वर्ष - 29
अंक - 28
15-07-2020

आखिरकार नरेंद्र मोदी सरकार ने टेक्स्ट बुक पर धावा बोल ही दिया. मीडिया की खबर के मुताबिक सीबीएससी की 11वीं कक्षा की पोलिटिकल साइंस की पाठ्य पुस्तक से “सेकुलरिज्म” (धर्मनिरपेक्षता) अध्याय को पूरी तरह से हटाया जा रहा है. यह फैसला राजनीति से प्रेरित मालूम होता है क्योंकि सेकुलरिज्म से संघ परिवार का बैर बड़ा पुराना रहा है. अक्सर संघी ताकतें विरोधियों को “सेक्युलर” कह कर गाली देती रही हैं और उनके “हिन्दू विरोधी” होने का दुष्प्रचार भी करती हैं.

‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक खबर के मुताबिक, क्लास 11वीं और 12वीं की राजनीति शास्त्र की पाठ्य पुस्तक से “नेशनलिज्म” (राष्ट्रवाद), “सिटीजनशिप” (नागरिकता), “फेडरलिज्म” (संघवाद), “समकालीन विश्व में सुरक्षा”, “पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन”, “क्षेत्रीय आकांक्षाएं”, “जन आन्दोलन का उदय” जैसे अध्याय को पूरी तरह ‘डिलीट’ कर दिया जायेगा. वहीं “नियोजित विकास की राजनीति”, “स्थानीय शासन”, “भारत के विदेश संबंध” जैसे चैप्टर्स के कुछ हिस्सों को भी हटाया जायेगा.

यह सब कुछ कोरोना महामारी के दौरान विद्यार्थियों के सिर से भार कम करने के नाम पर किया जा रहा है. मगर मोदी सरकार के आलोचक का यह सवाल महत्वपूर्ण है कि सेकुलरिज्म और अन्य अध्याय को हटाने का फैसला किस आधार पर हुआ है. क्या कुछ अध्याय किताब से फाड़ देने से विद्यार्थियों पर दबाव कम हो जायेगा? अगर सरकार का इरादा दबाव कम करने का होता तो वह बच्चों को अन्य सहूलियतें देने के बारे में सोचती. बच्चों को फेल न करना या फिर परीक्षा ही रद्द करना एक विकल्प हो सकता था.

दरअसल मोदी सरकार ने कोरोना महामारी का फायदा उठाना ज्यादा बेहतर समझा. अगर कोई इतिहास में झांक कर देखे तो जान जायेगा कि संघ परिवार लम्बे समय से सेकुलरिज्म की मुखालफत करता रहा है. वह बार बार संविधान के मूलभूत ढांचे सेकुलरिज्म पर वार करता रह़ा है. इसके पीछे उसका मकसद राजनीतिक है.

संघ परिवार को यह बात बखूबी मालूम है कि सेकुलरिज्म ही हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में सब से बड़ी रुकावट है. वजह यह है कि भारत का संविधान सेकुलरिज्म की बात करता है और वह धर्म पर आधारित किसी भी राज्य की अवधारणा को ख़ारिज करता है. इस लिए संघ परिवार सेकुलरिज्म को बदनाम करने का कई भी मौका हाथ से जाने नहीं देता है.

सेकुलरिज्म पर संघ परिवार कई तरीकों से हमला करता है. संघ परिवार चाहता तो यह है कि एक ही प्रहार में सेकुलरिज्म को खत्म कर दे और भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दे. मगर उसके लिए ऐसा करना अभी भी आसान नहीं है, क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे संविधान को पहले रद्द करना होगा. देश का प्रगतिशील तबका और वंचित समाज संघ परिवार के इस खेल को समझता है और उसे मालूम है कि संघ परिवार सेकुलरिज्म और संविधान को ख़त्म कर “मनु राज” कायम करना चाहता है.

इसलिए संघ परिवार सेकुलरिज्म पर छुप कर वार करता है. मिसाल के तौर पर वह खुद को और हिन्दू समाज को “सेक्युलर” कहता है. अर्थात हिन्दू हजारों हजारों सालों से “सहिष्णु” रहे हैं और उनके नजदीक पूजा-पद्धति से सम्बंधित विविधता विवाद का विषय नहीं रहा है, जैसा कि यूरोप के इतिहास में देखा गया है.

