वर्ष - 32
अंक - 18
29-04-2023

महत्वपूर्ण लोकसभा चुनाव, 2024 के पहले इस वर्ष छह और विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं जिसकी शुरूआत 10 मई को कर्नाटक विधानसभा चुनाव से होगी. पिछले कुछ दशकों से कर्नाटक इस फासिस्ट ब्रिगेड के दक्षिणी अभियान के लिए मुख्य प्रयोगस्थली के बतौर उभरा है. 2014 में केंद्र की सत्ता पर मोदी के काबिज होने के बाद इन फासिस्ट शक्तियों का मनोबल काफी बढ़ा है और उन्हेंने प्रख्यात तर्कवादी चिंतक एमएम कलबुर्गी तथा कार्यकर्ता पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या करके अपनी मंशा को उजागर कर दिया है. हालांकि 2018 के विधानसभ चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई, किंतु कर्नाटक में कांग्रेस और जेडी(एस) की मिलीजुली सरकार बनी. लेकिन मोदी के दूसरी बार सत्ता में आने के साथ ही उस राज्य सरकार को दलबदल के जरिये गिरा दिया गया और भाजपा फिर से सत्ता में लौट आई. और पिछले चार वर्षों के दौरान पहले तो बीएस येदियुरप्पा और फिर बासवराज बोम्मई के नेतृत्व में भाजपा सरकार के अंतर्गत कर्नाटक सर्वव्यापी भ्रष्टाचार, दलितों व आदिवासियों पर लगातार बढ़ते अत्याचार तथा मुस्लिमों के खिलाफ बेलगाम नफरती हिंसा के लिए बदनाम हो चुका है.

आज जब मोदी सरकार कठिन सवालों का सामना कर रही है तो उसके पास बस एक ही जवाब है: सवालों पर हेकड़ी-भरी चुप्पी और सवाल करनेवालों पर खुली दंडात्मक कार्रवाई. जब बीबीसी के वीडियो ने 2002 के गुजरात जनसंहार की भयावनी तस्वीर उजागर की और यह स्पष्ट हुआ कि उस जनसंहार में “नस्ली सफाये के तमाम चिन्ह मौजूद थे”, और यह भी खुलासा हुआ कि ब्रिटिश उच्चायोग द्वारा कराई गई एक जांच की रिपोर्ट में इस जनसंहार के लिए सीधेसीधी तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार पाया गया, तो उन वीडियो क्लिप्स के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगाकर और दिल्ली तथा मुंबई स्थित बीबीसी कार्यालयों पर टैक्स छापे डलवाकर इसका जवाब दिया गया. जब हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने अडानी के भारी काॅरपोरेट घोटाले को उजागर किया और विपक्ष ने संयुक्त संसदीय समिति के जरिये इस घोटाले की जांच करवाने की मांग की और राहुल गांधी ने मोदी-अडानी रिश्ते पर सवाल खड़े किए, तो भाजपा सांसदों द्वारा संसद के पूरे सत्र को बाधित करके और राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द करके इसका जवाब दिया गया.

अरविंद केजरीवाल नरेंद्र मोदी की वह शैक्षणिक डिग्री देखना चाहते थे, जो उन्होंने अपने चुनावी हलफनामे में दर्ज कराया था, तो केजरीवाल पर 25000 रुपये का जुर्माना ठोंक दिया गया और सीबीआई द्वारा दिल्ली के मुख्यमंत्री को कथित शराब घोटाले के संदर्भ में पूछताछ के लिए बुला लिया गया, जिस मामले में उप-मुख्यमंत्री को पहले ही जेल में डाला जा चुका है. ‘आप’ की इस बात से हम सहमत नहीं हो सकते हैं कि प्रधान मंत्री अथवा उच्च पदों पर बैठे राजनेताओं के पास उच्च स्तर की शैक्षणिक डिग्री होनी ही चाहिए. यहां सवाल यह नहीं है कि पीएम कितने ज्यादा शिक्षित हैं, बल्कि यह है कि चुनावी उम्मीदवार के बतौर उनके द्वारा दर्ज कराया गया हलफनामा सही है या नहीं. जहां लगभग हर सार्वजनिक सेवा और अधिकार पाने के लिए आम नागरिकों को अपना पूरा वैयक्तिक ब्योरा देने के लिए बाध्य किया जाता है और गैर-दस्तावेजी नागरिकों से उनकी नागरिकता छीन लेने की धमकियां दी जाती हैं, वहां पीएम को यह विशेषाधिकार नहीं हो सकता है कि वे अपनी डिग्री को गोपनीयता का मामला बताकर छिपा लें. यह भी तथ्य है कि अमित शाह ने संवाददाता सम्मेलन के दौरान पीएम की जिस कथित डिग्री को दिखाया था, वह विसंगतियों से भरी हुई थी.

