10 मार्च 2020 को हिंदी प्रकाशन की दुनिया में सामाजिक विज्ञान के अनन्य प्रकाशन ग्रंथशिल्पी के संचालक डा. श्याम बिहारी राय की सक्रियता पर विराम लग गया. उनका समूचा जीवन सादगी और संकल्प का साक्षात उदाहरण था. सोवियत संघ के पतन के बाद के दौर में, जब चारों ओर ‘इतिहास के अंत’ और ‘मार्क्सवाद की असफता’ का बाजार गर्म था, श्याम बिहारी राय ने हिंदी में मार्क्सवादी चिंतन की सैद्धांतिक किताबों के अनुवाद छापने का जोखिम भरा काम अपने जिम्मे लिया जिसे उन्होंने आजीवन जारी रखा. हिंदी बोलने वाले इलाके में वाम आंदोलन की कमजोरी लगभग सर्वमान्य तथ्य मान ली गई है फिर भी राय साहब ने अतुलनीय साहस के साथ इस दायित्व को निभाया.
हिंदी में गम्भीर बौद्धिक साहित्य पढ़ने वाले पाठकों की मौजूदगी का उन्हें भरोसा था. इस भरोसे के पीछे सामाजिक हलचलों की उनकी मार्क्सवादी समझ थी. उनके प्रकाशन की दुनिया में उतरने के समय हिंदी के नए पाठकों की थोड़ा भिन्न पीढ़ी सामने आई थी. इस पीढ़ी की सामाजिक संरचना पिछली पीढ़ी से अलग थी। इसमें उच्च शिक्षा में आने वाले पिछड़े विद्यार्थियों के अतिरिक्त लड़कियों की भारी तादाद शामिल थी. इन सबमें पढ़ने और दुनिया को समझने तथा उसे काबू करने की अपार ललक थी. अस्मिता विमर्श के साथ बौद्धिक सम्पर्क के कारण एक हद तक ये नवोदित पाठक समूह साहित्येतर लेखन में रुचि ले रहे थे. इससे आगे बढ़कर उन्होंने स्तरीय ज्ञानात्मक चिंतन से इन पाठकों को परिचित कराना शुरू किया. तमाम अनुशासनों से जुड़े दुनिया के मार्क्सवादी चिंतकों की किताबों से इन पाठकों को उन्होंने जोड़ा. वे इन पाठकों को पहचानते थे और उनके साथ उनका जीवंत संवाद रहता था. अपने प्रकाशन की सफलता के जरिए उन्होंने यह भ्रम तोड़ा कि हिंदी भाषी बौद्धिक समूह में मार्क्सवाद के प्रति कोई आकर्षण नहीं बचा.
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के बीरपुर गांव में उनका जन्म 1936 में हुआ था. उस जिले में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जमींदारी विरोधी आंदोलन आजादी के समय चल रहा था. भूमिधर जो भी मानें, लेकिन नौजवानों में उस आंदोलन के प्रति जबर्दस्त आकर्षण था. राय साहब पर भूमिधर जाति में जन्म लेने के बावजूद उसका गहरा असर था. गाजीपुर जिले में कम्युनिस्ट पार्टी के व्यापक प्रभाव को समझने के लिए यह तथ्य जानना दिलचस्प होगा कि पहले आम चुनाव में उस जिले की संसद की और चारों विधानसभा की सीटों पर उसके ही प्रत्याशी विजयी हुए थे. शुरू का यह असर तब और गहरा हुआ जब वे शिक्षा के लिए कानपुर आ गए. उस समय का कानपुर नगर वाम मजदूर आंदोलन का गढ़ हुआ करता था कानपुर से भी कम्युनिस्ट सांसद ही जीतते थे. इस जगह बचपन के देखे कम्युनिस्ट आंदोलन के एक और पहलू का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ और शुरूआती रंग और पक्का हो गया.
रोजगार की तलाश में उन्होंने जब 1956-57 में कानपुर में शिक्षक का जीवन शुरू किया तो उन्होंने किदवई जूनियर हाई स्कूल में 1957-1969 के दौरान भाकपा(माले) के हिंदी मुखपत्र के सम्पादक बृज बिहारी पांडे को मिडिल स्कूल में पढ़ाया था. जब 1996 में कामरेड बृजबिहारी उन दिनों दिल्ली से प्रकाशित हो रही पत्रिका समकालीन जनमत के सम्पादक थे, उन्हीं दिनों जनमत कार्यालय में बुलाई गई जनमत शुभचिंतकों की एक मीटिंग में श्याम बिहारी राय शामिल हुए. तभी का. बृजबिहारी ने अपने भूतपूर्व शिक्षक को पहचाना और इसके बाद से उन दोनों से उनका रिश्ता अंत तक बना रहा. वे बड़े फख्र के साथ अतीत के इस रिश्ते को याद करते थे और पूरी गरिमा के साथ वे इस रिश्ते को अंत तक निभाते रहे. उनके बीच अध्यापक शिष्य के मुकाबले साथीपन की गर्माहट का साक्षी होने के नाते कह सकता हूं कि वे विरल मनुष्य थे. बृज बिहारी पांडे ने उनके लिए मार्क ब्लाख की किताब का हिंदी अनुवाद ‘इतिहासकार का शिल्प’ शीर्षक से किया. हमारी पार्टी के साथ उनका बहुत ही जीवंत संबंध बना रहा. जब से उन्होंने लक्ष्मीनगर में ग्रन्थशिल्पी का दफ्तर खोला तब से ही वे प्रकाशन से चलकर अक्सर वे पार्टी दफ्तर चले आते थे. खासकर कामरेड गणेशन एवं सुबोध जी से उनकी काफी बातें होती थीं और अपने प्रकाशन के लिये उन्होंने कामरेड गणेशन से सुझाव मांगे और उन पर अमल भी किया था. कामरेड गणेशन भी अक्सर ग्रंथशिल्पी के दफ्तर जाकर श्याम बिहारी जी से चर्चा किया करते थे.
श्याम बिहारी राय की इस समस्त वैचारिक तैयारी और अनुभव ने उन्हें ग्रंथशिल्पी प्रकाशन के रूप में मार्क्सवाद और वामपंथ के उतार के दौर में हिंदी भाषा में मार्क्सवादी लेखन के प्रचार प्रसार का महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दायित्व को निभाने के लिए तैयार किया था. हमारी पार्टी द्वारा संचालित सभी पुस्तक केन्द्रों के लिये ग्रंथशिल्पी एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गया था. उन्होंने व्यक्तिगत रुचि लेकर इस काम को निभाया. मार्क्सवादी पुस्तकों के प्रचार-प्रसार जगत में उनकी अनुपस्थिति बहुत खलेगी. उनकी स्मृति को सलाम.