वर्ष - 33
अंक - 41
05-10-2024
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श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव के परिणामों ने कई लोगों को चौंका दिया है. लंबे समय से श्रीलंका की राजनीति में हावी रहने वाली दो प्रमुख पार्टियों – श्रीलंका फ्रीडम पार्टी और यूनाइटेड नेशनल पार्टी – से मतदाताओं ने दूरी बनाते हुए एक नए विकल्प को चुना है. जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के नेता अनुरा कुमारा दिसानायके ने नेशनल पीपुल्स पावर (एनपीपी) गठबंधन के समर्थन से राष्ट्रपति पद पर जीत हासिल की है. यह घोषणा दूसरे चरण की वरीयता मतों की गिनती के बाद की गई, हालांकि दिसानायके 50% के मानक से पीछे रहे, लेकिन उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वियों से पहले ही स्पष्ट विजेता घोषित कर दिया गया. उन्हें कुल वोटों का 42.31 प्रतिशत मिला, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी, समागी जन बालवेगया (एसजेबी) के सजित प्रेमदासा को 32.76 प्रतिशत वोट मिले, और वर्तमान राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे 17.27 प्रतिशत वोट के साथ तीसरे स्थान पर रहे.

श्रीलंका के चुनावों में जेवीपी/एनपीपी का उभार आश्चर्यजनक और नाटकीय लग सकता है, जैसा कि पांच साल पहले दिसानायके को मिले 3 प्रतिशत वोट से स्पष्ट है. लेकिन जेवीपी कई वर्षों से देश में एक राजनीतिक शक्ति के रूप में मौजूद रही है. 1965 में रोहाना विजेवीरा द्वारा कम्युनिस्ट आंदोलन से अलग एक समूह के रूप में स्थापित जेवीपी ने 1971 में विद्रोह के जरिए सत्ता पर काबिज होने का प्रयास किया, जिसके परिणामस्वरूप विजेवीरा सहित कई अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया. विजेवीरा की 1977 में रिहाई के बाद, जेवीपी ने चुनावी राजनीति में भाग लिया. विजेवीरा ने 1982 में 4.16 प्रतिशत वोट प्राप्त कर राष्ट्रपति चुनाव में तीसरा स्थान हासिल किया.

1987 में भारत-श्रीलंका समझौते के बाद, जेवीपी ने तमिल विरोधी सिंहली राष्ट्रवादी कट्टरता को अपनाया और एक संगठित विद्रोह शुरू किया, जो अंततः विफल रहा. 1994 में विजेवीरा की मृत्यु के बाद, जेवीपी ने उस समय की प्रमुख विपक्षी पार्टी एसएलएफपी के साथ गठबंधन किया और 2004 में यह यूपीएफए सरकार का हिस्सा बन गया, जिसने एलटीटीई के खिलाफ सैन्य अभियान का समर्थन किया था. वामपंथी आंदोलन से उत्पन्न होने के बावजूद, जेवीपी ने तेजी से कट्टर सिंहली राष्ट्रवादी विचारधारा को अपनाया, जिसने महत्वपूर्ण मोड़ों पर इसकी दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

श्रीलंका में 2024 में जेवीपी/एनपीपी की अप्रत्याशित जीत मार्च 2022 से चल रहे लोकप्रिय जन-आंदोलन के परिणामस्वरूप हुई है. इस आंदोलन ने राजपक्षे सरकार को सता से हटा दिया और उनके परिवार के नियंत्राण को समाप्त कर दिया. कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार, क्रोनी कैपिटलिज्म और बाहरी दबावों (जिसमें मोदी सरकार द्वारा अडानी को ऊर्जा क्षेत्र के ठेके देने का दबाव भी शामिल है) के कारण उत्पन्न गंभीर आर्थिक संकट ने श्रीलंका की आर्थिक संप्रभुता को कमजोर कर दिया और देश को अस्थिर स्थिति में पहुंचा दिया. इसके साथ ही, राजपक्षे परिवार के श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था और प्रशासन पर बढ़ते नियंत्रण के खिलाफ जनता का गुस्सा राजपक्षे बंधुओं गोतबाया और महिंदा को बेहद अलोकप्रिय बना दिया.

