वर्ष - 34
24-01-2025

मोहन भागवत का यह बयान कि विध्वंस की गई बाबरी मस्जिद की जगह पर सरकार प्रायोजित राम मंदिर का निर्माण भारत की 'सच्ची आजादी' का निर्णायक पल है, एक बार फिर यह याद दिलाता है कि आरएसएस का राष्ट्रवाद और आजादी का नजरिया भारत के स्वतंत्रता संग्राम के वास्तविक इतिहास और उसकी आकांक्षाओं के बिल्कुल विपरीत है. आरएसएस के इतिहास और विचारधारा को देखते हुए, संगठन के प्रमुख का ऐसा बयान अप्रत्याशित नहीं है.  लेकिन मोदी सरकार के माध्यम से आरएसएस को मिली अभूतपूर्व राजनीतिक शक्ति के चलते, 75वें गणराज्य दिवस की पूर्व संध्या पर आरएसएस का यह वैचारिक रुख स्वतंत्रता संग्राम की विरासत और भारत के संविधान के धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक चरित्र पर एक तरह से सीधा युद्ध का  ऐलान करने जैसा है.

आरएसएस की स्थापना 1925 में उस समय हुई, जब भारत औपनिवेशिक गुलामी से पूरी तरह आज़ादी के लिए राष्ट्रीय जागरण और जोरदार संघर्ष की लहर से गुजर रहा था. आज़ादी के आंदोलन की विभिन्न धाराओं के बीच संघर्ष के तौर-तरीकों, जन-आंदोलनों के रूप और स्वतंत्रता के बाद की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को लेकर बहस और मतभेद जरूर थे.

भगत सिंह और उनके साथियों तथा भारतीय कम्युनिस्टों की पहली पीढ़ी ने एक समाजवादी भारत का सपना देखा. कम्युनिस्ट नेतृत्व वाले किसान आंदोलनों ने जमींदारी प्रथा के पूर्ण उन्मूलन का आह्वान किया. डॉ. अंबेडकर ने जाति उन्मूलन के लिए जोरदार आवाज उठाई, जबकि सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू ने योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था का समर्थन किया.

लेकिन एकमात्र वैचारिक धारा जिसने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सहयोग किया और उनकी 'फूट डालो और राज करो' की नीति को मजबूत बनाया, वह हिंदू महासभा और आरएसएस का गठजोड़ था. बाद में मुस्लिम लीग ने भी इसी राह पर चल पड़ा. जहां देशभक्त और लोकतांत्रिक भारतीयों ने दुनिया भर के औपनिवेशिक विरोधी संघर्षों और क्रांतियों से प्रेरणा ली, वहीं आरएसएस की विचारधारा और संगठनात्मक ढांचा इटली के मुसोलिनी और जर्मनी के हिटलर से प्रभावित था.

औपनिवेशिक भारत में सच्चा राष्ट्रीय जागरण केवल औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति तक सीमित नहीं था. यह समाज में धार्मिक सीमाओं से ऊपर उठकर मानवतावादी एकता स्थापित करने और ब्राह्मणवाद द्वारा पैदा की गई राष्ट्र-विरोधी बाधाओं को खारिज करने की भी मांग करता था. ब्राह्मणवाद, जो जाति-आधारित असमानता का श्रेणीबद्ध ढांचा था, बहुजन बहुसंख्यक को बहिष्कृत और हाशिये पर रखता था. साथ ही, पितृसत्ता की बेड़ियां महिलाओं को शिक्षा और सार्वजनिक जीवन से दूर रखकर केवल घरेलू काम और संतान पैदा करने तक सीमित कर देती थीं.

आरएसएस न केवल इस उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रीय जागरण की परीक्षा में असफल रहा, बल्कि यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था से पूरी तरह गहराई से जुड़ा हुआ था. इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि जब अंबेडकर ने आधुनिक भारत के लिए एक संवैधानिक संहिता की दिशा में कदम बढ़ाए, तो उन्होंने मनुस्मृति – सामाजिक गुलामी के इस ब्राह्मणवादी-पितृसत्तात्मक ग्रंथ – का साहसपूर्वक और जोरदार खंडन किया. इसके विपरीत, आरएसएस ने मनुस्मृति को अपनाया और अंबेडकर के नेतृत्व में बनाए गए संविधान को एक विदेशी-प्रभावित दस्तावेज कहकर खारिज कर दिया, जिसमें उनके अनुसार 'भारतीयता' की कोई झलक नहीं थी.

विभाजन की त्रासदी, जिसमें बड़े पैमाने पर मौत, विनाश और विस्थापन हुआ, के बावजूद स्वतंत्रता आंदोलन की धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और समानतावादी भावना पर आरएसएस-महासभा का असर नहीं पड़ा. गांधीजी की हत्या के बाद आरएसएस को न केवल व्यापक आलोचना और अलगाव का सामना करना पड़ा, बल्कि सरदार पटेल द्वारा लगाए गए प्रतिबंध से बाहर निकलने के लिए उसे संविधान और तिरंगे के प्रति अपनी निष्ठा की घोषणा करनी पड़ी.

1952 में हुए पहले आम चुनाव स्वतंत्र भारत की राजनीतिक और आर्थिक दिशा पर एक जनमत-संग्रह साबित हुए. इस चुनाव में आरएसएस-समर्थित जनसंघ और हिंदू महासभा व अखिल भारतीय रामराज्य परिषद जैसे अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों को संसद की 489 सीटों में से केवल दस सीटें ही प्राप्त हुईं.