दूसरी तरह संघ परिवार अपने विरोधियों – जिनमें कांग्रेस और वाम संगठन शामिल हैं – को “छद्म-सेक्युलर” या “सूडो सेक्युलर” कहता है. उसकी व्याख्या में छद्म सेक्युलर वे लोग हैं जो “हिन्दू विरोधी” हैं और मुसलमानों (और अन्य अल्पसंख्यकों) की मुंह-भराई (एपीजमेंट) करते हैं. सेकुलरिज्म के खिलाफ दुष्प्रचार करने के पीछे हिंदुत्ववादी ताकतों का असल मकसद हिन्दू वर्चस्व को स्थापित करना है और अल्पसंख्यक और अन्य वंचित समाज को हाशिये पर धकेलना है. इसके साथ-साथ सेकुलरिज्म को संघ परिवार “पंथनिरपेक्षता” कहता है, “धर्मनिरपेक्षता” नहीं, क्योंकि उसके नजदीक पूजा और पाठ करने के विभिन्न रास्ते “पंथ” हैं, “धर्म” नहीं.

सेकुलरिज्म को बदनाम करने के लिए संघ परिवार इसे “वोट बैंक” की पाॅलिटिक्स से भी जोड़ता है. प्रख्यात समाजशात्री एम एन श्रीनिवास ने अपने एक मशहूर लेख “द डोमिनेंट कास्ट आफ रामपुर” (1959) में वोट बैंक का उलेख करते हुए कहा है कि ग्रामीण संरक्षक (रूरल पैट्रंस) चुनाव के दौरान सियासतदानों के लिए “वोट बैंक” का रोल अदा करते हैं और चुनाव के दौरान उनका इस्तेमाल वोट हासिल करने के लिए किया जाता है. बदले में ये ग्रामीण संरक्षक उम्मीद करते हैं कि नेतागण उन्हें फायदा दिलाएंगे. संघ परिवार इसी अवधारणा का इस्तेमाल करते हुए आरोप लगाता है कि सेक्युलर पार्टियां “सेक्युलरिज्म” का इस्तेमाल अल्पसंख्यक खासकर मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए करती हैं और बदले में उस समुदाय के जिम्मेदारों को फायदा पहुंचाती हैं.

वोट हासिल करने के लिए सेकुलर पार्टियां मुसलमानों की “ज्यादतियों” पर बोलने के बजाय चुप रहना पसंद करती हैं. सेकुलरिज्म के नाम पर ही सेकुलर पार्टियां अल्पसंख्यक समाज के अन्दर धार्मिक सुधार का विरोध करती हैं. शाह बानो मामला (1985-86) और तीन तलाक (2017) के सवाल पर भी भाजपा ने इसी सेकुलरिज्म का हवाला देकर कांग्रेस पर निशाना साधा और कहा कि वे (कांग्रेस) मुस्लिम महिलाओं के अधिकार का समर्थन करने के बजाय “कट्टरपंथी” मुसलमान मर्दों का साथ खड़ी रही.

सेकुलरिज्म पर हिंदुत्व का पक्ष रखते हुए भाजपा के सबसे बड़े नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने फ्छद्म-सेकुलरिज्म की लानतय (द बेन ऑफ सूडो सेकुलरिज्म, 1969) शीर्षक से एक लेख कलमबंद किया. इस में उन्होंने कहा कि लोगों को भाषा, क्षेत्रा, सेक्ट, कम्युनिटी या पेशा के आधार पर अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक समुदाय में बताना खतरनाक है. जो भारत के प्रति अपनी आस्था रखते हैं वे भारतीय हैं, चाहे उनका धर्म या भाषा जो भी हो. वाजपेयी ने आगे कहा कि देश के प्रति लोगों की निष्ठा प्रधान होनी चाहिए और अगर भारत से बाहर किसी की निष्ठा हो तो उसे खत्म करने के लिए प्रयास किया जाना चाहिए. (क्रिस्टोफ़ जैफ्रलोट, हिन्दू नेशनलिज्म, पृ. 316)

पहली नज़र में वाजपेयी की बात ठीक है लगती है. क्या हर्ज है अगर लोग छोटी आइडेंटिटी से उठ कर देश की निष्ठा के बारे में सोचें? यही बात राष्ट्रवादी विचारधारा के केंद्र बिन्दु में है, जिसका प्रचार मोदी सरकार के दौरान रात दिन होता है. मगर अन्दर जाने पर यह बात बड़ी खतरनाक मालूम पड़ती है क्योंकि देश के साथ निष्ठा के नाम पर अक्सर एक खास किस्म के ठेकेदार सब के माई-बाप बन जाते हैं. देश और राष्ट्रवाद के नाम पर अक्सर ऐसे लोग वंचित समाज और अल्पसंख्यकों को खामोश करने की कोशिश करते हैं.

