वर्ष - 33
अंक - 33
10-08-2024

1 अगस्त 2024 को सर्वोच्च न्यायालय की सात-सदस्यीय संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत से एक फैसला सुनाते हुए आरक्षण के मकसद से अनुसूचित जातियों-अनुसूचित जनजातियों के उप-वर्गीकरण की वैधता को सही करार दिया. बहरहाल, कोर्ट ने इस मामले में निरपेक्ष स्वतंत्रता नहीं दी है. कोर्ट ने इन शक्तियों का दायरा सुनिश्चित किया है और इसके क्रियान्वयन के लिए कानूनी सीमाओं को अनिवार्य बनाया है – राज्य में पिछड़ेपन और सेवाओं में प्रतिनिधित्व के स्तरों को स्पष्ट दिखलाने वालों आंकड़ों के आधार पर ही उप-वर्गीकरण की इजाजत दी जा सकती है, हर जाति के लिए अलग-अलग सीटों का आवंटन नहीं किया जा सकता है, और राज्य सिर्फ अपनी मनमर्जी अथवा राजनीतिक नफा-नुकसान के आधार पर यह काम नहीं कर सकता है. अंततः, इसका मतलब यह भी है इसके लिए मुकम्मल, वैज्ञानिक और पारदर्शी जाति जनगणना करानी होगी, ताकि न केवल दलित-आदिवासी समुदायों के बीच, बल्कि सभी जाति वर्गीकरणों के अंदर व उनके बीच आंतरिक आर्थिक-सामाजिक असमानता से संबंधित आंकड़े प्राप्त हो सकें, जिसके बिना कदम आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है.

यह फैसला सामाजिक न्याय और समानता प्राप्त करने के तरीकों और जरियों के बारे में लंबे समय से चल रही बहस को सामने ले आया है. जहां कुछ लोग तर्क देते हैं कि जिन हिस्सों के लिए आरक्षण सबसे जरूरी है, उनके लिए इसकी गारंटी करने हेतु उप-वर्गीकरण करना लंबे समय से बाकी पड़ा हुआ था, वहीं दूसरे लोगों का विचार है कि उप-वर्गीकरण राजनीतिक रूप से विभाजनकारी रणनीति है जो दलितों व आदिवासियों के खिलाफ चले आ रहे ऐतिहासिक अन्याय और अपमान को कम करके आंकती है, तथा उनकी सामूहिक पहचान की भावना को विनष्ट करती है और बहुसंख्यावादी राजनीति द्वारा उनके सह-योजन का मार्ग प्रशस्त करती है. बहरहाल, ये दोनों विचार इस साझे विश्वास पर एकमत हैं कि आरक्षण लागू करने के तौर-तरीकों में कोई भी बदलाव हाशिये पर पड़े समुदायों के सशक्तीकरण की प्रक्रिया को कमजोर नहीं, बल्कि मजबूत करने की दृष्टि से किया जाना चाहिए.

इस फैसले में कोटा के अंदर कोटा निर्धारित करने की शक्ति राज्य सरकारों को देते हुए अनुसूचित जाति आरक्षण के अंदर ‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा को भी लागू करने की सलाह दे दी गई है. अब कोर्ट को इस मामले में हाथ मारने की कोई जरूरत ही नहीं थी, क्योंकि उसके समक्ष यह मुद्दा था ही नहीं. इसके अलावा, यह अवधारणा सामाजिक न्याय हासिल करने के मकसद से की जाने वाली सकारात्मक कार्रवाई के मर्म को ही क्षतिग्रस्त कर देती है, और इस बुनियादी तथ्य को नजरअंदाज कर देती है कि ऐतिहासिक रूप से हायिाये पर पड़े अन्य समुदायों की बनिस्पत दलित समुदाय कहीं ज्यादा प्रबल सामाजिक पिछड़ेपन का शिकार रहा है, और जरूरी नहीं कि आर्थिक हैसियत जातीय स्थिति को बदल ही दे.

वैदिक हिंदूवाद जन्म से जुड़े सामाजिक वर्गीकरण की चार वर्णों वाली प्रणाली की नींव पर गठित हुई है, और जातियां इस वर्ण श्रेणीक्रम की दैनन्दिन अभिव्यक्ति है. जो लोग भी इसके अन्यथा तर्क करते हैं, वे या तो वैदिक हिंदूवाद से अनभिज्ञ हैं अथवा राजनीतिक मकसद से इसे शुद्ध बनाने की कोशिश करते हैं. फिर भी, सहमति रखने वाले न्यायाधीशों में से एक न्यायाधीश ने जातियों की कल्पित उत्पत्ति के बारे में चिंताजनक विचार प्रकट किया है. भागवत गीता और स्कंद पुराण का हवाला देते हुए वे तर्क देते हैं कि प्राचीन भारत में कोई वर्ण व्यवस्था नहीं थी, क्योंकि ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के कर्तव्य उनके गुण और स्वभाव के अनुसार (जन्म के अनुसार नहीं) निर्धारित होते थे. इन खतरनाक अ-ऐतिहासिक टिप्पणियों में गहरी समस्याग्रस्त ब्राह्मणवादी मानसिकता परिलक्षित होती है जिसे डा. अंबेडकर और अनेकानेक विद्वानों ने पूरी तरह गलत साबित किया है. इसके अलावा, वे बहुसंख्यावादी राजनीतिक एजेंडा को भी झुठला देती हैं और उन असमानताओं को भी नजरअंदाज कर देना चाहती हैं जो न केवल वैदिक हिंदूवाद के धर्मग्रंथों व आचरणों से, बल्कि देश के सभी धर्मों के दैनन्दिन व्यवहारों से गहरे जुड़ी हुई हैं.

