1. आज हम एक ऐसे वैश्विक पर्यावरण और जलवायु संकट के दौर में रह रहे हैं, जिसकी प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ लगातार खनिज तेल के बढ़ते प्रयोग के चलते बढ़ा ग्रीन हाउस गैस (GHG) उत्सर्जन, ग्लोबल वार्मिंग और अन्य तमाम रूपों में हो रही हैं । ज़मीनी स्तर पर, हम जलवायु परिवर्तन के कारण आ रही आपदायें, प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता के भयावह विनाश, भारी मात्रा में प्रदूषण, कचरा और पर्यावरण के लिये खतरनाक अन्य सामग्रियों की बेलगाम डम्पिंग की गंभीर स्थितियाँ देख रहे हैं। आम जनता को उनके आधारभूत संसाधनों के अधिकार से भी वंचित किया जा रहा है, जबकि बड़े कारपोरेट इनसे भारी मुनाफा कमा रहे हैं। 19 वीं सदी की तुलना में दुनिया आज 1.1 डिग्री सेल्सियस ज्यादा गरम है और कार्बन उत्सर्जन 50% तक बढ़ चुका है। वर्ष 2021 अब तक का छठवाँ सबसे गर्म वर्ष था, जिसमें पृथ्वी की सतह पूर्व-औद्योगिक युग (1850-1900) की तुलना में 1.04 डिग्री ज्यादा गर्म थी। यह देखते हुए कि वर्तमान में वैश्विक तापमान 0.2 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की दर से बढ़ रहा है, मानव-जनित तापमान वृद्धि 2017 तक पूर्व-औद्योगिक युग की तुलना में लगभग 1 डिग्री बढ़ चुकी थी, और यदि तापमान की यही वृद्धि दर बनी रही, तो 2040 तक यह 1.5 डिग्री हो जायेगी।
2. जलवायु परिवर्तन के प्रभाव वैश्विक तापमान की वृद्धि तक ही सीमित नहीं हैं। कृषि, मत्स्य-पालन, प्राकृतिक संसाधन, खाद्य सुरक्षा, नदियां, जीवन और जीवन-यापन – सब कुछ पर गहन दुष्प्रभाव डालते हुए इसने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित करना प्रारंभ कर दिया है। मानसून चक्र में बाधा, बारिश का न होना, प्राकृतिक आपदाओं की बारंबारिता अब आम बात होती जा रही है। कुछ इलाकों में जल चक्र बाधित होने के चलते हुई अतिशय वृष्टि से अभूतपूर्व बाढ़ की स्थितियाँ बन रही हैं – जैसा हाल ही में चीन, पाकिस्तान और अन्य कई जगहों पर देखने को मिला। विनाशकारी वार्मिंग, भयावह ताप लहरी, सूखे की विकट होती स्थितियाँ, वन-विनाश और क्षरण, समुद्र का बढ़ता जल स्तर, तटीय क्षरण और बड़े पैमाने पर जैविक-वानस्पतिक प्रजातियों का विलुप्त होना – इसके विनाशकारी प्रभावों के चंद उदाहरण हैं। चरम पर पहुंचते तापमान से जंगल की आग का खतरा बढ़ रहा है, जैसा कि पिछली गर्मी में यूरोप में दिखा। तापमान के और अधिक बढ़ने पर कुछ इलाकों में रह पाना संभव नहीं रह जायेगा, क्योंकि खेती-किसानी के इलाके रेगिस्तान में बदल जायेंगे। जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी (इन्टरगवर्न्मेन्टल) पैनल (आईपीसीसी) के अनुसार, यदि वैश्विक तापमान वृद्धि दर 1.5 डिग्री के अंदर नहीं रखी गई, तो यूके और यूरोप अतिवर्षा के चलते आने वाली बाढ़, मध्य पूर्व के देश चरम ताप-लहरियों और व्यापक स्तर फैलते सूखे, प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय राष्ट्रों के समुद्र के बढ़ते जल-स्तर के चलते डूब जाने और बहुतेरे अफ्रीकी देश सूखे और खाद्यान्न अभाव के खतरे में पड़ जायेंगे। ताप के चरम और जंगल की आग से ऑस्ट्रेलिया पर बढ़ती मौतों का खतरा आ सकता है।
3. विकासशील देशों में रहने वाले लोग, जो साम्राज्यवादी शोषण का शिकार बनते हैं, विशेषकर गरीब और हाशिये पर रह रहे लोगों का तबका, और स्थानीय (indigenous) मूल जन-समुदाय इस संकट से सबसे विकट रूप से प्रभावित होने वाले तबके हैं जो अनिश्चित मानसून, जल अभाव, प्रदूषित हवा, और महामारी जैसी स्थिति का सामना कर रहे हैं। ऊंची ज्वार लहरों, तूफान और बाढ़ के साथ समुद्र के उठते जल स्तर से तटवर्ती और द्वीपीय क्षेत्रों के लिये लगातार अस्तित्व का खतरा गहराता जा रहा है। प्रशांत महासागर के द्वीपीय राष्ट्रों का धंसना शुरू हो चुका है। दुनिया की लगभग 23 करोड़ आबादी समुद्र के उच्च जल स्तर से एक मीटर नीचे के इलाकों में रह रही है। विषमतम परिस्थितियों में सबसे वंचित और गरीब तबका ही सबसे ज्यादा प्रभावित होगा। [समुद्र जलस्तर वृद्धि के वैज्ञानिक प्रमाण: 1901 से 1990 के बीच वैश्विक मध्यमान समुद्र जलस्तर 1.5 मिमी प्रति वर्ष की दर से बढ़ा; यह दर 2005 से 2015 के बीच बढ़ कर 3.6 मिमी प्रति वर्ष हो गई; यदि वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में कमी नहीं आई तो 2100 तक जलस्तर के 0.61 से 1 मीटर तक बढ़ जाने की आशंका है।] तटवर्ती क्षेत्रों का जलस्तर समूची 21 वीं सदी में लगातार बढ़ता रहेगा, जिसके चलते निचले इलाकों में तटीय बाढ़ों, तूफ़ानों और तटबंधीय क्षरण की बारंबारिता और भयावहता का खतरा भी बढ़ता रहेगा। उदाहरण के लिये, सुंदरबन के स्थानीय मछुआरा समुदायों और द्वीप के अन्य सभी निवासियों के लिये अस्तित्व का गंभीर खतरा बनता जा रहा है। बंगाल की खाड़ी का जल स्तर 3-8 मि.मी. की दर से बढ़ते हुए भूमि क्षरण और द्वीपों के डूब जाने का खतरा ला रहा है। साइक्लोनों की बारंबारिता और खेती योग्य भूमियों व नदियों में खारे जल का प्रदूषण काफी बढ़ गया है। रिपोर्ट बताती हैं कि कोलकाता, चेन्नई, मुंबई, भुबनेश्वर सहित दुनिया के तमाम तटवर्ती शहरों पर डूबने का खतरा मंडरा रहा है। गांवों और शहरों समेत भारत के तटवर्ती इलाकों में 17 करोड़ लोग रहते हैं।
