वर्ष - 28
अंक - 43
05-10-2019

25 से 27 सितंबर 2019 को राजस्थान के झुंझुनू में केन्द्रीय कमेटी की बैठक हुई. बैठक की शुरूआत 25 सितंबर की सुबह ही गुजरे उत्तर प्रदेश राज्य कमेटी के सदस्य और वयोवृद्ध ट्रेड यूनियन नेता कामरेड हरि सिंह को श्रद्धांजलि देने के साथ हुई. साथ ही भोजपुर के बड़गांव पंचायत के लोकप्रिय मुखिया कामरेड अरुण सिंह को भी श्रद्धांजलि दी गई. कामरेड अरुण की हत्या भाजपा समर्थित सामंती ताकतों ने कर दी थी. महाराष्ट्र में लंबे समय की साथी कामरेड संध्या, पश्चिमी चंपारण के कामरेड भोला उरांव को भी श्रद्धांजलि दी गई. कामरेड भोला की कलकत्ता कन्वेंशन से वापस लौटते समय एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. मई 2019 में दिल्ली में हुई केन्द्रीय कमेटी की बैठक के बाद जिन भी साथियों की मृत्यु हुई उन सभी को श्रद्धांजलि दी गई. केन्द्रीय कमेटी की बैठक के मुख्य निर्णय इस तरह हैं.

आर्थिक मंदी का मुकाबला

मोदी सरकार की जन विरोधी और कारपोरेट पक्षधर आर्थिक नीतियों तथा नोटबंदी व जीएसटी जैसे तर्कहीन आर्थिक कदमों के चलते देश की अर्थव्यवस्था बड़ी मंदी में फंस गई है. मंदी का असर लगभग हर क्षेत्र में दिखाई पड़ रहा है. आम आदमी को इस आर्थिक मंदी के भंवर में सबसे ज्यादा तकलीफ हो हो रही है. बिक्री घटने से उत्पादन कम किया जा रहा है, उत्पादन कम होने के चलते नौकरियों से लोगों की छंटनी हो रही है. नौकरियां जाने से लोगों की आय घट रही है, जिसके चलते बाजार में मांग में कमी आ रही है.

सरकार विकास में सार्वजनिक खर्च को बढ़ाकर नौकरियां पैदा कर सकती है. नौकरियां मिलने से लोगों की आय बढ़ेगी और आय बढ़ने से बाजार में मांग बढ़ेगी. इस तरह अर्थव्यवस्था वापस पटरी पर लौट सकती है. लेकिन मोदी सरकार ने 1.45 लाख करोड़ रुपये के कारपोरेट टैक्स में कटौती की घोषणा की है. साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण और छंटनी की योजनाओं का भी ऐलान किया गया है. इसी वजह से हमने माकपा, भाकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक के साथ मिलकर 10 से 16 अक्टूबर के बीच आम लोगों को तत्काल राहत दिये जाने की मांग के साथ विरोध प्रदर्शनों की घोषणा की है.

केन्द्रीय कमेटी की मीटिंग के बाद हुए केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के कन्वेंशन ने 8 जनवरी को एक दिन की अखिल भारतीय हड़ताल का आह्वान किया है. पूरी पार्टी को 8 जनवरी की हड़ताल को सफल बनाने के लिए अभियान चलाना चाहिए. मजदूर वर्ग के आंदोलनों की नई लहर, तत्काल राहत के लिए लोकप्रिय और जुझारू जन गोलबंदी, छंटनी के शिकार लोगों के लिए रोजगार और बेराजगारी भत्ता, किसानों के लिए राहत पैकेज और आम लोगों के लिए बढ़ी हुई न्यूनतम मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा के मुद्दों पर आंदोलन की परिस्थितियां परिपक्व हो गई हैं. रक्षा कर्मचारियों की पांच दिनों की हड़ताल, कोयला मजदूरों की एक दिन की कामबंदी, रेलवे व अन्य संगठित क्षेत्रों में पहले ही संघर्ष शुरू हो चुका है. मोदी सरकार द्वारा मंदी का सारा बोझ आम लोगों पर डालने के खिलाफ हमें ज्यादा बड़ी एकता और लोकप्रिय जन गोलबंदी के लिए अपनी भूमिका और पहलकदमी और भी बढ़ानी होगी. हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि आर्थिक मंदी की चपेट में आये इन्हीं लोगों को संघ और भाजपा के लोग नफरत फैलाने के अपने अभियानों और माॅब लिंचिंग के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं. इसलिए वर्ग एकता और आपसी भाईचारे के अभियान को हमारे आर्थिक संघर्षों से सीधे जोड़ा जाना चाहिए.

