वर्ष - 28
अंक - 41
28-09-2019
– कुणाल, राज्य सचिव, भाकपा(माले), बिहार

विगत लोकसभा चुनाव में पार्टी आधार के एक हिस्से का वोट भाजपा की ओर शिफ्ट हो जाने से परेशान व चिंतित साथियों ने राहत की सांस ली जब चुनाव रिजल्ट के तुरत बाद रेपुरा की महिला खेत मजदूरों ने समान मजदूरी की मांग पर भाजपा समर्थक भूस्वामियों-किसानों के खिलाफ हड़ताल की घोषणा कर दी. चुनाव में गरीबों का एक हिस्सा इन्हीं भाजपाइयों के साथ खड़ा हो गया था. यह बेमेल एकता तुरत ही दरकने लगी.

संदेश प्रखंड में सोन किनारे बसा मल्लाह बहुल गांव है : चिल्होस-रेपुरा. चिल्होस और रेपुरा दो अलग गांव हैं, लेकिन हर लिहाज से इस तरह आपस में घुले-मिले हैं कि दोनों नामों को मिलाने से ही पूरे गांव का बोध होता है. रेपुरा में 140 घर मल्लाह है, तो चिल्होस बंगला पर 70 घर. रेपुरा में दूसरे नंबर पर भूमिहार जाति के लोग हैं, 50 घर. चिल्होस में भी ये 60 घर हैं. रेपुरा में दलित-पिछड़ी-अतिपिछड़ी जातियों की संख्या 63 घर है : कानू-3 घर, धोबी-4 घर, कहार-5 घर, पासवान-7 घर, यादव-10 घर, मुस्लिम-1, बनिया-6, पासी-14 और रविदास-13 घर. चिल्होस में पासवान-35 घर, रविदास-25 घर, नाई-25 (इतनी बड़ी संख्या में नाई आमतौर पर एक गांव में नहीं मिलते), बनिया-14, यादव-14, बढ़ई-12, कहार-5 और कानू-6 घर. दोनों गांवों को मिलाकर पार्टी के 3 ब्रांच और कुल 46 पार्टी सदस्य हैं. पोलिंग बूथ भी 3 हैं. बंगला का बूथ अलग है.

यहां चुनाव में हमेशा हम प्रथम स्थान पर रहते आए हैं. लेकिन इस बार हम दूसरे स्थान पर चले गए. हमारा वोट भाजपा की ओर शिफ्ट हुआ. महिलाएं खुलकर कहती थी कि वोट मोदी-नीतीश को ही देंगे, क्योंकि उसने न सिर्फ गांव में बिजली की 24 घंटे व्यवस्था की है, बल्कि लड़कियों को पोशाक-साइकिल और हमें गैस कनेक्शन भी दिया है. पूरे गांव पर पुलवामा व बालाकोट का असर था, खासकर नौजवानों में. एक भाजपाई अपराधी (का. सतीश यादव का हत्यारा) ने यहां सोन के बालू का ठेका ले रखा है और गांव के ढेर सारे बेरोजगार नौजवानों को बालू घाट पर काम दिया है. इससे भी वोट प्रभावित हुआ.

बहरहाल, सामंती ताकतें खुश थीं क्योंकि उन्होंने गरीबों को अपने पीछे खड़ा कर लिया था, जबकि गरीबों ने यहां इन्हीं ताकतों से लड़कर अपनी पहचान बनाई थी. हड़ताल की अचानक घोषणा से गांव के भूस्वामी हतप्रभ थे. बिना उनसे पूछे हड़ताल की घोषणा से भूस्वामी नाखुश थे. उन्होंने इसे मजदूरों की मनमानी कार्रवाई बताया. लेकिन जब गरीबों ने उनसे पूछा कि ट्रैक्टर से खेत जुताई या पटवन का रेट क्या उनसे पूछकर वे तय करते हैं, तो वे पीछे हट गए और वार्ता की पेशकश की. भूस्वामियों ने अपने मुहल्ले में बैठक बुलाई और मजदूरों को उसमें आने को कहा. साथियों ने इसे ठुकरा दिया. भूस्वामियों की पेशकश ठुकराने के बाद गरीबों के टोले में दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों के बीच वार्ता हुई. पुरुष मजदूरों को मिलने वाली 250 रु. मजदूरी व खाना-नाश्ता की मांग महिला खेत मजदरों की भी थी. अंततः 200 रु. सूखा (बिना खाना-नास्ता) पर समझौता हुआ. अगले रोज कुछ किसानों ने 200 रु. के आश्वासन पर काम भी करवाया, लेकिन भूस्वामियों के दबाव के कारण वे पीछे हट गए. अंततः व्यवहार में 150 रु. मजदूरी व खाना-नाश्ता लागू हुआ. महिला मजदूरों की मजदूरी यहां 100 रुपये ही थी. सरकारी दर महिला-पुरुष दोनों के लिए परंपरागत खाना-नाश्ता आदि सुविधा के साथ 257 रुपये है. मजदूरी में डेढ़ गुनी वृद्धि से महिलाएं खुश हैं, लेकिन उन्होंने अगली बार पूरी तैयारी के साथ समान मजदूरी का संघर्ष चलाने का मन बनाया है.

