वर्ष - 32
अंक - 29
15-07-2023

भोपाल में भाजपा के बूथ-स्तरीय कार्यकर्ताओं को अपने संबोधन के दौरान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के लिए गरज-तरज करने के ठीक बाद उसी राज्य से एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें सत्ता मदांध भाजपा युवा नेता प्रवेश शुक्ला एक आदिवासी मजदूर दसमत रावत के शरीर पर पेशाब करते दिख रहा था. वह वीडियो साफ दिखलाता है कि मध्य प्रदेश में, जहां भाजपा लगभग दो दशकों से शासन चला रही है, दरअसल किस किस्म की (अ-)नागरिक संहिता व्याप्त है. यह छिपी बात नहीं है कि हाशिये पर पड़े उत्पीड़ित सामाजिक समूहों के प्रति क्रूरता की ऐसी हरकतें पश्चिम व उत्तर भारत के भाजपाई वर्चस्व वाले लगभग सभी राज्यों में बेरोकटोक चल रही हैं. संघ ब्रिगेड द्वारा असली संविधान के बतौर घोषित मनुस्मृति वस्तुतः जातीय व लैंगिक भेदभाव और हिंसा के चरम स्वरूपों को सामाजिक स्वीकृति प्रदान करता है.

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारक) अधिनियम, 1989 में जातीय हिंसा की इस दुखद सच्चाई को स्वीकार किया गया था, तथा कठोर कानूनी प्रावधानों के साथ इसको रोकने की कोशिश की गई थी. लेकिन भाजपा और उसकी हमलावर हिंदुत्व राजनीति के उभरने के साथ इस अधिनियम को धीरे-धीरे अ-प्रभावी बना दिया गया, और अब तो इसको शिथिल करने और यहां तक कि इसे खत्म करने की भी चीख-पुकार मजबूत होती जा रही है. इसी के साथ, धार्मिक अल्पसंख्यकों और खासकर मुस्लिमों के खिलाफ संगठित नफरती अपराधों की बाढ़-सी आ गई है. मोदी युग में भीड़ हिंसा विकेंद्रित और निजीकृत हिंसा का नया स्वरूप बन गया है, और बुलडोजर राज्य द्वारा बदला और आतंक के जारी रहने का नया-प्रतीक बना है. सांप्रदायिक नफरत, जातीय अत्याचार और लैंगिक हिंसा साथ-साथ बढ़े हैं, जबकि मीडिया का प्रभुत्वशाली हिस्सा सांप्रदायिक नफरती अपराधों को नजरअंदाज करता रहा है और यहां तक कि उसे वैधता भी प्रदान करता रहा है.

चुनाव नजदीक आ रहे हैं और आदिवासी वोटर मध्य प्रदेश में एक महत्वपूर्ण कारक हैं, इसीलिए शिवराज सिंह चौहान सरकार ने स्थिति संभालने के लिए कुछ सख्त कदम उठाए हैं. मुख्यमंत्री ने ‘पाश्चाताप’ का एक वीडियो जारी किया है, जिसमें उनको आनुष्ठानिक ढंग से दसमत रावत का पैर पखारते देखा जा सकता है – उन्होंने दसमत को अपना भाई कहा और उसे हर तरह की मदद का आश्वासन भी दिया, साथ ही प्रवेश शुक्ला के घर के एक हिस्से को गिराने के लिए बुलडोजर भेजा गया है और पुलिस वाहन में प्रवेश शुक्ला को बांध कर लाते हुए एक वीडियो जारी किया गया. स्पष्ट है कि अगर वह वीडियो वायरल नहीं हुआ होता और चुनाव नजदीक न रहता तो यह सब कुछ भी नहीं हो पाता. यह भी स्पष्ट है कि प्रकाश में आनेवाली ऐसी हर घटना के साथ इसी किस्म की दर्जनों अन्य घटनाएं होती रहती हैं जिनपर किसी का ध्यान तक नहीं जाता है. जहां भयभीत दसमत को अपने उत्पीड़क प्रवेश शुक्ला को ‘माफ करने’ की मिन्नत करते देखा जा सकता है, वहीं एक नये वीडियो में यह भी देखा जा सकता है कि इंदोर में किस तरह से आदिवासी युवकों को क्रूरतापूर्वक मारा-पीटा जा रहा है.