अर्गालय ने एक नए विकल्प की गहरी खोज को दर्शाया और चुनाव परिणाम भी इसी बात की पुष्टि करते हैं, जिसमें दिसानायके को इसका लाभ मिला है. हालांकि, परिणाम श्रीलंकाई समाज की खंडित स्थिति को भी दर्शाते हैं, क्योंकि दिसानायके को तमिल और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में बहुत कम वोट मिले हैं.

दिसानायके ने अपने चुनावी अभियान में आर्थिक सुधार, भ्रष्टाचार समाप्त करने और श्रीलंका की राजनीतिक-आर्थिक संप्रभुता की रक्षा करने का वादा किया है, लेकिन तमिल और मुस्लिम अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने के लिए कोई ठोस पहलकदमी नहीं दिखती है. यदि दिसानायके वास्तव में श्रीलंका में एक नई शुरुआत करना चाहते हैं, तो यह केवल आर्थिक नीतियों में बदलाव के माध्यम से नहीं होगा, बल्कि अल्पसंख्यकों के साथ वास्तविक सामंजस्य और न्याय भी जरूरी है. श्रीलंका के समावेशी पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी अब दिसानायके के हाथ में है.

श्रीलंका में हुए परिवर्तन भारत की विदेश नीति के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती हैं. मोदी के शासन में, भारत लगभग सभी पड़ोसी देशों से अलग-थलग हो गया है. दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय सहयोग का मुख्य मंच सार्क को लगभग छोड़ दिया गया है. न केवल अमेरिका, बल्कि इजरायल के साथ भारत की बढ़ती रणनीतिक निकटता ने भी इसे अपने पड़ोसी देशों से दूर कर दिया है. मोदी सरकार की नीति, जो अडानी और अन्य बड़े कॉरपोरेट्स के लिए अनुबंध हासिल करने हेतु पड़ोसी देशों पर दबाव डालती है, से अविश्वास गहराता जा रहा है. ऑस्ट्रेलिया से लेकर बांग्लादेश और श्रीलंका से लेकर केन्या तक, यह अब स्पष्ट है कि मोदी ने अडानी के हितों की सेवा के लिए लगातार अपने रास्ते से हटकर काम किया है. यदि बांग्लादेश और श्रीलंका में नई सरकारें अडानी के अनुबंधों को रद्द करती हैं, तो यह हमारे पूर्वी और दक्षिणी पड़ोसी देशों द्वारा ‘भारत विरोधी कदम’ नहीं, बल्कि अपने आर्थिक हितों की रक्षा करना होगा.

ऐसे समय में जब नेतन्याहू सरकार पिछले एक साल से फिलिस्तीनियों का लगातार नरसंहार कर रही है और अब लेबनान के साथ युद्ध की ओर बढ़ रही है, मोदी सरकार द्वारा इजरायल को समर्थन देने से दक्षिण और पश्चिम एशिया में भारतीय विदेश नीति तेजी से अलोकप्रिय हो गई है. भारत को निश्चित रूप से बांग्लादेश और श्रीलंका में अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए, जहां जातीय सफाए का दर्दनाक इतिहास है और आज आरएसएस सिंहली बौद्ध चरमपंथियों के साथ गठजोड़ कर अपनी मौजूदगी बढ़ा रहा है. लेकिन नई सरकारों को भारत विरोधी या चीन समर्थक करार देने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. भारतीय विदेश नीति को वास्तविक द्विपक्षीयता और क्षेत्रीय सहयोग की भावना के साथ दिसानायके सरकार के साथ मिलकर काम करने के लिए अग्रसर होना चाहिए.