11वां ‘प्रतिरोध का सिनेमा: पटना फिल्मोत्सव’ 6, 7 और 8 दिसंबर 2019 को पटना के कालिदास रंगालय में संपन्न हो गया. वर्ष 2009 में शुरू होकर बिला नागा प्रतिवर्ष आयोजित होनेवाला यह फिल्मोत्सव अब राजधानी पटना की प्रमुख वार्षिक सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी खास जगह बना चुका है. दिसंबर महीना करीब आते-आते साहित्यिक-सांस्कृतिक हलकों में पटना पुस्तक मेला और पटना फिल्मोत्सव की चर्चा शुरू हो जाती है. गीत-नाट्य की चर्चित संस्था हिरावल फिल्मोत्सव का आयोजन करती है.
11वें फिल्मोत्सव की मुख्य अतिथि मैक्सिन विलियम्सन थीं. मैक्सिन विलियम्सन आॅस्ट्रेलिया निवासी हैं तथा अनेक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों की जूरी में रह चुकी हैं. अपने उद्घाटन वक्तव्य में उन्होंने कहा कि “...बिहार राज्य और इसके लोगों में प्रगतिशील दृष्टि को आत्मसात करने की जरूरत के संदर्भ में यह फेस्टिवल ख़ास तौर पर अमूल्य है. इस तरह के फिल्मोत्सव समुदायों को आपस में जोड़ते हैं तथा वार्तालाप और विमर्श के लिए रास्ते का निर्माण करते हैं. जब हमारी दुनिया में पब्लिक स्पेस लगातार सिमटता जा रहा है, फिल्मोत्सव हमें बात करने की सुरक्षित जगह मुहैय्या कराता है...”
उद्घाटन-सत्र में जसम बिहार के सचिव सुधीर सुमन ने आयोजकों की ओर से सभी का स्वागत किया. 50 सदस्यीय स्वागत समिति के अध्यक्ष शायर संजय कुमार कुंदन ने फिल्मोत्सव की ओर से मुख्य अतिथि मैक्सिन विलियम्सन के अलावा कोलकाता से आईं फिल्म निर्देशक बलाका घोष और अभिनेत्री नूतन सिन्हा तथा बड़ी संख्या में मौजूद दर्शकों का स्वागत किया. संचालन फिल्मोत्सव की संयोजक प्रीति प्रभा ने किया.
फिल्मों का प्रदर्शन ‘शाॅर्ट फिल्म्स लाॅंग इम्पैक्ट’ से शुरू हुआ. यह तुर्की की पुरस्कृत छोटी-छोटी फिल्मों का एक कोलाज था, जिसे मैक्सिन ने प्रस्तुत किया. फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों और मैक्सिन के बीच संवाद का सत्र भी चला. फिल्मोत्सव की तरफ से वरिष्ठ कथाकार संतोष दीक्षित ने मैक्सिन को स्मृति-चिह्न भेंट किया. पहले दिन की दूसरी फिल्म ‘ईब आले ऊ’ थी. एफटीआईआई से प्रशिक्षित युवा निर्देशक प्रतीक वत्स की इस चर्चित हिंदी फिल्म को युवा दर्शकों ने ख़ूब पसंद किया.
दूसरे दिन की पहली फिल्म तानसेन की 16वीं पीढ़ी के प्रतिष्ठित गायक उस्ताद राशिद ख़ान पर केंद्रित महत्वपूर्ण डाॅक्युमेन्टरी ‘रसन पिया’ थी. भारत में सिनेमा की जड़ें तलाशने तथा विज़ुअल मीडियम और इंसानी ज़िन्दगी के अंतर्संबंधों पर बनी फिल्म ‘शम्भारिका खरोलिका’ की स्क्रीनिंग इसकी निर्देषक बलाका घोष की मौजूदगी में हुई. उनके साथ बातचीत के सत्र में युवाओं ने फिल्म-निर्माण से संबंधित अपनी जिज्ञासाएं रखीं. बलाका घोष के साथ फिल्म के सिनेमाटोग्राफर कुमुद कुंदन को वरिष्ठ कथाकार शेखर ने फिल्मोत्सव का स्मृति-चिह्न भेंट किया. ‘ऐसे ही’ दूसरे दिन की अंतिम फिल्म थी, जिसके निर्देशक किसलय हैं.
