मार्क्स के लेखन और चिंतन के बारे में आम तौर पर माना जाता है कि उनकी चिंता का विषय केवल औद्योगिक मजदूर थे लेकिन सोचने की बात है कि अगर ऐसा ही होता तो अनेक ऐसे देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों की लोकप्रियता कैसे बढ़ती जहां खेतिहर आबादी अधिक है! यूरोप के देशों में भी उद्योगीकरण से पहले किसानों की आबादी ही थी जिसे खेती से उजाड़कर उद्योगों में काम करने वाले कामगार बनाया गया. यहां तक कि रूस में भी क्रांति के समय औद्योगिक मजदूरों के मुकाबले किसानों की तादाद अधिक थी. चीन तो क्रांति के समय खेतिहर मुल्क ही था. वियतनाम, क्यूबा आदि तीसरी दुनिया के देश भी खेतिहर ही थे जहां मार्क्स के विचारों पर आधारित कम्युनिस्ट पार्टियों ने शासन चलाया. यह तथ्य भी गौरतलब है कि मार्क्स के अभिन्न मित्र एंगेल्स ने 1850 में ‘जर्मनी में किसान युद्ध’ नामक एक किताब लिखी थी.
मार्क्स ने जीवन भर पूंजीवाद के विनाशकारी प्रभावों के विरोध में लिखा और संघर्ष किया क्योंकि उनके विचार से पूंजीवाद ने काम करने वालों से उनके औजार छीन लिए थे. इसी कारण कारखाने के मजदूर को मशीन पर काम करने में मजा नहीं आता था. किसान को अपने खेत पर काम करने में जिस अपनेपन का बोध होता था वह बोध मजदूर को किसी और के कारखाने में किसी और के दिए गए औजार के साथ काम करने में कभी नहीं हो सकता था. इसके अलावा एक और समस्या थी जिससे किसान से मजदूर बने लोग परेशान थे. खेती में अपनी मर्जी के मुताबिक काम करने के मुकाबले निश्चित समय पर काम करना आजादी का हनन महसूस होता था. पगार की बात आते ही पगार देनेवाला मालिक हो जाता है और लेनेवाला उस पर निर्भर हो जाता है. सामाजिक रूप से यह बहुत बड़ा बदलाव था. इसीलिए हमेशा ही मार्क्सवादी लोग किसान समुदाय को मजदूर वर्ग का सबसे मजबूत साथी मानते रहे हैं. इसी के साथ एक और बदलाव पर उन्होंने ध्यान दिया था. किसान समुदाय की विशेषता काम के दौरान सहकारिता की भावना है. उसके मुकाबले पूंजीवाद ने काम करने वालों में आपसी होड़ की भावना को मजबूत किया. पूंजीवाद की अमानवीयता का शिकार कारखाने के मजदूर तो थे ही, वह किसान भी था जिसे खेती और गांवों से उजाड़कर शहरों में आधुनिक उद्योग की जरूरत के हिसाब से झुंड में बसा दिया गया था.
आखिर मजदूर थे कौन? जो लोग गांवों से उजड़कर शहर आए उन्होंने शुरू में कारखानों में काम करने की जगह भीख मांगकर गुजारा करना ठीक समझा. तब भीख मांगना कानूनी रूप से अपराध घोषित कर दिया गया. माइकेल पेरेलमान ने 2000 में ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित अपनी किताब ‘द इनवेंशन आफ कैपिटलिज्म: क्लासिकल पोलिटिकल इकोनामी ऐंड द सीक्रेट हिस्ट्री आफ प्रिमिटिव एक्यूमुलेशन’ में विस्तार से बताया है कि इन किसान से मजदूर बने लोगों से लगातार काम लेने के लिए इस बात का प्रचार किया गया कि आर्थिक विकास के लिए अधिक छुट्टी हानिकारक है.
