वर्ष - 33
अंक - 37
07-09-2024

(भाकपा-माले के वरिष्ठ नेता का. केडी यादव के साथ हुई बातचीत पर आधारित)

मासस (मार्क्सवादी समन्वय समिति) के भाकपा(माले) में विलय की आधिकारिक घोषणा विगत 10 अगस्त को रांची में हो गई. 9 सितंबर को धनबाद में भाजपा हटाओ-लूट मिटाओ नारे के साथ ‘एकता रैली’ होने वाली है. इस तरह देश और खासतौर पर झारखंड की वामपंथी राजनीति में एक नए अध्याय की शुरूआत हो जाएगी.

प्रसंगवश, यह जानना आवश्यक है कि मासस सीपीआई(एम) से अलग होकर का. एके राय के नेतृत्व में अपने अस्तित्व में आया. 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष में इंदिरा गांधी द्वारा वहां सेना भेजने की सीपीएम द्वारा समर्थन की नीति से का. एके राय ने असहमति व्यक्त की थी. उस वक्त सीपीएम ने भी उन पर कुछ आरोप लगाये थे – उनमें से एक आरोप यह भी था कि एके राय नक्सलवादियों का समर्थन करते हैं. ऐसे ही आरोप लगाकर उन्हें सीपीएम से निकाल बाहर कर दिया गया.

सीपीएम से निकलने के बाद का. एके राय ने कोई नई पार्टी नहीं बल्कि एक कॉर्डिनेशन कमिटी बनाई. उनकी मान्यता थी कि अभी पार्टी बनाने का समय नहीं आया है. तब अविभाजित बिहार के कुछेक महत्वपूर्ण सीपीएम नेता सीपीएम छोड़कर उनके साथ हो लिए. इन्हीं नेताओं में एक बड़ा नाम उमाशंकर शुक्ल का था जो पश्चिमी चंपारण से कई बार विधायक बने. उनके अलावा पटना से का. तकी रहीम, वैशाली के रामानंद सिंह, ब्रह्मदेव पटेल, लाल बाबू सिंह, किसान नेता हरिनारायण सिंह, विनोद बिहारी महतो, टेकलाल महतो, शिवा महतो, प्रेमचंद सिंह, कृपाशंकर चटर्जी आदि भी मासस के साथ हो लिए. मासस ने जनसंगठनों का निर्माण किया – एसएफआई(बी) और डीवाइएफआई(बी). ठीक उसी समय 1974 का छात्र आंदोलन बिहार में फूट पड़ा. सीपीएम की तटस्थता की नीति के विपरीत मासस ने उसमें प्रत्यक्ष तौर पर हिस्सेदारी की. उसके अधिकांश नेता गिरफ्तार कर जेल भेज दिए गए. इमरजेंसी समाप्त होने पर जॉर्ज फर्नांडिज और लालू प्रसाद यादव के बाद तीसरे व्यक्ति का. एके राय ही थे जिन्होंने 1977 में जेल से चुनाव लड़ा था और जीत हासिल की थी.