कश्मीर के साथ एकजुटता अभियान

भाजपा के अनुसार आपरेशन कश्मीर मोदी सरकार की दूसरी पारी की अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है. मानना पड़ेगा कि भारत में कश्मीर के इस तथाकथित पूर्ण विलय के पक्ष में लोगों की बड़ी तादाद चली गई थी और मोदी सरकार के इस विनाशकारी कदम के हमारे साहसिक विरोध को समझने वाले लोग बहुत कम थे. लेकिन अब जैसे-जैसे लोगों के सामने सच्चाई आ रही है, कश्मीर घाटी में नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का जिस तरह हनन किया जा रहा है, भारत सरकार द्वारा कश्मीर की ऐतिहासिक और संवैधानिक हालत में जो एकतरफा बदलाव किया गया उसके अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किये जा रहे विरोध के बीच में अब हमारी बात सुनने और समझने वाले लोग मिल रहे हैं. अब ज्यादा लोग समझ पा रहे हैं कि मोदी का कश्मीर पर उठाया गया कदम भारत के संघीय ढांचे पर हमला है. खास तौर अमित शाह द्वारा हिंदी को आधिकारिक भाषा के बतौर थोपने के आह्वान और एक पार्टी के शासन की प्रणाली पर जोर देने से अब लोगों को इसका एहसास हो रहा है.

हमें पंजाब में मोदी की कश्मीर नीति का जबर्दस्त विरोध और कश्मीरी लोगों के पक्ष में एकजुटता बहुत साफ दिखाई पड़ रही है. मोदी सरकार के आपरेशन कश्मीर पर हमारी प्रतिक्रिया साहसिक, त्वरित और लोगों को समझाने वाली रही है. हमें कश्मीर के सवाल पर लोग की ‘लोकप्रिय’ धारणा को चुनौती देने से नहीं हिचकना चाहिए. ये धारणा संघ और भाजपा मार्का राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता की धारणा से प्रभावित है. भाजपा और मोदी-शाह सरकार के लिए कश्मीर सबसे बड़ी ‘उपलब्धि’ है और वे आर्थिक मोर्चे पर अपनी नाकामी और चुनाव के समय किये गये लोक लुभावन वादों को पूरा करने में नाकामी को ढकने के लिए इसे खूब प्रचारित भी करेंगे. इसलिए कश्मीर मुद्दे पर आम लोगों और अपने समर्थकों को समझाना बहुत जरूरी है. कश्मीर के बारे में भाजपा की सोच का भंडाफोड़ किया जाना चाहिए. वे कश्मीर को केवल जमीन और रियल स्टेट के लिए फायदेमंद जगह (और कश्मीरी महिलाओं के बारे में दृष्टि) के रूप में देखते हैं और वहां के जीते जागते लोगों का दमन करना चाहते हैं. राष्ट्रीय एकीकरण के नाम पर भाजपा ने कश्मीर को पूरी तरह भारत से अलगाव में डाल दिया है और कश्मीर के मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर दिया है. अब ट्रंप भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की बात दोहराते घूम रहे हैं. हम 5 अगस्त से ही पुलिस राज में रह रहे कश्मीर के आम लोगों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए 3 अक्टूबर को कश्मीर एकजुटता दिवस मनायेंगे.