कामगारों में मानवता के विनाश से चिंतित मार्क्स और उनके अभिन्न सहयोगी एंगेल्स ने पूंजीवाद का विरोध मनुष्यता की रक्षा के लिए किया था. उन्हें लगता था कि पूंजीवाद मनुष्य विरोधी व्यवस्था है. इसने मनुष्य को मनुष्यता से पूरी तरह वंचित कर दिया है. वे मनुष्य को प्रकृति का अभिन्न अंग मानते थे. उनका कहना था कि मानव शरीर भी प्रकृति का अंग है. इस तरह मनुष्य के भीतर और बाहर प्रकृति विद्यमान है. उनके अनुसार इन दोनों के बीच स्वच्छंद अंतःक्रिया ही मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा करेगी. इसीलिए वे समस्त मूल्य का स्रोत धरती और मानव श्रम को मानते थे. इस अंतःक्रिया को वे आनंदमूलक मानते थे और समझते थे कि इसके जरिए मनुष्य अपने आपको अभिव्यक्त करता है. पूंजीवाद से उनकी नफरत का कारण यह था कि जो क्रिया आनंद का स्रोत है वही इस व्यवस्था में कष्ट देने लगती है.
पैसे रुपए की इस हृदयहीन व्यवस्था में कमाई चाहे जितनी हो जाए कभी आनंद का कारण नहीं हो सकती. मूल्य को जन्म देने के बाद मनुष्य उससे अलग कर दिया जाता है और मुद्रा नामक एक रहस्यमय चीज सब कुछ पर काबिज हो जाती है. पुराने समाज में जिस तरह मनुष्य ने अपनी कल्पना से ईश्वर को जन्म देने के बाद उसकी अधीनता को स्वीकार कर लिया था उसी तरह पूंजी के इस नए युग में उसका नया ईश्वर पैसा बन बैठता है. पूंजीवाद से उनकी इसी शत्रुता में इस बात का रहस्य छिपा है कि यूरोप के एक कोने में जन्म लेने के बावजूद पूरी दुनिया में उनके विचारों को क्यों अतुलनीय लोकप्रियता हासिल हुई.
मार्क्स के बारे में जो शोध हुए हैं उनमें लगभग सबने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि धीरे-धीरे वे गैर-यूरोपीय समाजों के अध्ययन की ओर बढ़ते गए थे. थियोडोर शानिन नामक रूसी विद्वान ने एक किताब संपादित की ‘लेट मार्क्स ऐंड द रशियन रोड: मार्क्स ऐंड द पेरिफेरीज आफ कैपिटलिज्म’. यह किताब 1983 में मंथली रिव्यू प्रेस से प्रकाशित हुई है. इसमें शानिन ने इस बात की ओर ध्यान खींचा है कि जीवन के आखिरी दिनों में मार्क्स विकासशील देशों के अध्ययन की ओर आकर्षित हुए थे. इसी सिलसिले में यह तथ्य भी रोचक हो जाता है कि ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ के रूसी अनुवाद का दूसरा संस्करण वह अंतिम संस्करण है जिसकी भूमिका मार्क्स और एंगेल्स ने लिखी. इसके बाद के सभी संस्करणों की भूमिकाएं अकेले एंगेल्स को लिखनी पड़ी थीं. इस भूमिका में गंभीरता से इस संभावना पर सोचा गया है कि रूस के ग्रामीण सामुदायिक जीवन से बिना पूंजीवाद की ओर गए सीधे समाजवादी समाज में संक्रमण संभव है. मार्क्स के विचारों में जो बदलाव रूस के प्रसंग में शानिन ने रेखांकित किया था उसे और भी व्यापक पैमाने पर उजागर करते हुए केविन बी एंडरसन ने एक किताब लिखी ‘मार्क्स ऐट द मार्जिन्स: आन नेशनलिज्म, एथ्निसिटी, ऐंड नान-वेस्टर्न सोसाइटीज’. यह किताब यूनिवर्सिटी आफ शिकागो प्रेस से 2010 में छपी है. इसमें एंडरसन ने रूस और पोलैंड के प्रसंगों के अतिरिक्त भारत, इंडोनेशिया और चीन के भीतर उपनिवेशवादी विस्तार के लिए पारपंरिक समाजों के विनाश और लूटपाट को सामने लाने वाले मार्क्स के लेखन पर विचार किया है.