4. शहरी गरीब और झुग्गी-झोंपड़ी वासियों, मछुआरा समुदाय, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, भूमि पर आश्रित आदिवासी, ग्रामीण महिलायें बदलते मौसम चक्रों की चरम परिस्थितियों, बाढ़, जल जमाव, पर्यावरणीय संतुलन के बिगड़ते जाने के दुष्प्रभावों के आनुपातिक रूप से सबसे ज्यादा शिकार बन रहे हैं। संसाधनों के गैर-समता मूलक वितरण और आधारभूत अधिकारों से वंचित होना उन्हें चरम अनिश्चितता और परनिर्भरता की परिस्थिति में ढकेलता है। जो जलवायु परिवर्तन के लिये सबसे कम जिम्मेदार हैं, वे ही इसके दुष्प्रभावों से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
5. जलवायु परिवर्तन, खास कर भारत जैसे राष्ट्रों के लिये, खाद्य सुरक्षा पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है। बदलते मौसम चक्र के चलते किसानों का समूचा फसल उत्पादन चक्र बाधित होता जायेगा। सरकार की ओर से उपयुक्त सुरक्षा नेटवर्क के अभाव में देश में लगातार विषम होता कृषि संकट खेतिहर समुदाय के साथ-साथ देश की समूची खाद्य सुरक्षा पर भी भयावह प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। भारत सरकार कृषि उत्पादकता पर जलवायु परिवर्तन के खतरे को आधिकारिक रूप से स्वीकार कर चुकी है। मगर इस समस्या के समाधान की दिशा में उन तरीकों, नीतियों, और व्यवहारों को बदलने के बजाय, जो इस मुद्दे के प्राथमिक कारक हैं, सरकार द्वारा कृषि उत्पादन के साधनों को जलवायु परिवर्तन संकट से निपटने के नाम पर बड़े कारपोरेशनों के हवाले करने का प्रयास किया जा रहा है।
6. वर्तमान में वैश्विक स्तर पर, 3.3 से 3.6 अरब की संख्या में लोग चरम पर्यावरणीय संकट की स्थितियों में रह रहे हैं। यूएनएचसीआर के अनुसार वर्ष 2008 से औसतन 2.15 करोड़ लोग प्रत्येक वर्ष बाढ़, तूफान, जंगल की आग, और चरम तापमान के चलते जबरिया विस्थापन के शिकार बन रहे हैं। आने वाले दशकों में वैश्विक स्तर पर ऐसे लोगों की संख्या करोड़ों में हो सकती है, जो जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं के चलते विस्थापित होंगे। वैश्विक पर्यावरण संकट सूचकांक (ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स) 2021 के अनुसार, भारत दुनिया के दस सबसे अधिक जलवायु परिवर्तन प्रभावित देशों में से एक है। दिसम्बर 2020 में, “जलवायु मुद्दे पर निष्क्रियता की कीमत: विस्थापन और संकटापन्न प्रवासन” (Costs of Climate Inaction: Displacement and Distress Migration) रिपोर्ट का आकलन है कि 2050 तक 4.5 करोड़ से अधिक भारतीय जलवायु आपदाओं के चलते बेघर हो कर विस्थापन के लिये विवश होंगे। वर्तमान में भारत में 1.4 करोड़ लोग पर्यावरणीय बाधाओं के चलते विस्थापित हैं। गैर बराबरी, प्रतिकूल स्थितियों और स्वास्थ्य सुविधा जैसी आधारभूत सेवाओं की अनुपलब्धता न केवल खतरों के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाती है, बल्कि समुदाय की पर्यावरणीय परिवर्तनों के साथ अनुकूलन क्षमता को भी संकुचित करती है।
7. विडम्बना यह है कि हम आए दिन दक्षिणपंथी और रूढ़िवादी (कंजर्वेटिव) ताकतों द्वारा पूँजीवाद जनित-उत्प्रेरित इस जलवायु परिवर्तन का सार्वजनिक नकार देख रहे हैं। इसे डोनाल्ड ट्रम्प, बॉल्सोनारो, नरेंद्र मोदी, वाकलाव क्लाउस और दुनियां के अन्य कई नेताओं द्वारा हवा दी जा रही है, जो इस खतरे को नकारते हुए सोशल मीडिया पर षड्यन्त्र सिद्धांतों की कहानियाँ परोस रहे हैं। छद्म विज्ञान, मिथक और दुर्भावनापूर्ण ढंग से तोड़ी-मरोड़ी गयी सूचनाओं का इस्तेमाल विज्ञान-विरोधी प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिये किया जा रहा है। इसे उल्लिखित किया जाना जरूरी है कि इनमें से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प, ब्राजील के राष्ट्रपति बोलसानारो और अन्य कुछ नेताओं को धरती पर जलवायु परिवर्तन के खतरे को पहचानने वाली जनता और नेता पराजित कर चुके हैं। जिस तरह से ब्राजील की जनता ने जंगल विनाश और बड़े उद्योगों के प्रबल पक्षधर बोलसानारो को पराजित करते हुए वर्कर्स पार्टी के नेता लूला डि सिल्वा को विजयी बनाया, जो स्थानीय मूल आबादियों के जंगल और जीवनयापन के अधिकार का खुल कर समर्थन करते हैं और कारपोरेट मुनाफ़े की बेलगाम भूख के लिये अमेज़न जंगल को विनष्ट करने के प्रयासों की भर्त्सना करते हैं, उसकी भरपूर सराहना होनी चाहिए। भारत में केंद्र और उन तमाम राज्यों की सरकारें, जहां भाजपा शासन में है, आँख मूँद कर उन नीतियों पर चल रही हैं, जो न केवल जलवायु परिवर्तन के लिहाज से अवैज्ञानिक हैं, बल्कि पर्यावरण और जलवायु के लिये और भी विनाशकारी हैं।
8. पर्यावरण नकारवादियों के खिलाफ़ संघर्ष और जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिये गरीब-वंचित जन पक्षधर नीतियों को बनवाने और लागू कराने के लिये गठबंधन और साझेदारियाँ विकसित किये जाने की जरूरत है। पर्यावरण विनाश और धरती के संसाधनों के शोषणकारी दोहन के मुद्दे पर इसके वर्ग पक्ष और दृष्टिकोण को समझना व आत्मसात करना महत्वपूर्ण है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस मामले में औद्योगिक और विकसित राष्ट्रों का शेष दुनिया के मुकाबले, आनुपातिक रूप से बहुत ज्यादा योगदान है। यह भी देखना-स्वीकार करना जरूरी है कि इन विकसित राष्ट्रों में भी अभिजात समुदायों की तुलना में वहां के हाशिये के और गरीब-वंचित समुदाय कहीं ज्यादा प्रभावित हैं। इसलिए समय की मांग है कि सीमा पार (क्रॉस-बॉर्डर) जलवायु परिवर्तन के वास्तविक शिकारों - गरीबों, अश्वेतों, हाशिये के स्थानीय मूल जन-समुदायों के लोगों के साथ के साथ पर्यावरणीय एकजुटता बनाई जाये, जो जलवायु संकट का अतुलनीय रूप से सबसे भारी बोझ उठा रहे हैं।
