी चलेगा, विधानसभा के चुनाव जो अगले साल होने जा रहे हैं?

कामरेड दीपंकर: यह प्रसन्नता की बात है कि अब आप पूछ रहे हैं कि हमको बहुमत क्यूं नहीं मिला अन्यथा तो लोग यह सोचते कि अगर हमें सौ सीटें भी मिल जाएं तो यह हमारे लिए बहुत होता. देखिये कुछ 30-40 सीटें हैं, जहां मुकाबला सही में बहुत नजदीकी रहा, जहां अंतर चालीस हजार से कम का है, 32 सीटों पर या 35 सीटों और मैं इस बात से भी पूरी तरह इंकार नहीं करता कि इसमें कुछ भी गड़बड़ नहीं है. पर यह कहते हुए भी यह बात जरूर है कि कुछ राज्य हैं, जहां हम बेहतर कर सकते थे. जैसे बिहार अपने आप में ऐसा एक राज्य है. अगर हमने यूपी के जैसा प्रदर्शन कर लिया होता तो चीजें बिल्कुल अलग होती. संभवतः कर्नाटक में भी, जहां कांग्रेस सत्ता में है, अगर उन्होंने थोड़ा बेहतर प्रदर्शन किया होता.....मैं समझता हूं कि जहां हमने गंवा दिया, वो थे तीन विधानसभाओं के चुनाव – मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान. मैं सोचता हूं कि इंडिया उस समय कारक होता, इन चुनावों में इंडिया की कोई छाया नहीं थी और वो चुनाव परिणाम हमारे अनुकूल नहीं रहे. उस समय हमने काफी गतिशीलता खोयी. फिर काफी देर से, इस साल की शुरुआत में ही हमने कुछ गतिशीलता हासिल करना शुरू किया. तो वह गतिशीलता का खोना फिर एक मुख्य कारक है, उसकी भरपाई करने का कोई रास्ता नहीं था और संभवतः हमने काफी वक्त सीटों के बंटवारे की बातचीत में लगा दिया तो लोगों तक वास्तविक आंदोलनात्मक पहुंच काफी कम थी, जो कि लोग दरअसल चाहते थे. जो कुछ भी सीटें हम को मिली हैं, मैं उसका पूरा श्रेय केवल इंडिया की राजनीतिक ताकत को ही नहीं दूंगा, वह नहीं है, बिल्कुल इंडिया है पर यह इंडिया प्लस है, जिसमें इंडिया है, फिर उसमें ये चल रहे सारे आंदोलन हैं, किसान आंदोलन है, युवा आंदोलन है, नागरिक स्वतंत्रता आंदोलन है, तो इन सारे आंदोलनों ने अपनी पूरी ताकत इस गठबंधन के पीछे झोंक दी, फिर यह पूरा डिजिटल माध्यम है, मैं उसे आजादी के लिए लड़ने वाले डिजिटल योद्धाओं का समुदाय कहता हूं. तो इन सारे कारकों के साथ मिलकर हमने यह सफलता हासिल की है. यह दरअसल एक जनता का आंदोलन बन गया. पर इंडिया के दलों या इंडिया गठबंधन और चल रहे आंदोलन के वास्तविक संबंध में अभी भी कुछ अलगाव है. अगर और अधिक जीवंत किस्म का सहयोग, रिश्ते व समझदारी अधिक होती तो परिणाम कुछ और बेहतर हो सकता था. पर मैं कहूंगा कि जो है, अच्छा है. भाजपा को काफी भारी चोट पहुंचाई गयी है. यह बड़ा धक्का है और धक्का सिर्फ परिधि में यानि बाहरी कोनों पर नहीं है. वह वर्तमान में भाजपा की ताकत के दो मूलभूत तत्वों पर लगा है, उनमें से एक हिंदुत्व है और दूसरा है मोदी का नायकत्व, जिसे वो मोदी ब्रांड कहते हैं! मैं समझता हूं दोनों को ही इस चुनाव में भारी मार सहनी पड़ी है. अगर हम इस पर खड़े हो कर इसे बढ़ा सकें तो बेहतर होगा, मैं सोचता हूं कि इंडिया तो परिस्थितियों की मांग है और परिस्थितियां तो इंडिया के विघटन के बजाय और इंडिया के और अधिक होने की मांग कर रही हैं, अधिक एकताबद्ध और संगठित इंडिया की. अगर हम परिस्थितियों के प्रति जवाबदेह हैं तो मैं कोई वजह नहीं समझता, जिसके चलते इंडिया एकजुट न रह सके. पर हां राज्यों की राजनीति अलग है, उदाहरण के लिए केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य हैं, जहां कोई चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं रहा, यहां तक कि दिल्ली में भी जहां गठबंधन होना काफी मुश्किल रहा है. हम कैसे इन मतभेदों से ऊपर उठें या इन मतभेदों से पार पा कर इस राष्ट्रीय एकता को कायम रखें, यह बड़ी चुनौती है.