1980 के दौर में भाकपा(माले) के नेतृत्व में मध्य बिहार में उठ खड़ा हुआ किसान आंदोलन तमाम क्रांतिकारी शक्तियों के आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा था. मासस और उसके जनसंगठन एसएफआई(बी) व डीवाइएफआई(बी) के भी कई युवा नेता उसकी ओर खींचे चले आ रहे थे. उनमें एक बड़ा नाम का. राजाराम का है. 1974 के आपातकाल के दमन के दौरान वे हिलसा कॉलेज में बीएससी (बॉटनी) तृतीय वर्ष के छात्र और एसएफआई(बी) के एक चर्चित नेता थे. आंदोलन के दौरान वे पुलिस की भयानक क्रूरता व बर्बरता के शिकार हुए. उनपर बेरहमी से लाठियां चलाई गईं, हाथों में हथकड़ी डाल दी गई और जेल में बंद कर दिया गया. लगभग 4 महीनों तक वे जेल में रहे. जेल से निकलने के बाद वे फतुहा में नागरिक कल्याण परिषद् बनाकर काम करने लगे. उसी समय वे का. अशोक कुमार (लोकयुद्ध के पूर्व संपादक) के संपर्क में आए और फिर भाकपा(माले) की सदस्यता ग्रहण की. उन्होंने अपने नेतृत्व में चलने वाले नागरिक कल्याण परिषद् का पहले जनवादी देशभक्त मोर्चा और फिर आइपीएफ में विलय कर दिया. 1982 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में निरंकुशता विरोधी इंडियन पीपल्स फ्रंट (आइपीएफ) का गठन हुआ. का. राजाराम इसके संस्थापक महासचिव बने. उनके नेतृत्व में आइपीएफ देशभक्त व जनवादी ताकतों का विशाल मोर्चा बनता गया. 1982 में ही अखबारों को प्रतिबंधित करने के लिए लाए गए कुख्यात प्रेस बिल को वापस लेने के सवाल पर ऐतिहासिक आंदोलन चलाया गया और आईपीएफ देखते-देखते जनांदोलनों का पर्याय बन गया. इन आंदोलनों ने मासस व एसएफआई(बी) के अन्य नेताओं को भी अपनी ओर आकर्षित किया. ब्रह्मदेव पटेल, लाल बाबू सिंह, विश्वनाथ सिंह, राजेन्द्र पटेल आदि सहित कई मासस नेता जनवादी देशभक्त मोर्चा होते हुए आइपीएफ में शामिल हो गए. दरअसल यही लोग आने वाले दिनों में बिहार में आइपीएफ के विस्तार के आधार बने. जल्ला किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष विश्वनाथ सिंह आइपीएफ के राष्ट्रीय परिषद् के सदस्य चुने गए और पटना के लोहानीपुर स्थित उनका घर 1982 से 1989 तक आइपीएफ का दफ्तर बना रहा.

विलय की इस प्रक्रिया से बिहार के कम्युनिस्ट आंदोलन का एक बड़ा नाम अब भी बाहर था. वह थे का. तकी रहीम. का. तकी रहीम ने सीपीआई से अपनी राजनीति की शुरूआत की और सीपीएम होते हुए मासस तक पहुंचे. 74 आंदोलन में जेल गए. जेल प्रवास के दौरान उनका संपर्क लोकदल से हो गया, लेकिन उसमें बहुत सक्रिय नहीं थे. का. राजाराम और का. केडी यादव ने उनसे संपर्क साधा. उनसे यह आग्रह किया गया कि 74 छात्र आंदोलन के लोग जनवादी देशभक्त मोर्चा बनाना चाह रहे हैं. उसमें उनकी भागीदारी चाहते हैं. का. केडी यादव बताते हैं कि इतना सुनते ही वे भड़क गए – “सबकुछ पता है, तुमलोग विनोद मिश्रा गुट के आदमी हो. राजाराम को हम अच्छे से पहचानते हैं.” खैर, दिनकर कम्युनिटी हॉल में जनवादी देशभक्त मोर्चा के बैनर के जरिए एक विचार गोष्ठी का आयोजन हुआ; जिसमें जनकवि नागार्जुन, भागलपुर के पूर्व कुलपति व सोशलिस्ट नेता देवेन्द्र प्रसाद सिंह तथा पीयूसीएल के संस्थापक अध्यक्ष राधारमण सिंह पहुंचे थे. उसके एक दिन पहले ही का. तकी रहीम ने जनवादी देशभक्त मोर्चा के लोगों को अतिवादी घोषित करते हुए अखबारों में बयान जारी कर दिया. कुछ दिनों तक बहस-मुबाहसा चलता रहा रहा लेकिन बातचीत की प्रक्रिया कभी रूकी नहीं.

इस बीच, आइपीएफ की ख्याति देश स्तर पर होने लगी. सभी पुराने कम्युनिस्ट व समाजवादी नेता उसमें शामिल हो रहे थे. इसी दौरान बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य का. पृथ्वीराज सिंह भी आइपीएफ के संपर्क में आ गए. उन्हें बिहार आइपीएफ का अध्यक्ष चुना गया. पृथ्वीराज सिंह और का. तकी रहीम की पुरानी मित्रता थी. का. तकी रहीम को संगठन से जोड़ने का प्रयास अब का. पृथ्वीराज सिंह ने शुरू की. कहा – ये सब युवा लोग (केडी यादव, राजाराम जी की ओर इशारा करते हुए) चाहते हैं कि तुम आइपीएफ में आ जाओ तो क्या दिक्कत हो रही है? का. तकी रहीम ने तब इतना ही कहा – ‘अच्छा ज्वायन कर लेंगे’. इस तरह 1982 में शुरू हुआ प्रयास 1988 में जाकर फलीभूत हो सका. का. तकी रहीम खुद आइपीएफ दफ्तर पहुंचे और का. बीडी प्रसाद व का. रत्नेश्वर सिंह के साथ आइपीएफ की सदस्यता ग्रहण कर ली. इस तरह बिहार में मासस के भाकपा(माले) में विलय की एक प्रक्रिया पहले भी, ’80 के दशक में भी चली. उस समय बिहार अविभाजित ही था.

बिहार और झारखंड की वामपंथी राजनीति में भाकपा(माले) एक सतत विकासमान ताकत रही है. 90 के दशक से जब वीपी सिंह और लालू प्रसाद यादव की अगुआई में देश और राज्य में सामाजिक न्याय और पहचान की राजनीति परवान चढ़़ी, तब भी भाकपा(माले) ने खुद को टिकाये रखा. भाकपा(माले) ने सत्ताधारी वर्ग द्वारा अपनायी गई नवउदारवादी नीतियों और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में सांप्रदायिक नफरत की राजनीति की सवारी करते हुए आनेवाले उस फासीवादी उभार की आहट को भी सबसे पहले भांप लिया जिसकी अगुआई करते हुए संघ-भाजपा देश देश की सत्ता को हथियाने की ओर तेजी से बढ़ रही थी. भाकपा(माले) दलितों-पिछड़ों और अकलियतों समेत अन्य वंचित तबकों की राजनीति को नई धार देती रही, बिहार और झारखंड में चुनावी सफलतायें दर्ज करती रही और रणवीर सेना जैसी सामंती-सांप्रदायिक ताकतों के साथ-साथ वामपंथी अराजकतावादियों से भी निबटने में सफल रही. बिहार और झारखंड में लगातार अपना जनाधार व राजनीतिक ताकत खोती जा रही भाकपा और माकपा जैसी पुरानी वामपंथी पार्टियों के बरक्श भाकपा(माले) बिहार और झारखंड के नये-नये इलाकों फैली और वह एक प्रमुख राजनीतिक ताकत बनती चली गई.

यह भी याद रहे कि लोकसभा चुनाव 2024 में देश में भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता जो आगे चलकर इंडिया गठबंधन के बतौर सामने आई, भाकपा(माले) का पटना महाधिवेशन (फरवरी, 2023) की वह मुहिम शुरू हुई.

और यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन और 2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन में शामिल रहते हुए, उसे मजबूत और धारदार बनाते हुए भाकपा(माले) ने सीमित सीटों पर चुनाव लड़ते हुए भी बड़ी जीतें हासिल कीं – बिहार विधानसभा की 19 सीटों में से 12 पर और लोकसभा की 3 सीटों में से 3 पर. 1990 में का. महेन्द्र सिंह ने गिरिडीह जिले की बगोदर सीट से चुनाव जीता और उनकी जीत का सिलसिला झारखंड अलग राज्य बनने के बाद और उनकी शहादत के बाद भी जारी रहा. भाकपा(माले) झारखंड विधानसभा में भी वामपंथ की मजबूत आवाज बनकर गूंजती रही और कभी-कभी तो अकेली ही. इसमें कोई संदेह नहीं कि झारखंड राज्य के साथ-साथ बिहार में भी भाकपा की बढ़ती ताकत ने एक बार फिर मासस और भाकपा(माले) नेताओं के बीच एकता के नये सूत्र गढ़े हैं और इसे विलय की मंजिल तक पहुंचा दिया है.

(प्रस्तुति : कुमार परवेज)