9. ग़ैर बराबरी ही जलवायु संकट की चालक शक्ति है। इसलिए हमें विभिन्न देशों के बीच कार्बन उत्सर्जन की भारी विषमता और ‘अस्तित्व रक्षा’ व ‘विलासिता’ उत्सर्जन के अंतर को कभी नहीं भूलना चाहिए। 2.4 tCO2e (टन कार्बन डाइआक्साइड समतुल्य) स्तर पर, भारत का प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन (भूमि प्रयोग, भूमि-प्रयोगपरिवर्तन, और वानिकी – LULUCF को सम्मिलित करते हुए), 6.3 tCO2e के उस वैश्विक औसत से काफी नीचे है, जिसे मिश्र में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP27) से ठीक पहले “उत्सर्जन अंतर रिपोर्ट 2022: बंद होती खिड़की” (Emissions Gap Report 2022: The Closing Window”) रिपोर्ट में बताया गया है। विश्व के इस औसत से कहीं ऊपर अमेरिका 14 tCO2e, रूसी फेडरेशन 13 tCO2e, चीन 9.7 tCO2e, ब्राजील और इंडोनेशिया 7.5 tCO2e, और यूरोपी यूनियन 7.2 tCO2e के उत्सर्जन स्तर पर हैं। जी-20 राष्ट्रों में प्रति व्यक्ति औसत उत्सर्जन की तुलना में भारत में जी-20 औसत का आधा, और सऊदी अरब में दो गुना से भी अधिक है। कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जन के ऐतिहासिक संकेन्द्रण में भारत का योगदान मात्र 3% (LLUCF को छोड़ कर) है, जबकि अमेरिका और यूरोपी यूनियन का 1859-2019 के बीच सकल जीवाश्म सीओटू (CO2) उत्सर्जन में योगदान क्रमशः 25% और 17% है। इसी अवधि में चीन ने 13%, रूसी फेडरेशन ने 7% और इंडोनेशिया व ब्राजील नें 1% प्रत्येक का योगदान किया। इसी अवधि में ‘सबसे कम विकसित’ राष्ट्रों का ऐतिहासिक जीवाश्म ईंधन और औद्योगिक सीओटू उत्सर्जन योगदान मात्र .5% रहा है ।
10. कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिये ‘ग्लोबल नॉर्थ’ का प्राथमिक दायित्व चिह्नित करने के साथ ही, हमें भारत सरकार पर भी पर्यावरण संबंधी दायित्वपूर्ण घरेलू नीतियों को विकसित करने की जिम्मेदारी का दबाव बनाना होगा। ग्लासगो में COP26 सम्मेलन 2021 में, भारत ने 2030 तक देश की ऊर्जा जरूरतों का 50% नवीकृत हो सकने वाले श्रोतों से पूरा करने और शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य 2070 तक प्राप्त कर लेने का वादा किया है। मगर, व्यवहार में हम इसका ठीक उलटा देख रहे हैं। उदाहरण के लिये, दिसम्बर 2019 में, पूर्वी उड़ीसा के तलबीरिया इलाके में ‘ओपनकास्ट’ कोयला उत्खनन परियोजना में वन भूमि के इस्तेमाल के लिये लगभग 40,000 पेड़ों की कटाई की अनुमति दे दी गई और इस प्रक्रिया में सैकड़ों लोग बेघर हो कर विस्थापित हुए। पश्चिम बंगाल में देओछा पचामी में एक नई ओपनकास्ट कोयला खदान लगाई जा रही है। यह परियोजना एशिया की सबसे बड़ी और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कोयला खदान होगी, जो वहां के समूचे पर्यावरण के विनाश के साथ-साथ हजारों आदिवासियों को उनकी जमीन, आजीविका और संस्कृति से बेदखल कर देगी। स्थानीय और ग्लोबल फर्मों द्वारा वाणिज्यिक खनन के लिये कोयला क्षेत्र को खोले जाने के उद्देश्य से मौजूद प्रतिबंधों में ढ़ील देने के लिये कोयला खदान (विशेष प्राविधान) कानून, 2015 में अध्यादेश के जरिए संशोधन कर दिया गया। नए प्रावधानों के अंतर्गत, अभी हाल ही में नरेंद्र मोदी ने, 41 कोयला ब्लाकों की नीलामी का उद्घाटन किया है, जिनमें से कई मध्य भारत के सघन वन क्षेत्रों में हैं।
11. आवश्यकता इस बात की है कि सौर, वायु, और ऊर्जा के अन्य वैकल्पिक श्रोतों से बड़े स्तर पर उत्पादन को सक्रिय प्रोत्साहन देने, और व्यापक पैमाने पर सार्वजनिक व स्वच्छ परिवहन, स्वच्छ रसोई ईंधन और स्वच्छ विद्युत उपलब्ध कराए जाने की मांग की जाये। पुनरुत्पादक ऊर्जा तभी कोई सार्थक समाधान बन सकती है, जब इसे विकेंद्रित रूप से लागू किया जाये और अडानी, एकमे, बिरला जैसे गिने-चुने कारपोरेट खिलाड़ियों को बेलगाम मुनाफे के मैदान के रूप में इसे सौंपने की बजाय इसमें आम जनता की सहज और सुनिश्चित भागीदारी हो। हमारे देश में जीवाश्म ईंधन चालित गाड़ियों के विकल्प के रूप में इलेक्ट्रानिक गाड़ियों को पेश किया जा रहा है। यह सही है कि इलेक्ट्रानिक गाड़ियों से सीधे तौर पर ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन नहीं होता है, मगर जिस विद्युत से ये संचालित होती हैं, उसका अधिकांश अभी भी जीवाश्म ईंधनों से ही उत्पादित होता है।
12. हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के नाम पर परमाणु ऊर्जा के प्रोत्साहन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देना केवल तकनीक के स्तर पर ही संदेहास्पद नहीं है बल्कि परमाणु कचरे के निष्पादन और औद्योगिक व खनन श्रमिकों के लम्बे समय तक रेडियोधर्मी संपर्क के चलते इसके भयावह परिणाम अवश्यंभावी हैं। खुद अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) ने, जिस पर सारी दुनिया में परमाणु ऊर्जा उत्पादन के प्रोत्साहन का दायित्व है, यह स्वीकार किया है कि “परमाणु ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन की चुनौती का निकट-कालिक समाधान नहीं है... कार्बन उत्सर्जन को तत्काल और प्रभावकारी स्तर पर घटाए जाने की जरूरत ऐसी दृष्टि और समाधानों की मांग करती है, जिन्हें परमाणु रिएक्टर बनाने में लगने वाले समय से कहीं जल्दी लागू किया जा सके”। इसके अतिरिक्त, परमाणु ऊर्जा संयंत्र अनिवार्य रूप से मुनाफे का निजीकरण करता है और इंसानी जान पर आने वाले भयावह ख़तरों को जनता पर थोप देता है। इसलिए हमें कूडनकुलम और जैतापुर संयंत्रों तथा अन्य जगहों पर प्रस्तावित इस तरह के संयंत्रों का विरोध जारी रखना होगा।