पीएम के बारे में सबसे विस्फोटक सवाल तो शायद 2019 की संकटपूर्ण अवधि में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक ने उठाया है, जब पुलवामा में अनेक जवान मारे गए थे, धारा 370 को रद्द किया गया था और राज्य का दर्जा खत्म कर जम्मू-कश्मीर को दो संघ-शासित भूखंडों में बांट दिया गया था. सत्यपाल मलिक ने सीधेसीधी प्रधान मंत्री व उनके वरिष्ठ कैबिनेट सहयोगियों पर भारी सुरक्षा चूक तथा खुफिया तंत्र की विफलता का आरोप लगाया है जिसके चलते पुलवामा में सीआरपीफ जवानों की शहादत हुई थी. सीआरपीएफ ने अपने जवानों को ले जाने के लिए हवाई जहाज मांगे थे, लेकिन मोदी सरकार ने इस मांग को ठुकरा दिया. उस सड़क मार्ग को भी सुरक्षित बनाने का कोई इंतजाम नहीं किया गया जिससे कि सीआरपीएफ काफिले के अंदर विस्फोटक से भरे वाहन को घुसने और उस भयानक विस्फोट को राकने की गारंटी हो सकती थी, जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवान मारे गए थे. पीएम तो उस समय डिस्कवरी चैनल के साथ काॅर्बेट पार्क में शूटिंग करवा रहे थे और मलिक के कथनानुसार, जब उन्होंने शूटिंग के बाद राज्यपाल से बात की तो उन्हें इस सुरक्षा चूक पर खामोश रहने का निर्देश दिया गया. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने भी उन्हें वही ‘खामोश रहने’ का संदेश भिजवाया था. मलिक ने अपने साक्षात्कार के दौरान खास ब्योरा देते हुए आरएसएस और भाजपा पर भी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है. उस साक्षात्कार के कई हफ्ते बीत जाने के बाद भी यह शासन इन आरोपों पर बिल्कुल चुप है.

कार्यपालिका की आक्रामक एकपक्षीयता से संचालित सत्ता का लगातार बढ़ता केंद्रीकरण लोकतंत्र की संवैधानिक बुनियाद के अस्तित्व पर ही खतरा पैदा कर रहा है. कार्यपालिका खुलेआम लोगों को न्यायपालिका के विरुद्ध भड़का रही है – यहां तक कि विधि मंत्री शासन के प्रति आलोचनात्मक रुख रखने वाले सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों को राष्ट्र-विरोधी गिरोह बता रहे हैं. हाल के दिनों में हम कार्यपालिका के द्वारा सत्ता के दुरुपयोग पर न्यायपालिका को रोक लगाने और उसमें सुधार लाने का प्रयास करते देख रहे हैं. उदाहरण के बतौर, सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया है कि वह एक मलयालम टीवी चैनल का लायसेंस फिर से बहाल करे, जिसे केंद्रीय गृह मंत्रालय ने रद्द कर दिया था. इस न्यायालय ने गुजरात सरकार को बिलकिस बानो केस में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे अभियुक्तों को रिहा करने की कार्रवाई की व्याख्या करने को भी कहा है.

10 मई 1857 के दिन भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ था. व्यापक हिंदू-मुस्लिम एकता की बुनियाद पर चले उस लोकप्रिय विद्रोह ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी शासन की चूलें हिला दी थीं 166 वर्ष बाद, आधुनिक भारत खुद को उसी किस्म की निर्णायक लड़ाई के बीच पा रहा है. आशा है कि कर्नाटक की जनता उन फासीवादी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देगी जो बहुत-कुछ औपनिवेशिक सत्ता के ही तर्ज पर भारत पर शासन करने का प्रयास कर रही हैं – भारतीय जनता का दमन करके, उनके बुनियादी मानवाधिकारों का हनन करके, और हिंदुओं व मुस्लिमों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करके, ताकि उनकी जमीन और उनके संसाधनों को लूटा जा सके. 10 मई 1857 ने विदेशी शासन से आजादी का झंडा फहराया था. 10 मई 2023 भारत को सांप्रदायिक घृणा और काॅरपोरेट लूट के सांघातिक संयोजन से आजाद कराने के लिए फासीवाद से मुक्ति का उद्घोष करे !