वर्ष - 29
अंक - 25
13-06-2020

उत्तराखंड सरकार ने वर्ष 2020-21 में नियुक्तियों पर रोक लगाने का आदेश जारी किया है. नियुक्तियों पर रोक लगाने के पीछे वही घिसा-पिटा तर्क है कि सरकार का खर्च कम करना है. लेकिन उत्तराखंड सरकार के ‘मितव्ययता’ के फटे ढोल की पोल मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह के 10 जून के पत्रा से ही खुल जाती है. पत्र के बिन्दु संख्या 2 में मुख्य सचिव महोदय नए पदों को सृजित न किए जाने और नियत वेतन, दैनिक वेतन, संविदा आदि के आधार पर कर्मचारी नियुक्ति पर पूर्ण प्रतिबंध की बात कहते हैं. लेकिन इसी पत्र के बिन्दु संख्या 5 में मुख्य सचिव लिखते हैं कि विभिन्न विभागों में सलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य आदि अस्थायी प्रकृति के पदों पर की जाने वाली नियुक्तियों के लिए सहयोगी स्टाफ का कोई पद सृजित न किया जाये. मतलब साफ है कि राजनीतिक पहुंच-पहचान वालों और सत्ता के चहेतों को विभिन्न विभागों में सलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य आदि बनाने पर कोई रोक नहीं होगी. जिनको सिपर्फ सत्ता से करीबी की वजह से सरकारी महकमों में सलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य आदि नियुक्त किया जाता है, उनमें से हर एक के वेतन, भत्ते, गाड़ी आदि पर प्रति माह लाखों रुपया खर्च होता है. इस अनावश्यक खर्च के जारी रहने की मंशा मुख्य सचिव के ‘व्यय प्रबंधन एवं प्रशासनिक व्यय में मितव्ययता हेतु वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए दिशानिर्देश’ शीर्षक वाले पत्र में स्पष्ट होती है. उत्तराखंड सरकार का इरादा समझिए. इरादा मितव्ययता कतई नहीं है. मितव्ययता यदि इरादा होता तो हालात सुधरने तक सलाहकार, अध्यक्ष, सदस्य जैसे सजावटी और राजनीतिक तुष्टि के लिए दिये जाने वाले पदों पर नियुक्ति रोकने के आदेश किए जाते. ऐसे सजावटी पदों पर नियुक्त होने वालों को भाजपा नाम देती है -- दायित्वधारी. इन तथाकथित दायित्वधारियों का यही दायित्व होता है कि वे सरकारी धन और सुविधाओं का उपभोग पूरी मुस्तैदी से करेंमितव्ययता संबंधी मुख्य सचिव के पत्र से यह ध्वनित होता है कि सरकारी विभागों का काम, बिना कर्मचारियों के तो चल सकता है, लेकिन सरकारी सुविधाओं के उपभोग के दायित्व के प्रति मुस्तैद दायित्वधारियों के बिना सरकार एक कदम भी नहीं चल सकेगी! इसलिए कर्मचारियों को वेतन देना फिजूलखर्ची है और दायित्वधारियों को सरकारी धन और सुविधाओं का उपभोग ‘आवश्यक शासकीय दायित्व’! मितव्ययता और आवश्यक खर्च की क्या अद्भुत समझदारी है, मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत और उनके मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह की !

और देखिये, मितव्ययता की बात कौन कर रहा है? वही सरकार – जो 2010 से उत्तराखंड हाई कोर्ट, नैनीताल में पूर्व मुख्य मंत्रियों को दिये गए निशुल्क आवासों का किराया न वसूले जाने का मुकदमा लड़ रही थी! बीते साल, जब उच्च न्यायालय ने निशुल्क आवास का उपभोग करने वाले पूर्व मुख्य मंत्रियों से बाजार भाव से किराया वसूल करने का फैसला सुनाया तो उच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए उत्तराखंड सरकार बाकायदा एक कानून ले कर आ गई. उस कानून को उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया. इस मामले से साफ है कि सरकार जिन्हें अपना समझती है, उनकी सुख-सुविधाओं के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है. लेकिन जो मतदाता सरकार बनाते हैं, वे सरकार के लिए बेगाने हैं और उन्हें रोजगार देना, सरकार को फिजूलखर्ची प्रतीत होता है!