13. हम बल दे कर यह कहना चाहेंगे कि भारत सरकार ने डरबन 2011 की अंतर्राष्ट्रीय वार्ता में अमेरिका और अन्य उत्तरी गोलार्ध (ग्लोबल नॉर्थ) के राष्ट्रों के दबाव में झुकते हुए, “साझा, मगर विभिन्नीकृत दायित्व” (CBDR): [उत्सर्जन के लिए ऐतिहासिक जिम्मेदारी के आधार पर उत्सर्जन घटाने के दायित्व का वितरण], के सिद्धांत से किनारा कर के भारी भूल की है। अपेक्षाकृत गरीब और अन्य विकासशील राष्ट्रों के साथ एकजुटता बनाने के बजाय भारत ने उत्सर्जन कटौती के निर्धारण मापदण्ड के रूप में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन चुना। इस तरह भारत ने गरीब और विकासशील राष्ट्रों पर गैर-आनुपातिक रूप से उत्सर्जन कटौती के भारी बोझ का प्रस्ताव स्वीकार करना चुन लिया। इसे बल दे कर दुहराए जाने की जरूरत है कि ऐसी वार्ताओं को अनिवार्य रूप से समानता और ऐतिहासिक उत्तरदायित्व के जुड़वां आधारों पर होना चाहिए। पेरिस समझौते और स्वैच्छिक उत्सर्जन कटौती कार्यक्रम के माध्यम से सीबीडीआर के प्रावधानों को कमजोर करने के प्रयास किये जा रहे हैं, जिसमें विभिन्न राष्ट्र स्वैच्छिक और स्वतंत्र रूप से अपने लिये कटौती प्रतिबद्धता का निर्धारण करेंगे जिसे क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत बनाए गए प्रावधानों की तरह से कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं बनाया जा सकेगा। बाध्यकारी कटौती से स्वैच्छिक कटौती का यह बदलाव पर्यावरण प्रदूषक उत्सर्जन से लड़ने के प्रयासों को गंभीर रूप से कमजोर करता है। विकसित राष्ट्रों द्वारा विकासशील राष्ट्रों के ‘उत्सर्जन कटौती’ कार्यक्रम में भागीदार नहीं होने पर दंडित और बदनाम करने के प्रयासों का विकासशील राष्ट्रों द्वारा गंभीर प्रतिरोध किया जा रहा है। विकासशील राष्ट्रों की परिस्थितियां शोषण के वर्गीय चरित्र को दिखा रही हैं, जिसमें धनी और सुविधाभोगी राष्ट्र अपने को ऐतिहासिक उत्सर्जन के परिष्कार के दायित्व से मुक्त रखे हुए हैं, और गरीब राष्ट्रों पर पर्यावरणीय उत्सर्जन कटौती का गैर-आनुपातिक भार स्वीकार करने का दबाव बना रहे हैं।
14. भारत को अन्य विकासशील राष्ट्रों के साथ मिल कर ऐसे दुर्भावनापूर्ण प्रयास की भर्त्सना करने की जरूरत है, जिसमें अनाज की की खेती और पशु-पालन से होने वाले ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को दुनिया के बड़े औद्योगिक राष्ट्रों में कारों से होने वाले ‘विलासिता उत्सर्जन’ के बराबर बताया जा रहा है । भारत सहित तमाम विकासशील राष्ट्र, बहुत पहले से इस पर बल देते रहे हैं कि ‘अस्तित्व रक्षा’ के क्रम में होने वाले उत्सर्जन में कटौती संभव नहीं है, और इसे ‘विलासिता उत्सर्जन’ से अलग कर के देखे जाने की जरूरत है। ऐसे में दोनों को एक ही तराजू पर तौलने का प्रयास खतरनाक है और इसका प्रतिरोध किया जाना चाहिए। यह बेहद जरूरी है कि भारत, अन्य विकासशील राष्ट्रों के साथ मिल कर इस पर बल दे कि वार्ताओं का आधार प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, विभिन्न राष्ट्रों के ऐतिहासिक योगदान और सीबीडीआर सिद्धांत को बनाया जाय।
15. इसे भी ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं का इस्तेमाल खुद को यहाँ जलवायु परिवर्तन से संबंधित जिम्मेदारियों से मुक्त कर लेने के लिये न करने पाये। भारत को जलवायु सामंजस्यशील और पर्यावरणीय रूप से संवहनीय विकास का ऐसा मॉडल विकसित करने की जरूरत है, जो विकास, संसाधनों, ऊर्जा जरूरतों के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और गरीबों व हाशिये के लोगों के पक्ष में स्वामित्व परिवर्तन की ओर उन्मुख हो, न कि ऐसा मॉडल, जो मुनाफे के लिये जनता और संसाधनों के शोषण का सहयोगी हो।
16. भारत में, भाजपा सरकार ने, अपने नव-उदारवादी एजेंडे को पूरा करने के लिए, ‘व्यवसाय में सहूलियत’ (ईज़ ऑफ डूइंग बिजनस) के नाम पर पर्यावरण और वन संरक्षण-संवर्धन से संबंधित कानूनों के साथ मन-मानी छेड़-छाड़ करते हुए उन्हें ध्वस्त करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। वर्षों के संघर्षों के परिणामस्वरूप बने वन अधिकार कानून (FRA), 2006 से वन संसाधनों पर ‘जंगल में रह रही जनजातियों (FDST), और ‘अन्य पारम्परिक वन रहवासियों (OTFD) के वैयक्तिक और सामुदायिक अधिकारों को मान्यता मिली, जिन पर पीढ़ियों से उनका जीवन और आजीविका निर्भर है। नया वन (कंजर्वेशन) कानून (एफसीआर), 2022, वस्तुतः एफआरए का खुला उल्लंघन है, और वन क्षेत्र में किसी भी परियोजना की ‘अंतिम’ स्वीकृति से पहले ट्राइबल और वनवासियों से सहमति लिये जाने की अनिवार्यता को निरस्त करता है। लीनियर परियोजनाओं के लिये ग्राम सभाओं से अनापत्ति प्रमाणपत्र प्राप्त करने के संदर्भ में एफआरए प्रावधानों का उल्लंघन किया जा रहा है: पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) कानून लचीला कर दिया गया है; कोस्टल रेगुलेशन जोन (सीआरजेड) अधिसूचना में परिवर्तन कर दिया गया है। एफसीआर 2022 में कई छतिपूरक पुनर्वानिकी योजनाएं हैं, मगर वे सभी वस्तुतः उन सदियों