मोदी सरकार ने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों को पूरे एक साल तक लटकाए और दबाए रखा. मगर अंत में 2017 के आंकड़ों को उसको 2019 में जारी करना पड़ा है. एनसीआरबी ने पहले यह बहाना बनाया था कि यह देरी अंशतः इस कारण हो रही है कि आंकड़ों को संग्रहीत करने और उन्हें चंद नए उपशीर्षकों जैसे भीड़-हत्याएं, खाप पंचायत के आदेश पर की गई हत्याएं आदि में व्यवस्थित करने में समय लग रहा है. मगर अब सामने आया है कि भीड़-हत्याएं, प्रभावशाली लोगों द्वारा हत्याएं एवं खाप पंचायत के आदेश पर की गई हत्याएं आदि उपशीर्षकों को तो प्रकाशित ही नहीं किया गया है!
उल्लेखनीय बात यह है कि हाल में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने घोषणा की है कि “भीड़-हत्याएं” (लिंचिंग) पश्चिमी अवधारणा है और उसका इस्तेमाल भारत को बदनाम करने के लिये नहीं किया जाना चाहिये. और साफ ढंग से कहा जाये तो उन्होंने यह नहीं कहा कि भारतीयों को भीड़-हत्याएं नहीं करनी चाहिये – उन्होंने सिर्फ ऐसे लोगों को “राष्ट्र-विरोधी” का तमगा पहनाने की कोशिश की है जो भीड़-हत्याओं के खिलाफ अपने आक्रोश का इजहार कर रहे हैं क्योंकि उनकी नजर में ऐसा करना भारत को “बदनाम करने” का प्रयास है.
जहां एनसीआरबी ने भीड़-हत्याओं से सम्बंधित आंकड़ों को दबा दिया है, वहीं उसने एक नई कोटि का सृजन भी किया है – और वह है “राष्ट्र-विरोधी अपराध” की कोटि! एनसीआरबी के आंकड़े असहमति जाहिर करने वाली आवाजों को सजा देने के लिये “राजद्रोह” कानून के इस्तेमाल के सबूत भी दिखलाते हैं. राष्ट्रद्रोह के कुल मामले 2016 में 35 से बढ़कर 2017 में 51 पर पहुंच गये, जिनमें पुलिस ने 2016 में 48 लोगों की तुलना में 2017 में 228 लोगों को गिरफ्तार किया. राजद्रोह के सर्वाधिक मामले असम में रिकार्ड किये गये, जबकि उसके बाद हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, ओड़िशा और तमिलनाडु का नम्बर आता है.
ठीक मोहन भागवत की ही तरह भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने हाल में घोषणा की है कि मानवाधिकार के “पश्चिमी” मानकों को “अंधेपन” के साथ भारत पर नहीं लागू किया जा सकता, क्योंकि “कश्मीर में उग्रवादियों द्वारा और नक्सलपंथियों द्वारा मानवाधिकारों का जो उल्लंघन किया जा रहा है, उससे बड़ा मानवाधिकार का उल्लंघन और कुछ नहीं हो सकता.” शाह के कहने का वास्तविक अर्थ क्या है? अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार के नियमों के तहत हमेशा उग्रवादियों और गैर-राजकीय तत्वों को भी जिम्मेवार ठहराया है और गैर-लड़ाकू (नाॅन-कम्बैटेंट) लोगों नागरिकों के खिलाफ हर हमले को मानवाधिकार के उल्लंघन के बतौर परिभाषित किया गया है. शाह के कहने का असली अर्थ यह है कि चूंकि उग्रवादी लोग मानवाधिकारों का हनन करते हैं, इसलिये भारत में कानून-व्यवस्था कायम करने वाले बलों तथा सैन्य कर्मचारियों को टकराव के इलाकों में हिरासत में हत्या के लिये जिम्मेवार ठहराना “भारतीयता-विरोधी” होगा. दूसरे शब्दों में, वे यह कहना चाहते हैं कि “माओवादियों” और “कश्मीरी उग्रवादियों” से टकराव में लगे सशस्त्र बलों से मानवाधिकारों का सम्मान करने की मांग करना भारतीयता-विरोधी है. याद रखें कि शाह खुद ही भारत के ऐसे पहले गृहमंत्री हैं जो तीन लोगों की हिरासत में हत्या के मामलों में, और एक महिला के खिलाफ गैरकानूनी ढंग से जासूसी करने के आरोपी हैं. भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा इस मामले को निपटाने के लिये अमित शाह को आमंत्रित किया जाना अपने-आप में त्रसद विडम्बना है.