निर्मल पाठक, राष्ट्रीय संपादक, भाषा: क्या आप समझते हैं कि नीतीश कुमार को जाने देना एक गलती थी?

कामरेड दीपंकर: मैं नहीं समझता कि हमने उनको जाने दिया. जैसे नीतीश कुमार कहते रहते हैं –‘अब इधर-उधर नहीं करेंगे’ तो वो यह अपनी मर्जी से करते हैं. मैं समझता हूं उनका दिमाग काफी तेज है, हमेशा की तरह काफी तेज. ईमानदारी से कहें तो मैं नहीं जानता वो क्यूं गए, वो मुख्यमंत्री थे, वो अभी भी मुख्यमंत्री हैं! कोई यदि कहे कि उनको संयोजक नहीं बनाया गया तो आज की तारीख तक इंडिया का कोई संयोजक नहीं है. मैं तो नहीं देख पाता कि उनके लिए सम्मान या मान्यता में कोई कमी है. संभवतः एक डर का तत्व था, हालांकि इस डर का कोई वाजिब आधार नहीं था! राम मंदिर के उद्घाटन के बाद बहुत सारे लोगों ने सोचा कि इस देश में ऐसी लहर होगी कि अगर आप इस समय अपनी जगह से नहीं हटे और राम और राम लहर की सही दिशा में नहीं आए तो फिर आप गए...वो हर हाल में सुरक्षित रहने वाले हैं, उनके लिए सुरक्षित रहने की प्रवृत्ति ही सबसे महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है. और संभवतः यही उन्होंने किया. लेकिन जैसा यूपी हमको बताता है, वो आधारहीन भय था. पर भाजपा स्पष्ट थी, बिना नीतीश कुमार के भाजपा दस से कम सीटों पर सिमट जाती, संभवतः आधा दर्जन तक. तो यह भी एक कारण हो सकता, जो आपके सवाल के एक हिस्से का जवाब देता है कि क्यूं इंडिया अकेले बहुमत नहीं ला सका.

विजय जोशी: पर क्या आप समझते हैं कि वो (नीतीश कुमार) प्रधानमंत्री मोदी के वफादार बने रहेंगे, ऐसा लगता है कि वो उनके काफी करीब आ रहे हैं, उन्होंने, उनका हाथ पकड़ा और उनकी उंगलियां देखीं.....

कामरेड दीपंकर: ये तो कुछ ऐसा है जिसकी कई सारी व्याख्याएं हैं, पर जो उन्होंने कहा वो बिहार के मुख्यमंत्री के लिहाज से काफी सटीक था. एक तरफ नरेंद्र मोदी थे, जो सारी चमक स्वयं के हिस्से में चाहते थे, नालंदा का सारा श्रेय खुद लेना चाहते थे और दूसरी तरफ नीतीश कुमार थे जो उनको बता रहे थे कि यह यूपीए के जमाने का प्रोजेक्ट है और कई सारे लोगों ने आपसे पहले, इसमें योगदान दिया है. इस तरह वो अपने तरीके से नरेंद्र मोदी को उनकी सही जगह दिखा रहे थे और असली क्रोनोलॅजी (जैसा कि अमित शाह उसे कहते) याद दिला रहे थे. तो नालंदा की क्रोनोलाॅजी उन्होंने बता दी. बाकी का जवाब देना बहुत मुश्किल है. नीतीश कुमार ने कई बार, इधर-उधर किया है, वो इसे कहते हैं – ‘अब इधर-उधर नहीं करेंगे.’ ये तो खास तौर पर भारतीय राजनीतिक शब्दावली का हिस्सा हो सकता है या जो कलाबाजी वो खाते हैं. यह बताना बहुत मुश्किल है, कब वो ये करते हैं, क्यूं वो ये करते हैं और अगली बार कब होगा, जब वो फिर से ऐसा करेंगे!

मनोज राऊत, समन्वय संपादक: भट्टाचार्य जी, बिहार के परिणाम खास तौर पर इंडिया ब्लाॅक के लिए बेहद निराशाजनक रहे हैं, हर कोई उम्मीद कर रहा था कि आप लोग बेहतर करेंगे. आपकी राय में क्या था जो गलत हो गया? सवाल का दूसरा हिस्सा यह है कि अगले साल के विधानसभा चुनाव में आप क्या संभावना देखते हैं, क्या आप समझते हैं कि आप बेहतर करेंगे?

