जोशीमठ, उत्तराखंड की सीमाओं पर स्थित अंतिम शहर, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है. पूरे शहर में हर दिन सड़कों और घरों में नई दरारें उभर रही हैं जिससे वह जगह पूरी तरह असुरक्षित और निवास के लिए अयोग्य बनती जा रही है. चेतावनी की हर घंटी तथा संकेत को सुनने से इनकार करने वाला लापरवाह प्रशासन अब हैरान-परेशान होकर उन घरों और होटलों की निशानदेही कर रहा है जिन्हें तुरंत खाली कराना जरूरी हो गया है.
यह ऐसी विपदा है जिसके बारे में पहले ही बताया जा चुका था. जो लोग इसके प्रति सचेत थे, वे इस विपदा को पहले से ही देख रहे थे. पिछले कई वर्षों से जोशीमठ के निवासी राज्य की हर संस्था का दरवाजा खटखटा रहे थे और निर्माण कार्यों को रोकने तथा नीतियों को बदलने की गुहार लगा रहे थे. उनके संघर्षशील मंच – जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति – ने जोशीमठ निवासियों के द्वारा महसूस किए जा रहे खतरे के पैमाने को बता दिया था और इस जगह की हिफाजत करने की उनकी अपील को भी संप्रेषित कर दिया था, जिसे उनकी कई पीढ़ियों ने इतनी मशक्कत, मोहब्बत और उम्मीद के साथ विकसित किया है.
काफी पहले 1976 में ही गढ़वाल के तत्कालीन कलक्टर एमसी मिश्रा की अध्यक्षता में एक 18-सदस्यीय समिति ने सरकार को आगाह किया था कि जोशीमठ को डूबने से बचाने के लिये वहां अंधधुंध निर्माण कार्यों को रोक देना पड़ेगा. लेकिन इस गंभीर चेतावनी पर किसी भी सरकार ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया. सन् 2000 में इस राज्य की स्थापना को दरअसल विकास तथा तीर्थस्थलों व पर्यटन के संवर्ध्न के नाम पर सड़कों, बांधें और सुरंगों के अंधधुंध निर्माण के लिए लायसेंस मान लिया गया. उत्तराखंड को भारत के ‘ऊर्जा प्रदेश’ का नाम दे दिया गया. निर्माण गतिविधियं में आई तेजी को सिर्फ एक आंकड़े के जरिये साफ-साफ समझा जा सकता है: इस राज्य की अध्घिषणा होने के समय उत्तराखंड में कुल 8,000 किमी. का सड़क ढांचा था, लेकिन दो दशक बाद ही यह पांचगुना बढ़कर 40,000 किमी. का हो गया.
समय-समय पर सरकारी एजेंसियों ने भी सरकारों को निर्माण कार्यों में ऐसी गैर-मुनासिब तेजी के दुष्परिणामों के बारे में चेताया था. 2013 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान ने बांधें के निर्माण को अचानक आने वाली बाढ़ों की बढ़ती संख्या का प्रमुख कारण बताया था – इस राज्य की अध्घिषणा के एक दशक पहले, 1989 और 1999 के बीच उस क्षेत्र में इस तरह की सिर्फ चार बाढ़ें आई थीं; जबकि अगले एक दशक (2002-2012) में यह संख्या बढ़कर 22 हो गई ! अभी हाल में फरवरी 2022 में वरिष्ठ पर्यावरणविद रवि चोपड़ा ने चार धम परियोजना के लिए गठित उच्च स्तरीय समिति से यह कहकर इस्तीफा दे दिया कि यह परियोजना हिमालय पर हमला है.