फिल्मोत्सव का तीसरा और अंतिम दिन कई नए आयामों को प्रस्तुत करने के कारण सबसे खास बन गया. शुरूआत बच्चों के सत्र से हुई. इसमें स्थानीय युवा फिल्मकारों को भी अवसर मिला. प्रियास्वरा, प्रियांतरा और अभिनंदन द्वारा निर्देशित, पटना के जलजमाव पर केंद्रित फिल्म के प्रदर्शन के बाद अनेक स्कूलों से आए नन्हें दर्शकों को सई परांजपे निर्देशित फिल्म ‘सिकंदर’ दिखाई गई. इतवार की यह दोपहर बच्चों की हलचल से भरी रही. फिल्मोत्सव में दिखाई गई आखिरी फिल्म थी ‘मेरा राम खो गया’. इस बेहद प्रासंगिक व महत्वपूर्ण फिल्म के निर्देशक प्रभाष चंद्रा के साथ दर्शकों का विचारोत्तेजक संवाद-सत्र चला. वरिष्ठ कवि सुमंत शरण ने फिल्म निर्देशक को स्मृति-चिह्न भेंट कर सम्मानित किया.
फिल्मोत्सव के तीसरे यानी अंतिम दिन की आखिरी फिल्म दिखाई जा चुकी थी लेकिन कालिदास रंगालय के परिसर में दर्शकों की तादाद बढ़ती जा रही थी. वजह थी – ‘नया सत्य’! दरअसल, एक दशक पूरा होने के मौक़े पर फिल्मोत्सव की आयोजक संस्था हिरावल ने पिछले साल एक नई शुरूआत की – फिल्मोत्सव का समापन नाट्य मंचन से! इस सिलसिले को जारी रखते हुए 11वें फिल्मोत्सव का समापन चेखव की सुप्रसिद्ध कहानी ‘वाॅर्ड नंबर छः’ पर आधारित हिरावल के नाट्य मंचन ‘नया सत्य’ के साथ हुआ. इसके निर्देशक हिरावल के सचिव संतोष झा थे. खचाखच भरे हुए कालिदास रंगालय के शकुंतला प्रेक्षागृह में मंचित ‘नया सत्य’ वास्तव में 11वें फिल्मोत्सव का केंद्रीय थीम बन गया! विवेक और तर्कशीलता को कुंठित कर, उसका दमन कर झूठ और पाखंड की शक्तियां कितनी क्रूर और निर्लज्ज हो सकती हैं, उसका रूपक बन गया ‘नया सत्य’.
8 दिसंबर, साढ़े आठ बजे की शाम ठंढी थी. ‘नया सत्य’ का अंतिम दृष्य खेला जा चुका था, लेकिन दर्शक अपनी कुर्सियों पर जमे हुए थे. आयोजकों ने जब नाटक और फिल्मोत्सव की लगभग चालीस लोगों की टीम से परिचय कराना शुरू किया तो हाॅल तालियों से गूंज उठा. इस तरह, 11वें फिल्मोत्सव को लगभग 500 दर्शकों की करतल ध्वनियां विदा दे रही थीं. दर्शक हाॅल से निकल रहे थे. परिसर में प्रगतिशील किताबों का स्टाॅल समेटा जा रहा था, पर कुछ लोग जाते-जाते कोई किताब ख़रीद लेना चाहते थे....वीरेन डंगवाल के कविता-पोस्टर लोगों को आश्वस्त करते जान पड़ते थे –
मैं नहीं तसल्ली झूठमूठ की देता हूं
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
आए हैं हम चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएंगे
आएंगे, उजले दिन ज़रूर आएंगे!
– संतोष झा