कामरेड दीपंकर: मैं समझता हूं कि कुछ चीजें गड़बड़ हुई, जैसे कि सीटों का बंटवारा, मैं खास तौर पर सीटों के बंटवारे से खुश नहीं हूं और उम्मीदवारों के चयन से भी. कुछ गलतियों का भीषण प्रभाव हुआ, इनसे कई सारी सीटें प्रभावित हुईं. आपको मैं केवल एक उदाहरण देता हूं – पूर्णिया का, अब पप्पू यादव उस सीट को जीतने में सफल हो गए हैं, लेकिन यह सोच पाना भी मुश्किल है कि राजद की आधिकारिक उम्मीदवार इस तरह के ध्रुवीकृत चुनाव में तीस हजार से कम वोट पाती हैं, जबकि सारी पार्टी ने अपना पूरा जोर उस उम्मीदवार के लिए लगाया. और संभवतः इसने कई सारी सीटों – अररिया, सुपौल, मधेपुरा आदि को प्रभावित किया. इसी तरह हमारा भी बहुत ही वैध और मजबूत दावा सीवान पर था. और मुझे तो सभी स्रोतों से यही फीडबैक मिला है कि मैदान में माले का उम्मीदवार होने पर हम सीवान जीत जाते. और इसने उस सारण कमिश्नरी में कई सीटें जैसे सीवान, छपरा, महाराजगंज और यहां तक कि गोपालगंज में भी जीत सुनिश्चित की होती. ये कुछ गलतियां हैं, संभवतः टाले जा सकने लायक गलतियां हैं, जिनकी वजह से हमें कुछ सीटें गंवानी पड़ी. पर इससे ज्यादा हमें यह तलाश करने की जरूरत है कि एक बार फिर हम उत्तर बिहार में अच्छा प्रदर्शन क्यूं नहीं कर सके. अगर आप विधानसभा चुनाव के परिणामों को देखें तो हमारा सबसे अच्छा प्रदर्शन दक्षिण बिहार में था. एक बार फिर हमारा सबसे अच्छा प्रदर्शन दक्षिण बिहार में रहा है और आंशिक रूप से सीमांचल बेल्ट में. परंतु उत्तर बिहार – मिथिला, चंपारण, सारण का इलाका, कोसी, ये वो जगहें जहां एक बार फिर एनडीए ने काफी बेहतर किया है. हमें इसको देखने की जरूरत है कि आखिर वहां गड़बड़ क्या होती है. जैसी सामाजिक एकता हमारी दक्षिण बिहार में है, संभवतः वह उत्तर बिहार में कमजोर पड़ जाती है, वहां ज्यादा बंटवारे हैं. और शायद दूसरी वजह नीतीश कुमार कारक हो सकती है. बहुत सारे लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि भाजपा को कोई नुकसान नहीं होगा, बल्कि नीतीश कुमार और लोजपा वो दो पार्टियां होंगी, जिनको अधिकतम नुक्सान होगा, लेकिन परिणाम तो अलग हैं. भाजपा है, जिसे बिहार में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, तुलनात्मक रूप से नीतीश कुमार को कम नुक्सान हुआ, वे केवल चार सीटें हारे हैं और लोजपा कोई सीट नहीं हारी. तो कुछ ऐसी चीजें थी कि हर चुनाव विश्लेषक, यहां तक कि योगेंद्र यादव जैसे चुनाव विश्लेषक भी, जिन्होंने यूपी का सही आकलन किया, बिहार का सही विश्लेषण नहीं कर पाये. संभवतः नीतीश कुमार कारक है, वह विरासत ज्यादा टिकाऊ है. लोग कहते हैं कि महिलाओं की नीतीश की विरासत के प्रति ज्यादा निष्ठा है और अति पिछड़ी जातियों की भी. तो इससे निपटने के लिए काफी काम करने की जरूरत है. विधानसभा चुनाव में मुझे बेहतर की उम्मीद है क्यूंकि बिहार एक संक्रमण की अवस्था में है. रामविलास पासवान नहीं रहे, सुशील मोदी नहीं रहे, लालू यादव भी उस तरह से सक्रिय नहीं हैं और अब केवल नीतीश कुमार हैं, जो उस दौर के हैं. वस्तुगत रूप से बिहार की राजनीति में हम नए दौर की तरफ बढ़ रहे हैं. यह पीढ़ी का बदलाव है और यह सब जगह हो रहा है, सभी पार्टियों में हो रहा है. तो संभवतः अगले विधानसभा चुनाव में हम बदलाव देखेंगे. बहुत सारे लोग कहते हैं कि इंडिया की जो साख है वो लोकसभा चुनाव के बरक्स विधानसभा चुनाव में ज्यादा काम आएगी.