मार्क्स का मानना था कि गैर-पश्चिमी समाजों में हस्तक्षेप से पूंजीवाद के विकास का गहरा रिश्ता है. औपनिवेशिक विचारधारा के प्रभुत्व का प्रमाण स्थानीय स्तर पर भी दिखाई पड़ना लाजिमी होता है. उपनिवेशों की लूटपाट के अतिरिक्त अपने ही मुल्क के भीतर आयरलैंड के साथ इंग्लैंड का आचरण भी मार्क्स और एंगेल्स की तीखी आलोचना का विषय बना था. इस पर ध्यान खींचने के अलावा एंडरसन ने अमेरिका में जारी गुलाम प्रथा के प्रसंग में नस्ली भेदभाव के सवाल पर मार्क्स के चिंतन का भी खाका खींचा है. यह सब पारंपरिक समाजों के योजनाबद्ध विनाश का ही अंग था. मार्क्स के चिंतन की इसी दिशा का विकास करते हुए जर्मनी की मार्क्सवादी नेता रोजा लक्जेमबर्ग ने कहा कि पूंजीवाद को अपने विकास के लिए गैर-पूंजीवादी अर्थतंत्रों की जरूरत होती है. जिन देशों में पूंजीवादी अर्थतंत्र की मौजूदगी नहीं होती उनके शोषण के बिना पूंजीवादी देशों में समृद्धि कैसे आएगी! हम सभी जानते हैं कि इंग्लैंड के सूती वस्त्र उद्योग के लिए कपास का उत्पादन संयुक्त राज्य अमेरिका के उन दक्षिणी राज्यों के प्लांटेशनों में होता था जहां अफ्रीका से लाए गए गुलाम काम करते थे. इस अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के लिए भारत के पारंपरिक वस्त्र उद्योग को तबाह तो किया ही गया, अफ्रीका के समाजों को भी गुलामी के आर्थिक लाभ सिखाकर भ्रष्ट किया गया था.
इसी वैचारिक और सैद्धांतिक पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है कि रूस में क्रांति के बाद स्थापित शासन का एक महत्वपूर्ण कार्यभार जमीन के सवाल को हल करना कैसे बन गया. किसानों की आबादी का महत्व समझने के चलते ही लेनिन ने ग्रामीण इलाकों में बढ़ते खेतिहर मजदूरों पर ध्यान दिया था और उन्हें ग्रामीण सर्वहारा कहा था. यही नहीं इसी अनुभव और समझ के कारण उन्होंने उपनिवेश बने देशों की जनता के स्वाधीनता आंदोलनों का समर्थन करने की नीति अपनाई थी और मार्क्स के नारे ‘दुनिया के मजदूरों एक हो!’ को सुधारकर ‘दुनिया के मजदूरों और उत्पीड़ित राष्ट्रों के जनगण एक हो!’ किया था. कहना न होगा कि उस जमाने में ज्यादातर ये स्वाधीनता संग्राम खेतिहर देशों के देहाती इलाकों की जनता के बल पर ही चल रहे थे. चीन के कम्युनिस्ट आंदोलन में किसानों की भागीदारी सर्वविदित तथ्य है. कुछ लोगों का यहां तक कहना है कि चीन की क्रांति ने उस किसान की परिवर्तनकारी सामाजिक भूमिका को स्थापित किया जिसे मार्क्स प्रतिगामी मानते थे. चीन में शुरू में कम्युनिस्ट शहरों में ही केंद्रित थे लेकिन सरकारी दमन के चलते जब वे देहाती क्षेत्रों में गए तो माओ की भाषा में ‘पानी में मछली’ की तरह सहजता से खप गए. चीन की क्रांति के बाद तो लगभग सभी महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट आंदोलन तीसरी दुनिया के खेतिहर देशों में ही चले और इसी क्रम में किसान समुदाय मार्क्सवादी विचार विमर्श का अविभाज्य अंग बनता गया.
