– बृजबिहारी पांडेय, संपादक, समकालीन लोकयुद्ध
नये साल 2021 की शुरूआत के साथ ही हमारी पार्टी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के केन्द्रीय हिंदी मुखपत्र के रूप में समकालीन लोकयुद्ध ने अपने प्रकाशन के तीसवें वर्ष में प्रवेश कर लिया है. पार्टी मुखपत्र के बतौर इसका वितरण मुख्यतः समूचे हिंदी वलय के राज्यों में होता रहा है, जहां इसने पार्टी की राजनीतिक समझदारी का प्रचार-प्रसार करने और पार्टी निर्माण में एक महत्वपूर्ण औजार की भूमिका निभाने का कार्य किया है. मगर इसका वितरण केवल पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों तक सीमित नहीं रहा बल्कि पार्टी के हमदर्दों, प्रगतिशील व लोकतांत्रिक विचार सम्पन्न बौद्धिकों तथा अन्य जागरूक तबकों के बीच भी इसने देश-दुनिया की परिस्थिति एवं प्रमुख घटनाओं के बारे में पार्टी के दृष्टिकोण को ले जाने का कार्य किया है. साथ ही विभिन्न जन आंदोलनों एवं जन संघर्षों मेें पार्टी की पहलकदमियों और गतिविधियों के बारे में भी उन्हें अवगत कराया है.
वैसे तो 1969 में भाकपा(माले) के गठन के इर्द-गिर्द ही उसके साप्ताहिक हिंदी मुखपत्र के रूप में ‘लोकयुद्ध’ के नाम से कोलकाता से एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हो गया था, मगर वह केवल एक वर्ष ही नियमित रूप से जारी रह सका था. चरम शासकवर्गीय दमन के सामने पार्टी के भूमिगत होने के बाद से ही इसका प्रकाशन गुप्त और अनियमित हो गया. 28 जुलाई 1974 को पार्टी की केन्द्रीय कमेटी के पुनर्गठन के बाद पटना से इसका प्रकाशन होने लगा. इंदिरा गांधी सरकार के निरंकुश दमन और इमरजेन्सी के दौर में भी, अनियमित ही सही, पर इसका प्रकाशन चलता रहा. जाहिर है कि इस कठिन भूमिगत दौर में इसका वितरण सीमित रूप से पार्टी सदस्यों व हमदर्दों तक हो पाता था. इमरजेन्सी के बाद, सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों में पार्टी के शुद्धीकरण के बाद, पार्टी के भूमिगत रहने के दौर में ही पार्टी पत्रिकाओं के नियमित प्रकाशन का दौर शुरू हुआ. अस्सी के दशक में लोकयुद्ध कभी द्वैमासिक, कभी मासिक मैगजीन के रूप में प्रकाशित होता रहा.
पार्टी के खुला रूप धारण करने की पूर्ववेला में एक रजिस्टर्ड पत्रिका के बतौर ‘समकालीन लोकयुद्ध’ की शुरूआत 1991 में पाक्षिक टैब्लाॅयड पत्रिका के रूप में हुई थी. चंद वर्षों बाद इसका प्रकाशन साप्ताहिक पत्रिका के बतौर होने लगा – पहले मैगजीन के रूप में और उसके बाद फिर इसने टैब्लाॅयड रूप अपना लिया. कई बार व्यवधानों के चलते कुछेक अंकों का प्रकाशन अपवादस्वरूप बाधित जरूर रहा, मगर मुख्यतः प्रकाशन निरंतर ही हीेता रहा है.
