वर्ष - 29
अंक - 40
26-09-2020

पिछले तीन वर्षों से कर्ज मुक्ति और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार कुल लागत का डेढ़ गुना दाम की मांग पर चल रहे देश के किसान आन्दोलन में अब एक जबरदस्त उबाल आ गया है. मोदी सरकार द्वारा लाए गए कृषि सम्बन्धी तीन अध्यादेशों को कानून बनाने के खिलाफ देश का किसान सड़कों पर है. पिछले साढ़े छः वर्षों के शासन काल में पहली बार किसी आन्दोलन के दबाव में मोदी सरकार के कैबनेट मंत्री को इस्तीफा देकर सरकार के कदम का विरोध करने पर मजबूर होना पड़ा है. अब नरेंद्र मोदी सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य और मंडी सिस्टम जारी रहेगा, किसानों को बड़ा बाजार मिलेगा कहकर किसानों को भ्रमित करने की कोशिश कर रही है. पर किसान इन बिलों को देश की खेती-किसानी और खाद्य सुरक्षा को कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का गुलाम बनाने वाला बताते हुए आन्दोलन से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. संकट को अवसर में बदलने के नाम पर कोरोना काल में मोदी सरकार ने जनता के ऊपर एक के बाद एक बड़े हमले किए हैं. पर किसानों पर किया गया यह हमला मोदी सरकार को इतना भारी पड़ेगा, उसने ऐसी कल्पना तक नहीं की थी. खेती और किसान के रिश्ते शरीर और सांसों के रिश्ते होते हैं. संसद में भारी बहुमत के नशे में चूर मोदी सरकार यह भूल गई थी कि जो किसान एक फीट जमीन के लिए कुछ भी करने पर आमादा हो जाता है, वह देश की खेती-किसानी को कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय निगमों का गुलाम कैसे बनने देगा? नतीजा सामने है. न सिर्फ 250 किसान संगठनों का अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति, बल्कि भाकियू (टिकैत), भूपेन्द्र मान व राजोवाल के मोर्चों से जुड़े किसान संगठन सहित खुद भाजपा का किसान संगठन भी इन बिलों के खिलाफ खड़ा है.

आखिर इन बिलों में ऐसा क्या है कि किसान इन्हें स्वीकारने को तैयार नहीं? इनमें पहला है ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020’, जिसके तहत केंद्र सरकार एक देश, एक कृषि मार्केट बनाने की बात कह रही है. मोदी सरकार ‘एग्रीकल्चर मार्किटिंग एक्ट’ में बदलाव करेगी. इसका मतलब क्या है? इस बदलाव के तहत किसानों की फसलों को जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार की एजेंसियों को मंडियों में लेना पड़ता था, वह व्यवस्था खत्म की जाएगी. अब व्यापारी व बिचौलिए मंडी के बाहर किसानों की फसल को टैक्स चुकाए बिना अपने भाव पर खरीदने के लिए स्वतंत्र होंगे. इससे मंडी समितियां घाटे में चली जाएंगी और मोदी सरकार इन मंडियों की संपत्ति की नीलामी कर सकेगी. अनाज के भंडारण की जो व्यवस्था पहले भारतीय खाद्य निगम करता था, उसकी जगह अब प्राइवेट कंपनियों को यह अधिकार सौंपा जा रहा है. इससे भारतीय खाद्य निगम जैसी इतनी बड़ी संस्था खत्म हो जाएगी और उसकी परिसंपत्तियों को भी मोदी सरकार नीलाम कर देगी. यह हमारे खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को संचालित करने वाले ‘सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ (पीडीएस) को भी खत्म कर देगा. इस तरह से फसलों की खरीद, भंडारण और विपणन पर पूरी तरह कारपोरेट का कब्जा हो जाएगा.

दूसरा बिल है ‘मूल्य आश्वासन एवं कषि सेवा सम्बंधी किसान समझौता (सशक्तिकरण और सुरक्षा) अध्यादेश, 2020’. मोदी सरकार के अनुसार यह कृषि क्षेत्र के लिए एक ‘जोखिम रहित कानूनी ढांचा’ है ताकि किसान को फसल बोते समय उससे प्राप्त होने वाले मूल्य की जानकारी मिल जाए और किसानों की फसलों की गुणवत्ता सुधरे. यह जोखिम रहित कानूनी ढांचा और कुछ नहीं देश में खेती के कारपोरेटीकरण की जमीन तैयार करने के लिए पूरे देश में कांट्रैक्ट (अनुबंध) खेती को थोपना है. कांट्रेक्ट (अनुबंध) खेती सबसे पहले तो भारत जैसे विशाल आबादी के देश की खाद्य सुरक्षा और खाद्य संप्रभुता पर सीधा हमला है. खेती में उत्पादन का अधिकार अनुबंध के जरिये जब कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ चला जाएगा. तब ये कम्पनियां अपने अति मुनाफे को ध्यान में रख कर ही उत्पादन कराएंगी न कि जनता की खाद्य जरूरतों को ध्यान में रखकर. ऐसे में खाद्यान का उत्पादन जब तक उनके अति मुनाफे का सौदा नहीं बन जाएगा वे उसे नहीं उगाएंगे. इसके लिए उत्पादन, भंडारण और पूरे बाजार पर से सरकारी हस्तक्षेप को खत्म करना और उपभोक्ता उत्पादों की तरह खाद्यान को भी अति मुनाफे के उत्पाद में बदल देना आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व कारपोरेट कम्पनियों की सबसे बड़ी जरूरत है. इसी जरूरत की पूर्ति के लिए मोदी सरकार इन तीन अध्यादेशों को लाकर इन्हें कानून का दर्जा देना चाहती है

कांट्रेक्ट खेती से किसान के सीधे नुकसान को अगर समझना है तो 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान चर्चा में आए कांट्रेक्ट (अनुबंध) खेती के एक बड़े विवाद को समझना होगा. अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने गुजरात के साबरकांठा जिले में कुछ आलू किसानों के साथ चिप्स के लिए आलू की खेती करने का अनुबंध किया है. कंपनी ने 9 किसानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर 4.2 करोड़ रुपए का हर्जाना मांगा था. किसानों के विरुद्ध पेटेंट कानून का उल्लंघन करने के आरोप में मुकदमा दायर किया गया था. कंपनी ने किसानों पर एफसी-5 किस्म के उस आलू की खेती करने का आरोप लगाया था, जिसका पेटेंट पेप्सिको के पास हैपेप्सिको का कहना था कि आलू की इस किस्म के बीजों की आपूर्ति करने का अधिकार केवल उसी के पास है और इन बीजों का प्रयोग भी कंपनी के साथ जुड़े हुए किसान ही कर सकते है. अन्य कोई भी व्यक्ति आलू की खेती के लिये इन बीजों का प्रयोग नहीं कर सकता. पेप्सिको के खिलाफ किसान संगठनों ने आवाज उठाई, जिसके बाद कुछ शर्तें तय करते हुए कंपनी ने मुकदमा वापस ले लिया. लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने बीज संप्रभुता और अनुबंध खेती पर कई प्रश्नचिह्न लगा दिये हैं. पेप्सिको का कहना था कि किसान अगर उसका पेटेंट आलू उगाना बंद कर देंगे तो वह मुकदमा वापस ले लेगी. पेप्सिको ने इन किसानों से मानकों को पूरा न करने वाले मौजूदा आलू के स्टाॅक को नष्ट करने के लिये कहा था. किसानों ने इसे नष्ट करने के बजाए बीज के लिए अन्य किसानों को और बाजार में बेच दिया था. पेप्सिको ने कहा कि किसान उसके साथ अनुबंध कर सिर्फ कम्पनी से ही बीज ले सकते हैं और होने वाली फसल वापस उसे ही बेच सकते हैं बाहर नहीं.

पेप्सिको ने एफसी-5 नाम के आलू की किस्म प्लांट वैरायटी प्रोटेक्शन अधिकार नियम के तहत रजिस्टर्ड करा रखी है. यह रजिस्ट्रेशन वर्ष 2031 तक वैध है और तब तक बिना अनुबंध किये किसान इस आलू की फसल नहीं उगा सकते. इस तरह कम्पनी से अनुबंध किए किसान और उनकी खेती पूरी तरह से कम्पनी की गुलामी की जंजीरों में बांध दिए गए हैं. अनुबंध खेती कृषि के क्षेत्र में बड़ी पूंजी के दखल को बढ़ा रही है. इससे कृषि उत्पाद के कारोबार में लगी कई कारपोरेट कंपनियों को कृषि प्रणाली को अपने हित के लिए सुविधाजनक बनाने में आसानी रहती है और उन्हें अपनी पसंद का कच्चा माल तय समय और कम कीमत पर मिल जाता है. अनुबंध कृषि के तहत किसानों को बीज, उर्वरक, मशीनरी और तकनीकी सलाह के लिए कंपनी पर ही निर्भर बना दिया जाता है, ताकि उनकी उपज कंपनियों की आवश्यकताओं के अनुरूप हो सके. अति मुनाफे के लिए कंपनियों के द्वारा खेती में प्रयोग कराए जा रहे अत्यधिक जीएम बीज, कीटनाशक व रासायनिक खाद खेती की मृदा और उर्वरता को भारी नुकसान पहुंचा देते हैं. इससे जमीन के मरुस्थल में बदलने का ख़तरा बना रहता है. तीसरा अध्यादेश है ‘आवश्यक वस्तु ;संशोधनद्ध अधिनियम, 2020’, जिसको आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन कर के लाया गया है. अब यह अधिनियम सिर्फ आपदा या संकट काल में ही लागू किया जाएगा. बाकी दिनों में जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के भंडारण की कोई सीमा नहीं रहेगीताकि बड़े कारपोरेट, बहुराष्ट्रीय कंपनिया, जमाखोर और व्यापारी आवश्यक वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा कर उनकी कालाबाजारी के जरिए जनता को लूटने की खुली कानूनी छूट पा सकें.

देश के किसान समझते हैं कि आज कोरोना संकट के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह चरमरायी हुई हैं. उद्योग, सेवा क्षेत्र, पर्यटन, आटोमोबाइल, निर्माण, व्यापार, ट्रांसपोर्ट  जैसे जीडीपी को गति देने वाले प्रमुख क्षेत्र पूरी दुनिया में बुरी तरह हांफ रहे हैं. भारत में कोराना काल से पूर्व ही मोदी सरकार की क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों के कारण जीडीपी गोते खाने लगी थी. ऐसे में देश में सरकारी सार्वजनिक संस्थानों का ‘सब कुछ बिकाऊ है’ का नारा देने के बाद भी मोदी सरकार को कोई खरीदार नहीं मिल रहा है. देश की अर्थव्यवस्था की इस निराशाजनक गति को देख कर कोरोना काल में ही भारत के कारपोरेट घराने भारत में कोई निवेश करने के बजाय अमेरिका में डेढ़ लाख करोड़ रुपए का निवेश कर आए. बेरोजगारी बढ़ रही है. आम लोगों की क्रय शक्ति लगातार घट रही है. इससे दुनिया भर में उपभोक्ता उत्पादों की मांग में भारी कमी आ गई है. सिर्फ एक क्षेत्र है खाद्य वस्तुएं, जिनकी मांग मनुष्य के जीवित रहने के लिए हर स्थिति में बनी रहेगी. इसलिए दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और देशी कारपोरेट कंपनियों की नजर अब खेती की जमीन और खाद्य पदार्थों के व्यवसाय पर गड़ी है. विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के इस दौर में भी कृषि क्षेत्र दुनिया में एक बड़ा व्यवसाय बनता जा रहा है. देश और विदेश में प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की बहुत मांग है. कृषि उपज, माल वाहन तथा खाद्य पदार्थों की डिब्बाबंदी, जबरदस्त मुनाफे बनाने वाले निवेश के रूप में तेजी से उभर रहे हैं.