चीन के प्रसंग में एक और बात पर ध्यान देना जरूरी है. सभी जानते हैं कि वर्तमान दौर में जितनी तेजी से शहरीकरण और उद्योगीकरण चीन में हुआ है उतनी तेजी से शायद ही कहीं और हुआ हो. इसके बावजूद भोजन के मोर्चे पर कोई गंभीर मुश्किल दिखाई नहीं पड़ी है. इस पहलू के बारे में बात आगे बढ़ाने से पहले एक बुनियादी समस्या को रेखांकित करना उचित होगा. आजकल विकास के नाम पर जिस तरह अंधाधुंध शहरीकरण और उद्योगीकरण हो रहा है उसके क्रम में लोग भूल जा रहे हैं कि भोजन के लिए खेत और खेती का कोई विकल्प अब भी खोजा नहीं जा सका है. अगर विकास के लिए हड़पी गई जमीन के कारण खेती का रकबा कम होता जाएगा तो आगामी दिनों में अन्न के लिए दंगों और हिंसा को रोकना असंभव होगा. पूरी दुनिया में शहरीकरण के प्रसंग में यह संवेदनशीलता बरती जाती है ताकि विकास केवल कुछ दिनों की चमक न रहकर टिकाऊ और सतत रहे. ऐसा तभी हो सकता है जब खेती पर भी उतना ही ध्यान दिया जाए जितना चमकदार सड़कों या सट्टा बाजार के उछाल पर दिया जाता है. चीन के पास भारत के मुकाबले खेती की जमीन कम है फिर भी शहरी आबादी के भोजन लायक अनाज पैदा करने में वे सफल रहे हैं तो इसकी वजह यह भी है कि उन्होनें किसानी को घाटे का सौदा नहीं बनने दिया है.
चीन में इस समस्या को बेहतर तरीके से हल करने के पीछे वहां का कम्युनिस्ट पार्टी का शासन और उसकी नीतियां हैं. जिन देशों में ऐसी संवेदनशील सरकार नहीं रही वहां तथाकथित विकास के इस दौर में ग्रामीण आबादी में भूमिहीन लोगों की तादाद बढ़ती गई है. लेकिन दुनिया में कहीं भी मेहनतकश जनता ने सिर झुकाकर इन त्रासद स्थितियों को मान नहीं लिया वरन वे निरंतर संघर्ष कर रहे हैं. भूमंडलीकरण के विमर्श से कोई कमजोर विमर्श इन संघर्षोंं का नहीं है. लैटिन अमेरिका के प्रसंग में मार्ता हार्नेकर ने 2002 में ब्राजील के भूमिहीन किसानों के सिलसिले में एक किताब लिखी ‘लैंडलेस पीपुल – बिल्डिंग ए सोशल मूवमेंट'. यह किताब भूमिहीनों के लिए संघर्ष करनेवाले एक संगठन (एमएसटी) का पाठकों से परिचय कराती है. ब्राजील के देहाती क्षेत्रों में जमीन के मालिकाने के मामले में भारी विषमता है. ऐसे में भूमिहीनों में जमीन की भूख के चलते इस संगठन का जन्म हुआ. किताब इस संगठन के सत्रह साला बहादुराना संघर्ष की गाथा है. ऐसी ही एक और किताब का संपादन सैम मोयो और पेरिस येरोस ने किया है ‘रीक्लेमिंग द लैंड: द रिसर्जेन्स आफ रूरल मूवमेंट्स इन अफ्रीका, एशिया ऐंड लैटिन अमेरिका’. किताब जेड बुक्स से छपी है और हार्नेकर की किताब से इस मामले में अलग है कि जहां हार्नेकर ने लैटिन अमेरिका पर ही ध्यान दिया है वहीं यह किताब संघर्षों को समस्त तीसरी दुनिया के पैमाने पर फैला हुआ पाती है.
किताब की भूमिका में संपादकों ने विश्व अर्थतंत्र की परिधि पर स्थित देशों के देहाती क्षेत्रों में पिछले पचीस वर्षों में आए गहन समाजार्थिक और राजनीतिक बदलावों का जिक्र करते हुए बताया है कि नव उदारवादी निजाम की शुरूआत के बाद से किसानों और मजदूरों के काम के हालात में गिरावट आई है और इसके चलते उनमें आर्थिक और राजनीतिक विकल्पों की खोज तेज हो गई है. हाल के दिनों में साम्राज्यवाद-आधारित इस निजाम के गहरे संकट में फंसने से ब्राजील से लेकर मेक्सिको, जिम्बाबवे और फिलीपीन्स तक हर महाद्वीप में देहाती इलाकों में संघर्षों की बाढ़ आई हुई है. ये संघर्ष नए हैं और पर्याप्त जुझारू हैं. इसलिए दुनिया भर के विद्वानों में और शैक्षणिक जगत में इस सिलसिले में अध्ययनों की भरमार आई हुई है. संपादकों ने याद दिलाया है कि जब आर्थिक सुधार शुरू हुए तो दावा किया गया था कि इनसे ग्रामीण गरीबों को फायदा होगा लेकिन हुआ यह कि लगभग समूचे अफ्रीका में भुखमरी और कुपोषण के हालात पैदा हो गए. यही नहीं, इसके अलावा तमाम देशों में अंतहीन युद्ध और नरसंहार शुरू हुए और अब तक जारी हैं.