हम मध्य प्रदेश में सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न, घृणा और हिंसा तथा अपराधियों को मिले राजनीतिक संरक्षण व अभयदान – जिसका अपवाद सिर्फ चुनावी बोझ बन गए प्रवेश शुक्ला जैसे  अपराधी ही होते हैं – की प्रणली के अंतर्गत मानवीय मर्यादा और अधिकारों के इन्कार की पृष्ठभूमि में समान नागरिक संहिता के मुद्दे को कैसे देख सकते हैं ? 22वें लाॅ कमीशन (विधि आयोग) ने एक महीने की समयावधि में इस विषय पर जनता के विचार मांगे हैं, लेकिन उसने यह नहीं बताया है कि ऐसी समान संहिता में आखिर रहेगा क्या. इतिहास बताता है कि इस विषय पर तीखे वाद-विवाद के बाद संविधान सभा इस बात पर सहमत हुई कि इसे संविधान में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत के  बतौर शामिल किया जाए, जिसे अपनी परिभाषा के मुताबिक ही कानूनी तौर पर लागू किया जाना अनिवार्य नहीं होगा और उसे न्यायिक मुद्दा भी नहीं बनाया जा सकता है. बाबा साहब अंबेडकर चाहते थे कि समान नागरिक संहिता को नागरिकों की स्वेच्छा पर छोड़ दिया जाए. 21वें विधि आयोग ने भी पाया था कि मौजूदा मोड़ पर यूसीसी न तो आवश्यक है और न ही व्यवहार्य है. इसके बजाय, उसने तमाम व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लाॅ) के दायरे में लैंगिक न्याय और समानता सुनिश्चित करने हेतु उचित कानूनी सुधार करने की अपील की थी. अब अचानक 22वें विधि आयोग को इस मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करने की ऐसी क्या फौरी जरूरत हो गई?

जहां सरकार अभी तक समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर अपने ठोस प्रस्ताव सामने नहीं ला सकी है, वहीं संघ-भाजपा के प्रचारकों का झुंड मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने और यूसीसी के विचार के हर विरोध को मुस्लिम समुदाय के उकसावे अथवा तुष्टीकरण के बतौर बताने में मशगूल हो गया है. वास्तविक जीवन में हम स्पष्टतः देख सकते हैं कि मुस्लिम समुदाय की बनिस्पत मेघालय व नगालैंड जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों, और भारत के हर हिस्से के आदिवासी समुदायों की तरफ से कहीं ज्यादा गंभीर आशंकाएं और विरोध सामने आ रहे हैं. गृह मंत्री अमित शाह और संसदीय विधि स्थायी समिति के अध्यक्ष सुशील मोदी ने पहले ही संकेत कर दिया है कि ईसाइयों और पूर्वोत्तर राज्यों को यूसीसी के दायरे से बाहर रखा जा सकता है. शायद यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने यूसीसी के विचार को निर्देशक सिद्धांतों में शामिल किया था, और 2018 के निकट अतीत तक 21वें विधि आयोग ने भी यूसीसी को न तो आवश्यक समझा था और न ही व्यवहार्य. वस्तुतः व्यक्तिगत कानून में रीति-रिवाजों की विविधता स्वयं हिंदुओं के बीच भी व्याप्त है, और उनके रीति-रिवाज अंचल-दर-अंचल उतने ही भिन्न हैं जितने कि गैर-हिंदू धर्मों और समुदायों के बीच हैं.