पुराने वनों की भरपाई कर पाने में नितांत असमर्थ साबित होंगी जिन्हें ‘विकास’ के नाम पर काटा, जड़ से उखाड़ा और जलाया जा रहा है। यह सारा कुछ ट्राइबल और वनवासियों को अभी भी उपलब्ध मजबूत संरक्षा प्रावधान छीनने और वनों की विशाल खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधन संपदा से मुनाफा कमाने के लिये वन भूमियों को अडानियों, अंबानियों, जिंदलों, और वेदांताओं को निरापद रूप से सौंपने की ओर लक्षित है। मुनाफे की बेलगाम भूख वाले पूँजीवाद को बढ़ावा देने के लिये वनों का विनाश और उन तमाम समुदायों का निःशक्तीकरण, जो सदियों से प्रकृति के सामंजस्य और तादात्म्य में रहते आये हैं, भारत सरकार के पर्यावरणीय रूप से गैर-जिम्मेदार नीतिगत शासन के दस्तावेज हैं। पर्यावरण उपलब्धि सूचकांक (एनवायरेन्टल परफॉरमेंस इंडेक्स) 2020 में भारत का स्थान 180 देशों में 168वां था, जो सारे दक्षिण एशियाई राष्ट्रों में सबसे पीछे था, सिवाय अफगानिस्तान के, जो 178 वें स्थान पर था।
17. ‘वन और पर्यावरण पर कानूनी पहलकदमी’ (लीगल इनीशियेटिव फॉर फॉरेस्ट एण्ड एनवायरनमेंट) का आकलन दिखाता है कि जनवरी से जून 2019 के बीच, वन्यजीवन अभयारण्यों और पार्कों की देख-रेख करने वाले एक उच्च स्तरीय पैनल नें 70 में से 63 विकास परियोजनाओं को मंजूरी दी, जिसके परिणामस्वरूप 216 हेक्टेयर भूमि संरक्षण विहीन हुई । 2016 से 2019 के बीच, भारत में लगभग 70 लाख 60 हजार वृक्ष काट डाले गए । उत्तराखंड राज्य में, हिन्दू धार्मिक स्थलों की यात्रा के लिए राजमार्ग बनाने के लिये, एक संवेदनशील पर्यावरण क्षेत्र में करीब 25 हजार पेड़ काट दिये गए । खुद सरकारी आँकड़े बताते हैं कि पिछले छः वर्षों में, भारत के पर्यावरण मंत्रालय ने 2592 प्राप्त प्रस्तावों में 2256 (85%) की स्वीकृति दी । सरकार ने जुलाई 2014 से, जैवविविधता हॉटस्पॉट और राष्ट्रीय उद्यान सहित भारत के अति संरक्षित पर्यावरण क्षेत्रों में, 270 से अधिक परियोजनाएं स्वीकृत की हैं । देहिंग-पतकई नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ (NBWL) ने नॉर्थ-ईस्टर्न कोल फील्ड को उस देहिंग-पतकई वन्य जीवन अभयारण्य में 98.59 हेक्टेयर के क्षेत्र में ओपनकास्ट खनन की अनुमति दे दी, जो असंख्य विलुप्तप्राय जैविक-वानस्पतिक प्रजातियों का घर और ‘पूर्व के अमेज़न’ के रूप में जाना जाता है । यह रहवास क्षेत्र को संकुचित कर के मानव-पशु टकराहटों को बढ़ाएगा । सरकार ने महाराष्ट्र में पर्यावरण संवेदनशील (ईको सेंसिटिव) नमक कटोरों (साल्ट पैंस) को जलभराव भूमियों (वेटलैंड्स) के रूप में वर्गीकृत कर के वहां आवासीय परियोजनाओं के निर्माण का रास्ता खोल दिया है । अंडमान-निकोबार के ‘हाई रिस्क’ भूकंप प्रभावित (सिसमिक) क्षेत्र में एक अति विशाल ‘विकास’ परियोजना पर काम हो रहा है, जिसके अंतर्गत एक कंटेनर टर्मिनल, हवाई अड्डा, टाउनशिप और पावर प्लांट निर्माण का प्रस्ताव है। इसका परिणाम अति प्राचीन वर्षा वनों, वहां के मूल ट्राइबल समूहों और वन्य जीवन के लिये अपूरणीय क्षति में होगा ।
18. कृषि मोर्चे पर, पर्यावरण के लिये प्रतिकूल-विनाशकारी कृषि नीतियाँ कृषि पर कारपोरेट वर्चस्व स्थापित करने के लिये लागू की जा रही हैं। ‘भूख के खिलाफ़ युद्ध’ के नाम पर पर्यावरण विनाशकारी जीएम फसलों को भारत सरकार-कारपोरेट गठजोड़ द्वारा फिर से लाया जा रहा है। कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों की रोक-थाम के नाम पर विश्व बैंक, फूड एण्ड ऐग्रिकल्चर ऑर्गनाइजेशन और विकसित राष्ट्रों के माध्यम से “क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर” (सीएसए) नीति अंगीकार करने का दबाव बनाया जा रहा है । यह किसानों को तकनीकी, बीज, वित्त, उर्वरक और अन्य अपेक्षित सहायता उपलब्ध करायेगी । मगर, किसान और जनता का इन पर स्वामित्व नहीं होगा । इनका स्वामित्व उन कंपनियों और उद्योगों के पास ही रहेगा, जो इनका उत्पादन करेंगी । हरित क्रांति का उदाहरण हमारे सामने है । यद्यपि कि इस नीति ने राष्ट्र को खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना दिया, मगर इसी के साथ किसानों और उनके परिवारों के लिये यह विपत्तियों के पहाड़ भी लाई । हरित क्रांति ने बड़ी जोत के किसानों को फायदा दिया, जिसके चलते विषमता बढ़ी । कीट-नाशकों और उर्वरकों के अंधा-धुंध इस्तेमाल के चलते भारी पैमाने पर भूमि प्रदूषण के साथ-साथ पंजाब, हरियाणा और ऐसे अन्य कई राज्यों के लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव (साइड इफेक्ट) पड़ा । पंजाब में हरित क्रांति के परवर्ती प्रभाव भारी पैमाने पर भूगर्भ जल संकट, भूमि उर्वरा विनाश, और उर्वरकों व कीट-नाशकों पर अति निर्भरता के रूप में आज भी देखे जा रहे हैं । जलवायु परिवर्तन से लड़ने के नाम पर सीएसए यही मॉडल दुहराना चाहता है । यह न केवल कृषि क्षेत्र, बल्कि राष्ट्र और समग्र रूप से धरती के लिये भी भयावह रूप से रूप से आपदाकारी होगा । वे जो आज सीएसए की वकालत कर रहे हैं, उर्वरक, कीट-नाशक, बीज और ऍग्रो उद्योग के वही लोग हैं, जो कृषि क्षेत्र के पहले कृषि संकट के वाहक थे । अब जलवायु परिवर्तन से लड़ने के नाम पर, वे उन्ही उत्पादों और नीतियों को फिर से लागू करा रहे हैं, जिन्हें दुनिया के तमाम देशों की जनता और किसान संघर्ष कर के खारिज कर चुके हैं ।