बहुत वर्षों के बाद हुए महिला खेत मजदूरों के इस आंदोलन से उत्साहित संदेश प्रखंड कमिटी और बाद में भोजपुर जिला कमिटी ने इस आंदोलन को पूरे जिले में चलाने का फैसला किया. संघ-भाजपा द्वारा खासकर महिलाओं और नौजवानों पर किए जा रहे केंद्रित प्रयासों को नाकाम करने और दुश्मन वर्ग के साथ इस घालमेल को दुरुस्त करने के लिए इसे जरूरी समझा गया. 26 जुलाई 2019 को संदेश प्रखंड पर धरना के बाद 7 अगस्त को जिला के 10 प्रखंडों पर भाकपा(माले), खेग्रामस व ऐपवा के संयुक्त बैनर से पुरुषों के बराबर मजदूरी की मांग पर धरना का कार्यक्रम किया गया. पीरो को छोड़कर गोलबंदी आमतौर पर कमजोर थी, लेकिन अब एक मुद्दा सामने आ गया था.

जिला कमिटी ने पाया कि पूरे जिले में अपवादस्वरूप ही कहीं पुरुषों के बराबर महिला खेत मजदूरों को मजदूरी मिलती है. पूरे जिला में आम तौर पर रोपनी के काम में महिला खेत मजदूरों को 100 रुपये के इर्द-गिर्द ही मजदूरी मिलती है. जगदीशपुर व जिला मुख्यालय से सटे उदवंतनगर व आरा मुफस्सिल में 200 रु. मजदूरी है. सहार व तरारी में 125 से 150 रु. के बीच, पीरो में 100 से 150 के बीच, अगिआंव में 7 किलो चावल (112 रु., / 16 से 20 रु. प्रति किलो) और संदेश में 100 से 150 के बीच मजदूरी है. जगदीशपुर के 20 में से 19 पंचायतों में 200 रु. मजदूरी है. जिला मुख्यालय से नजदीक होने के कारण उदवन्तनगर व आरा मुफस्सिल में 200 रु. मजदूरी है. पुरुषों को भी यहां 250 से 300 रु. तक मजदूरी मिल जाती है. आरा जिला मुख्यालय के श्रम बाजार में गांव से ज्यादा मजदूरी होने के कारण इसके नजदीक के प्रखंडों में मजदूरों की मोलतोल की क्षमता ज्यादा है. लेकिन जिले के सुदूर इलाके में मजदूरी कम है. सबसे कम मजदूरी सामंती गांवों में है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण सहार का एकवारी है, जहां महिला-पुरुष दोनों को 125 रु. मजदूरी मिलती है. बलिगांव (गड़हनी) में महज 100 रु. मजदूरी है. यहां रोपनी के समय (महिला मजदूर) को पीने का पानी व थाली भी नहीं दिया जाता. उन्हें नहर का पानी पीना पड़ता है. मुशहर टोली की महिलाओं से खेतों में जबरन काम करवाया जाता है और उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता है.

प्रखंड मुख्यालय पर धरना के बाद कई गांवों में हड़तालें र्हुइं और मजदूरी बढ़ी. एकवारी (सहार) में महिला-पुरुष दोनों की मजदूरी 125 रु. से बढ़कर 150 रु.; बंशी डिहरी (सहार) में 5 किलो से बढ़कर 8 किलो चावल और हाटपोखर (जगदीशपुर) में 200 रु. से बढ़कर 250 रु. हुई. देर से लिए गए फैसले के कारण मजदूरी की हड़ताल पूरे जिले में ठीक से संगठित नहीं हो सकी. जिला कमिटी ने सोहनी (निकौनी) के समय हड़ताल का मन बनाया था, लेकिन इसे कहीं लागू नहीं किया जा सका.

gaon cholo women

 

पूरे राज्य में महिला खेत मजदूरों की मजदूरी की हालत बहुत खराब है. अरवल जिला में महिला मजदूरी 4 से 5 किलो चावल (75 से 90 रु.) है, तो पुरुष को 5 किलो (90 रु.). अरवल के खभैनी में महिला-पुरुष दोनों को 5 किलो मजदूरी मिलती है, तो कुर्था के राजेपुर में 6-6 किलो. पूरे जिले में नकदी मजदूरी कहीं नहीं है –  एकाध जगह महिला को 100 रु. एवं पुरुष को 150 रु. मजदूरी मिलती है. अरवल जिला के कुर्था प्रखंड के महमदपुर बलवा गांव में 2012 में महज 3 किलो चावल मजदूरी मिलती थी. दो वर्ष तक हड़ताल के बाद मजदूरी 4.5 किलो हुई. जहानाबाद जिला में भी महिला मजदूरी 3 से 5 किलो चावल है. गया में 3 किलो चावल व नाश्ता है, तो नालंदा में 4 से 5 किलो चावल.