इसी बीच जम्मू-कश्मीर प्रशासन – जो सीधासीधी केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह के नियंत्रण में है – ने सात आयोगों को समाप्त कर दिया है जिनमें जम्मू-कश्मीर राज्य मानवाधिकार आयोग, राज्य महिला एवं बाल अधिकार सुरक्षा आयोग और राज्य दिव्यांग जन आयोग शामिल हैं.
– उमेश राय (‘द वायर’ में प्रकाशित)
इसी साल एक टीवी कार्यक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि उनके कार्यकाल में सूबे में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए, लेकिन नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़े न केवल उनके दावे को खारिज कर रहे हैं, बल्कि आंकड़ों से ये भी पता चलता है कि इस मामले में बिहार अव्वल है. लगभग एक साल की देरी से जारी किए गए एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2017 में देश भर में दंगों की कुल 58,729 वारदातें दर्ज की गई. इनमें से 11,698 दंगे बिहार में हुए. इस बार एनसीआरबी की रिपोर्ट में सांप्रदायिक/धार्मिक दंगों के लिए अलग काॅलम बनाया गया है और इन्हें सामान्य दंगों से अलग रखा गया है. आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2017 में देश में कुल 723 सांप्रदायिक/धार्मिक दंगे हुए. इनमें से केवल बिहार में सांप्रदायिक/धार्मिक दंगों की 163 वारदातें हुईं, जो देश के किसी भी सूबे से ज्यादा है. इन दंगों से 214 लोग प्रभावित हुए.
सांप्रदायिक/धार्मिक दंगों के मामले में दूसरे स्थान पर कर्नाटक, तीसरे स्थान पर ओडिशा, चौथे स्थान पर महाराष्ट्र और चौथे स्थान पर झारखंड है. कर्नाटक में सांप्रदायिक/धार्मिक हिंसा की 92 घटनाएं, ओडिशा में 91, महाराष्ट्र में 71 दर्ज की गईं. उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक/धार्मिक दंगों की 34 घटनाएं हुई हैं. दिलचस्प बात यह है कि वर्ष 2016 के मुकाबले अन्य राज्यों में इस तरह की वारदातें कम हुई हैं. एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2016 में सांप्रदायिक हिंसा के मामले में हरियाणा अव्वल था. वहां सांप्रदायिक हिंसा की 250 घटनाएं हुई थीं. लेकिन, इसमें काफी कमी आई है. वर्ष 2017 में हरियाणा में सांप्रदायिक हिंसा की महज 25 घटनाएं हुईं. इसी तरह झारखंड में 2016 में सांप्रदायिक हिंसा की 176 वारदातें दर्ज की गई थीं, जो वर्ष 2017 में घट कर 66 पर आ गईं. लेकिन, इसके उलट बिहार में इस तरह की घटनाएं बढ़ी हैं. वर्ष 2016 में बिहार में सांप्रदायिक हिंसा की 139 घटनाएं हुई थीं, जो वर्ष 2017 के मुकाबले 24 कम थीं. 2016 से पूर्व के वर्षों में भी बिहार में सांप्रदायिक हिंसा कम हुई थी. 27 नवंबर 2012 को लोकसभा में इसे लेकर पूछे गए सवालों के जवाब में गृह मंत्रालय की तरफ से दिए गए आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2009 और 2010 में बिहार में सांप्रदायिक हिंसा की 40-40 घटनाएं दर्ज हुई थीं. वहीं, वर्ष 2011 में सांप्रदायिक हिंसा की 26 घटनाएं हुई थीं. वर्ष 2012 में भी सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में गिरावट आई थी. आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2012 में बिहार में सांप्रदायिक हिंसा की 21 वारदातें हुई थीं, जिनमें तीन लोगों की मौत हो गई थी. हालांकि वर्ष 2013 में सांप्रदायिक हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई थी. आंकडे़ बताते हैं कि उस साल सांप्रदायिक हिंसा की 63 घटनाएं हुई थीं.
