वर्ष - 33
अंक - 39
21-09-2024

भारत के मौजूदा राजनीतिक माहौल में, प्रधानमंत्री द्वारा मुख्य न्यायाधीश के घर जाकर किसी ‘निजी’ धार्मिक कार्यक्रम में शामिल होना एक नया दस्तूर है, जिसका उद्देश्य साफतौर से सार्वजनिक प्रदर्शन कर ध्यान आकर्षित करना है. प्रधानमंत्री मोदी ने गणेश चतुर्थी के दौरान सीजेआई चंद्रचूड़ के आवास पर पारंपरिक महाराष्ट्रीयन टोपी पहनकर भगवान गणेश की पूजा की, जो अब दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया है.

प्रधानमंत्री ने भारत की धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद को कमजोर करने के लिए कई अवसरों पर निंदनीय तरीके से फायदा उठाने की कोशिश की है. नई संसद के उद्घाटन के अवसर पर सेंगोल समारोह से लेकर अयोध्या में राम मंदिर के अभिषेक समारोह के खुलेआम राजनीतिकरण तक, उन्होंने लगातार इंगित किया है कि बहुसंख्यक समुदाय का धार्मिक संप्रदाय अब वास्तविक राज्य धर्म है, जो धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक आदर्श को नष्ट कर रहा है. मुख्य न्यायाधीश के आवास पर गणेश चतुर्थी के दौरान हाल ही में फोटो खिंचवाने का अवसर इस चल रहे नैरेटिव का ताजा उदाहरण है.

इस पूरी फोटोसेशन में महाराष्ट्र का पहलू भी स्पष्ट है. गणेश चतुर्थी, हालांकि भारत के कई राज्यों में मनाया जाने लगा है, लेकिन यह महाराष्ट्र का एक खास त्योहार है. नरेंद्र मोदी ने इस बात को लेकर कोई संकोच नहीं किया कि उनका मुख्य लक्ष्य महाराष्ट्र है. उन्होंने अंग्रेजी के साथ-साथ अपने एक्स हैंडल से मराठी में भी यह खबर पोस्ट की. कहने की जरूरत नहीं कि मोदी के हर दूसरे फोटो सेशन इवेंट की तरह, यह कदम भी चुनावी गणित से प्रेरित है. महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव बस कुछ ही हफ्ते दूर हैं.

साथ ही, मोदी ने बेशर्मी से इशारा किया है कि उन्हें न्यायपालिका का पूरा समर्थन और सहयोग प्राप्त है. कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का पारंपरिक विभाजन, न्यायिक स्वतंत्रता का महत्व और न्यायाधीशों से निष्पक्ष रहने और राजनीति से दूरी बनाए रखने की अपेक्षा, इन सभी का खुलेआम उल्लंघन किया गया है. हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि प्रधानमंत्री बिन बुलाए मेहमान थे या उनका मुख्य न्यायाधीश ने स्वागत किया था, लेकिन यह फोटो और वीडियो एक आक्रामक कार्यपालिका के सामने न्यायपालिका के पीछे हटने के ऐतिहासिक सबूत के बतौर मौजूद रहेंगे.

इस पूरे मामले में मोदी के राजनीतिक गणित  को समझना आसान है, लेकिन मुख्य न्यायाधीश की मंशा को समझना कहीं ज्यादा मुश्किल है. कुछ टिप्पणीकारों का मंतव्य है कि मुख्य न्यायाधीश ने निर्णय लेने में गलती की है, जबकि अनेकों ने न्यायपालिका की तीखी आलोचना की है कि वह अन्य लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करके कार्यपालिका द्वारा सत्ता को आक्रामक रूप से हड़पने में सहभागी बन गई है. प्रधानमंत्री-मुख्य न्यायाधीश के बीच इस अभूतपूर्व सार्वजनिक सौहार्द का प्रदर्शन संस्थागत सीमाओं और मानदंडों के अत्यधिक चिंताजनक क्षरण का प्रतिनिधित्व करता है.