बक्सर जिला में महिला मजदूरी 150 से 200 रु. के बीच है. रोहतास में यह 150 से 200 रु. के बीच है. अकोढ़ी गोला (रोहतास) के चाप, सलेया जैसे सामंती गांवों में मजदूरी महज 100 रुपये है. पूर्णिया में यह 100 से 120 रु. के बीच है, तो पश्चिम चंपारण में महज 80 से 100 रुपये के बीच. पश्चिम चंपारण के दूर-दराज के इलाके के अनेक गांवों (गौनाहा, बगहा, रामनगर) में यह 70 से 80 रुपये के बीच है. यहां के चीनी मिलों के फार्मों पर बाल मजदूरों को 30 से 40 रु. में खटवाया जाता है. यहां पुरुषों की मजदूरी भी 100 रु. के इर्द-गिर्द ही है. मैनाटांड़ में अभी भी महिला / पुरुष को 6 किलो धान मिलता है. जिला के थरूहट (थारू आदिवासी बहुल इलाका) में अभी भी हटई प्रणाली लागू है. थरूहट में 4 से 6 हटई (एक नपना से नाप कर मजदूरी दी जाती है. ‘हटई हटाओ किलो लाओ’ नारे के साथ यहां खेत मजदूरों का बड़ा आंदोलन हुआ था. उस समय एक गीत प्रचलित था – हटई से किलो ला दिया रे, भाकपा-माले वाला पटिया) धान मजदूरी मिलती है. 1 हटई में करीब 800 ग्राम होता है. 4 से 6 हटाई का मतलब 3 से 4.5 किलो धान (30 से 40 रुपया). दरभंगा शहर के नजदीक के प्रखंड बहादुरपुर में महिला को 150 रु. मजदूरी मिलती है, लेकिन सुदूर पूरब के बिरौल, घनश्यामपुर, तारडीह प्रखंडों में महिला मजदूरी महज 25 से 35 रु. के बीच है और पुरुष की मजदूरी 60 से 70 रुपये के बीच. ये सामंती दबदबा वाले इलाके हैं. कुछेक जगह 4 किलो धान भी मजदूरी है.

पटना ग्रामीण में महिला खेत मजदूरों को 3 से 6 किलो चावल (50 से 100 रु.) एवं खाना मिलता है. पुरुष मजदूरी यहां  5 से 6 किलो चावल है. राजधानी पटना से सटे संपतचक व फुलवारी में पुरुष व महिला दोनों की मजदूरी 350रु. है. लेकिन यहां खाना नहीं मिलता है.

सिवान जिला में मजदूरी की दर एकदम अलग है. दरौली में धान की रोपनी में महिला मजदूरी 70 रु. प्रति कट्ठा और पुरुष की मजदूरी धान का बीज उखाड़ने के लिए 100 रु. प्रति धुर की दर से मिलती है. महिला मजदूरों को खाना के रूप में गेहूं का आंटा मिलता है. गुठनी के भलुई व रघुनाथपुर के कड़सर में धान रोपने की महिला मजदूरी 50 रु. प्रति कट्ठा और पुरुषों के लिए बीज उखाड़ने का 100 रु. प्रति कट्ठा है. रघुनाथपुर में कुछेक जगह 3 रु. प्रति आंटी की दर से बीज उखाड़ने की मजदूरी मिलती है.

बहरहाल, रेपुरा के आंदोलन के बाद जब पूरे राज्य में नजर दौड़ाई गई तो महिला मजदूरी की हालत और भी बदतर पाई गई. यह आंदोलन अपने भीतर बहुत सारी संभावनाएं समेटे हुए है. एक समय इन्हीं आंदोलनों (जमीन, मजदूरी व इज्जत का सवाल) की वजह से बिहार के ग्रामीण गरीबों के बीच पार्टी का विस्तार हुआ और हमें एक राजनीतिक पहचान मिली. लेकिन दशक से भी ज्यादा हो गए हमारी नजर ग्रामीण गरीबों की मजदूरी की ओर नहीं गई. सरकार ने यद्यपि धान रोपने की मशीन भी ला रखी है, लेकिन अभी भी धान की रोपनी महिला मजदूरों पर ही निर्भर है. ग्रामीण इलाके की महिलाएं गैर कृषि कार्य से भी जुड़ी हैं, लेकिन अभी भी उनका बड़ा हिस्सा महिला खेत मजदूरों का ही है. ग्रामीण महिलाओं के अन्य हिस्से में हमारे काम का विस्तार हुआ है जो उत्साहवर्द्धक है. लेकिन बहुसंख्यक महिला खेत मजदूरों की मजदूरी का मुद्दा उपेक्षित रह जाना कई तरह के सवाल खड़ा करता है.