19. घटती हुई वायु गुणवत्ता, जल संकट, भूगर्भ जल में प्रदूषण के चलते, विशेषकर वंचित तबकों के लिये अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है । IQAir 2021 रिपोर्ट के अनुसार, मध्य और दक्षिण एशिया के 15 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से 12 भारत में हैं। नई दिल्ली को लगातार दूसरे वर्ष दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी घोषित किया गया है। 2019 की नीति आयोग रिपोर्ट के अनुसार, भारत इतिहास के सबसे विकट जल संकट के दौर में है, और इसकी लगभग 60 करोड़ आबादी जल से वंचित है। बंगलोर, दिल्ली, हैदराबाद, और चेन्नई समेत भारत के 21 शहर 2021 तक अपने भूगर्भ जल स्रोत सोख चुके हैं। ‘नमामि गंगे’ और ‘स्वच्छ भारत अभियान’ जैसी परियोजनाओं पर हजारों करोड़ रुपये खर्च कर चुकने के बावजूद नदियां सीवेज, अपशिष्ट प्रदूषण और धारा प्रवाह में व्यवधानों से जूझ रही हैं। बहु प्रचारित ‘जल जीवन मिशन’ अभी तक स्वच्छ जल आपूर्ति और जल गुणवत्ता की नियमित जांच सुनिश्चित नहीं करा सका है, और हैजा महामारी के विस्फोट फिर से उभरने लगे हैं । समेकित जल संभर प्रबंधन (इंटीग्रेटेड वाटरशेड मेनेजमेंट) योजना के लिये वित्त आवंटन में भारी कटौती कर दी गई, जबकि यह योजना ऐतिहासिक रूप से जल, भूमि और वनों के समग्र-समेकित संरक्षण-संवर्धन के जरिए देश में सूखे की स्थितियों से लड़ने के लिये निर्णायक रूप से महत्वपूर्ण है। इस कार्यक्रम का अंत इसे ‘प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना’ का अंग बना कर दिया गया है।
20. राष्ट्रीय नदी जोड़ परियोजना (नेशनल रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट: NLRP) मानसून चक्रों और जैवविविधता के लिये गंभीर सामाजिक-आर्थिक चुनौती साबित होगी और पर्यावरण को विनाशकारी क्षति पहुंचाने वाले इसके दूरगामी प्रतिकूल प्रभावों ने आकार लेना शुरू कर दिया है । केंद्र सरकार ने केन और बेतवा, यमुना की दो सहायक नदियों को जोड़ने वाली परियोजना को लागू करने और इसके वित्त प्रबंधन का अनुमोदन कर दिया है। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, प्रस्तावित केन-बेतवा नदी जोड़ने की परियोजना में मध्य प्रदेश में पन्ना टाइगर रिजर्व का बड़ा भाग डूब जायेगा, जिससे बाघों और इनका भोजन बनने वाली चीतल और सांभर जैसी प्रजातियों के नुकसान का संकट खड़ा हो जायेगा । यह उस परियोजना का पहला नदी जुड़ाव होगा, जिसमें 30 नदी जुड़ावों को चिह्नित किया गया है (जिसमें 16 प्रायद्वीपीय और 14 हिमालयी नदी जुड़ाव हैं)। यह हमारे देश के समूचे नदी प्राकृतिक व्यवस्था तंत्र को बदल कर भारी पैमाने पर आजीविका विनाश के साथ-साथ वन क्षेत्र और जैवविविधता विनाश के जरिए पूरे देश में तबाही मचा देगा । बड़ी संख्या में बनाये जाने वाले बांध, धारा मोड़ने के लिये अवरोध और नहरें नदी के प्राकृतिक प्रवाह को बाधित और नदियों के मुहानों की अपनी गतिशीलता (डाइनैमिक्स) को प्रभावित करेंगी । वनों का विनाश मूलतः मूल्यवान कार्बन सिंकों का विनाश है । इनके अतिरिक्त, यह एक प्रमाणित वैज्ञानिक तथ्य है कि जलाशय उष्ण कटिबंधीय जलवायु में मेथेन और कार्बन डाइ आक्साइड के श्रोत होते हैं । यह आम जन से नदी जल उलब्धता छीन कर उसे कारपोरेट हितों के लिये हड़प लेने का प्रयास है ।
गुजरात में चल रहा पार-तापी-नर्मदा रिवर लिंकिग प्रोजेक्ट वहां वलसाड, डांड और तापी जिलों में आदिवासी समुदायों के लिए विनाशकारी साबित होगा। जब यह प्रोजेक्ट पूरा होगा और उसके तहत प्रस्तावित कई बड़े बांध चालू हो जायेंगे तो उसमें हजारों एकड़ जमीनें और आदिवासी समुदायों के गांव डूब डूब चुके होंगे। इस क्षेत्र में भारी आदिवासियों के जनविरोध के बावजूद गुजरात सरकार तबाही ढाने वाले इस प्रोजेक्ट को पूरा करने की जिद पर अड़ी हुई है।
21. कई हालिया रिपोर्टें इंगित करती हैं कि हिमालय पर्वत ऋंखला परिदृश्य, विशेषकर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में, विनाशकारी भूस्खलनों में कई गुना वृद्धि हुई है। यद्यपि कि हिमालय जैसी घाटियों में भूस्खलन और बादल फटने के चलते अचानक आ जाने वाली बाढ़ें सामान्य परिघटना हैं, मगर संख्या और विकरालता दोनों ही दृष्टियों से हो रही हाल की वृद्धि का मूल कारण पर्यावरण संवेदनशील इलाकों में शासक वर्ग द्वारा पर्यावरण विनाश बढ़ाने वाले विकास मॉडल का लादा जाना है। पर्यटन के नाम पर अंधाधुंध सड़कों का निर्माण, बांधों का निर्माण, हाइड्रो पावर परियोजनाएं, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव इन विनाशकारी आपदाओं की संख्या और विकरालता में वृद्धि के प्रमुख कारण हैं । ये विकास परियोजनाएं शहर केंद्रित उद्योगों और पर्यटकों के लाभ के लिये स्थानीय आबादियों के जीवन और आजीविका की कीमत पर लादी जा रही हैं।
हिमालय के नाजुक संतुलन को अंधाधुंध मानवीय हस्तक्षेप किस हद तक बिगाड़ सकता है, जमीन में धंसते जा रहे जोशीमठ का संकट इसका बहुत बड़ा उदाहरण है. वहां आवासीय व अन्य भवनों में दरारें पड़ गई हैं और वहां के निवासी शहर से अभी तक बगैर किसी उपयुक्त सरकारी पुनर्वास व्यवस्था के विस्थापित होने को मजबूर हो रहे हैं. केवल 12 दिनों में यह शहर 5.4 सेन्टीमीटर धंस गया जिसकी सैटेलाइट छवियां इसरो ने जारी की थीं (जिन्हें बाद में रहस्यमय ढंग से उनकी वेबसाइट से गायब कर दिया गया). इस त्रासदी का प्रमुख कारण पर्यटन को बढ़ाने के नाम पर सड़कों और भवनों का अनियंत्रित निर्माण है। बहुत से प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों, पर्यावरण विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने लगातार इस तथ्य को चिन्हित किया था कि इस शहर के पास में तपोवन-विष्णुगाढ़ हाइड्रो पॉवर परियोजना की खुदाई के कारण भूमिगत जल बाहर निकल रहा है, परिणाम स्वरूप जमीन तेजी से अंदर धंस रही है।