प्रत्यूष रंजन, फैक्ट चेक व डिजिटल सेवा प्रमुख: दीपंकर जी, चुनाव प्रक्रिया को लेकर, ईवीएम, कुल मतदान की घोषणा में विलंब और कुल पड़े वोटों व गिने गए वोटों की संख्या में गड़बड़ी को लेकर चिंताएं प्रकट की जा रही हैं, विपक्षी पार्टियां इसको कैसे आगे बढ़ाएंगी ?

कामरेड दीपंकर: चुनावों से पहले हम एक सर्वसम्मत सुझाव, एक सर्वसम्मत मांग तक पहुंचे और वो थी – वीवीपैट की शत-प्रतिशत गिनती. अन्यथा वीवीपैट अपने आप में भ्रामक नाम हो जाता है. वीवीपैट का मतलब है – वोटर वेरिफायबल पेपर ऑडिट ट्रेल. वोटर अगर वेरिफाई नहीं कर रहा है, कोई वास्तविक कागजी ट्रेल यानि निशान नहीं है तो फिर वह किस काम का है? लेकिन दुर्भाग्य से उच्चतम न्यायालय सहमत नहीं हुआ और चुनाव आयोग भी राजी नहीं हुआ. मैं समझता हूं कि अंततः इस देश को वापस बैलेट यानि मतपत्रों की ओर लौटना पड़ेगा, यह मेरी राय है, यह हमारी पार्टी का पक्ष है और यह कई सारी पार्टियों का पक्ष है, मैं भारत में सभी पार्टियों के बारे में तो ऐसा नहीं कह सकता पर बहुतों की यही राय है और इसका चुनाव के परिणामों से कोई लेना-देना नहीं है. आम तौर पर भाजपा के लोग कहते हैं कि यह हारे हुओं का तर्क है, हर बार आप चुनाव हारते हैं तो आप ईवीएम की बात करते हैं. मामला यह नहीं है. आखिरकार चुनाव का मतलब पारदर्शिता और लोगों का भरोसा है और बिना पारदर्शिता के कोई भरोसा नहीं हो सकता है.

अंजलि ओझा: पर सर, अब आगे क्या रास्ता हो सकता है, आप चुनाव आयोग के पास चले गए, आप इसे उच्चतम न्यायालय भी लेकर चले गए तो अब इसे यहां से आगे कैसे लेकर जाएंगे ?

कामरेड दीपंकर: मैं समझता हूं कि एक प्रकार के लोकप्रिय जन उभार की जरूरत है. अगर तंत्र जवाब न दे तो आप कैसे करेंगे? ऐसे समय होते हैं जब लोग अपने आप को सुने जाने के लिए ऐसे तरीके अपनाते हैं, जिनका तंत्र को अंततः जवाब देना ही पड़ता है. बिल्कुल ठीक-ठीक वो कैसे होगा, कह नहीं सकते क्यूंकि परिणाम ऐसे हैं कि बहुत सारे स्थानीय क्षेत्रों में लोग इन्हें बिल्कुल भी आश्वस्तकारी नहीं पा रहे हैं, तो जब ऐसी चीजें सर्वत्र होने लगें और लोग यह मानने लगें कि चुनावों में धांधली हुई है तो आप सोच सकते हैं कि देश में लोकप्रिय उभार होगा, एक लोकतंत्र में यह कोई बुरी चीज नहीं है, यह अनसुनी बात नहीं है, यह कोई बुरा विचार नहीं है. लोग अपनी बात सुनवा सकें इसके लिए यही संभवतः एकमात्र रास्ता होगा कि तंत्र इसके प्रति जवाबदेह बनेगा.

सुमिर कौल, उप कार्यकारी संपादक: हाल में आपने नीट का विवाद देखा होगा, इसके बारे में आपकी पार्टी की मांगें क्या हैं? इसके अलावा क्या आप सोचते हैं कि इस देश में शिक्षा के भगवाकरण का केंद्रीकृत अभियान चलाया जा रहा है?