ग्रामीण इलाके में किसानों-भूस्वामियों का मजदूरी के प्रति कापफी नकारात्मक रवैया रहता है. वे मजदूरों की मजदूरी एकदम ही बढ़ाना नहीं चाहते और कृषि संकट की बात आते ही मजदूरी में वृद्धि व उनकी ‘कामचोरी’ का रोना रोते हैं.  कृषि संकट का बोझ वे मजदूरों के कंधेेे पर डालना चाहते हैं. सरकार द्वारा तय खेत मजदूरों की कृषि कार्य में मजदूरी बहुत कम है – महज 257 रु. प्रति दिन. लेकिन किसान इसे भी देना नहीं चाहते – महिलाओं को तो एकदम नहीं. खेती में बटाईदारी की प्रवृति बढ़ी है और खेती का बड़ा भाग अब बटाईदार करते हैं. बटाईदारों का सबसे बड़ा हिस्सा खेत मजदूरों-गरीब किसानों का है. खेत मजदूरों के बड़े हिस्से के बटाईदार में बदल जाने से मजदूरी के आंदोलन की आवश्यकता, आग्रह व संभावना में कमी आई है. सघन खेती के समय में और ज्यादा जमीन पर खेती करने वाले बटाईदार मजदूरों से काम लेते हैं. बटाईदारों की नजर में मजदूरी का आंदोलन आपस का झगड़ा बढ़ाना है. खेत मजदूरों का हमारा नेतृत्वकारी हिस्सा भी बटाईदार बना है और उनकी वर्गीय स्थिति में परिवर्तन हुआ है. वे आज निम्न मध्यम और मध्यम किसान की स्थिति में है या इससे ऊपर की श्रेणी में पहुंच गए हैं. राज्य से बाहर काम करके लाई गई मजदूरी ने उनकी स्थिति को सुधारा है. हमारे संगठन का यह नेतृत्वकारी हिस्सा मजदूरी का आंदोलन नहीं चाहता. लेकिन मजदूरी का आंदोलन तो भूस्वामियों के गांवों में भी नहीं हो रहा है जहां भूस्वामी व अन्य किसान खेती के कार्य से जुड़े हैं. हमने ऊपर देखा कि सामंती दबदबा वाले गांवों में मजदूरी सबसे कम है. सवाल उठता है, यहां क्यों आंदोलन नहीं हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि तीखे आंदोलन के भयवश हम यहां आंदोलन करना ही नहीं चाहते? बटाईदारी की दर में भी बेतहाशा वृद्धि हुई है. लेकिन दर घटाने को लेकर भी आंदोलन का सर्वथा अभाव है. यह आंदोलन मूलतः भूस्वामियों और ऐसे लोगों के खिलाफ जाता है जो खेती पर निर्भर नहीं हैं. बटाई की खेत की खातिर भूस्वामियों पर निर्भरता ने गरीबों पर राजनीतिक असर भी डाला है और भूस्वामियों से हेलमेल भी बढ़ा है. भूस्वामी बटाईदारों पर राजनीतिक दबाव भी बनाते हैं.

ऐसे कई सवाल हैं जिनपर संगठन को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. जो भी हो, हमें ग्रामीण महिला खेत मजदूरों के भारी शोषण के खिलाफ संघर्ष करना ही होगा. पुरुषों के बराबर एवं न्यूनतम मजदूरी – यह महिला खेत मजदूरों की वाजिब मांग है. हमें संगठन के भीतर मध्यम वर्गीय दृष्टि बिन्दु और तीखे वर्ग संघर्ष से कतराने की प्रवृत्ति के खिलाफ लड़ना होगा. महिलाओं के प्रति संघ-भाजपा-जदयू द्वारा दिए गए कोरे नारों के भंडाफोड़ के लिए खेत मजदूरों का आंदोलन जरूरी है. ग्रामीण महिलाओं के बीच संघ-भाजपा के बढ़ते वैचारिक-राजनीतिक प्रभाव को नाकाम करने और सामंती ताकतों के साथ बढ़ रहे वर्गीय घालमेल को दूर करने के लिए भी यह आंदोलन सहायक सिद्ध होगा. आने वाले समय में हमें राज्य स्तर पर महिला खेत मजदूरों का आंदोलन खड़ा करने का गंभीर प्रयास करना होगा.