ऐसा लगता है कि भारत के शासक वर्ग ने आजादी के प्रारम्भिक दिनों से ही बड़ी-बड़ी बांध परियोजनाओं के अंगीकार करने के चलते हुई तमाम विनाशकारी आपदाओं से कोई सबक नहीं लिया । बड़े बांधों के चलते इनके आस-पास के सैकड़ों गाँवों के जलमग्न हो जाने से वहां के लोग बेघर-बार हो कर विस्थापित हुए और वहां के स्थानीय जंगल व इकोलाजी विनष्ट हो गई । वर्ष 2017 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े गर्व से नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध का वहां के आदिवासियों, किसानों और पर्यावरणवादियों के दशकों के संघर्ष की अनदेखी करते हुए उद्घाटन किया। नर्मदा पर बांधों की परियोजना का घोषित लक्ष्य किसानों के लिये सिंचाई सुविधा और गुजरात, मध्य प्रदेश व महाराष्ट्र के लोगों को बिजली उपलब्ध कराना है । मगर रिपोर्ट बताती हैं कि सरदार सरोवर बांध का पानी वस्तुतः उद्योगों को उपलब्ध कराया जा रहा है, जबकि गुजरात के सूखाग्रस्त इलाकों के किसान अपने खेतों की सिंचाई के लिये पानी को तरस रहे हैं।
22. वैश्विक स्तर पर, जलवायु परिवर्तन के शिकारों, प्रभावित समुदायों, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, छात्रों और युवाओं के नेतृत्व में प्रतिरोध और संगठित संघर्ष की आवाज़ें विकास के शोषणकारी मॉडल को चुनौती देते हुए सरकारों और कारपोरेशनों से कार्यवाही की मांग कर रही हैं । भारत के लोग मुनाफाखोर खनन कम्पनियों और उद्योगों द्वारा किये जा रहे पर्यावरण विनाश का प्रतिरोध कर रहे हैं। ओडिशा में नियमगिरी पहाडि़यों में वेदान्ता की प्रस्तावित फैक्टरी से होने वाले आदिवासियों के सम्भावित विस्थापन और पर्यावरण विनाश के विरुद्ध वहां के आदिवासी समुदायों का संघर्ष, ओडिशा के ही जगतसिंहपुर में पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र में प्रस्तावित पोस्को प्लांट के विरोध में लोगों का सफल संघर्ष, तमिलनाडु के तूतुकडी में वेदान्ता की प्रदूषण फैलाने वाली तांबे की फैक्ट्री के विरोध में जनता का बहादुराना संघर्ष, और वर्तमान में अडानी की विनाशकारी कोयला खदानों के खिलाफ हो रहे संघर्ष हमारे लिए प्रेरणास्पद हैं। प्रकृति के साथ मधुर सामन्जस्य बना कर रह हरे आदिवासियों के ऐसे बहुत से अन्य संघर्ष भारत में कॉरपोरेट लूट के खिलाफ प्रतिरोधों की लम्बे समय से चली आ रही गौरवशाली परम्परा को समृद्ध कर रहे हैं। हम देओचा पचामी, अरावली पहाड़ियों, अयोध्या पहाड़ियों, बक्सवाहा, तिलबानी पहाड़ी, आरे, देहिंग-पतकाई, कार्बी-आंग्लॉंग व दीमा हसाओ और अन्य तमाम जगहों पर राज्य आतंक और दमन के तमाम रूपों का सामना करती हुई कॉरपोरेट लूट, विस्थापन और पर्यावरण विनाश के विरुद्ध प्रतिरोध संघर्ष के अग्रिम मोर्चे पर डटी हुई बहादुर जनता को सलाम पेश करते हैं ।
बेहद शर्मनाक तरीके से मोदी सरकार ने 21 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को किसानों के व्यापक संघर्ष के पक्ष में सहायता के लिये ऑनलाइन “प्रोटेस्ट टूलकिट” “बनाने” और शेयर करने के चलते प्रताड़ित किया। दिशा पर लगाए गए आरोपों में देशद्रोह, आपराधिक षड्यन्त्र, भारतीय राज्य के खिलाफ़ असंतोष भड़काना, और वैमनस्य को बढ़ावा देना जैसे आरोप शामिल हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, ग्रेटा थनबर्ग, लिकीप्रिया कांगुजाम जैसी पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सुनिश्चित और सार्थक कार्यवाही के लिये सरकारों पर दबाव देने के लिये व्यापक प्रतिरोध प्रदर्शनों का आह्वान कर के पूरी दुनिया का ध्यान आकृष्ट किया है ।
23. हमें अपने दैनंदिन ऐक्टिविज्म और अपनी सुचिन्हित मांगों व संघर्षों में जलवायु परिवर्तन एजेंडा शामिल करने के लिये खुद को तैयार करना होगा । छात्र-युवा आंदोलनों को अपने आन्दोलनों में अनिवार्य रूप से जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर चेतना विकसित करने का कार्यभार शामिल करना होगा । पर्वतीय क्षेत्रों, तटवर्ती क्षेत्रों, और अन्य पर्यावरण संवेदनशील इलाकों में काम कर रहे आदिवासी, किसान व खेतिहर मजदूर संगठनों, ट्रेड यूनियनों, और अन्य जन संगठनों को सरकार की नीतियों एवं इन क्षेत्रों में उसके कार्यवाहियों पर सतर्क नजर रखने की जरूरत है।
24. ट्रेड यूनियन आंदोलन को शहरी इलाकों में पर्यावरण संरक्षण के लिये संघर्ष की पहलकदमियां लेते हुए सक्रिय भूमिका निभानी होगी। इस सन्दर्भ में बेहतर प्रदूषण नियंत्रक उपकरण लगाने, ऊर्जा और जल बचाने (कंजर्वेशन) के लिये आवश्यक अधिसंरचना स्थापित करने जैसी मांगें शामिल की जा सकती हैं । यह सुनिश्चित किये जाने की जरूरत है कि कानूनों की अनदेखी और उनका उल्लंघन करते हुए उद्योग, कचरा-अपशिष्ट बहा कर वायु, जल और पर्यावरण प्रदूषण न करने पायें। जल निकासी में ब्लॉकेज और प्राकृतिक जल चक्र में व्यवधान का प्रमुख कारण रियल इस्टेट क्षेत्र द्वारा किया जाने वाला अंधाधुंध कंक्रीटीकरण है । हमने शहरों में आने वाली बाढ़ का आम शहरी, विशेषकर झुग्गी-झोंपड़ी वासियों के जन-जीवन पर भयावह प्रभाव देखा है । शहरी क्षेत्रों में उद्योगों और शहरी अभिजात्य द्वारा किये जाने वाले पर्यावरण विनाश का सबसे प्रतिकूल प्रभाव शहरी गरीब और श्रमशील वर्ग पर पड़ता है । नीति निर्माताओं पर पर्यावरण सुसंगत उत्तरदाई नीतियां बनाने और लागू करने के लिये दबाव बनाने की दिशा में श्रमशील वर्ग को स्वच्छ शहर के अपने अधिकार की दावेदारी के लिये संगठित करना एक महत्वपूर्ण कार्यभार है ।
