वर्ष - 30
अंक - 16
12-04-2021

 

बंगलादेश की आजादी की स्वर्ण जयंती एक हर्षोल्लास का अवसर होना चाहिए था. दुर्भाग्यवश, नरेंद्र मोदी की बंगलादेश यात्रा के ठीक बाद वह देश मौत, खूनखराबे, दमन और हिंसा की चपेट में घिर गया. बंगलादेश की मुक्ति में भारत की भूमिका के मद्देनजर बंगलादेश के लिए शायद यह स्वाभाविक ही था कि वह इस मौके पर भारत के प्रधान मंत्री को आमंत्रित करे. लकिन अभी भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी हैं, और यह बिल्कुल समझ में आने वाली बात है कि बंगलादेशी समाज का बड़ा हिस्सा, खासकर इस तरह के अवसर पर, मोदी की यात्रा से क्यों अत्यंत असहज महसूस कर रहा था. बंगलादेश में प्रतिवाद बिल्कुल अपेक्षित था.

बंगलादेश की निरंकुश सरकार और वहां की शासक पार्टी द्वारा प्रायोजित या उससे जुड़े संगठन ने इन प्रतिवादों को दबाने की कोशिश की और प्रतिवादकारियों पर हमले किए. मोदी यात्रा और हसीना सरकार द्वारा छेड़े गए दमन के प्रतिक्रियास्वरूप कुछ संगठनों ने बंगलादेश में हिंदुओं और उनकी संस्थाओं पर भी हमले किए जिसकी स्पष्ट शब्दों में भर्त्सना की जानी चाहिए. बंगलादेश के हिंदुओं का न तो मोदी सरकार और न आरएसएस-भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों और न ही हसीना सरकार के दमनात्मक कदमों से कुछ लेना-देना है. हम आशा करते हैं कि सांप्रदायिक सद्भाव और शांति चाहने वाले आम बंगलादेशी लोग इस कट्टरतावादी हिंसा पर काबू पा लेंगे और इसे बढ़कर आजादी की स्वर्ण जयंती के पवित्र माहौल को दूषित न करने देंगे.

बंगलादेश में मोदी-विरोधी प्रतिवादों को कोई सामान्य भारत-विरोधी भावना समझ लेना गलत होगा. मोदी निश्चय ही भारत नहीं हैं, और मोदी के खिलाफ प्रतिवाद ट्रंप अथवा आज की दुनिया में किसी भी अन्य निरंकुश शासक के खिलाफ प्रतिवाद जितना ही सार्विक हैं. गुजरात के मुख्य मंत्री और अब भारत के प्रधान मंत्री के बतौर मोदी का बदनाम राजनीतिक गतिपथ ही 2002 के गुजरात जन-संहार के बाद से उनके खिलाफ दुनिया भर में इन प्रतिवादों को हवा दे रहा है. 2014 में केंद्र की सत्ता में उनके आने तक दुनिया के कई देशों ने उन्हें वीसा देने से इन्कार कर दिया था. अब भी उनकी लगभग तमाम विदेश यात्राओं में उन्हें प्रतिवादों का सामना करना पड़ता है और विदेशों में रहने वाले भारतीयों का अच्छा-खासा हिस्सा इन प्रतिवादों में शरीक रहता है. भारत के अंदर मोदी जब भी खासकर, देश के उत्तरी और पश्चिमी हिस्से के बाहर निकलते हैं तो उन्हें अनेक राज्यों में प्रतिवाद झेलने पड़ते हैं. अनेक भाषाओं में ट्वीटर पर ‘मोदी वापस जाओ’ ट्रेंड देखना आम बात है.

मोदी की बंगलादेश दौरे ने भारतीयों का ध्यान मुख्यतः उनके इस दावे के चलते खींचा कि बंगलादेश की आजादी के लिए 1971 में आयोजित एक सत्याग्रह के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया था. ऐसा लगा मानो वे अपने पहले सत्याग्रह और गिरफ्तारी की स्वर्ण जयंती मनाने बंगलादेश गए हों. जहां अधिकांश लोग उनके इस दावे को मोदी-मार्का एक दूसरा धोखा ही मान रहे हैं, वहीं कई लोग यह जांच-पड़ताल करने के लिए दबे पड़े दस्तावेज खंगालने में जुट गए कि क्या भाजपा की पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ ने सचमुच 1 अगस्त से 12 अगस्त तक कोई सत्याग्रह आयोजित किया था जो अंत में दिल्ली में रैली में परिणत हुआ. एक नौजवान जनसंघ कार्यकर्ता के रूप में मोदी ने उस सत्याग्रह में अवश्य भाग लिया होगा, फिर भी जिसे वे गिरफ्तारी कह रहे हैं वह महज रिवाजी ‘गिरफ्तारी देना’ ही रहा होगा.

असल में गौरतलब बात जनसंघ सत्याग्रह का वह संदर्भ है जो ठीक उस समय हुआ जब सोवियत संघ के साथ भारत की संधि पर हस्ताक्षर किए जा रहे थे. यह भारत की अपनी पूर्व की गुट-निरपेक्षता की नीति से बड़ा अलगाव ही था और वह बंगलादेश के मुक्ति युद्ध और अंततः उसमें भारत के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप के लिए कूटनीतिक और सैन्य समर्थन हासिल करने का एक महत्वपूर्ण कदम था. आरएसएस-जनसंघ अभियान में उस संधि का विरोध किया गया था, और इसे भारत की ओर से बंगलादेश को मान्यता देने तथा पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध घोषणा करने में विलंब के बतौर ही देखा जा रहा था. आरएसएस जो रास्ता बता रहा था उसका मतलब सीधेसीधी अमेरिकी जाल में फंसना और बंगलादेश के हितों को कमजोर बनाना ही होता. स्पष्टतः आरएसएस के पास बंगलादेश मुक्ति युद्ध की धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील, समाजवादी दिशा के साथ मेल खाने वाली कोई विचारधारा नहीं थी.