हालाँकि हमें प्रत्येक व्यक्तिगत घटना की पूरी समझ नहीं हो सकती है, लेकिन न्यायपालिका और वर्तमान राजनीतिक प्रतिष्ठान के बीच बातचीत का संदर्भ इतना महत्वपूर्ण है कि इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. रंजन गोगोई प्रकरण अभी भी लोगों की यादों में ताजा है. हाल ही में, कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अभिजीत गांगुली ने भाजपा में शामिल होने के लिए समय से पहले सेवानिवृत्ति ले ली, और अब वे पश्चिम बंगाल से भाजपा के सांसद हैं. कोलकाता और अन्य न्यायालयों के कई अन्य न्यायाधीशों ने सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद आरएसएस से अपने जुड़ाव की घोषणा की है. न्यायपालिका में आरएसएस की घुसपैठ और इसके कारण संघ ब्रिगेड के फासीवादी हमले या यहां तक कि फासीवादी एजेंडे के समर्थन के प्रति बढ़ती न्यायिक उदारता, हमारे समय की एक परेशान करने वाली हकीकत है.

हाल ही में, विश्व हिंदू परिषद द्वारा न्यायिक सुधारों पर आयोजित एक दिवसीय विचार-मंथन सत्र में सुप्रीम कोर्ट के दो सेवानिवृत्त न्यायाधीशों सहित लगभग 30 पूर्व न्यायाधीशों ने भाग लिया. केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने भी इस कार्यक्रम में भाग लिया और अपने एक्स अकाउंट पर इसके बारे में जानकारी साझा की. दिलचस्प बात यह है कि वीएचपी के अध्यक्ष आलोक कुमार ने केंद्रीय कानून मंत्री द्वारा इस निजी सभा को सार्वजनिक करने को एक गलती बताया, जिसमें उपस्थित लोगों की पहचान उजागर हो गई थी. कुमार के अनुसार, इस सत्र में जिन विषयों पर चर्चा की गई, उनमें वक्फ बोर्ड संशोधन विधेयक, मंदिरों का अधिग्रहण, धर्मांतरण आदि जैसे संघ परिवार के एजेंडे के प्रमुख मुद्दे शामिल थे.

मोदी सरकार ने पहले ही आपराधिक कानूनों और प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं, और न्यायपालिका के सामने कई महत्वपूर्ण मामले हैं. कई प्रमुख मामलों में, यह जरूरी है कि कार्यकारी आदेशों को पलट दिया जाए या सीमित कर दिया जाए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अंततः चुनावी बांड के मुद्दे पर किया था.

हाल की घटनाओं के मद्देनजर प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों पर विचार किया जाना चाहिए. सीजेआई चंद्रचूड़ ने बार-बार इस सिद्धांत का हवाला दिया है कि जमानत नियम है और जेल अपवाद. उन्होंने निचली अदालतों की इस बात के लिए फटकार लगाई है कि वे जमानत देने में हिचकिचाहट करती हैं, संभवतः उच्च न्यायालय उनके फैसलों को पलट सकते हैं की वजह से. लेकिन उमर खालिद के मामले में हमने देखा है कि उमर की जमानत याचिका पर सुनवाई सुप्रीम कोर्ट द्वारा चौदह बार स्थगित की गई, जिससे याचिकाकर्ता को जमानत याचिका वापस लेने और उच्च न्यायालय में वापस जाने के लिए मजबूर होना पड़ा. इससे यह सवाल खड़ा होता है – सुप्रीम कोर्ट को किस अदालत का डर है?

ऐसे समय में जब भारत को भय के गणराज्य में बदलने का खतरा मंडरा रहा है और सरकार शासन के लिए आक्रामक रुख अपना रही है, ऐसे में कार्यपालिका और न्यायपालिका के प्रमुखों के बीच घनिष्ठ संबंध भारतीय गणराज्य के भविष्य के लिए खतरनाक संकेत है.