शोषण के विरुद्ध आज हमारे संघर्षों में हमें पर्यावरण और पर्यावासीय विनाश को रोकने और उसे सुधारने के विचार को जरूर शामिल करना चाहिए। विस्थापन और पर्यावरण विनाश के खिलाफ हमारे संघर्षों में हमें इसी विषय पर संघर्ष कर रही सभी ताकतों के साथ बृहत्तर गठबंधन भी बनाना चाहिए। पर्यावरण विनाश के विरुद्ध संघर्ष में संयुक्त मंच बनाना हमारी कार्ययोजना का हिस्सा बने ताकि व्यापक सामाजिक आन्दोलन खड़े करके विनाशकारी नीतियों को वापस लेने पर बाध्य किया जा सके।
25. यह सुनिश्चित किये जाने की जरूरत है कि कार्बन सिंकों के लिये बाज़ार बनाने अथवा जैविक ईंधनों के उत्पदन के नाम पर स्थानीय वन और कृषि भूमि ट्रांसनेशनल कारपोरेशनों और सरकारों के नियंत्रण में न दे दिये जाएं । दक्षिणी गोलार्ध के गरीब देशों (ग्लोबल साउथ) को धनिकों का कचरा घर बनाने, और औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा जनित जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से बचने के लिये इन गरीब देशों के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों को लूटे जाने की इजाजत हरगिज नहीं दी जा सकती । हमें वनों और संवेदनशील पर्यावास के इलाकों के स्थानीय जन-समुदायों द्वारा विकसित जैव-विविधता की रक्षा करने वाले पर्यावरण सुसंगत और संवहनीय जीवन पद्धति के महत्व को भी स्वीकार करने की जरूरत है ।
26. हमें प्राकृतिक संसाधनों के सार्वजनिक नियंत्रण के महत्व पर बार-बार बल देते रहना होगा। देश में केंद्र और राज्य दोनों सरकारें प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण पर आमादा हैं । हमें ऐसे किसी भी प्रयास का प्रतिरोध करना होगा । जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को संसाधनों पर जनतान्त्रिक नियंत्रण और जनतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया के वृहत्तर सवाल से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है । मुनाफाखोरी और संसाधनों की कारपोरेट लूट के सत्ता तंत्र में जलवायु संकट से छुटकारा नहीं पाया जा सकता । जलवायु संकट को एक साथ कई मोर्चों पर लड़ कर हल करना होगा । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, हमें कहीं ज्यादा जनतान्त्रिक मोल-तोल वार्ताओं, और समूची दुनिया में श्रमशील गरीब और स्थानीय मूल निवासी जनों के साथ अधिक से अधिक एकजुटता के लिये प्रयास करना होगा । राष्ट्रीय स्तर पर, हमें प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय नियंत्रण के संरक्षण, और ऊर्जा प्रबंधन व सुदक्ष तकनीकी प्रोत्साहन के अभियानों को मज़बूत करने की जरूरत है । सरकार को अनिवार्य रूप से सभी प्रभावित पक्षों (स्टेक होल्डरों), विशेषकर, हाशिये के संवेदनशील प्रभावित समुदायों के साथ परामर्श करना चाहिए और स्थानीय स्तर पर ग्रामसभाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए ।
27. सभी को प्रभावित करने वाली इस सर्वव्यापी परिघटना के मूल कारणों को जानना जरूरी है। ‘पूंजी’ में मार्क्स ने लिखा था, ‘एक पूरा समाज, एक देश, या एक साथ सभी समाजों को मिला कर भी, वे इस पृथ्वी के मालिक नहीं हैं. पृथ्वी उनके पास एक ऐसी धरोहर है जिससे वे उपकृत होते हैं, उन्हें इसे और बेहतर बना कर आने वाली पीढि़यों को सौंपना होगा’।
मार्क्स और ऐंगेल्स दोनों ने पर्यावरण के प्रश्न को उत्पादन व्यवस्था, खासकर पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था, की आलोचना के संदर्भ में देखा। मार्क्स ने बताया कि पूंजीवाद उत्पादन के प्राकृतिक संसाधनों – कच्चा माल, भूमि की उत्पादकता, आदि – को प्रकृति द्वारा पूंजी को दिये गये मुफ्त उपहार के रूप में देखता है। पूंजीवाद के लिए प्रकृति की सीमायें ऐसे अवरोध हैं जिन्हें मुनाफे के लिए ढहाया जाना चाहिए। इसे मार्क्स ने अपूरणीय मेटाबोलिक दरार (मेटाबोलिक रिफ्ट) कहा। इसलिए केवल मुनाफे के लिए काम करने वाले पूंजीवादी तौर-तरीकों से श्रेष्ठतर उत्पादन व्यवस्था ही जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण विनाश के विरुद्ध संघर्ष को सही दिशा दे सकती है।
28. यह बेहद जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर की गयी कोई भी कार्यवाही सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी व विषमताओं को ध्यान में रखकर की जाय। जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध संघर्ष, सर्वोपरि रूप से, एक व्यवस्थानिक संघर्ष है – पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष का अभिन्न अंग । संसाधनों पर जनतान्त्रिक नियंत्रण और जनतान्त्रिक निर्णय-प्रक्रिया के बड़े सवाल से अलग कर के जलवायु परिवर्तन से मुकाबला नहीं किया जा सकता। भारत में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ़ हमारा संघर्ष अविच्छिन्न रूप से साम्राज्यवाद-विरोधी कार्यवाही और सामाजिक परिवर्तन के लिये चल रहे संघर्षों, विशेषकर जाति, वर्ग और जेंडर अन्याय के विरुद्ध संघर्षों के साथ जुड़ा हुआ है ।