17 दिसंबर, 2024 को मोदी सरकार ने एक साथ चुनाव कराने के अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक विचार को आगे बढ़ाने के लिए दो विधेयक लाए गए. इनमें संविधान (129वां संशोधन) विधेयक 2024 और संघ क्षेत्रों के कानून संशोधन विधेयक 2024 शामिल हैं, जो लोकसभा में पेश किए गए.
भाकपा(माले) के लोकसभा सांसद राजाराम सिंह और सुदामा प्रसाद ने कहा कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ या समानांतर चुनाव का प्रस्ताव अलोकतांत्रिक है. भाजपा का यह पसंदीदा विचार संविधान की जीवनधारा माने जाने वाले लोकतंत्र और संघवाद की मूल भावना को कमजोर करता है. आज ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के नाम पर भाजपा राजनीतिक व्यवस्था को पीछे धकेलने और संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से राजनीति पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश कर रही है.
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रस्ताव पर बोलते हुए भाकपा माले के महासचिव का. दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा कि इसके पीछे संघ-भाजपा की सत्ता के अत्यधिक केंद्रीकरण और भारत की विविध सांस्कृतिक, बहुलतावादी राजनीति और संघीय ढांचे को व्यवस्थित रूप से कमजोर करने की योजना है.
सभी चुनावों को एक साथ जोड़कर मोदी सरकार चुनावों के विशिष्ट संदर्भों को खत्म करना और जनता के राजनीतिक विकल्प चुनने के अधिकार को सीमित करना चाहती है. संघीय भारत मोदी सरकार के ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ के नजरिये के खिलाफ सबसे सशक्त और जीवंत प्रतिरोध पेश करता है, जिसका प्रमाण हिंदी पट्टी के बाहर और अब उसके भीतर भी बढ़ते सांस्कृतिक और राजनीतिक उथल-पुथल में देखा जा सकता है.
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का फार्मूला इस उथल-पुथल को दबाने और लोकतांत्रिक भारत को फासीवादी शासन की साम्राज्यवादी योजनाओं के अधीन करने का प्रयास है.
‘यह योजना कानून, शासन और संवैधानिक ढांचे को बदलने के लिए चल रहे उन सभी प्रयासों का हिस्सा है, जिनका उद्देश्य सशक्त नागरिकता को वफादार प्रजा में बदलना और भारत को फासीवादी बंधनों में जकड़ना है. भारत को हर हाल में इस योजना को नाकाम करना होगा,’ – का. दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा.
भाकपा(माले) ने अपने बयान में जोर देकर कहा कि पंचायत और नगर निगम चुनावों की तरह विधानसभा और संसद चुनावों का भी अपना अलग संदर्भ होता है. सिर्फ तार्किक सुविधाओं के लिए चुनावों को एक साथ कराना विधानसभा चुनावों की स्वायत्तता को खत्म कर उन्हें केंद्रीय ढांचे के अधीन कर देगा.
यह धारणा कि एक साथ चुनाव कराने से तार्किक सुविधा और वित्तीय बचत होगी, चुनावी खर्चों या व्यवस्थाओं के किसी ठोस अध्ययन या विश्लेषण पर आधारित नहीं है.
इसके अलावा, विधि आयोग की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, 2014 के चुनावों पर निर्वाचन आयोग ने लगभग 3586 करोड़ रुपये खर्च किए थे (पैरा 2.10). इसके संदर्भ में देखें तो 2014 में केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से केंद्र सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर विज्ञापन के लिए 3,260.79 करोड़ रुपये और प्रिंट मीडिया पर 3,230.77 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. अगर वास्तव में पैसे की बचत करनी है तो इसका दायरा कहीं और है. लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का पालन करने में खर्च को प्रमुख विचार नहीं बनाया जा सकता.
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रस्ताव का संविधान में व्यापक संशोधन कर एक साथ चुनाव कराने को उचित ठहराना भारतीय लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों को कमजोर करता है, खासकर संसदीय लोकतंत्र, बहुदलीय प्रणाली और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों को, जो संविधान की मूल संरचना का अभिन्न हिस्सा हैं. इन सिद्धांतों को कमजोर करने की किसी भी कोशिश का कड़ा विरोध किया जाना चाहिए.