नरेंद्र मोदी के लिए जो तथ्य शायद सबसे खास महत्व का था, वह यह कि उनका बंगलादेश दौरा उस देश से सटे भारतीय राज्यों पश्चिम बंगाल और असम में चुनावों के समय में हो रहा था. बंगलादेश की उनकी यात्रा में गोपालगंज जिले में सतखिरा स्थित जेसोरेश्वरी काली मंदिर तथा ओराकांडी ठाकुरबाड़ी का दौरा भी शामिल था जो मतुआ समुदाय का सबसे पवित्र धार्मिक स्थल और मतुआ आन्दोलन के संस्थापक हरिचंद ठाकुर की जन्मभूमि है. पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय से आने वाले भाजपा सांसद शांतनु ठाकुर और मतुआ महासंघ का एक प्रतिनिधिमंडल भी उनके साथ थे; और ओराकांडी ठाकुरबाड़ी की उनकी यात्रा के बाद मोदी ने बंगलादेश और पश्चिम बंगाल, दोनों जगहों पर मतुआ समुदाय के लिए विशेष घोषणाएं की हैं. यह आदर्श आचार संहिता का स्पष्ट उल्लंघन और अपने देश के मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए विदेश यात्रा का खुला दुरुपयोग है.

मतुआ आन्दोलन जातिवाद-विरोधी आन्दोलन था जो उन्नीसवीं सदी में अविभाजित पश्चिम बंगाल के दलित तबकों के बीच लोकप्रिय हुआ था. हरिचांद ठाकुर द्वारा शुरू किया गया और उनके बाद उनके पुत्र गुरुचांद ठाकुर द्वारा आगे बढ़ाया गया यह आन्दोलन शिक्षा, सामाजिक समानता और महिला अधिकार पर अपने केंद्रीकरण के लिहाज से महाराष्ट्र में फुले और अंबेडकर द्वारा शुरू किए गए जातिवाद-विरोधी आन्दोलन से काफी मिलता-जुलता था. विभाजन के बाद मतुआ आन्दोलन का अनुसरण करने वाले मुख्य दलित समूह नमशूद्र समुदाय का बड़ा हिस्सा पश्चिम बंगाल चला आया और उसने उत्तरी 24 परगना जिले में ठाकुरनगर नामक नए केंद्र की स्थापना की. आज संघ-भाजपा प्रतिष्ठान मतुआ आन्दोलन की जातिवाद-विरोधी समतामूलक विरासत को उलट देने और उसे अपने खुद के सामाजिक सहयोग और हिंदू वर्चस्ववादी राष्ट्रवाद के वैचारिक ढांचे में समा लेने की कोशिश चला रही है. विभाजन के बाद इस समुदाय के बीच उत्पन्न असुरक्षा के भय को हवा देकर और नागरिकता के सवाल पर उन्हें धोखा देकर इस आन्दोलन के जातिवाद-विरोधी समतामूलक सारतत्व को ढंक देने का प्रयास किया जा रहा है.

इस यात्रा के दौरान जिन द्विपक्षीय मुद्दों और पहलकदमियों पर चर्चा हुई, उनमें ढाका और न्यू जलपाईगुड़ी को जोड़ने वाली ‘स्वाधीनता सड़क’ और एक तीसरे रेल मार्ग के निर्माण का फसला शामिल है. लेकिन इन दो पड़ोसी मुल्कों के बीच पानी की साझेदारी के असमाधित मुद्दे पर वैसा ही कोई स्पष्ट फसला नहीं लिया गया. इतिहास की विडंबना देखिए कि इन दो देशों ने 6 दिसंबर 1971 की स्मृति में, जब भारत ने एक स्वतंत्र गणतंत्र के बतौर बंगलादेश को औपचारिक रूप से मान्यता दी, 6 दिसंबर को ‘मैत्री दिवस’ के रूप में मनाने का संकल्प लिया. इसके 21 वर्ष बाद यह 6 दिसंबर 1992 था, जिसने भारत के अंदर सांप्रदायिक सद्भाव को और इन दो देशों की दोस्ती को सबसे बड़ा आघात दिया जब संघ ब्रिगेड के उपद्रवियों ने भारत की समरसतामूलक संस्कृति तथा आधुनिक संवैधानिक कानून के शासन के प्रति खुली नफरत दिखाते हुए दिन-दहाड़े बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था.

मोदी की बंगलादेश यात्रा ने उस देश के अंदर बेचैनी के एक नये दौर को जन्म दिया है और बंगलादेश के पड़ोसी भारतीय राज्यों पश्चिम बंगाल व असम के आसन्न चुनावों पर उसका अमंगलकारी सामाजिक व राजनीतिक असर अवश्य पड़ेगा. बंगलादेश और भारत, दोनों मुल्कों की शांति- व लोकतंत्र-पसंद जनता को राजनीति से प्रेरित मोदी की बंगलादेश यात्रा के खतरनाक नतीजों से निपटने में बहुत संयम और परिपक्वता का प्रदर्शन करना पड़ेगा.