कामरेड दीपंकर: बिल्कुल, भगवाकरण तो वाजपेयी काल से या उससे पहले से ही भाजपा-आरएसएस का मूल एजेंडा है. दिमागों को नियंत्रित करना, अकादमिक माहौल को प्रभावित करना, देश के साहित्यिक माहौल को प्रभावित करना, मीडिया को प्रभावित करना – भगवाकरण उनकी प्रवृत्ति है, भाजपा-आरएसएस के डीएनए में है भगवाकरण. लेकिन भगवाकरण से आगे बढ़ कर जो हो रहा है वो है शिक्षा का पूरी तरह से निजीकरण, जिसे मैं शिक्षा का अभिजात्यीकरण कहूंगा. एक बार फिर शिक्षा, जिसे अंबेडकर ने सोचा कि वह सामाजिक न्याय और गतिकी का औजार बनेगी. जमीन या संपत्ति के किसी क्रांतिकारी पुनर्वितरण के इतर, यही वो एकमात्र चीज है जो लोगों के जीवन में ठोस बदलाव ला सकती है, इससे लोगों को वंचित किया जा रहा है और इसके साथ ही केन्द्रीकरण भी किया जा रहा है. तमिलनाडु एक राज्य है तथा कुछ और दक्षिणी राज्य व आंशिक तौर पर बंगाल भी, ये बिल्कुल शुरू से नीट के विचार के विरोधी रहे हैं, इन सब घोटालों के सामने आने के पहले से ही. यह भी एक राष्ट्र, एक परीक्षा जैसा है! मैं समझता हूं कि जो भी कुछ एक राष्ट्र, एक ... जैसा है, ये भयानक रूप से बुरे विचार हैं, वो चाहे एक राष्ट्र-एक चुनाव हो, एक राष्ट्र-एक भाषा हो या एक राष्ट्र-एक पार्टी, एक राष्ट्र-एक नेता, एक राष्ट्र-एक परीक्षा हो, ये सब बुरे विचार हैं. यह वाणिज्यीकरण शिक्षा का सबसे बड़ा अभिशाप है. निजीकरण और वाणिज्यीकरण तथा भगवाकरण उसके साथ जुड़ा हुआ है.

और हमारी मांग वही है, जो छात्र-छात्राएं मांग कर रहे हैं. तत्काल ही उन्होंने रीनीट की मांग की तो हम भी रीनीट की मांग कर रहे हैं. वे एनटीए को खत्म करने और फिर नीट को भी खत्म करने की मांग कर रहे हैं.

अंजलि ओझा: एक और मुद्दा जो सभी विपक्षी पार्टियों द्वारा उठाया जा रहा है वो है, यह एक्जिट पोल के जरिये तथाकथित तौर पर स्टाॅक मार्केट को प्रभावित करना. हम उम्मीद कर रहे हैं कि यह संसद में भी उठाया जाएगा तो इस पर आगे का रास्ता क्या है? क्या इंडिया ब्लाॅक के दलों में इसको लेकर कोई चर्चा हुई है?

कामरेड दीपंकर: हम लोग ब्लाॅक के तौर पर केवल दो बार ही मिले हैं, चुनाव के अंतिम दिन 01 जून को और चुनाव परिणाम आने के बाद 05 जून को. तो हमारे बीच मोटे तौर पर कुछ चर्चा हुई पर ठीक-ठीक आगे कैसे बढ़ना है, इसको लेकर बात नहीं हुई. पर पहले से ही संयुक्त संसदीय समिति की मांग उठ रही थी तो मैं समझता हूं कि यह मांग फिर से सामूहिक तरीके से संसद में उठाई जाएगी. यह तो सोच से परे है, अब तक तो ऐसा कभी नहीं सुना गया कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री लोगों को शेयर खरीदने की सलाह दे रहे हों! ये व्यक्ति, हमारे प्रधानमंत्री, परीक्षा योद्धा भी हैं, छात्रों को भी सलाह देते रहते हैं, मैं समझता हूं कि वह भी कुछ अवांछित सलाह होती है और छात्र उस सलाह के बिना ज्यादा बेहतर होंगे. इसी तरह निवेशक भी इस तरह की सलाह के बिना ज्यादा बेहतर रहेंगे... जो सेबी के नियमों का उल्लंघन करती है.

विजय जोशी: इस चुनाव के सबसे बड़े आश्चर्यों में से कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन भी था, उन्होंने अपनी सीटें लगभग दोगुनी कर ली. इस संदर्भ में क्या आप सोचते हैं कि आखिरकार राहुल गांधी परिपक्व हो गए हैं? आप उनके पूरे प्रदर्शन को कैसे देखते हैं?

