- लाल बहादुर सिंह
उत्तर प्रदेश में चुनावी हलचल समय से पहले ही तेज हो गयी है. प्रधानमंत्री मोदी ने एक सप्ताह में पूर्वांचल के दो केंद्रों –कुशीनगर और वाराणसी – में चुनावी रैलियां की हैं और अमित शाह ने 29 अक्टूबर को लखनऊ पहुंचकर भाजपा का मिशन 22 लांच कर दिया है. अरविन्द केजरीवाल मंत्रिमंडल समेत अयोध्या दर्शन कर रहे हैं. ममता बनर्जी वाराणसी पहुंचने वाली हैं. बैरिस्टर ओवैसी लगातार कार्यक्रम कर रहे हैं. पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों और नवजोत सिद्धू का भी किसान आंदोलन के बहाने दौरा हुआ.
मोदी जी ने कुशीनगर में एयरपोर्ट के बहाने फिर से विकास की अब बेसुरी हो चुकी धुन बजायी, तो वाराणसी में मेडिकल कालेजों के (जो दरअसल अभी निर्माणाधीन है) उद्घाटन के नाम पर अपनी महान स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए पीठ ठोंकी. यह उस राज्य में जिसने गंगा में बहती लाशें और ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ते अभागों को देखा है, चुनाव में जनाक्रोश और विपक्ष के प्रहार से बचने के लिए पेशबंदी है. पर जाहिर है, जनता अब इस बेमौसम बरसात से बिल्कुल प्रभावित नहीं है. उनका यह दावा कि उप्र को योगी ने माफिया-अपराधियों से मुक्त सुरक्षित प्रदेश बना दिया है, जनता को जले पर नमक छिड़कने जैसा लग रहा है.
बेशक अखिलेश यादव व ओम प्रकाश राजभर की मऊ रैली की सफलता गरीब-हाशिये के तबकों में भाजपा के खिलाफ बढ़ते रुझान की अभिव्यक्ति है और भाजपा-विरोधी मोर्चे से उनका जुड़ना सकारात्मक है, परन्तु यह सोचना कि इसी से बाजी पलट जाएगी और बस अब भाजपा का खेल खत्म हो गया, खामख्याली है.
दुनिया की सबसे बड़ी चुनावी मशीन बन चुकी संघ-भाजपा, उसके पीछे खड़ी कारपोरेट-मीडिया और राज्य की संस्थाओं की ताकत और तिकड़मों का मुकाबला विपक्ष तभी कर पायेगा जब चुनाव भाजपा के विरुद्ध आंदोलन में तब्दील हो जाय. उत्तर प्रदेश में आंदोलन की ताकतों व वाम-लोकतांत्रिक शक्तियों की भागीदारी ही भाजपा-विरोधी मोर्चेबन्दी को विश्वसनीय विकल्प बना सकती है.
महज जातियों के जोड़-गणित के आधार पर, भाजपा की ही तर्ज पर सोशल इंजिनियरिंग के बल पर उसे हराने की उम्मीद मुंगेरी लाल के हसीन सपने जैसी है क्योंकि विचार-मूल्य विहीन जातीय क्षत्रपों और अवसरवादी महत्वाकांक्षी नेताओं को अंतिम क्षण तक ‘मैनेज’ और ‘मैनिपुलेट’ करने की, चुनाव के पहले ही नहीं, उसके बाद भी, मोदी-शाह की क्षमता का कोई सानी नहीं है. अवसरवादी नेताओं का गठजोड़ जनता के अंदर न किसी बेहतर विकल्प की कोई नयी उम्मीद जगाता है, न नई आशा का संचार करता है.
पिछले 3 चुनावों का अनुभव गवाह है कि महज जातियों के जोड़-गणित से भाजपा का बाल भी बांका नहीं हुआ, इतिहास साक्षी है कि जोड़-तोड़ से सरकार बदल भी जाये तो जनता के जीवन में तो कोई बड़ी तब्दीली नहीं ही आती, संकट का फायदा उठाकर फासिस्ट ताकतें फिर सत्ता में और भी खतरनाक ढंग से वापसी करती हैं.
उत्तर प्रदेश पतन, यथास्थिति और जड़ता के जिस दुष्चक्र में पफंसा हुआ है, जरूरत इस बात की है कि फासिस्ट ताकतें न सिर्फ सत्ता से बेदखल हों, बल्कि वे सामाजिक स्थितियां भी बदलें जिनसे इन्हें खाद-पानी मिलती है, फासिस्ट गोलबंदी की जमीन कमजोर हो, समाज में लोकतांत्रिक ताकतें मजबूत हों तथा प्रदेश पुनर्जीवन के नए रास्ते पर बढ़े.