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भारत के कृषि व्यवसाय में नेसले, कैडबरी, हिन्दुस्तान लीवर, गोदरेज फूड्स एण्ड बेवरेजेस, डाबर, आईटीसी, ब्रिटेनिया जैसी बड़ी कंपनियां पहले ही पैर जमाई हुई हैं. अब करगिल, रिलायंस, पतंजलि जैसी कई बहुराष्ट्रीय व कारपोरेट कंपनियां इस क्षेत्र में उतर चुकी हैं. हिमांचल में वाॅलमार्ट, बिग बास्केट, अदानी, रिलायंस प्रफेश और सफल जैसी बड़ी कंपनियों के अलावा अन्य कंपनियां भी बागवानों से सीधे सेव खरीद रही हैं. ये कंपनियां सेव के रंग, आकार और गुणवत्ता के हिसाब से छांट कर ही बागवानों से क्रेटों में सेव खरीदती हैं. प्रदेश के ऊंचाई वाले क्षेत्रों के सेव को बड़ी कंपनियां खरीद लेती हैं क्योंकि अधिक ऊंचाई के सेव की भंडारण अवधि अधिक है. मगर फिर छंटे सेवों की बागवानों को सही कीमत नहीं मिलती है. इसी तरह ज्यादातर कम्पनियों के ही नियंत्रण में चलने वाले भारत में कृषि आधारित उद्योगों की भी तीन श्रेणियां हैं - (1) फल एवं सब्जी प्रसंस्करण इकाइयों, डेयरी संयंत्रों, चावल मिलों, दाल मिलों आदि को शामिल करने वाली कृषि-प्रसंस्करण इकाइयां; (2) चीनी, डेयरी, बेकरी, कपड़ा, जूट इकाइयों आदि को शामिल करने वाली कृषि निर्माण इकाइयां; (3) कृषि, कृषि औजार, बीज उद्योग, सिंचाई उपकरण, उर्वरक, कीटनाशक आदि के मशीनीकरण को शामिल करने वाली कृषि-इनपुट निर्माण इकाईयां. इसके एक बड़े हिस्से पर अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का एकाधिकार बढ़ता जा रहा है.

भारत का खाद्य प्रसंस्करण उद्योग देश के कुल खाद्य बाजार का 32% है. यह भारत के कुल निर्यात में 13% और कुल औद्योगिक निवेश में 6% हिस्सा रखता है. भारत के खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में फल और सब्जियां, मसाले, मांस और पोल्ट्री, दूध और दुग्ध उत्पाद, मादक और गैर मादक पेय पदार्थ, मत्स्य पालन, अनाज प्रसंस्करण और मिष्ठान्न भंडार, चाॅकलेट तथा कोकोआ उत्पाद, सोया आधारित उत्पाद, मिनरल वाटर और उच्च प्रोटीन युक्त आहार जैसे अन्य उपभोक्ता उत्पाद समूह शामिल हैं. पिछले वर्ष तक भारत का खाद्य बाजार लगभग 10.1 लाख करोड़ रुपये का था. जिसमें खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का हिस्सा 53% अर्थात 5.3 लाख करोड़ रुपये का है. अब भारत के गांवों के हाट-बाजारों पर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़ी कारपोरेट कम्पनियों की नजर है. बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और बड़ी कारपोरेट कम्पनियां ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में जगह-जगह अपना माॅल खोल रही हैं. वे अपने विभिन्न उत्पाद-ब्रांडों को दूरदराज के गांवों व चौके-चूल्हे तक पहुंचाने का सपना देख रही हैं. ई-चौपालों, चौपाल सागरों, एग्रीमार्टाे, किसान हरियाली बाजारों आदि का बस एक ही लक्ष्य है - फसलों की पैदावार/कृषि जिंसों के कारोबार पर कारपोरेट का शिंकजा और कृषि उपज मंडियों का कारपोरेटीकरण. कुल मिलाकर उनका लक्ष्य भारत की खेती और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर हमला कर खेती-किसानी की कारपोरेट गुलामी का रास्ता खोलना है.

मोदी सरकार भारतीय कृषि को अमेरिकी कृषि के रास्ते पर ले जाना चाहती है. अमेरिका की कुल कृषि उपज का 60 % हिस्सा मात्र 35 हजार बड़े कृषि फार्म पैदा करते हैं. जबकि भारत की 80% खेती छोटे किसानों पर निर्भर है. भारत का 70% दुग्ध उत्पादन भी भूमिहीन, खेत मजदूर, गरीब व मध्यम किसान किसान करता है. इसलिए भारत जैसे कृषि प्रधान और विशाल आबादी के देश की खेती और खाद्य बाजार पर अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और बड़े कारपोरेट घराने अपना एकाधिकार जमाना चाहते हैं. जून 2018 में के हिम्मत चांगवाल, वरिष्ठ पत्राकार हिम्मत सेठ, लेखक और प्रोफेसर हेमेंद्र चंडालिया, अंबेडकर मेमोरियल वेलफेयर सोसाइटी के एडवोकेट पीआर सालवी और भीम सेना के दिनेश रायकवाल ने सभा को संबोधित किया. प्रदर्शकारियों ने तीनों कृषि संबंधित बिलो की प्रतियां जला कर विरोध दर्ज किया और इन्हें वापस लेने की मांग की. प्रदर्शन के बाद प्रतिनिधिमंडल ने जिला कलेक्टर से मिलकर किसानों की मांगों पर राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन दिया. उत्तर प्रदेश के रायबरेली में अखिल भारतीय किसान महासभा के कार्यकर्ताओं ने धरना-प्रदर्शन किया. डलमऊ तहसील, सतांव, हरचंदपुर, खीरो व डीह ब्लाक पर प्रदर्शन करने के साथ ही रायबरेली जिला मुख्यालय पर जोरदार विरोध जुलूस निकाला गया. किसान महासभा के कार्यकर्ताओं ने बरगद चौराहे से डिग्री कालेज चौराहे होते हुए जिलाधिकारी कार्यालय तक विरोध मार्च निकाला. जिला मुख्यालय पर हुए प्रदर्शन व सभा को किसान महासभा के जिला अध्यक्ष फूलचंद मौर्य व भाकपा(माले) नेता विजय विद्रोही ने संबोधित किया. प्रदर्शन में अंसार अहमद, ब्रजेश चौधरी, टीपू सुल्तान, मोहन विश्वकर्मा, सुरेशचंद्र शर्मा, राहुल मौर्य, अमरनाथ मौर्य, जय सिंह, रामधनी पासी, अहमद सिद्दीकी आदि शामिल थे. डलमऊ मे ब्रजभान सिंह, रविशंकर सविता व महारथी चौहान, हरचंदपुर में अशोक सिंह व हरीशचंद, डीह में मोदैनिक जागरण में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी करगिल ने भारत से गेहूं, मक्का, तेल जैसे जिंसों के 10 लाख टन की खरीददारी की. करगिल वर्ष 2018 में ही कर्नाटक के दावणगेरे में डेढ़ करोड़ डालर खर्च कर मक्का की फसल के भंडारण के लिए अन्नागार स्थापित कर रही थी. भारत के पशु आहार व मत्स्य आहार क्षेत्र में भी करगिल का दखल लगातार बढ़ रहा है.

दुनिया के स्तर पर देखें तो चोटी की 10 वैश्विक बीज कंपनियां दुनियां के एक-तिहाई से ज्यादा बीज कारोबार पर काबिज है. वे इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष 30 अरब डालर का धंधा कर रही है. भारत के 75% बीज बाजार पर भी मोंसेंटो और करगिल जैसी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो चुका है. चोटी की 10 कीटनाशक रसायन निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया के 90% कीटनाशक रसायन कारोबार पर काबिज हैं. वे इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष 35 अरब डालर का कारोबार कर रही हैं. चोटी की 10 बहुराष्ट्रीय कंपनियां खाद्य पदार्थों की कुल बिक्री के 52% पर कब्जा जमाये हुए हैं. चोटी के 10 फर्में दुनियां के संगठित पशुपालन उद्योग और तत्सम्बन्धी समस्त कारोबार के 65% पर काबिज हैं. वे इस क्षेत्र में 25 अरब डालर का धंधा कर रही हैं. भारत जैसे कृषि प्रधान और बड़ी आबादी वाले देश की खेती, अन्न भंडारण और अन्न बाजार को अपने नियंत्रण में लेने के लिए इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेट कंपनियों में होड़ मची है. यही वह क्षेत्र है जहां इस वैश्विक संकट के दौर में अभी भी मांग है और पूंजी निवेश की संभावनाएं बची हुई हैं. इसलिए हर तरफ से निराश मोदी सरकार किसी भी हाल में यहां कारपोरेट व बहुराष्ट्रीय कंपनियों की राह आसान करना चाहती है. पर देश का किसान ऐसा हरगिज नहीं होने देगा. किसानों का यह संघर्ष मोदी सरकार के अंत की इबारत लिखेगा.

– पुरुषोत्तम शर्मा  

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