जोशीमठ के लोग विनाशकारी तपोवन-विष्णुगढ़ बिजली परियोजना के खिलाफ तभी से निरंतर प्रतिवाद करते आ रहे हैं, जब बीस वर्ष पूर्व यह परियोजना प्रकाश में आई थी. स्थानीय प्रतिवादों को देखते हुए इसकी नींव जोशीमठ से 250 किमी. दूर देहरादून में रखनी पड़ी थी. हैरत की बात तो यह है कि इस जल बिजली परियोजना के निर्माण का काम एनटीपीसी को सौंप दिया गया, जो कि ताप विद्युत से ताल्लुक रखता है. अब हम जानते हैं कि गुजरात में क्या हुआ जब पुल की मरम्मती का ठेका घड़ी बनाने वाली एक कंपनी को सौंपा गया था. उत्तराखंड में अक्सरहा मोरबी किस्म की विनाश-लीलाएं होती रही हैं. 2009 में सुरंग खोदने वाली एक मशीन सुरंग में ही फंस गई और उस सुरंग से आज तक पानी का बहना जारी है. फरवरी 2021 में अचानक आई बाढ़ में 13 मेगावाट की ऋषिगंगा जलबिजली परियोजना बह गई और ऐतिहासिक गांव रेनी के लिए मौत की घटी बज गई, जो कि 1974 के चिपको आन्दोलन की जन्मस्थली थी जिसने पर्यावरण और पारिस्थिकी की हिफजत को लोकतंत्र और विकास के केंद्र में लाकर एक नई मशाल जलाई थी.
इतिहास की यह घोर विडंबना ही है कि जिस राज्य ने पर्यावरण आन्दोलन को बड़ा जन आयाम देने मे ऐसी अगुवा भूमिका निभाई है, उसे सत्ता और लोभ के मद में चूर शक्तियों ने हथिया लिया. मुनाफे के लए प्रकृति को लूटने तथा इंसाफ के लिए जनता की आवाज को खामोश करने की खातिर सत्ता का इस्तेमाल करना शासन का मंत्रा बन गया है. फरवरी 2021 की आपदा के बाद जब रेनी गांव के निवासियों और जोशीमठ संघर्ष समिति के नेता व भाकपा(माले) के उत्तराखंड राज्य कमेटी सदस्य अतुल सती ने मिल-जुलकर उच्च न्यायालय में तपोवन-विष्णुगढ़ और ऋषिगंगा बिजली परियोजनाओं को फौरन रोकने तथा तमाम विपदा-प्रभावित लोगों को पुनर्वासित करने के लिए याचिकाएं दायर कीं, तो उच्च न्यायालय ने उन याचिकाओं को खारिज कर दिया और याचिकाकर्ताओं को निहित स्वार्थों की कठपुतली बताते हुए उनपर आर्थिक जुर्माना ठोंक दिया!
यह गौरतलब है कि जिस उच्च न्यायालय ने इन विपदाग्रस्त लोगों की दुर्दशा के प्रति ऐसी चरम असंवेदनशीलता दिखाई, उसी कोर्ट ने हल्द्वानी के बनफूलपुरा के 4000 परिवारों को यह कहकर उनकी जगह से फौरन उजाड़ देने का आदेश जारी कर दिया कि उनलोगों ने रेलवे की जमीन का अतिक्रमण कर रखा है. अगर सर्वोच्च न्यायालय ने इस क्रूर बेदखली आदेश पर स्थगन न लगाया होता, तो अबतक बुलडोजर ब्रिगेड ने हाड़ कंपा देने वाली इस सर्दी में लगभग 50,000 लोगों को उजाड़ दिया होता. बनफूलपुरा मुस्लिम-बहुल इलाका है और जोशीमठ हिंदू तीर्थयात्रियों का पवित्र स्थल है, लेकिन इन दोनों जगहों पर जो आसन्न विपदा खतरा उत्पन्न कर रही है वह किसी धर्म द्वारा आदेशित नहीं है. वह तो सारतः कॉरपोरेट लोभ, बेलगाम सत्ता और लापरवाह शासन की मिली-जुली उपज है.
जोशीमठ और बनफूलपुरा को बचाना दरअसल विकास और लोकतंत्र को आपदाओं के गतिपथ से उबारने की कार्रवाई है. हम आशा करते हैं कि उत्तराखंड की जनता कॉरपोरेट लोभ और निरंकुश शासन की ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देगी और टिकाउफ विकास तथा जवाबदेह लोकतंत्र के लिए लड़ाई को ऊर्जा प्रदान करेगी.