कामरेड दीपंकर: जैसा कि आपने कहा कि कांग्रेस ने अपनी संख्या लगभग दोगुनी कर ली और वोट शेयर भी दो प्रतिशत ऊपर चला गया है. इसे सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. जितनी सीटें वे आम तौर पर लड़ते थे या जितनी सीटें उन्होंने 2019 में लड़ी, उसके मुकाबले इस बार कांग्रेस ने लगभग सौ सीटें कम लड़ी. वोट शेयर की उल्लेखनीय वापसी हुई है. निश्चित रूप से यह भाजपा के लिए झटका है और कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण वापसी है. निश्चित ही राहुल गांधी ने काफी बड़ी भूमिका अदा की है. कांग्रेस स्वयं भी महसूस कर रही है कि उसे यदि खोयी हुई जमीन वापस हासिल करनी है तो इस पुनर्वापसी में पुनः आविष्कार का तत्व भी शामिल करना होगा. इसलिए कांग्रेस ऐसा करने की कोशिश भी कर रही है. जाति जनगणना, आरक्षण – ये सभी मुद्दे हैं, जिन पर कांग्रेस कभी मुखर नहीं रही है. कांग्रेस का इन पर स्टैंड रहा है, वो इन मामलों में अन्य पार्टियों के साथ शामिल रही है पर उसने इन मामलों में कभी सक्रिय भूमिका अदा नहीं की थी. ठीक उसी तरह से एक विवादास्पद मुद्दा जिससे हर कोई बचने की कोशिश करता था, वो है अदानी-अंबानी और पिट्ठू पूंजीवाद का मसला. यह भी वो मसला है, जिसके बारे में सब कांग्रेसी नेता बात नहीं कर रहे हैं. कांग्रेस के नेतृत्व वाली सब सरकारें बात नहीं कर रही हैं पर राहुल गांधी इसके बारे में बात कर रहे हैं. तो यह पूरा विचार कि कांग्रेस को नीतियों के मामले में नयी दिशा और नए तरह से खुद को तलाशने-तराशने की आवश्यकता है और वह कांग्रेस की पुनर्वापसी की प्रक्रिया को सुगम बना सकता है और तेज कर सकता है. और कांग्रेस का पुनर्जीवित होना भारत में लोकतंत्र की पुनर्बहाली के लिए भी केंद्रीय तत्व है क्यूंकि यही एकमात्र पार्टी है भाजपा के बाद कि जिसकी राष्ट्रीय पदछाप है. अपनी विचारधारा और कार्यक्रम के अर्थ में हम सब राष्ट्रीय पार्टियां हैं पर हमारे पदछाप कुछ ही राज्यों तक सीमित हैं. इसलिए हम उनको-कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को शुभकामना देते हैं.

विजय जोशी: क्या आप समझते हैं कि कभी कांग्रेस पार्टी वंशवादी राजनीति के आरोपों से या जो मजाक इसके लिए उसका उड़ाया जाता है, उससे पार पा सकेगी? अब प्रियंका वायनाड से चुनाव लड़ने वाली हैं,यह उस विमर्श को ही मजबूत करेगा.

कामरेड दीपंकर: मैं भारत में इस पूरे वंशवाद की बात को नहीं समझ पाता, मतलब भाजपा ने इसे अपराध में बदल दिया, जैसे कि भाजपा इससे मुक्त हो! और उन्होंने इसे भ्रष्टाचार से जोड़ने की कोशिश की है. तो भाजपा के लिए परिवारवाद और भ्रष्टाचार, एक साथ चलते हैं, उनके लिए ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. यह बहुत गड़बड़ी भरा तर्क है. अगर आप वंशवाद की बात कर रहे हैं तो सबसे पहली जगह जहां आपको वंशवाद की बात करनी चाहिए, वो है – कारपोरेट जगत, जहां आपको इतनी अधिक संपत्ति और दौलत का पूर्णरूपेण वंशवादी उत्तराधिकार मिलता है. ये वो जगह है, जहां वंशवाद को रोका जाना चाहिए. उसको सबसे पहले पूंजीवाद के मूलभूत क्षेत्रों में रोका जाना चाहिए. और फिर लगभग सभी व्यवसायों में यह है, शायद इसका भारत में सामाजिक गतिशीलता के अभाव से संबंध है, वैयक्तिकता के अभाव से संबंध है, व्यक्तिगत किस्म के अधिकारों की हमारे समाज में मान्यता के अभाव से संबंध है. क्यूंकि अगर आप न्यायपालिका की बात करें, आप मेडिकल व्यवसाय की बात करें, आप किसी व्यवसाय की बात करें तो आप पाएंगे कि वहां एक प्रकार का वंशवादी उत्तरधिकार है. इसलिए मैं इसको अलग से रेखांकित किए जाने को ठीक नहीं समझता. और भ्रष्टाचार व वंशवाद को जोड़ना, यह भी पूरी तरह आधारहीन है. भ्रष्टाचार सत्ता से जुड़ा हुआ है और मैं उस कहावत को मानता हूं कि सत्ता भ्रष्ट बनाती है और पूर्ण सत्ता पूर्णरूपेण भ्रष्ट बनती है. इसलिए सत्ता यदि संपूर्ण हो जाये, अनियंत्रित हो जाये तो निश्चित ही सत्ता के गलियारों में भ्रष्टाचार होगा. भ्रष्टाचार को रोकने का यही तरीका है कि नियंत्रण और संतुलन हो, देश में अनियंत्रित सत्ता न हो. और ये सभी वंशवादी राजनेता, वो तो भाजपा में भी हैं और तो और सिर्फ  नेहरू-गांधी वंश की बात भी करें तो भाजपा के पास भी उस वंश का एक हिस्सा है – मेनका गांधी और वरुण गांधी के रूप में – भले ही अब वो भाजपा के लिए उतने अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह गए हैं. किसी भी वंश की बात कीजिये, वो किसी भी वंश की बात कर रहे हों, औरों पर आरोप लगाते हुए, वे उस वंश में अपना हिस्सा चाहते हैं. अंग्रेजी कहावत है – हांडी, केतली को कहे – तू काली!

