गुजरा हफ्ता लैटिन अमेरिका में धधकते जनांदोलनों की खबरों से पटा रहा. इक्वेडोर हो या बोलीविया, हैती हो या चिली, जनता ने भ्रष्टाचार, मंहगाई के खिलाफ और जीने के लिए जरूरी स्वास्थ्य सेवाओं और रोजगार के हक में सड़क पर लामबंदी की है.
साल्वादोर अलेंदे के मुल्क चिली ने तो शनिवार को इतिहास ही लिख दिया. आप जानते ही होंगे – लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मार्क्सवादी राष्ट्रपति अलेंदे की हत्या और तख्ता पलट 1973 में इसी मुल्क में हुआ था. उसके बाद यहां 1974-1990 तक फौजी हुकूमत कुख्यात जनरल पिनोशे की रही, फिर समाजवादियों सहित दूसरे अमेरिकी पिठ्ठुओं की सरकारें आती-जाती रहीं.
मौजूदा राष्ट्रपति सेबेस्टियन पिनेरे चिली का सबसे धनी अरबपति है जिसने हार्वर्ड से पढ़ाई की थी. राजधानी सैंटियागो की मैट्रो सर्विस का भाड़ा बढ़ाने और मजदूर यूनियन की 48 घंटे की हड़ताल के बाद पूरे चिली में जन प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ. नतीजा शुक्रवार और शनिवार को उस वक्त देखने को मिला जब 10 लाख लोगों ने पूरे शहर की सड़कों पर उतर कर गैर-बराबरी, मंहगाई, तेल की बढ़ी कीमतों, जर्जर वितरण व्यवस्था और मरणासन्न स्वास्थ्य सेवाओं के खिलाफ प्रदर्शन किया. चिली में, जहां डेढ़ दशक तक अमरीका का पिठ्ठू तानाशाह बेलगाम राज करता रहा था, वहां शनिवार को 10 लाख जनता सड़कों पर उतर आई तो शासकों के हाथ पांव फूल गए. इन प्रदर्शनों में अभी तक 18 लोगों के मरने की पुष्टि हुई है, करीब ढाई हजार लोगों की गिरफ्तारियां हुई हैं और सैंटियागो में सरकार ने कर्फ्यू लगा दिया है. ऐसा माना जा रहा है कि यह चिली के इतिहास में अब तक का सबसे विशाल प्रदर्शन था.
राष्ट्रपति सबेस्टियन पिनेरे ने प्रदर्शनों के बाद कई आर्थिक सुधारों और केबिनेट में फेरबदल करके जनाक्रोश पर पानी डालने की कोशिश की लेकिन सब बेकार साबित हुआ.
दूसरी तरफ, पिछले सात-आठ दिनों से लेबनान की आवाम ने सड़कों पर कब्जा करके सत्ताधीशों की नींद हराम कर दी है. प्रधानमंत्री साद अल हरीरी से लेकर धर्म गुरु नसरुल्लाह तक हैरान परेशान हैं कि आखिर सड़कों पर सभी मजहबों के लोगों ने एक साथ आने की हिमाकत कैसे कर ली?
लोग क्यों एक सम्पन्न, संयुक्त भविष्य की कामना में सड़कों पर उतर आये? कहा जा रहा है कि बेरुत की सड़कों पर 20 लाख लोग उतर आए. शासक वर्ग ने दशकों से उन्हें ईसाई, सुन्नी और शिया जैसी भेड़ों की तरह पाल पोस कर बड़ा किया था. आखिर इन सबको मंहगाई, भ्रष्टाचार, सड़कें, पानी, बिजली और रोजगार जैसी बुनियादी समस्याएं एक साथ कैसे नजर आने लगीं?
शायद यही कारण है कि पुलिस और सरकारी गुंडे प्रदर्शनकारियों को पीट रहे हैं, जबकि प्रदर्शनकारी बिना हथियार के शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे हैं. लेबनान पिछले सात दिनों से अपने इतिहास के सुनहरे पन्ने लिख रहा है. आवाम की हसरतें लेबनान का शासक वर्ग पूरी होने देगा या नहीं, ये बात दीगर है. लेकिन मजहबी आधार पर बंटे इस मुल्क की जनता को, अब यह बात साफ तौर से नजर आने लगी है कि आवाम की बुनियादी समस्याएं एक ही हैं, भले ही उनके मजहब अलग-अलग हों.
भारत, पकिस्तान, इसराइल, फलस्तीन और लेबनान में एक समानता है कि ये तमाम मुल्क साम्राज्यवाद के अनैतिक दुष्कर्म का शिकार होकर, मजहबी आधार पर बने और उसका नतीजा सामने है – आज सभी बर्बाद हैं. लेबनान की आवाम ने अपने मजहबी खोलों को गटर में डाल कर, अपने संयुक्त भविष्य के लिए लड़ने का बीड़ा उठाया है, उनके इस संकल्प को सलाम!
ये अलग बात है कि बिना ‘संगठन और निश्चित सोच’ से लड़ी गयी लड़ाई, मिस्र में हुस्नी मुबारक के ताज को गिरा तो सकती है, लेकिन इसका फायदा फौजी अब्दुल फतह अल सीसी जैसे तानाशाह को मिल सकता है. जनता इंकलाब चाहती है. निजाम बदलना चाहती है, जनता की इस आकांक्षा को सलाम!
(वर्कर्स यूनिटी.काॅम से साभार)