पूरा देश और प्रदेश मोदी-योगी राज में जिस तरह खुली जेल में तब्दील कर दिया गया, नागरिकों की सारी लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं पर अघोषित पहरा लगा दिया गया, अनगिनत लोगों को जेल में डाला गया, आंदोलनकारियों को अकथनीय यातनाएं दी गईं, इसमें आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि लोकतन्त्र की बहाली कैसे उत्तर प्रदेश के इस निर्णायक चुनाव में प्रमुख राजनैतिक मुद्दा बने. लोकतांत्रिक राजनैतिक सुधार, काले कानूनों का खात्मा, पुलिस सुधार, जेल में बंद बेगुनाहों की रिहाई, फर्जी फंसाने वाले अधिकारियों को दंड, माॅब लिंचिंग, दंगाई ताकतों पर रोक, दलितों-आदिवासियों, महिलाओं के बर्बर उत्पीड़न पर लगाम के लिये प्रभावी उपाय जैसे प्रश्नों को आज प्रदेश के चुनाव का प्रमुख मुद्दा बनना चाहिए.
ठीक इसी तरह देश बेचने वाली और आम जनता के लिए तबाही का सबब बनी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को पलटने, नौजवानों के लिए रोजगार की संवैधानिक गारंटी का सवाल भी बेहद ज्वलंत है, जिसके बिना प्रदेश और देश के किसी आर्थिक पुनरुद्धार और पुनर्जीवन की उम्मीद नहीं की जा सकती.
मोदी-योगी राज की तानाशाही और कारपोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ जो किसान-आंदोलन, छात्र-युवा, वामपन्थी व लोकतान्त्रिक ताकतें, लेफ्ट-लिबरल नागरिक समाज लगातार लड़ता रहा, उसके जुल्म और आतंक-राज को चुनौती देता रहा और उसके हमले का हर वार झेलता रहा, चुनाव-अभियान में इन सबकी उत्साहपूर्ण भाागीदारी ही चुनाव को जनान्दोलन में तब्दील कर सकती है, जिसके बिना भाजपा के विराट चुनावी-तंत्र को शिकस्त देना नामुमकिन है.
इसके लिए आज जरूरी है कि भाजपा विरोधी राजनीतिक मोर्चेबन्दी में लोकतन्त्र की बहाली और आर्थिक पुनर्जीवन के लिए वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध लड़ाकू व विश्वसनीय ताकतों की भूमिका और भागीदारी सुनिश्चित हो.
पड़ोसी राज्य बिहार का, जिसकी समाज और राजनीति हमसे मिलती-जुलती है, चुनावी अनुभव इस दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है. वहां आंदोलन की ताकतों, वामपंथी दलों के साथ मोर्चेबन्दी ने महागठबंधन को नई नैतिक आभा और विश्वसनीयता प्रदान की थी और भाजपा-नीतीश विरोधी चुनाव-अभियान को नई ऊर्जा और आवेग से भर दिया था. राजनीतिक विश्लेषकों में इस पर करीब-करीब आम राय है कि गठबंधन में वामपंथ को अधिक सीटें मिली होतीं तो आज वहां भाजपा-नीतीश की सरकार न होती. भाकपा(माले) ने उच्चतम सफलता दर के साथ महज 19 सीटों पर लड़कर 12 सीटें और कम्युनिस्ट पार्टियों ने कुल 16 सीटें जीती थीं.
बेशक, उत्तर प्रदेश और बिहार एक नहीं हैं, दोनों की अपनी विशिष्टताएं हैं, पर पड़ोसी राज्य के अनुभव में यहां के लिए भी जरूरी सबक मौजूद हैं.
देश के सबसे बड़े राज्य में सचमुच नया बदलाव आए, इतिहास के सबसे दमनकारी, पतनशील राज का अंत हो, लोकतांत्रिक सुधारों और आर्थिक प्रगति का एक नया दौर शुरू हो, सांस्कृतिक नवोन्मेष हो, और यह राष्ट्रीय स्तर पर बड़े बदलाव का आगाज करे, इसके लिए जरूरी है कि आन्दोलन की ताकतों, हाशिये की आवाजों, वाम-लोकतान्त्रिक शक्तियों का भाजपा विरोधी राजनैतिक गोलबंदी में अहम स्थान हो और नीतिगत स्तर पर स्पष्ट छाप हो, चुनाव के पूर्व भी और उसके बाद भी.
वे ही फासीवाद के खिलाफ लोकतंत्र तथा कारपोरेट-विकास के खिलाफ जनपक्षीय विकास की लड़ाई की सबसे सुसंगत योद्धा हैं.