‘देश सर्वाेपरि है’ के नाम पर कई बार अल्पसंख्यक समाज के अधिकार हड़पने के लिए जमीन तैयार कर दी जाती है. राष्ट्रवाद के नाम पर बहुसंख्यक समाज के हित को आगे किया जाता है और उनके वर्चस्व को मानने के लिए बाकियों को बाध्य किया जाता है. आज राष्ट्रवादी राजनीति इस कदर ताकतवर हो चुकी है कि वंचित समाज और मुसलमान के लिए कोई पाॅलिसी बनाने से सेक्युलर पार्टियाँ भी कतरा रही हैं.

दूसरे शब्दों में सेकुलरिज्म और राष्ट्रवाद के नाम पर संघ परिवार वंचित तबकों और अल्पसंख्यकों को अपनी अस्मिता से महरूम करना चाहता है. उन पर खुद को बहुसंख्यक समाज के रंग, रूप और तौर तरीकों में ढल जाने के लिए दबाव बनाया जाता है. अक्सर कट्टरपंथी किसी मुसलमान को यह नसीहत देते आप को मिल जायेंगे कि भारतीय मुसलमानों को मक्का में हज करने के लिए जाना उचित नहीं है. मक्का के बजाय वे अगर भारत में ही हज कर लें तो कितना अच्छा होता.

कट्टरपंथी यह भी कहते हैं कि जो मुसलमान अपना नाम अरबी में रखते हैं, उन्हें राष्ट्रवादी बनने के लिए अपना नाम संस्कृत में रख लेना चाहिये. इस तरह संघ परिवार के सेकुलरिज्म का नजरिया भारत के संविधान में दिए गए अल्पसंख्यक अधिकार और विविधता के खिलाफ है. वहीं दूसरी तरफ, संघ परिवार इसी सेकुलरिज्म के डंडे से विपक्षी दलों पर भी हमला बोलता है और उन्हें हिन्दू विरोधी बतलाता है और इल्जाम लगाता है कि सेक्युलर पार्टियाँ वोट बैंक के लिए लिए हिन्दू और राष्ट्र के हितों की अनदेखी करती हैं.

इसी संविधान विरोधी और मुस्लिम विरोधी राजनीति से ग्रसित होकर सरकार ने सेकुलरिज्म के उपरोक्त अध्याय को पाठ्य पुस्तक से हटाने का फैसला किया है. पाठ्य पुस्तक में शामिल सेकुलरिज्म का लेख संघ परिवार के नजरिये की पोल खोलता है और उसके प्रोपोगंडे को भी ख़ारिज करता है. संघ परिवार कहता है कि सेकुलरिज्म के नाम पर वोट बैंक की राजनीति होती है और वह अल्पसंख्यकवाद (माइनाॅरिटिज्म) को बढ़ावा देती है. मगर सेक्युलरिज्म का उपरोक्त अध्याय इन शब्दों में कबूल नहीं करता – “अल्पसंख्यकों के सर्वाधिक मौलिक हितों की क्षति नहीं होनी चाहिए और संवैधानिक कानून द्वारा उसकी हिफाजत होनी चाहिए. भारतीय संविधान में ठीक इसी तरीके से इस पर विचार किया गया है. जिस हद तक अल्पंख्यकों के अधिकार उनके मौलिक हितों की रक्षा करते हैं, उस हद तक वे जायज हैं.” (पृ. 118)

यही वजह है कि मोदी सरकार ने भी साल 2015 में गणतंत्र दिवस के मौके पर दिए गये इश्तेहार में “सेकुलरिज्म” और “सोशलिस्ट” शब्द को जगह नहीं दी थी, जिसका बड़ा विरोध हुआ था. सेकुलरिज्म अध्याय को हटा कर मोदी सरकार ने संघ परिवार का एक और एजेंडा थोप दिया है. अगर अभी विरोध नहीं हुआ तो यह मुमकिन है कि वे पूरी टेक्स्ट बुक को ही भगवा रंग में रंग दें, जैसा कि वाजपेयी के दौर (1998-2004) में हुआ था. अगर सेकुलरिज्म और संविधान को बचाना है तो जनतांत्रिक आन्दोलनों को और तेज करना होगा.

– अभय कुमार