21वें विधि आयोग ने एकता के नाम पर समरूपता लादने की कोशिश करने के बजाय सही तौर पर समानता के साथ विविधता का सामंजस्य बिठाने पर जोर दिया था. हैरत की बात तो यह है कि आरएसएस के पूर्व सरसंघचालक गोलवरकर ने भी भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में समान नागरिक संहिता लादने के खिलाफ स्पष्ट चेतावनी दी थी. 1971 में आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ के संपादक केआर मलकानी को दिए अपने लंबे साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि भारत की एकता के लिए समरूपता के बजाय सामंजस्य की जरूरत है. लेकिन आज मोदी सरकार अपने खुद के वैचारिक व प्रशासकीय पूर्ववर्तियों द्वारा दी गई चेतावनी को त्यागने की हड़बड़ी दिखा रही है, क्योंकि सरकार को विश्वास है कि वह ऐसी अवस्था में पहुंच गई है जहां उसे किसी भी रोकटोक को मानने की आवश्यकता नहीं है, और कि यूसीसी सर्वोत्तम चाल है जिसके जरिये वह आज की ज्वलंत समस्याओं से लोगों का ध्यान भटका दे सकती है और भारत को सांप्रदायिक दिशा में ध्रुवीकृत कर सकती है.

समानता और न्याय सुनिश्चित करने हेतु कानूनी सुधार लगातार चलनेवाला एजेंडा है, और जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 44 में निर्देशित है, राज्य को सभी समुदायों की महिलाओं के लिए लैंगिक-अनुकूल कानूनों की गारंटी के लिए निरंतर आगे बढ़ते रहना पड़ेगा. और, अनुच्छेद 44 को लागू करने के लिए तमाम संबंधित पक्षों की सामूहिक भागीदारी और सहमति के बगैर शून्य में हाथ-पांव नहीं मारा जा सकता है. इसके अलावा, अगर मोदी सरकार राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के क्रियान्वयन को त्वरित करना चाहती है तो वह सिर्फ और सिर्फ अनुच्छेद 44 को लेकर आगे नहीं बढ़ सकती है; उसे अनुच्छेद 36 से लेकर 51 तक के अंतर्गत संविधान की तत्संबंधित धाराओं में मौजूद समान रूप से मौलिक अन्य निर्देर्शों को भी लागू करना होगा जिनके अनुसार राज्य को अनिवार्यतः काम के सार्वजनिक अधिकार तथा आजीविका की गारंटी करनी होगी तथा आय में असमानता और चंद लोगों के हाथ में धन व उत्पादन के साधनों के संकेंद्रण में कमी लानी पड़ेगी.

अभी तक हम यह नहीं मान सकते कि यूसीसी के क्रियान्वयन पर भाजपा के मौजूदा जोर का लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करने अथवा राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों की भावना के साथ कोई लेनादेना भी है. सच तो यह है कि यूसीसी एजेंडा को पेश करना सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और मुस्लिमों को बदनाम करने की व्यापकतर परियोजना का ही एक हिस्सा है. ‘लव जेहाद’ के जहरीले झूठ के अलावा, यूसीसी को ‘हिंदुओं की बनिस्पत मुस्लिमों की बढ़ती संख्या’ के उस बेहूदे विमर्श को लेकर की जा रही स्पष्ट अपीलों के साथ-साथ सामने लाया जा रहा है जो जनसंख्या वृद्धि पर बहु-विवाह के असर के बारे में मोदी के कुख्यात और एकदम गलत दावों में परिलक्षित होता है. विपक्ष को यह मंशा ध्वस्त करनी होगी, जीवन-यापन की बढ़ती लागत के संकट और बेरोजगारी जैसे ज्वलंत मुद्दों पर अपना ध्यान केंद्रित रखना होगा, तथा सामाजिक उत्पीड़न व हिंसा की मनुस्मृति संहिता के सार्वजनीकरण की ओर देश को पुनः धकेलने के हर प्रयास के बरखिलाफ आधुनिक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत की संवैधानिक भविष्य-दृष्टि की रक्षा करनी होगी. हमें लैंगिक न्याय और समानता चाहिए, यूसीसी के नाम पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और मुस्लिमों का दानवी-चित्रण नहीं !