वर्ष - 29
अंक - 42
10-10-2020


2012-13 में दिल्ली बस गैंगरेप की घटना के बाद सैकड़ों नवयुवा भारतवासी सड़कों पर उतर पड़े थे. उनके गुस्से और झुंझलाहट के बीच सामाजिक जागृति और संस्थागत बदलावों की संभावना भी उम्मीद की एक किरण बनी हुई थी. पहली बार बलात्कार की संस्कृति, पीड़िता को दोषी मानने और सुरक्षा के नाम पर महिलाओं की स्वायत्तता पर हमले को लेकर नारीवादी चिंताओं से समाज भी जुड़ता नजर आ रहा था. ऐसा लग रहा था कि एक लंबे समय बाद शासन यह मानने को बाध्य हो सकता है कि यौन हिंसा रोकने वाले मौजूदा कानूनों ने पीड़ितों के तमाम कटु अनुभवों को दरकिनार कर रखा है.

2020 में हाथरस में एक युवा दलित महिला के साथ गैंगरेप और फिर हत्या की घटना को लेकर देशव्यापी आंदोलनों के बीच स्थिति कुछ मायनों में 2012 जैसी है तो दूसरी ओर भयावह रूप से एकदम भिन्न भी है.

इस बार भी एक स्वागत योग्य सामाजिक जागृति – जाति-आधारित अत्याचार और बलात्कार की बदनुमा हकीकत के खिलाफ नजर आ रही है. लेकिन इस बार आंदोलन के लिए चुनौती कहीं ज्यादा कठिन है. जाति-विरोधी और पितृसत्ता के खिलाफ सामाजिक परिवर्तन की लौ को किसी तरह जलाए रखने की चुनौती है – एक नंगे मनुवादी शासन के मुकाबले जो इस आंच को हर हाल में बुझाने पर आमादा है.

तब और अब

2012 में दिल्ली सरकार, केंद्र की यूपीए सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी (कांग्रेस) विरोध प्रदर्शनों को लेकर बचाव की मुद्रा में रही. विरोध के जवाब में उनकी कोशिश थी कि वे पीड़िता और उसके परिवार के लिए और यौन हिंसा के गंभीर मुद्दे लिए अपनी चिंता को प्रकट करें. पार्टी नेता पीड़िता के परिवार से मिले और उनकी पीड़ा, क्रोध और व्यवस्था से धोखा खाने की भावना को कम से कम स्वीकार किया.

मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने जस्टिस वर्मा कमेटी गठित की, जिसने नारीवादी विद्वानों और कार्यकर्ताओं, दलित नारीवादियों, एलजीबीटीक्यू नारीवादियों, बस्तर, कश्मीर और उत्तर पूर्व जैसे तनाव के क्षेत्रों और कार्यस्थलों में यौन उत्पीड़न के खिलाफ काम करने वाली नारीवादियों आदि सभी की बातों को पूरे ध्यान से सुना. वर्मा समिति की सिफारिशों ने महिला अधिकारों का एक शानदार घोषणापत्र पेश किया जिसने संसद और सरकारों के सामने चुनौती रखी कि वे संकीर्ण सामाजिक नैतिकतावाद और भीड़ उन्माद के बजाय आंबेडकर की बताई संवैधानिक नैतिकता वाला दृष्टिकोण अपनाते हुए लिंग-आधारित अन्याय और हिंसा के खिलाफ कानून और नीति बनाएं.

वर्मा समिति की तरफ से सुझाए गए कानूनी बदलावों को सरकार ने उस समय केवल आंशिक तौर पर ही लागू किया था, लेकिन फिर भी कुछ अहम अपवादों के साथ कानूनी बदलावों पर अमल मोटे तौर पर सही दिशा में एक बड़ा कदम था.

2020 में आपके सामने उत्तर प्रदेश और केंद्र में ऐसी सरकार है जो महिलाओं और दलितों को संवैधानिक स्वतंत्रता और अधिकार देने की दिशा में कुछ सांकेतिक कदम उठाने की भी जरूरत नहीं समझती है. यही नहीं, हमारे पास मनुवादी जाति व्यवस्था लागू कराने पर आमादा एक ऐसे यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी हैं जो जाति-विरोधी, बलात्कार-विरोधी आंदोलन करने वालों को दंडित करने के लिए राज्य मशीनरी का पूरी ताकत से इस्तेमाल कर रहे हैं.