ऐसे में ग्रामीण और किसानी समस्या को लेकर तमाम तरह के नजरिए सामने आए हैं. विकास के महामंत्र की चमक फीकी पड़ने के बाद बेशर्मी के साथ अब ‘टकराव के समाधान’ और ‘असफल सरकारों’ के विश्लेषण किए जा रहे हैं. इनका पूरा परिप्रेक्ष्य प्रबंधकीय होता है अर्थात इनमें तात्कालिक प्रबंधन के कुछ उपाय सुझाए जाते हैं. इनसे अलग कुछ अन्य लोग भूमि सुधार, अन्न सुरक्षा, पर्यावरण प्रबंधन तथा स्थानीय तकनीक के प्रयोग जैसे सवालों को उठाने की कोशिश करते हैं लेकिन ये भी समस्या के तथाकथित और तात्कालिक प्रबंधन के घेरे में ही घूमते रहते हैं.
सोच विचार की तीसरी धारा के लोग दुनिया के पैमाने पर खेती और भोजन की व्यवस्था में होने वाले दीर्घकालीन बदलावों को देखने पर जोर देते हैं. ये लोग पूंजी के संकेंद्रण और खेती-भोजन प्रणाली में बढ़ते स्तरीकरण के आपसी रिश्तों की खोज करने का प्रयास करते हैं. इसमें जैव-प्रद्यौगिकी संबंधी प्रयोगों के खेती में इस्तेमाल, मसलन, अधिक उपज वाले प्रयोगशाला में विकसित नए बीजों तथा खाद्य-सामग्री की बिक्री के अंतर्राष्ट्रीय संजालों पर विशेष ध्यान दिया जाता है. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय परिघटनाओं पर अधिक ध्यान देने के कारण ये लोग समस्या के राष्ट्रीय और स्थानीय तत्वों को नहीं देख पाते. सोच विचार की चौथी धारा खेती-किसानी के सवाल पर सोचते हुए देहाती इलाकों के समाजार्थिक बदलावों के गतिविज्ञान को समझने पर जोर देती है. देहाती क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर भूमिहीन सर्वहारा आबादी का विस्तार, अर्द्ध-सर्वहारा जैसे कामगारों के समुदाय का जन्म, खेती में धन्नासेठों की वापसी, ग्रामीण-शहरी संपर्क के बदलते रूप तथा स्त्री-पुरुष संबंध जैसे विषय इस धारा के लोगों की चिंता में शामिल हैं. अंतर्राष्ट्रीय परिघटनाओं की उपेक्षा न करते हुए भी इनका जोर स्थानीय और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य पर रहता है. इनकी बातचीत में इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की जाती है कि जब किसानी से लोगों के पलायन की बात को जोर शोर से प्रचारित किया जा रहा है तो वर्तमान दुनिया के अधिकांश प्रगतिशील और जुझारू आंदोलनों का देहाती इलाकों में ही केंद्रित होने का क्या कारण है.