भाजपा के एनआरसी प्लान का विरोध

एनआरसी का विचार असम समझौते को लागू करने और बांग्लादेशी शरणार्थियों की कथित समस्या को खत्म करने के जरिये के रूप में आया था. इसीलिए असम में इसे व्यापक पैमाने पर सामाजिक और राजनीतिक समर्थन मिला. लेकिन अब यह बहुत सापफ हो गया है कि भाजपा ने एनआरसी को पूरे देश में भीषण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के औजार में बदल दिया है. असम में एनआरसी की फाइनल लिस्ट से बाहर रह गये दो मिलियन लोगों की धार्मिक पहचान भाजपा के लिए हितकारी नहीं है. इसलिए वे अब नागरिकता संशोधन कानून लाना चाहते हैं और 1951 की लिस्ट के आधार पर पूरे देश में एनआरसी बनाना चाहते हैं. जाहिर है इससे असम को एक बार फिर से एनआरसी की त्रासद प्रक्रिया से गुजरना होगा. मौजूदा एनआरसी से बाहर रह गये असम के लोगों को फारेनर्स ट्रिब्यूनल के सामने अपील करनी होगी. यह संस्था पूरी तरह से सरकार समर्थक लोगों से भरी हुई है और लिस्ट से बाहर रह गये लोगों को इनसे निष्पक्षता और न्याय की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. इस प्रक्रिया के बाद बड़ी तादाद में लोगों को विदेशी घोषित कर दिया जायेगा.

इसी दौरान मोदी सरकार ने बांग्लादेश को बार-बार आश्वासन दिया है कि एनआरसी भारत का आंतरिक मसला है और बांग्लादेश को इसके बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए. इसका साफ मतलब है कि भारत में मौजूदा समय में रह रहे कथित बांग्लादेशियों को उनके देश वापस भेजने के लिए सरकार बांग्लादेश के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहती. इससे संघ-भाजपा के राजनीतिक एजेंडे का भंडाफोड़ हो जाता है. एनआरसी के जरिये बड़े पैमाने पर गरीबों को विदेशी कह कर निशाना बनाया जायेगा. मानवाधिकारों के कत्लगाह जैसे डिटेंशन कैंपों में रखकर उन्हें हिंसा और उत्पीड़न का शिकार बनाया जायेगा. बिना अधिकारों वाले बंदियों की तरह उनके श्रम का दोहन किया जायेगा. इसलिए हमें देश के पैमाने पर एनआरसी लागू करने का पुरजोर विरोध करना होगा. इसमें असम में आसू-अगप और भाजपा जैसे संगठनों द्वारा मांग किये जाने वाले किसी भी तरह के वेरिफिकेशन का भी विरोध करना होगा. असम में हमें सूची से बाहर रह गये लोगों के पक्ष में खड़ा होना होगा. फारेनर्स ट्रिब्यूनल के पक्षपाती रवैये का भंडाफोड़ करते हुए हमें सूची से बाहर रह गये लोगों को न्याय हासिल करने में मदद करनी होगी. हमें हर तरह के डिटेंशन कैंप को बंद करने की मांग करनी होगी और एनआरसी के नाम पर राजनीतिक और सामाजिक समूहों को निशाना बनाने की कोशिश का विरोध करना होगा.

केन्द्रीय कमेटी के विशेष सर्कुलर को लागू करने के बारे में

कोलकाता कन्वेंशन ने पश्चिम बंगाल में पार्टी के मनोबल को काफी बढ़ाया और वहां विभिन्न मोर्चों पर पहलकदमियां तेज हुईं हैं. इसी तरह की रिपोर्ट कई अन्य राज्यों के कुछ इलाकों से भी आई है. लेकिन कई जगहों पर संगठन अब भी कोलकाता कन्वेंशन के आह्नान या कार्यशाला में हुए विचार विमर्श जिस पर केन्द्रीय कमेटी के विशेष सर्कुलर में जोर दिया गया था, को आत्मसात नहीं कर पाया है और उसके अनुरूप काम भी नहीं कर रहा है. अन्य कार्यभारों के अतिरिक्त विशेष सर्कुलर ने पार्टी कमेटियों के साथियों विशेषकर केन्द्रीय कमेटी और राज्य कमेटी के साथियों को 9 अगस्त से 7 नवंबर के बीच गांवों में बैठकें करने पर ध्यान देने के लिए कहा था. केन्द्रीय कमेटी एक बार फिर पूरी पार्टी का ध्यान इस महत्वपूर्ण कार्यभार की ओर खींचना चाहती है. हम जिस तरह अपने राजनीतिक अभियान को संचालित करते हैं, सांगठनिक गोलबंदी करते हैं, जन संगठना का सदस्यता अभियान चलाते हैं या पार्टी मुखपत्रों का प्रसार करने पर जोर देते हैं, उसी तरह इन बैठकों को भी लें.