उन्हीं जजों ने यह भी कहा कि आरक्षण नीति पर पुनर्विचार करना जरूरी है और कि आरक्षण पहली अथवा एक पीढ़ी तक को ही मिलना चाहिए. ये टिप्पणियां जीवन के हर क्षेत्र में अनुसूचित जातियों और हाशिये पर खड़े अन्य उत्पीड़ित तबकों की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु सकारात्मक कार्रवाई के प्रमुख पहलू के बतौर आरक्षण के बारे में सतही समझदारी को ही दर्शाती हैं. इसके अतिरिक्त यह इस तथ्य की भी अनदेखी कर देती हैं कि सकारात्मक कार्रवाई के बतौर आरक्षण भारत के गांवों-शहरों में रहने वाले दलित-आदिवासी समुदायों द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी झेले जाने वाले सामाजिक बहिष्करण का मुकाबला करने और उसे खत्म करने के मकसद से लागू किया गया है. सदियों और पीढ़ियों से इस ऐतिहासिक बहिष्करण को एक पीढ़ी में ही खत्म किया जा सकता है – ऐसी सतही टिप्पणी संवेदनहीन है और संविधान को बुलंद रखने की जिम्मेदारी से युक्त व्यक्तियों के अनुकूल नहीं है. यह तो भारत की उस सच्चाई की पूर्ण अवहेलना है जहां अनुसूचित जाति के छात्रों और विद्वानों को प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और आइआइटी व आइआइएम जैसे उच्च शिक्षा केंद्रों तथा मेडिकल व इंजीनियरिंग काॅलेजों में भी उत्पीड़न झेलना पड़ता है.

फासीवादी मोदी शासन के अंतर्गत हमलावर निजीकरण और कल्याणकारी राज्य के संकुचन ने राजकीय शिक्षा और रोजगार को काफी कम कर दिया है. और इसी के साथ बहालियों को अनिश्चित काल के लिए रोके रखने की सरकार की नीतियां, रोजगार व शिक्षा में एससी/एसटी आरक्षण के मौजूदा प्रावधानों का अपर्याप्त क्रियान्वयन, निजी क्षेत्र में आरक्षण की संभावना पर सोच का अभाव तथा समानता व सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने वाली नीतियों का लगातार क्षरण भी जुड़ते चले गए हैं. अब यह सिर्फ समय की बात रह गई है कि ये अवसर कब पूरी तरह समाप्त हो जाएं, और यही इस शासन की मंशा भी है.

वक्त का तकाजा है कि आरक्षित पदों को खाली रखने की एनएफएस (उपयुक्त नहीं पाया गया) कार्यनीति को उचित कानूनी-राजनीतिक हस्तक्षेप के जरिये खत्म किया जाए. बिहार के जातीय सर्वेक्षण ने दिखलाया है कि आजादी के 77 वर्ष बाद भी उत्पीड़ित समुदाय हाशिये पर खड़े हैं. 50 प्रतिशत आरक्षण के बारे में पुनर्विचार करने और आरक्षण के दायरे को विस्तारित करने तथा निजी क्षेत्र में भी आरक्षण सुनिश्चित करने की जरूरत है.

साफ दिखता है कि सामाजिक न्याय और समानता के एक औजार के रूप में आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान पर, और अब तो खुद संविधान पर ही हमले बढ़ते जा रहे हैं. इसीलिए हमें समाज में हाशिये पर खड़े तमाम उत्पीड़ित व वंचित तबकों के बीच वृहत्तर एकजुटता की आवश्यकता है.

समतामूलक समाज के लिए प्रयासरत तमाम ताकतों का कर्तव्य है कि वे सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का इस्तेमाल करके उत्पीड़ित और वंचित समूहों के बीच और अधिक विभाजन व प्रतिद्विंता न फैलाने दें. उन्हें देखना है कि यह फैसला शक्तिशाली व सुविधासंपन्न समुदायों के लिए बांटों-और-राज करो रणनीति लागू करने और अपने सामाजिक व आर्थिक प्रभुत्व को लादे रखने का औजार न बन जाए. इसके बजाय उन्हें कोशिश करनी होगी कि यह फैसला सामाजिक न्याय और समानता के उसूलों को बुलंद रखते हुए सामाजिक बहिष्करण व हाशियाकरण के खिलाफ सामूहिक संघर्ष को मजबूती प्रदान करे.