विपक्षी नेता, दलित और महिला समूह एकजुटता दिखाने के लिए पीड़ित परिवार से मिल रहे हैं – जैसा उन्हें करना भी चाहिए. लेकिन वह मीडिया जिसने यूपीए सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी और बलात्कार विरोधी आंदोलनों में भाग लेने वाले विपक्षी दलों के लिए चीयरलीडर्स (उत्साह देने वालों) के तौर पर काम किया था, अब विपक्ष पर बलात्कार को लेकर ‘राजनीति करने’ का आरोप लगा रहा है.

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यह 2012 नहीं है

2012 में कांग्रेस ने अपनी तमाम खामियों के बावजूद बलात्कार से इनकार करने, पीड़ित को झूठा बताने या फिर सांप्रदायिक रूप देने की कोई कोशिश नहीं की थी. इसके उलट 2020 में सत्तारूढ़ भाजपा चिरपरिचित शैली में सांप्रदायिक रंग देकर उलटे आरोप लगा रही है. यह बलात्कार के ऐसे मामलों का उदाहरण ढूंढ़ती है जिसमें आरोपी मुस्लिम हैं और फिर सवाल उठाती है कि हम उन मामलों पर विरोध क्यों नहीं कर रहे. पूछा जाता है कि हम बलात्कार की उन घटनाओं का विरोध क्यों नहीं करते जो कांग्रेस शासित राज्यों में हुई हैं.

इन सवालों का जवाब साफ है: जिन मामलों को ये उछाल रहे हैं, उन सबके विरोध में सरकार ने कदम उठाए हैं. उनमें क्या समुदाय और जाति व्यवस्था पर आधारित पंचायतें बलात्कार के आरोपियों का बचाव कर रही हैं? नहीं, यह योगी शासित हाथरस की पहचान है. क्या वहां पुलिस और जिला प्रशासन ने कथित तौर पर पीड़िता का शव जलाने के लिए पेट्रोल का इस्तेमाल कर उसके प्रियजनों को सम्मानजनक तरीके से अंतिम संस्कार करने से रोका? नहीं, यह भी हाथरस की घटना का प्रतीक है. क्या उन मामलों में सरकार ने पत्रकारों और अन्य लोगों से बातचीत करने से रोकने के लिए पीड़ित परिवार और दलित बस्ती को घेरा? क्या वहां बलात्कार विरोधी प्रदर्शनों को रोका गया, लेकिन बलात्कार के आरोपियों के बचाव में ठाकुर जाति का दबदबा दर्शाने वाले प्रदर्शन को अनुमति और प्रोत्साहन दिया गया? नहीं, यह सब भी हाथरस और योगी शासन की ही निशानी है. क्या उन मामलों में सत्ताधारी पार्टी ने पीड़ितों को झूठा साबित करने और चार ठाकुर युवाओं पर बलात्कार के आरोप को गलत साबित करने के लिए करदाताओं की गाढ़ी कमाई से एक पीआर (प्रचारक) एजेंसी का इंतजाम किया? नहीं – यह भी योगी सरकार ने ही किया है. और इसलिए हाथरस घटना को लेकर देश भर में आक्रोश, ठाकुरों का वर्चस्व कायम करने के लिए, दलित युवती के खिलाफ हुए दुष्कर्म की घटना को राज्य सरकार द्वारा दबाने के लिए किए गए अपराधों के खिलाफ है.

नाराजगी यूपी में एक ऐसा मुख्यमंत्री होने के खिलाफ है जिसने नंगई से अपने मनुवादी मानसिकता का प्रदर्शन करते हुए महिलाओं और दलितों की पराधीनता और दमन संबंधी मनुस्मृति संहिता के समर्थन में लिखा.

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एक अलग तरह का कथानक

2012 में बलात्कार का विरोध करने वाली नारीवादी और जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं को आम तौर पर देशद्रोह और गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत आरोपों का सामना नहीं करना पड़ता था (हालांकि बस्तर, कश्मीर, उत्तर पूर्व में ऐसा पिछली सरकारों के राज में भी होता रहा है). लेकिन अब हम एक ऐसी व्यवस्था के मुकाबले खड़े हैं जो संगठित रूप से जाति वर्चस्व और मुस्लिम विरोधी आतंकवाद का बचाव करती है, जबकि नारीवादी, जाति-विरोधी और समान नागरिकता अधिकारों के लिए चल रहे जनांदोलनों को आतंकवाद बताकर उनके कार्यकर्ताओं पर यूएपीए जैसे दमनकारी धाराओं को लगाती है.