जब इस महत्वपूर्ण मौके पर हमारे सामने फासीवादी हमला (निगरानी, हिंसा और फासीवादी प्रचार) हो रहा है, तो हमें जनता के साथ अपने संबंधों को और भी मजबूत बनाना होगा. इसके लिए हमें कार्यालय केन्द्रित या घर आधारित कामकाज के अपने तरीके को पूरी तरह बदलना होगा. यदि हम नियमित तौर पर गांवों में बैठकें करें तो हमारे कामकाज के तरीके को बदलने में मदद मिलेगी. गांव की बैठकों में हमें अवसर मिलेगा कि हम अपने समर्थकों और उनके परिवार के सदस्यों, महिलाओं और नयी पीढ़ी के लोगों के साथ राजनीतिक चर्चा कर सकें. यह हमारे मुद्दा और कार्यक्रम आधारित संवाद से एकदम अलग होगा. हम अपने सांगठनिक ढांचे के जरिये जो रिपोर्ट इकट्ठा करते हैं वे कई बार निचले स्तर की घटनाओं और प्रवृत्तियों को चिन्हित नहीं करती. लेकिन उनका समाधान जरूरी होता है. ऊपरी कमेटियों के नेता गांव की बैठकों में भागीदारी करते हुए ऐसे संकेतों का बेहतर अध्ययन कर सकते हैं. इससे पूरी पार्टी का सामाजिक और राजनीतिक पर्यवेक्षण बेहतर होगा. शहरी इलाकों की पार्टी कमेटियों को मजदूर बस्तियों या नगर पालिका वार्डों में पार्टी के ‘जनता के पास जाओ’ अभियान के तहत बैठकें करनी चाहिए.

संयुक्त मोर्चा - जन अभियानों के लिए मंच

पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में आदिवासी मंच की उपस्थिति बढ़ रही है. उड़ीसा के रायगढ़ा-कोरापुट इलाके में भी लगातार गतिविधियां चल रही हैं. झारखंड, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ आदिवासी इलाकों में भी हमारी मौजूदगी है. उत्तर प्रदेश और असम में भी हमारे कामकाज के कुछ इलाके हैं. हम धीरे-धीरे इन आदिवासी मंचों को और बढ़ाते हुए इन्हें एक अखिल भारतीय संयोजन या अखिल भारतीय मोर्चे के रूप में विकसित करने के बारे में सोच सकते हैं.

दलितों और अल्पसंख्यकों के न्याय के लिए संघर्ष करने में इंसाफ मंच की बड़ी भूमिका हो सकती है. बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में काम चल रहा है. कुछ और राज्यों में भी ऐसी ही परिस्थितियां मौजूद हैं. हमें इस काम को अखिल भारतीय स्तर पर संयोजित करने के बारे में योजना बनानी चाहिए.

पहले की चर्चा के अनुरूप एआईपीएफ की पिछली राष्ट्रीय परिषद की बैठक में इसका पुनर्गठन किया गया है. अब से एआईपीएफ में केवल जन संगठन और व्यक्ति होंगे. राजनीतिक पार्टियां नहीं होंगी. इसमें कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवियों की सदस्यता होगी, जन सदस्यता नहीं होगी. समय-समय पर कुछ राज्यों या राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली एआईपीएफ की पहलकदमियों के अलावा हमें बहुत से जिलों में एआईपीएफ की इकाइयां बनानी होंगी. यह सांप्रदायिकता के खिलाफ और लोकतंत्र और संघीयता पर बढ़ते हुए हमले के खिलाफ अभियान चलाने के मंच के रूप में काम कर सकता है. सामाजिक और राजनीतिक शक्तियों के नये ध्रुवीकरण के इस दौर में यह विभिन्न राजनीतिक/विचारधारात्मक धाराओं के बुद्धिजीवियों व कार्यकर्ताओं के संवाद व सहयोग के अंतरिम मंच के बतौर भी काम कर सकता है. विभिन्न जिलों में इस काम के लिए उपयुक्त साथियों को एआईपीएफ बनाने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए.