जन संस्कृति मंच के स्थापना दिवस (28 अक्टूबर) के मौके पर इप्टा कार्यालय, कैसरबाग, लखनऊ में जंग और जुल्म के विरोध में परिचर्चा और कविता पाठ का आयोजन किया गया. इसकी अध्यक्षता जसम लखनऊ के कार्यकारी अध्यक्ष जाने-माने लेखक तथा ‘तज़किराष’ के प्रधान संपादक असगर मेहदी ओर संचालन जसम की लखनऊ इकाई के सचिव कथाकार फरजाना मेहदी ने की. कार्यक्रम के आरंभ में कलीम खान ने प्रो. जीएन साईबाबा की दो कविताएं. ‘मैंने मरने से इन्कार किया’ और ‘आजादी’ सुनाईं.
आयोजन को संबोधित करते हुए जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष, कवि और लेखक कौशल किशोर ने कहा कि जनजीवन व जनसंघर्षों ने कला, साहित्य और संस्कृति को उत्प्रेरित किया है. आज का दौर ज्यादा निरंकुश, भयावह और दमनकारी है. जंग और ज़ुल्म से दुनिया घिरी है. भारत प्रतिक्रियावादी संस्कृति का केंद्र बना हुआ है. हमें सांप्रदायिक फासीवाद और दकियानूसी विचारों तथा सत्ता संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की संस्कृति के आंदोलन को आगे बढ़ाना है. इसके लिए सभी प्रगतिशील संगठनों व रचनाकारों की एकता जरूरी है.
उन्होंने कहा कि एक साल के अंदर गाजा में एक लाख से अधिक लोग मारे जा चुके हैं . यह युद्ध नहीं, जरसंहार है. गाजा को जेल ही नहीं बल्कि जहरीली गैसों का चैंबर बना दिया गया है जहां हर आदमी मरने को अभिशप्त है. करुणा, संवेदना और मानवता जैसी बातें दिखावे की बनकर रह गई हैं. ऐसे में फिलिस्तीनी जनता के साथ होना इंसाफ के पक्ष में खड़ा होना है. इजरायल के पीछे अमेरिका और साम्राज्यवादी शक्तियां हैं. विडम्बना है कि भारत सरकार भी इजरायल के साथ है. विश्व शांति की चर्चा गायब है.
वर्कर्स कौंसिल के ओपी सिन्हा ने कहा कि युद्धों के पीछे अमेरिका जैसी साम्राज्यवादी शक्तियां हैं. हथियारों का व्यवसाय बढ़ा है. यह तभी संभव है जब दुनिया में तनाव और युद्ध की स्थितियां बनी रहे. हरेक देशों के रक्षा बजट में लगातार वृद्ध हुई है. कल तक महाशक्तियों के पास परमाणु हथियार होते थे. आज विकासशील देश जो गरीबी से जूझ रहे हैं, वे भी परमाणु हथियारों का देश बनने की होड़ में हैं. यूएनओ जैसी संस्थाएं निष्प्रभावी हैं. पहले के युद्ध में सैनिक ठिकाने हमले के केंद्र में होते थे. आज आम लोगों को निशाना बनाया जा रहा है.
जॉर्ज ऑरवेल के कथन को उद्धृत करते हुए असगर मेहदी ने कहा कि वर्तमान में युद्ध और हिंसा से जो खतरे पैदा हुए उसके दो स्वरूपों – जमीनी युद्ध और आर्थिक युद्ध के संदर्भ को समझने की जरूरत है. वर्तमान में और अतीत में युद्ध और हिंसा को बढ़ावा देने में अमरीका की भूमिका को देखा जाना चाहिए. इतिहास में युद्ध विजय और लूट के लिए लड़े गए हैं. आज कोई भी राष्ट्र यह दावा नहीं कर सकता कि वह राज्य आतंक का सहारा नहीं ले रहा है. यह आतंक पूरे समूहों, कभी-कभी पूरे राष्ट्र को डराता है, घायल करता है. युद्ध दुर्घटनाएं नहीं हैं. वे एक आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था की पैदावार हैं. गाजा पर जो हो रहा है, वह युद्ध नहीं बल्कि जनसंहार है. यदि हमें युद्ध और आर्थिक शोषण दोनों में शामिल बड़े पैमाने पर हत्या को रोकना है, तो हमें प्रतिरोध और परिवर्तन की प्रक्रिया को एक महत्वपूर्ण कदम मानकर उससे शिक्ति प्राप्त करना होगा. ऐसा हो भी रहा है, स्वयं पश्चिम देशों में अमरीकी प्रायोजित कत्ल.ए.आम पर मुखरता के साथ आवाजें सुनाई दे रही हैं.
कार्यक्रम का दूसरा सत्र कविता पाठ का था. शुरुआत अरविन्द शर्मा ने की. कविता पाठ करने वाले अन्य कवि थे – भगवान स्वरूप कटियार, शैलेश पंडित, हेमंत कुमार, विमल किशोर, रेणु शुक्ला, इंदु पांडेय, अनिल कुमार श्रीवास्तव, नैयर उमर, अनूप मणि त्रिपाठी, कलीम खान और कौशल किशोर.
इस अवसर पर कवि-आलोचक चन्द्रेश्वर ने कहा कि पूरी दुनिया में जब भी बर्बरता, युद्ध, हिंसा एवं क्रूरता बढ़ती है उनका सामना करने के लिए शब्द ही आगे आते हैं. मध्यकाल में भी बर्बरता, क्रूरता, दमन, हिंसा के बरक्स कवियों ने प्रेम एवं सौंदर्य को लेकर यूटोपिया की रचना की. जायसी, कबीर, रैदास, सूर, तुलसी एवं रसखान आदि कवियों के काव्य में इसे देखा जा सकता है. नयी कविता के दौर में भी युद्ध के विरुद्ध कवि शमशेर ने ‘अमन का राग’ जैसी कविता लिखी तो नरेश मेहता ने ‘संशय की एक रात’ जैसे खंड काव्य की रचना की. शब्द ही बुरे वक्त में माहौल को सकारात्मक बनाते हैं.
जसम लखनऊ के सह सचिव कलीम खान के धन्यवाद ज्ञापन से कार्यक्रम का समापन हुआ. मौके पर प्रोफेसर रूपरेखा वर्मा, शकील सिद्दीकी, राम किशोर, शहजाद रिजवी, अशोक मिश्रा, सत्य प्रकाश चौधरी, कल्पना पांडेय, केके शुक्ला, अजय शेखर सिंह, वीरेंद्र त्रिपाठी, अजय शर्मा, मंदाकिनी राय, अनिल कुमार, शांतम निधि आदि मौजूद थे.