पिछले वर्ष 2020 में मार्च के महीने के अंत में कोरोना के बहाने किये गये देशव्यापी लाॅकडाउन के चलते लोकयुद्ध का प्रकाशन बाधित हो गया. केवल लोकयुद्ध नहीं, भारत की समूची जनता के सामने एक अभूतपूर्व संकट आ खड़ा हुआ. बड़े पैमाने पर रोजगार छिन जाने के चलते बेरोजगारी और रोजी-रोटी का संकट आ गया. सिर्फ डाक-तार और परिवहन ही नहीं, देश भर में पूरा कारोबार ही ठप पड़ गया था, जो आज तक अपनी पूर्व स्थिति में नहीं आया है तथा जिसकी मार हम आज भी झेल रहे हैं. पार्टी के कामकाज एवं गतिविधियां भी बाधित हुईं. ऐसे में इंटरनेट के जरिये मीटिंग करने का सिलसिला शुरू हुआ और इस दौर में लोकयुद्ध के कई अंक प्रिंटेड के बजाय वेब एडीशन के बतौर प्रकाशित किये गये जिन्हें ई-मेल या सोशल मीडिया के जरिये लोगों तक पहुंचाया गया. लम्बे अंतराल के बाद बिहार में चुनाव की पूर्ववेला में अक्टूबर में समकालीन लोकयुद्ध अपने प्रिंटेड स्वरूप में वापस आया. चुनाव के दौरान इसका प्रकाशन बाधित हुआ मगर अब इसका नियमित साप्ताहिक प्रकाशन और वितरण चल रहा है.
मगर इस लम्बे अंतराल के चलते लोकयुद्ध आज अभूतपूर्व आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहा है. कामरेड चारु मजुमदार ने सिखाया है कि केवल मेहनतकश जनता की गहराई में जाकर, उन पर निर्भर रहकर ही क्रांतिकारी पार्टी चरम संकट के दौर में भी खुद को जीवित रख सकती है और आने वाले नये उभार का नेतृत्व करने के लिये खुद को तैयार कर सकती है. किसी क्रांतिकारी पार्टी पत्रिका के लिये भी यही शिक्षा लागू होती है. लम्बे अंतराल की वजह से लगातार नये ग्राहक बनाने और पुराने ग्राहकों का नवीकरण करने का चक्र टूट गया है. यही समस्या पुराना बकाया चुकाने के मामले में भी सामने आ रही है. मगर लोकयुद्ध प्रकाशन की निरंतरता बनी रहे और पार्टी सदस्यों एवं हमदर्दों के साथ उसका सम्पर्क बना रहे तो ये समस्याएं हल हो जाएंगी, ऐसा हमारा यकीन है.
वैसे तो इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के विस्तार के बाद प्रिंटेड पत्रिकाओं के सामने एक आम संकट आया है. मगर जमीनी स्तर पर, खासकर दलित गरीबों के बीच हमारे जनाधार तक पार्टी की विचारधारा और संदेश पहुंचाने, कार्यकर्ताओं को पार्टी शिक्षा से लैस करने में, यानी ठोस रूप से पार्टी के सुदृढ़ीकरण के कार्य में पार्टी के प्रिंटेड मुखपत्र की महत्वपूर्ण भूमिका बरकरार है और रहेगी. इसका मुख्य कारण है उसकी पहुंच का दायरा हमारे प्रभाव क्षेत्र में सबसे निचली पायदान के लोगों के बीच अपेक्षाकृत विस्तृत और गहरा हो सकता है. उसे दूसरी वजह है उसका स्थायी प्रभाव और संग्रहणीयता. उसे अपने पास सुरक्षित रखा जा सकता है, बार बार पढ़ा जा सकता है और जरूरतमंद लोगों को पढ़कर सुनाया जा सकता है और उस पर आपस में चर्चा भी की जा सकती है.
कोरोना संकट से लड़ते हुए हमारी पार्टी ने निरंतर जन-समस्याओं पर जन आंदोलनों और संघर्षों का नेतृत्व करके विस्तार हासिल किया है और जनता के बीच अपने जुझारूपन की अमिट छाप छोड़ी है. इसका ही नतीजा है कि हाल में बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी ने अभूतपूर्व सफलता हासिल की है. इस सफलता के चलते न सिर्फ हिंदी वलय के राज्यों में, बल्कि सारे देश में, और खासकर पड़ोसी अहिंदीभाषी राज्यों में नये उत्साह की लहर दौड़ी है जो वहां पार्टी के विस्तार में सहायक हो रही है. पार्टी के विस्तार की इस परिस्थिति में पार्टी के सुदृढ़ीकरण का काम एक महत्वपूर्ण कार्यभार बनकर सामने आया है.