मीनू जैन, राष्ट्रीय संपादक: एक छोटा सा सवाल है, इस असंभव किस्म के समूह के बारे में, जैसा कि आपने खुद भी कहा कि शिवसेना से लेकर भाकपा(माले) तक इसका व्यापक फलक है तो जब आपके लोग, आप, चुनाव में वोट मांगने जाते थे तो क्या लोगों को इस असंभव किस्म के समूह के बारे में समझाने में कोई मुश्किल होती थी?

कामरेड दीपंकर: बिल्कुल नहीं, बिल्कुल नहीं क्यूंकि इस समय लोकतंत्र और संविधान पूरे चुनाव का केंद्रीय एजेंडा बन गए. लोगों ने महसूस किया कि लोकतंत्र दांव पर लगा हुआ है, संविधान दांव पर लगा हुआ है तो उसकी रक्षा के लिए एक बड़े गठबंधन की जरूरत है. जिस तरह की भूमिका पिछले कुछ सालों में शिवसेना ने अदा की है, कोरोना के दौरान भी! अन्य पार्टियों की तरह शिव सेना ने भी कुछ हद तक अपने को एक नए रूप में ढालने में सफलता प्राप्त की है. तो इसलिए ये कोई मुद्दा नहीं बना. शिवसेना से अधिक तो राजद-माले का गठबंधन बिहार में मुद्दा होता पर यह मुद्दा नहीं बना. ऐसा इसलिए कि लोग परिस्थितियों को समझते हैं और वे यह भी समझते हैं कि ऐसी परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए.

विजय जोशी: वामपंथी विचारधारा की वैश्विक स्तर पर बात करें तो वह फैशन से बाहर हो रही है, चीन भी अब वास्तविक अर्थों में वाम नहीं रह गया है तो वामपंथ का मृत्यु लेख लिखना क्या जल्दबाजी होगा?

कामरेड दीपंकर: यह हमेशा ही जल्दबाजी रही है, यह हमेशा ही जल्दबाजी रहेगी. अगर आप आज कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र पढ़ें, मैं हमेशा पढ़ता रहता हूं, तो उसे पढ़ कर आपको लगेगा कि वह तो जैसे कल ही लिखा गया है. आज भी उतना ही प्रतिध्वनित होने वाला, उतना ही प्रासांगिक और जिस तरह की परिस्थितियां बन रही हैं, उनको समाहित किए हुए है. मैं समझता हूं कि होने यह वाला है कि लोग उन तरीकों से वामपंथ का पुनर्निर्माण करेंगे जो तरीके नए होंगे. मूल रूप से वामपंथ के बारे में समग्र रूप में जो विचार है, वो है आर्थिक न्याय का विचार. लोग कहते हैं कि आर्थिक पुनर्वितरण के मामले में, गरीबी उन्मूलन, बेरोजगारी खत्म करने के मामले में वामपंथ अच्छा रहा है. लेकिन जहां वामपंथ कमतर रहा है वो है लोकतंत्र, मानवाधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता आदि. यह वामपंथ की एक आलोचना रही है और मैं इसे पूरी तरह निराधार भी नहीं मानता. यह एक प्रमुख कारण था कि सोवियत रूस ढह गया. अगर आप मार्क्स और कम्युनिस्ट घोषणा पत्र पढ़ें तो वह बेहद मुक्त करने वाला है, बेहद लोकतांत्रिक है, बेहद गहरे तक लोकतांत्रिक (जनवादी) है. यह वामपंथ का जो बेहद लोकतांत्रिक तत्व है, वह तो अभी जाहिर तक नहीं हुआ है. तो यह एक क्षेत्र है. दूसरा क्षेत्र है कि राजनीति को जलवायु संकट से निपटना पड़ेगा. यह इस सदी का मुद्दा है और मैं पाता हूं कि लोग, खास तौर पर छात्र जो जलवायु परिवर्तन के बारे में बात कर रहे हैं, वो जलवायु परिवर्तन को किसी आपदा की तरह नहीं देख रहे हैं, जो घटित हो गयी है. वे बहुत आसानी से इसे पूंजीवाद से जोड़ पाते हैं, उसमें जिस प्रकार की असमानता पैदा हुई है, नग्न किस्म की धन संपन्नता, बर्बादी जहां अंतर्निहित हो, जूठन (बर्बादी) बाहुल्य उपभोग को वे देख पाते हैं. वह गांधीवादी लगे या मार्क्सवादी लगे, लेकिन उनके पास आलोचना है, उनके पास पूंजीवाद की हमारे द्वारा इतने सालों में विकसित आलोचना से कहीं अधिक मजबूत आलोचना है. मैं समझता हूं कि यह जलवायु संकट की राजनीति हमको वामपंथी दिशा में ले जाने वाली है. वह वामपंथ को पुनः बढ़ने के लिए नया आधार देगी.