जानकारों का कहना है कि हाल के वर्षों में बिहार में धार्मिक उग्रता में इजाफा देखा जा रहा है. धार्मिक कार्यक्रमों में खुलेआम भड़काऊ गाने बजाए जाते हैं और आपत्तिजनक नारे लगते हैं. जिनका हश्र दो समुदायों के बीच तनाव और हिंसा के रूप में सामने आ रहा है. एनसीआरबी के आंकड़े इसी ट्रेंड की तस्दीक करते हैं. उल्लेखनीय है कि पिछले साल ही रामनवमी के वक्त बिहार के आधा दर्जन जिलों में सांप्रदायिक दंगे हो गए थे और दंगों का ट्रेंड कमोबेश एक-सा था. एक जुलूस निकलता है; भड़काऊ गाने बजते हैं; एक अफवाह उड़ती है और फिर भीड़ बेकाबू होकर तोड़फोड़-रोड़ेबाजी शुरू कर देती है.
जानकार बिहार में दंगे की घटनाओं में इजाफे के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व अन्य संगठनों के उभार को जिम्मेदार मानते हैं. पटना के डीएम दिवाकर कहते हैं, ‘हाल के वर्षों में धार्मिक कार्यक्रमों में आक्रामकता बढ़ी है. पिछली रामनवमी में पटना में नंगी तलवारें लेकर रामनवमी का जुलूस निकला था. इससे साफ है कि भाजपा अब पहले जैसी नहीं है. वह बिहार में खुद को मजबूत कर रही है और दंगे, दो समुदायों में तनाव से उसे मजबूती मिलती है.’ गौरतलब है कि इस साल 18 मई को राज्य पुलिस के स्पेशल ब्रांच के एसपी ने बिहार के सभी जिलों के डीएसपी को आरएसएस समेत 18 हिंदुत्ववादी संगठनों के बारे में जानकारी इकठ्ठा करने को कहा था. इस पत्रा में आरएसएस के साथ ही उससे जुड़े बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू जागरण समिति, धर्म जागरण समन्यव समिति, हिंदू राष्ट्र सेना, राष्ट्रीय सेविका समिति, शिक्षा भारती, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, दुर्गा वाहिनी, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय रेल संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, अखिल भारतीय शिक्षक महासंघ, हिंदू महासभा, हिंदू युवा वाहिनी और हिंदू पुत्र संघ का जिक्र किया गया था. एसपी ने इस आदेश को गंभीरता से लेते हुए त्वरित कार्रवाई करने को कहा था. इन संगठनों के बारे में पुलिस इसलिए भी जानकारी जुटा रही थी, क्योंकि कई दंगों में इन संगठनों की संलिप्तता सामने आई थी. बिहार में सांप्रदायिक दंगों को लेकर राजद नेता तेजस्वी यादव ने ट्विटर पर लिखा है, ‘बिहार के कथावाचक सीएम को हार्दिक बधाई. उनके अथक पलटीमार प्रयासों से देशभर में बिहार को दंगों में प्रथम स्थान मिला है. मर्डर में द्वितीय, हिंसक अपराधों में द्वितीय और दलितों के विरुद्ध अपराध में भी बिहार अग्रणी रूप से द्वितीय स्थान पर है. 15 वर्ष से गृह विभाग उन्हीं के जिम्मे है.’ लेकिन, हैरान करने वाले आंकड़ों के बावजूद बिहार सरकार इसको लेकर चिंतित नहीं है. भाजपा के वरिष्ठ नेता डा. प्रेम कुमार से जब इस संबंध में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘बिहार में सबकुछ ठीक है’.