पार्टी के सुदृढ़ीकरण के साथ पार्टी पत्रिका के प्रसार में वृद्धि का सीधा रिश्ता रहा है. पार्टी के भूमिगत अस्तित्व के दौरान वर्ष 1978-79 के दौरान चले पार्टी शुद्धिकरण अभियान के दौरान 60-70 पेज की पत्रिका हिदी पत्रिका को ‘लिबरेशन’ नाम से छपाकर पार्टी कतारों के बीच पहुंचाया गया था जिसने पार्टी की नई समझदारी, राजनीतिक और सांगठनिक नीतियों में बदलाव को पार्टी कतारों व समर्थकों तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी. ये अंक त्रैमासिक रूप से निकले थे मगर शुद्धिकरण आंदोलन के समूचे दौर में, डेढ़ वर्षों के दौरान जमीनी स्तर पर बार-बार पढ़े गये और उनका अध्ययन किया गया. दूसरा वाकया लगभग दस वर्ष पहले का है. वर्ष 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी का एक भी विधायक नहीं जीता था. पार्टी कतारों के बीच इस हार के नकारात्मक प्रभाव का मुकाबला करने के लिये पार्टी के सुदृढ़ीकरण का अभियान चलाया गया जिसमें लोकयुद्ध की भूमिका को देखते हुए उसके प्रसार में वृद्धि के लिये विशेष कदम उठाये गये. इसके परिणामस्वरूप लोकयुद्ध की वितरण संख्या 11,000 को पार कर गई जो पार्टी पत्रिका के इतिहास में एक रिकार्ड है.
आज हम एकदम नई परिस्थिति के सामने खड़े हैं. एक ओर मोदी के साम्प्रदायिक फासीवादी शासन के खिलाफ जन आंदोलनों का ज्वार है, जिसके शीर्ष पर दिल्ली दरवाजे पर दस्तक दे रहे किसानों का अभूतपूर्व आंदोलन है, तो श्रम कानूनों में बदलाव के खिलाफ मजदूरों कर्मचारियों ने भी राष्ट्रव्यापी हड़ताल के जरिये अपने दम-खम का परिचय दिया है. ठीका मानदेय कर्मचारियों समेत असंगठित मजदूरों का आंदोलन भी तेज हो रहा है. छात्र युवा और महिलाओं की आंदोलन में बढ़चढ़कर भागीदारी उफान पर है. इस चौतरफा उभार के बीच ही पार्टी ने बिहार चुनाव में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है. इसके चलते पार्टी के विस्तार की नई संभावनाएं सामने आई हैं.
लेकिन इस उभार और अपनी पार्टी के विकास को स्थायित्व देने के लिये पार्टी का सुदृढ़ीकरण आज सबसे जरूरी कार्यभार बन गया है. क्योंकि अक्सर जन-उभार और पार्टी की जीतें अपने साथ केवल आत्मसंतोष ही नहीं, कुछेक नकारात्मक प्रवृत्तियों को भी ले आती हैं. इसीलिये पार्टी की बुनियादी दिशा और दर्शन, कार्यपद्धति और राजनीतिक-संगठनात्मक उसूलों को व्यापक कतारों तक ले जाना और अपनी परम्परा से दीक्षित करना जरूरी हो गया है. ‘समकालीन लोकयुद्ध’ इस महत्वपूर्ण कार्यभार को पूरा करने में एक औजार की भूमिका अदा करेगा. इसी विश्वास के साथ हमारे पाठकों, ग्राहकों और वितरकों को लोकयुद्ध की निरंतरता जारी रखने के लिये विशेष प्रयास करने होंगे. कहना न होगा कि कि पार्टी की जमीनी स्तर की इकाइयों समेत समूचे पार्टी संगठन की इस काम में सक्रिय भागीदारी ही इस लक्ष्य को पूरा करने की कुंजी है.
नये साल में समूचे पार्टी संगठन के साथ लोकयुद्ध भी नई ऊंचाइयों तक पहुंचेगा, इसी उम्मीद और यकीन के साथ हम आपके पास पहुंच रहे हैं.