वर्ष - 29
अंक - 5
25-01-2020

गणतंत्र दिवस 2020 भारतीय गणतंत्र और जिस संविधान ने गणतंत्र की घोषणा की, उसकी 70वीं वर्षगांठ है. इन सत्तर वर्षों में हमारे गणतंत्र ने कभी इतनी ज्यादा गंभीर आंतरिक चुनौती का सामना नहीं किया जितना कि उसे आज उसी कार्यपालिका के हाथों झेलनी पड़ रही है, जिसको संविधान के मुताबिक कानून का शासन प्रदान करने की शक्तियां और जिम्मेवारी सौंपी गई है. आज संविधान का बुनियादी चरित्र ही हमले का शिकार बन गया है. लेकिन गणतंत्र दिवस 2020 एक विशाल देशव्यापी जन-जागरण और संविधान की रक्षा करने तथा फासीवदी सीएए-एनआरसी-एनपीआर साजिश को नाकाम करने को संकल्पबद्ध “हम, भारत के लोग” के रणघोष का भी साक्षी बन रहा है. आम भारतवासियों की यह मुस्तैदी, एकता और जुझारू जोश – जिसकी अगली कतार में युवा और महिलाएं खड़ी हैं – आज संविधान की हिफाजत में सबसे बड़ी ताकत बन गई है.

मोदी-शाह सरकार ने सिलसिलेवार ढंग से आपातकाल लागू करना शुरू किया है. इसकी शुरूआत पिछले साल अगस्त में हुई जब केन्द्र सरकार ने अचानक धारा 370 को खारिज करने तथा जम्मू-कश्मीर से उसका पूर्ण राज्य का दर्जा छीन लेने की घोषणा की तथा पूरे राज्य में अनिश्चितकालीन तालाबंदी थोप दी, जिसके साथ ही सम्पूर्ण राज्य में इंटरनेट बंद करके उसे डिजिटल अंधकार में डाल दिया और वहां केन्द्र का निरंकुश तानाशाही शासन थोप दिया. दिसम्बर में जब केन्द्र सरकार ने संसद में नागरिकता संशोधन कानून सम्बंधी तख्तपलट किया, तो उसने साथ-ही-साथ जनता के प्रतिवादों पर बर्बर दमन भी एक बार फिर चालू कर दिया. खास तौर पर उत्तर प्रदेश तो लोकतंत्र की कब्रगाह बन गया है जहां मुख्यमंत्री योगी ने प्रतिवादकारियों से बदला लेने का आह्वान किया है और पुलिस एवं संघी गुंडों ने मिलकर आतंक का राज कायम कर रखा है. उत्तर प्रदेश में पुलिस हिंदू युवा वाहिनी जैसे संघी निजी सेनाओं से स्वयंसेवकों को भरती कर रही है और अब दिल्ली पुलिस को राष्ट्रीय सुक्षा कानून (एनएसए) के तहत आपातकालीन शक्तियां सौंप दी गई हैं जिसके तहत पुलिस अब मनमाने ढंग से किसी को भी बिना कारण बताये अनिश्चित काल के लिये गिरफ्तार रख सकती है. अब फासीवादी निजाम के सारे लक्षण बड़ी तेजी से खुलकर एक के बाद एक सामने आते जा रहे है.

सीएए-एनआरसी-एनपीआर के मोर्चे पर सरकार रोज-ब-रोज एक पर एक झूठ बोलती जा रही है. एनआरसी-सीएए के खिलाफ प्रतिवादों के पैमाने को देखते हुए उसने एनआरसी के बारे में गोलमोल बातें करना शुरू किया है. मोदी ने तो यहां तक भी कह डाला कि अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के बारे में अभी तक कुछ भी तय नहीं किया गया है. नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को महज शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करने के एक उपाय के बतौर पेश किया जा रहा है और राष्ट्रीयता जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को जनगणना की तैयारी के लिये और नागरिक कल्याण योजनाओं को बेहतर ढंग से लागू करने के लिये एक निरीह किस्म की कवायद बताकर उसके असली मकसद पर पर्दा डाला जा रहा है. इस मनहूस साजिश के चौथे अंग, डिटेंशन कैम्प, जिसकी सबसे कम चर्चा की जा रही है, के बारे में तो प्रधानमंत्री ने निर्लज्जतापूर्वक उनके अस्तित्व से ही इन्कार कर डाला, जबकि असम की इन भयावह काल-कोठरियों से एक और मौत की खबर हाल ही में प्रकाशित हुई है, जिसके फलस्वरूप उनमें हुई कुल मौतों की संख्या बढ़कर 30 हो गई है.