सात दशक बाद, 2024 के लोकसभा चुनावों ने दिखाया कि भारतीय जनता अब संविधान पर मंडराते खतरे को समझने और महसूस करने लगी है. संघ-भाजपा की यह कोशिश कि धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत को एक सांप्रदायिक फासीवादी व्यवस्था में बदला जाए, अब व्यापक जन-प्रतिरोध का सामना कर रहा है. इसी घबराहट में संघ-भाजपा प्रतिष्ठान स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर और बदनाम करने का प्रयास कर रहा है. उनका उद्देश्य एक वैकल्पिक आख्यान गढ़कर भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदू वर्चस्ववादी आधार पर फिर से परिभाषित करना है.

अमित शाह के अंबेडकर पर दिए गए अपमानजनक बयान और मोहन भागवत की तथाकथित 'सच्ची आजादी' की खोज को एक ही रणनीति का हिस्सा समझा जाना चाहिए. यह स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास और उससे उपजे संवैधानिक नज़रिए और बुनियाद पर दोतरफा हमला है.

सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के पक्ष में जो फैसला दिया, उसका उद्देश्य अयोध्या विवाद का समाधान निकालना और अन्य मस्जिदों पर भविष्य में इसी तरह के दावों को सख्ती से रोकना था. लेकिन संघ-भाजपा ब्रिगेड अब इस फैसले का फायदा उठाकर 1991 के धर्मस्थल संरक्षण अधिनियम को पलटने और भारत की स्वतंत्रता के इतिहास और उसके मूल अर्थ को फिर से परिभाषित करने की कोशिश कर रहा है.

भागवत इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि आम जनता की जिंदगी पर छाया आर्थिक संकट दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है. इसी के चलते वे राम मंदिर को सिर्फ भारत की 'सच्ची आजादी' का प्रतीक ही नहीं बताते, बल्कि इसे भारत की आर्थिक परेशानियों का समाधान भी करार देते हैं. उनका दावा है कि बेहतर आजीविका का रास्ता मंदिर से होकर गुजरता है. अपने इस तर्क को मजबूत करने के लिए वे आध्यात्मिक पुनर्जागरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के आधार पर आर्थिक विकास की बात करते हैं और इसके लिए इज़राइल को आदर्श के रूप में पेश करते हैं!

भूगोल के नजरिए से देखें तो इज़राइल, जिसकी आबादी दस मिलियन से भी कम है, की तुलना भारत से करना पूरी तरह बेमानी है. भारत अब दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है, जिसकी जनसंख्या 1.4 अरब से भी ज्यादा है. लेकिन असली बेतुकापन इतिहास में छिपा है—इज़राइल की समृद्धि का आधार फिलिस्तीन पर उसका उपनिवेशवादी कब्जा और अमेरिका का अबाध समर्थन है.

क्या यह उपनिवेश के रूप में भारत की अपनी ऐतिहासिक दुर्दशा और राष्ट्रीय मुक्ति के लिए लंबे समय तक चले स्वतंत्रता संग्राम और आज भी जारी साम्राज्यवादी वर्चस्व की वास्तविकता का सबसे बड़ा मजाक नहीं है, कि भारत की तुलना उस देश से की जाए जो आज के समय का सबसे बड़ा उपनिवेशवादी लुटेरा और जनसंहारक हिंसा करने वाला अपराधी देश  है?

आजादी के 77 साल बाद, जो अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के दशकों के वीरतापूर्ण संघर्षों, सर्वोच्च बलिदानों, गौरवशाली आदिवासी विद्रोहों, जुझारू किसान आंदोलनों, कड़े श्रमिक संघर्षों और जन-जागरण के जरिए हासिल हुई थी, अब आरएसएस हमें बताता है कि असली आजादी अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के साथ ही आई है. भारत के संविधान को अपनाए जाने की पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर देश के गृह मंत्री यह कहते हैं कि संविधान के मुख्य शिल्पकार का नाम लेना और उनके आदर्शों का आह्वान करना अब महज एक 'फैशन' बन गया है.

इसी बीच, सुप्रीम कोर्ट द्वारा संविधान की प्रस्तावना से 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्दों को हटाने की याचिका को खारिज करने और कल्याणकारी राज्य के उद्देश्य को दोहराने के बावजूद, सरकार कृषि पर कॉर्पोरेट नियंत्रण थोपने और कठोर श्रम कानूनों के जरिये मजदूरों को दबाने पर आमादा है, जबकि कॉर्पोरेट जगत 90 घंटे के कार्य सप्ताह की मांग कर रहा है.

हमारे पूर्वजों ने आरएसएस की फासीवादी विचारधारा को खारिज करके आजादी हासिल की थी और हमें एक प्रगतिशील संविधान दिया था. आज, जब आरएसएस ने राज्य सत्ता में अपनी गहरी पैठ बना ली है और आजादी के आंदोलन के इतिहास को मिटाने तथा उस गौरवशाली राष्ट्रीय जागरण में अर्जित उपलब्धियों को पलटने की साजिश कर रहा है, तो भारत के लोगों को इस साजिश को विफल करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकनी होगी.

(एमएल अपडेट , 21-27 जनवरी 2025)