अम्मार जैदी: क्या आप भविष्य में चुनाव लड़ेंगे, क्या इसकी संभावना है?

कामरेड दीपंकर: नहीं मैं नहीं समझता कि मैं उसके लिए बना हूं.....

विजय जोशी: मैं समझता हूं कि आप हैं 

कामरेड दीपंकर: मेरे द्वारा अन्य काम करना पार्टी के लिए ज्यादा उपयोगी है, हालांकि यह पार्टी को फैसला करना है, पर लोग भी इस बात को समझते हैं कि मैं चुनाव लड़ने के बजाय अन्य भूमिकाओं में, अन्य क्षेत्रों में ज्यादा उपयोगी हूं.

प्रत्यूष रंजन: सर आपने कहा कि आपको व्यक्तिगत रूप से बैलेट बाॅक्स (मतपेटी) पसंद है तो क्या आप नहीं समझते कि बैलेट बाॅक्स की तरफ वापस जाने से चुनावी तंत्र में हिंसा का दौर वापस आ जाएगा, खास तौर पर बिहार जैसे राज्यों में?

कामरेड दीपंकर: नहीं, नहीं. देखिये जो शब्द है, वो है बूथ कैप्चरिंग (कब्जा), वो बैलेट कैप्चरिग नहीं है. और जैसा कि आपने देखा कि अगर बूथ में ईवीएम भी हो तो भी बूथ पर कब्जा किया जा सकता है, ये जो लोग हैं जो बटन आठ बार दबा रहे हैं, फिर वीडियो बना रहे हैं और उसे सोशल मीडिया पर डाल रहे हैं क्यूंकि उनमें यह भाव है कि वे सजा से मुक्त हैं, पूर्ण सत्ता का भाव उनके पास है कि वो जो चाहे वो कर सकते हैं, यही वो भाव है जो बूथ कैप्चरिंग की तरफ ले जाता है, उस तरह की हिंसा की ओर ले जाता है. शुरुआती तौर पर हिंसा भी तब होती है, जब प्रतिरोध होता है. जैसे पहले कोई हिंसा नहीं होती थी, बड़ा शांतिपूर्ण बूथ कब्जा होता था क्यूंकि वही उस समय की व्यवस्था मानी गयी, इसी तरह से राजनीति का खेल खेला जाता था. पर जब लोग विरोध करने लगे तो प्रतिरोध हुआ और प्रतिरोध को ही अक्सर हिंसा कह दिया जाता है, हम अक्सर उसे किसी प्रकार की अशांति या हिंसा के रूप में देखते हैं. लेकिन जब आप संतुलन के नए स्तर तक पहुंच जाते हैं, जहां लोग उम्मीद करते हैं कि हर कोई वोट डालेगा, आप किसी अन्य के वोट पर कब्जा नहीं कर सकते, आप किसी को वोट डालने से नहीं रोक सकते तो वह फिर हमको वापस अधिक राजनीतिक हिंसा की ओर क्यूं ले जाएगा? और ईवीएम से ही देखें तो चुनाव कुछ राज्यों में ज्यादा हिंसक हैं और कुछ राज्यों में कम हिंसक हैं तो मैं नहीं समझता कि इसका मतपत्र से या तकनीक या वोटिंग करने के तरीके से कोई लेना-देना है.

मीनू जैन: क्या आप चार जून को आश्चर्यचकित हुए?

कामरेड दीपंकर: सकारात्मक रूप में हां! जिस तरह की गड़बड़ियां, प्रशासनिक पक्षपात हो रहा था, उसके बीच में यूपी के परिणाम बेहद आश्वस्तकारी थे. बिहार में हम चैंके नहीं, हम तो दरअसल और बेहतर करने की उम्मीद कर रहे थे, पर अगर कोई दो राज्य हैं, जिन्होंने मुझे चैंकाया तो उनमें से एक है यूपी और दूसरा है पश्चिम बंगाल. फिर से 2021 के बंगाल के विधानसभा चुनावों की तरह हौव्वा खड़ा किया गया, पार्टी के बाहर के मेरे सभी दोस्त कह रहे थे कि भाजपा तो 25 से कम सीटें नहीं जीतेगी. लेकिन वहां भाजपा 12 सीटों पर समेट दी गयी. ये दो राज्य बेहद खुशगवार आश्चर्य थे.

विजय जोशी: दीपंकर जी, बहुत बहुत धन्यवाद.