खेती किसानी पर इस समय पूंजी का जितना विशाल और भयावह आक्रमण है उसके चलते खेती के इतिहास पर भी विद्वानों का ध्यान गया है. मार्सेल मजोयेर और लारेन्स रूदार्त ने इस विषय पर फ्रांसिसी भाषा में एक किताब लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद 2006 में ‘ए हिस्ट्री आफ वल्र्ड एग्रीकल्चर: फ्राम द नियोलिथिक एज टु द करेन्ट क्राइसिस’ शीर्षक से अर्थस्कैन नामक प्रकाशन से छपा है. आभार में लेखकों ने सबसे पहले उन किसानों का आभार माना है जो अपनी विद्या के सबसे बड़े ज्ञानी होते हैं. लेखकों का कहना है कि इक्कीसवीं सदी के आरंभ में धरती के लगभग आधे लोग गरीबी से जूझ रहे हैं. बिना शक यह आबादी देहाती है और खेती से जुड़ी हुई है. सूखा-बाढ़, तूफान, पेड़-पौधों, पशुओं और मनुष्यों की बीमारी और युद्ध भी बहुत कुछ अंततः गरीबी और कुपोषण के कारण जानलेवा हो जाते हैं. मौसम संबंधी, शारीरिक और राजनीतिक दुर्घटनाओं की विभीषिका बढ़ जाती है, अगर इनके प्रतिरोध की शक्ति और साधान कम हों. जिसे प्राकृतिक आपदा कहकर गैर जिम्मेदार सरकारें छुट्टी पा लेती हैं वे भी बहुत हद तक समाजार्थिक और राजनीतिक कारकों से प्रभावित होती हैं.
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद ने पूंजीवाद के जिस आदमखोर और अप्राकृतिक चरित्र को उजागर किया था उसे अधिकाधिक लोग अब प्रत्यक्ष देख रहे हैं. मानव जाति के अस्तित्व और विकास के लिए मनुष्य और प्रकृति के बीच जिस तरह का साहचर्य और सहयोग अपेक्षित है उसे पूरी तरह से उलटकर पूंजीवाद ने धरती और मनुष्य के लिए अभूतपूर्व खतरा पैदा कर दिया है. विकसित पूंजीवादी देशों ने अपनी उपभोगवादी जीवनशैली के कारण तमाम तरह की ऐसी समस्याओं को जन्म दिया है जिनके नतीजों को सारी दुनिया को भुगतना पड़ रहा है. खुद को इन नतीजों से सुरक्षित रखने के लिए वे समुद्र के बीच के द्वीपों या अंतरिक्ष में बसने की संभावना तलाश रहे हैं. पश्चिमी देशों की करनी के बुरे प्रभाव तीसरी दुनिया के देशों और वहां भी देहाती इलाकों के खेती पर निर्भर लोगों को भुगतने होंगे.
ऐसे हालात को उलटने के लिए जो आंदोलन हो रहे हैं उनमें मार्क्स के विचारों से प्रभावित वामपंथी ताकतें सबसे अग्रिम मोर्चे पर हैं. पूंजीवाद का यह वर्तमान हमला और कुछ नहीं मुनाफा कमाने के लिए अंतिम संभावना को भी दुह लेने की हताशा भरी कोशिश है. इसके लिए पूंजी ने सब कुछ को विक्रेय बना दिया है.
आज से पहले कौन कह सकता था कि पानी पीना और बात करना भी मुनाफा कमाने का जरिया बन सकता है लेकिन बोतलबंद पानी और फोन की बिक्री के सहारे पूंजी ने इनसे भी लाभ अर्जित किया. हताशा के कारण ही इस पर रंच मात्र रोक भी उसे बर्दाश्त नहीं है. सब कुछ से लाभ उठाने की इसी रणनीति को आजकल विकास कहा जा रहा है और जिन किसानों ने नव प्रस्तर काल से अन्न उगाकर मनुष्य जाति को जीवित रखा उन्हें और उनके व्यवसाय को ही विकास की राह में बाधा बताया जा रहा है. खेती और किसानी का विनाश धरती और मनुष्य के खात्मे के इस विनाशकारी अभियान का आगाज है. यही कारण है कि वर्तमान नव उदारवादी निजाम का विरोध केवल मार्क्सवादी नहीं बल्कि मनुष्यता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध अधिकांश लोग कर रहे हैं. इसने सचमुच मानवता के लिए अब तक के इतिहास का सबसे गंभीर खतरा पैदा कर दिया है. दुनिया में बड़े पैमाने पर तमाम समझदार लोग इस पागलपन से मुक्ति दिलाने की कोशिश में लगे हुए हैं.