पिछली बार हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव 21 अक्टूबर, 2019 को एक ही चरण में हुए थे, लेकिन अब उन्हें अलग-अलग आयोजित किया जा रहा है. इसके साथ ही, महाराष्ट्र चुनाव की तारीखों का ऐलान किया जाना बाकी है. इन सबके बीच, मोदी सरकार एक बार फिर से ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ (ओएनओई) को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है.
कैबिनेट ने ‘एक राष्ट्र,एक चुनाव’ पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी की रिपोर्ट को मंजूरी दे दी है और इस योजना को लागू करने की प्रतिबद्धता जाहिर की है. हालांकि, यह अनिश्चित है कि सरकार इसे कैसे लागू करेगी, क्योंकि उसके पास लोकसभा और राज्यसभा दोनों में दो-तिहाई बहुमत नहीं है, जिसके बिना संवैधानिक संशोधन नहीं किए जा सकते हैं. फिर भी, विधायिका और न्यायपालिका की प्रतिक्रिया का इंतजार किए बिना, हम, भारत के लोगों को, इस लोकतंत्र विरोधी कदम को दृढ़ता से रोकना होगा.
इस प्रस्ताव को एक तत्काल चुनावी सुधार के बतौर पेश किया गया है जिसका उद्देश्य चुनावी लागत में कटौती करना और चुनाव से संबंधित बार-बार होने वाले व्यवधानों को रोककर निर्बाध विकास सुनिश्चित करना है. हालांकि, चुनावों को ‘विकास’ में एक महंगी बाधा के रूप में पेश करना बुनियादी तौर से लोकतंत्र के उसूलों के खिलाफ है. हकीकत यह है कि राज्य द्वारा वहन किया जाने वाला खर्च प्रमुख राजनीतिक दलों, खासकर मोदी युग के दौरान भाजपा द्वारा किए जाने वाले कुल चुनावी खर्च का केवल एक छोटा सा हिस्सा है, जिसने चुनावों को बड़े पैमाने पर फिजूलखर्ची वाले एक भव्य आर्थिक आयोजन में बदल दिया है. यदि उद्देश्य वास्तव में चुनावी खर्च को कम करना है, तो उन क्षेत्रों में राजनीतिक दलों के स्वीकार्य खर्चों पर प्रतिबंध लगाए जाने चाहिए जहां वर्तमान में कोई सीमा नहीं है. इसके अलावा, चुनावों के दौरान लागू की गई आचार संहिता ‘विकास’ को नहीं रोकती है, यह केवल सत्तारूढ़ सरकार को उस अवधि के दौरान नई योजनाओं या नीतियों की घोषणा करने से रोकती है.
बिना बाधा विकास सुनिश्चित करने और खर्च कम करने का तर्क मूलतः गलत है. कोविंद कमिटी की रिपोर्ट एक साथ चुनावों की गारंटी नहीं देती, बल्कि, यह सुझाव देती है कि स्थानीय निकाय चुनाव लोकसभा और विधानसभा चुनावों के 100 दिनों के भीतर कराए जाएं. इसका अर्थ है कि चुनावी सत्र लंबा होगा, जो तीनों स्तरों के प्रतिनिधित्व को कवर करने में कई महीने लेगा. यदि कोई सरकार अपना बहुमत खो देती है, तो मध्यावधि चुनाव कराए जाएंगे, जिससे चुनावों की संख्या बढ़ सकती है और वोटों का मूल्य भी बदल जाएगा. मध्यावधि चुनावों में वोट का मूल्य कम होगा, जबकि आम चुनावों में यह पूरे पांच साल का होगा.
संविधान ने भारत को राज्यों के संघ के रूप में परिकल्पित किया था, जहां प्रत्येक राज्य अपने अधिकारों के साथ समग्र रूप से एकता में बंधे होंगे. यद्यपि संविधान में स्पष्ट रूप से ‘संघ’ या ‘संघीय’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, लेकिन इसकी संरचना निर्विवाद रूप से संघीय है, एकात्मक नहीं. इस संवैधानिक ढांचे के विपरीत, आरएसएस ने लगातार एकात्मक भारत के विचार का समर्थन किया है. 1956 में राज्यों के पुनर्गठन समिति की रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद लिखे गए एक लेख में, आरएसएस प्रमुख गोलवलकर ने एकात्मक राज्य के मॉडल का बेबाक रूप से समर्थन करते हुए कहा था कि हमारे देश के संविधान में ‘संघीय ढांचे’ के बारे में सारी बहसों को पूरी तरह दफन करना जरूरी है. उन्होंने भारत के भीतर सभी ‘स्वायत्त’ और अर्ध-स्वायत्त ‘राज्यों’ के अस्तित्व को मिटाने का तर्क दिया और ‘एक देश, एक राज्य, एक विधानमंडल, एक कार्यपालिका’ की विशेषता वाली एकात्मक ढांचे की वकालत की. उनका मानना था कि यह क्षेत्र, संप्रदाय, भाषा या अन्य प्रकार के विभाजनों के आधार पर किसी भी तरह के विखंडन या गर्व को हमारी राष्ट्रीय एकता को बाधित करने से रोकेगा.
जब जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य से उसका विशेष दर्जा छीनकर उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया जाता है, जब दिल्ली जैसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की बजाय उसके शासन के संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जाता है, और जब केंद्र द्वारा राज्यों के वित्तीय अधिकारों को व्यवस्थित रूप से छीना जाता है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि राज्यों को विस्तारवादी केंद्र के अधीनस्थ सिर्फ उन्नत नगरपालिकाओं या कॉलोनियों तक सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है.
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रस्ताव पर कैबिनेट की मोहर इस दिशा में एक और कदम है. यह राज्य के चुनावों को केंद्र के चुनावों के अधीन करने का सीधा प्रयास है. लगातार डबल इंजन सरकार का नारा दोहराकर, केंद्र सरकार स्पष्ट रूप से कह रही है कि सत्ता में रहने वाली पार्टी को देश के सभी स्तरों पर सत्ता में रहना चाहिए. यह बदलाव निस्संदेह भारत के संसदीय लोकतंत्र को राष्ट्रपति प्रणाली में बदल देगा. मोदी पंथ अब इतना खुलकर सामने आ गया है कि चुनावों में सीधे मोदी के नाम पर वोट मांगे जाते हैं. ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का नारा वास्तव में ‘एक पार्टी, एक नेता’ का नारा है.
मोदी सरकार चुनावों को केवल सत्ता हथियाने और उसे बनाए रखने की औपचारिकता मानती है. हमने चंडीगढ़ मॉडल में वोटों की गिनती में बेशर्मी से हेराफेरी और ऑपरेशन लोटस के जरिए पार्टियों को तोड़ने और अलोकतांत्रिक तरीकों से सत्ता हासिल करने का सिलसिला देखा है. ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पहल का उद्देश्य मतदान के जरिए जनता की राय जाहिर करने के अधिकार को सीमित करके चुनावों को महत्वहीन बनाना है.
तत्काल चुनावी सुधारों की आवश्यकता है, जिसमें चुनावी खर्चों पर सख्त पाबंदी, निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में संशोधन, निर्वाचित प्रतिनिधियों को किसी अन्य पार्टी में जाने से पहले इस्तीफा देने की अनिवार्यता, और नागरिकों को ‘वापस बुलाने का अधिकार’ देकर सशक्त बनाना शामिल है. ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ एक अत्यंत अलोकतांत्रिक विचार है जिसे तुरंत रोका जाना चाहिए.