इनमें से प्रत्येक झूठ का अब पर्दाफाश हो चुका है और सरकार द्वारा लोगों पर जो झूठ के गोले बरसाये जा रहे हैं उनके खिलाफ जनता को सच्चाई के हथियार से लैस करना होगा. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने सीएए के मुस्लिम-विरोधी भेदभावमूलक चरित्र का खंडन करने के लिये पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आये ऐसे लोगों के आंकड़ों को पेश किया है जिनको मोदी शासन के पिछले छह वर्षों के दौरान नागरिकता प्रदान की गई है. उनके अनुसार, पाकिस्तान से 2,838 शरणार्थी, अफगानिस्तान से 914 शरणार्थी और बांग्लादेश से 172 शरणार्थियों को इन छह वर्षों के दौरान भारतीय नागरिकता प्रदान की गई है, और इनमें कई मुसलमान भी शामिल हैं. यह तथ्य तो वास्तव में सीएए के पीछे दिये जा रहे समूचे तर्क का ही खंडन कर देता है. अगर शरणार्थियों को नागरिकता कानून के पहले से मौजूद प्रावधानों के तहत नागरिकता दी ही जा रही थी तो फिर मौजूदा संशोधन की आवश्यकता ही क्यों पैदा हुई? इसी प्रकार, इस तथ्य को कत्तई किसी भी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता कि एनपीआर महज एनआरसी लागू करने के लिये नींव का ही काम करेगा. एनपीआर की कवायद में सबसे ज्यादा मनहूस बात यह है कि इसमें एनपीआर के स्टाफ को मनमाने ढंग से लोगों को ‘संदिग्ध’ के बतौर चिन्हित करने की शक्तियां दे दी गई हैं. हम इस बात को कत्तई न भूलें कि यही ‘संदिग्ध’ का तगमा है जिसने असम के लोगों को नागरिकता से वंचित कर दिया और उन्हें डिटेंशन कैम्पों में सड़कर मरने के लिये भेज दिया.

सीएए, एनआरसी और एनपीआर की समूची परियोजना ही बहुत बड़े और शैतानीभरे झूठ पर आधारित है. संवैधानिक गणतंत्र के बतौर हमारे पिछले सत्तर वर्षों के अस्तित्व के दौरान, हर दस साल में जनगणना होती रही है और हर पांच साल में हमारे यहां चुनाव होते रहे हैं. सरकारों ने राशन कार्ड जारी किये हैं, गरीबी रेखा के नीचे की बीपीएल सूची बनाई है और हाल के वर्षों में हमने विशाल पैमाने पर मतदाता पहचान पत्रों और आधार कार्डों की कवायद भी देखी है. अब सरकार भला क्यों भारतवासियों से उनकी नागरिकता साबित करने को कह रही है? अगर गैर-नागरिकों ने सरकार को वोट देकर सत्ता में पहुंचाया है, तो सरकार को सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार ही नहीं बनता. हमारे पास अपनी सीमाओं पर सुरक्षा बल तैनात करने तथा देश के अंदर विदेशियों के प्रवेश पर नियंत्रण कायम रखने योग्य व्यापक और विस्तृत औजार एवं प्रणाली है. तो फिर भला विशाल तादाद में “विदेशियों” की घुसपैठ की बात उठाने की इस समूची कसरत का आधार क्या है, जिसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने यहां तक कि विदेशी आक्रमण या बाहरी हमले जैसी शब्दावली का इस्तेमाल किया है? असम के एनआरसी ने लगभग बीस लाख लोगों को नागरिकता से बहिष्कृत कर दिया और अब भाजपा उसे रद्द करने की बात कर रही है, क्योंकि व्यापक रूप से यह माना जा रहा है कि इन बहिष्कृत लोगों की विशाल बहुसंख्या भारतीय लोग हैं. मगर इसके बावजूद अमित शाह करोड़ों “घुसपैठियों” को देश से बाहर निकालने की बातें करते हैं और भाजपा के पश्चिम बंगाल राज्य अध्यक्ष केवल पश्चिम बंगाल से ही एक करोड़ बांग्लादेशी मुसलमानों को देशनिकाला देने की शेखी बघार रहे हैं!

अगर विदेशियों की घुसपैठ की जुमलेबाजी एक सफेद झूठ है, तो अचानक उन शरणार्थियों के लिये, जिन्हें इतने वर्षों से अपने वाजिब अधिकार नहीं मिले हैं, जो चिंता दिखाई जा रही है, वह भी घड़ियाली आंसू बहाने के अलावा कोई और बात नहीं है. सरकार के अपने शीर्षस्थ खुफिया पदाधिकारियों ने नागरिकता संशोधन विधेयक के मामले में बनाई गई एक संसदीय समिति के सामने बताया था कि इस किस्म के वंचित शरणार्थियों की संख्या कोई तीस हजार से थोड़ी ही ज्यादा है. जिन शरणार्थियों और कार्यकर्ताओं ने उनको वाजिब अधिकार दिलाने के लगातार संघर्ष चलाया है, उनके पास अनवरत संघर्ष के जरिये मतदान के अधिकार से लेकर राशन कार्ड तक अपने अधिकारों को हासिल करने का प्रत्यक्ष अनुभव हासिल है. शरणार्थी जनसंख्या के कारगर ढंग से सशक्तीकरण और उनके सम्पूर्ण रूप से पुनर्वास की प्रक्रिया में अगर देरी हुई है तो वह किसी कानून के अभाव में नहीं, बल्कि नौकरशाहाना अरुचि एवं उत्साहहीनता और एक के बाद एक आने वाली सरकारों की ढीलासीली एवं संवेदनशून्यता के चलते हुई है.

इस बार के गणतंत्र दिवस पर आइये, हम संकल्प लें कि सीएए को खारिज करने तथा एनआरसी-एनपीआर-डिटेंशन कैम्प की समूची कवायद को रोकने की लड़ाई को और तीखा करेंगे. अब वक्त आ गया है जब “हम, भारत के लोग” संविधान की रक्षा करने और गणतंत्र का पुनरुद्धार करने के लिये अवश्य ही पूरी शिद्दत के साथ अपनी दावेदारी पेश करें.