बलात्कार के मामले में ‘पीड़िता को दोष देने’ की बलात्कार की संस्कृति से हम वाकिफ हैं. पर ‘पीड़ितों को दोष देने’ को भाजपा सरकार ने राजनीतिक नीति ही बना डाला है. हमने भीमा कोरेगांव में देखा है कि असली दलित विरोधी ‘संघी दंगाइयों’ को कैसे बचाया गया और दंगा पीड़ित दलितों और संविधान के लिए बोलने वालों को यूएपीए लगाकर जेल में डाल दिया गया. हम इसे दिल्ली पुलिस की ‘दंगों की जांच’ में देख रहे हैं, जहां दंगा पीड़ित मुसलमानों, समान नागरिकता आंदोलन के कार्यकर्ताओं और पिंजरा तोड़ के नारीवादियों को यूएपीए के तहत जेल में डाला गया है, जबकि ‘गोली मारो’, उकसाने वालों और मुसलमानों के खिलाफ हिंसा करने वालों को बचाया जा रहा है.

और अब, असली दोषियों को बचाकर पीड़ित को ही दोषी बताने का यही षड्यंत्र हाथरस में भी रचा जा रहा है. हाथरस पुलिस ने बलात्कार और जातिवाद के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों पर जाति के नाम पर दंगे भड़काने और मुख्यमंत्री को बदनाम करने की ‘अंतरराष्ट्रीय साजिश’ का हिस्सा होने का आरोप लगाते हुए एफआईआर दर्ज की है. बलात्कारियों को बचाने के लिए इस झूठ को फैलाया जा रहा है कि बलात्कार तो हुआ ही नहीं, पीड़िता तो झूठी थी. पीड़िता और एक आरोपी आपस में शायद फोन पर बात करते थे, इस आधार पर फैलाया जा रहा है कि उनमें तो प्यार था और लड़की की हत्या खुद उसकी मां और उसके भाई ने किया. ये तर्क, बलात्कार की संस्कृति के पुराने, घिसे पिटे तर्क हैं. फोन पर बात होना, प्यार होने का सबूत नहीं है (फोन पर आरोपी की तरफ से रिश्ता रखने के लिए दबाव, धमकी, वगैरह भी तो दी जा सकती है).

संवाद या रिश्ता होने से ये तो नहीं साबित होता कि बलात्कार नहीं हुआ. दुनिया भर में महिलाओं को बलात्कार और हत्या का सबसे ज्यादा खतरा उनके अपने परिचितों से होता है, ये हम सब जानते हैं. हाथरस की पीडिता ने जीभ में चोट के बावजूद बार-बार साहस कर पुलिस और मजिस्ट्रेट को वीडियो पर बयान दिया कि उसके साथ जबरदस्ती हुई है और उसने बलात्कारियों का नाम भी दर्ज किया.

आज पूरी यूपी सरकार, पुलिस, राज तंत्रा और मुख्यमंत्री, विज्ञापन वाली कंपनी को खरीद कर, उस पीड़िता के सच को झूठ बताने पर तुले हैं. उसके अपने परिवार वालों पर ‘हत्या’ का दोष मढ़ने पर आमादा हैं. इस स्थिति में न्याय की लड़ाई 2012 की तुलना में कहीं ज्यादा कठिन है.

यह आंदोलन किसी बदले की नहीं बल्कि न्याय और बदलाव की मांग करता है. और यह स्पष्ट है कि यूपी में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन योगी आदित्यनाथ राज्य नीति के तौर पर पूरी सक्रियता से अन्याय और प्रतिगामी मनुवाद को बढ़ावा दे रहे हैं और पीड़ित को ही दोषी स्थापित कराने पर तुले हैं. यही कारण है कि उन्हें बर्खास्त किया जाना न्याय और परिवर्तन की संभावना सुनिश्चित करने की पहली शर्त है.

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