रोजगार देने पर रोक लगाने का आदेश उन मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह के हस्ताक्षर से निकला है, जिनके बारे में कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों में चर्चा थी कि उनके ‘पोस्ट रिटायरमेंट सैट्लमेंट’ – यानि सेवानिवृत्ति के बाद भी वेतन-भत्ते, गाड़ी-बंगले के सरकारी खर्च का बंदोबस्त हो चुका है. उत्तराखंड में संभवतः दो-एक अपवादों को छोड़ कर कोई मुख्य सचिव रिटायर्ड हो कर घर नहीं गया, बल्कि सेवानिवृत्ति के महीनों पहले पोस्ट-रिटायरमेंट नियुक्ति का इंतजाम किए जाने का चलन है. विद्रूप देखिये, जिन अफसरों को प्रदेश के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव जैसे भारी-भरकम पदों से रिटायरमेंट के तत्काल बाद सरकारी पद का इंतजाम चाहिए, वे संविदा, नियत वेतन, दैनिक वेतन पर बेरोजगारों की नियुक्ति को सरकारी धन की बर्बादी समझते हैं और मितव्ययता के जुमले तले बेरोजगारों के रोजगार पाने के सपने को कुचल डालना चाहते हैं.

10 जून 2020 को जो पत्र मुख्य सचिव ने जारी किया है, उसमें लिखा है कि दैनिक वेतन, संविदा, नियत वेतन के आधार पर कर्मचारी नियुक्त करने पर प्रतिबंध है और यदि कर्मचारियों की आवश्यकता हो तो बाह्य एजेंसी, सेवा प्रदाता से काम लिया जाए. यानि काम तो सरकार करवाना चाहती है, लेकिन कार्मिकों की किसी तरह की जिम्मेदारी सरकार नहीं लेना चाहती. इस तरह बाहरी एजेंसी के जरिये कार्मिक रखने में किसी तरह के नियम-कायदे का पालन नहीं करना होता. इसलिए यह मनमानी और भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली व्यवस्था है, जिसको मितव्ययता के नाम पर प्रदेश के बेरोजगारों पर थोपने का इंतजाम कर दिया गया है. सरकारी नियुक्ति में सामाजिक रूप से वंचित तबकों को संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त है. लेकिन आउटसोर्सिंग नियुक्तियों में इस तरह की कोई सुरक्षा उन्हें नहीं मिलेगी और वंचित व कमजोर तबकों के रोजगार के लिए योग्य और इच्छुक युवाओं पर ऐसी मनमानी व्यवस्था की सर्वाधिक मार पड़ेगी.

त्रिवेंद्र रावत सरकार ने जब इस वर्ष को बेरोजगारी वर्ष बना दिया है, तो 2019 के उनके रोजगार वर्ष की भी चर्चा कर ली जाए. गौरतलब है कि 2019 को उत्तराखंड सरकार ने ‘रोजगार वर्ष’ घोषित किया था. रोजगार वर्ष के दौरान 18 सितंबर 2019 को संयुक्त सचिव (कार्मिक) ने सभी विभागों के अपर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिवों, प्रभारी सचिवों को पत्र भेज कर कहा कि उत्तराखंड में पीसीएस से लेकर जेई तक के पदों के लिए जो अधियाचन लोक सेवा आयोग को भेजे जाने हैं, उन पदों पर नए रोस्टर के अनुसार रिक्तियों का ब्यौरा कार्मिक विभाग को भेजा जाए, ताकि लोक सेवा आयोग को भेज कर इन पदों पर भर्ती प्रक्रिया शुरू हो सकेकाम इसमें कुल जमा इतना था कि पूर्व के ब्योरे में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग वाला 10 प्रतिशत आरक्षण लगा कर भेज देना था. लेकिन यह काम न हुआ, तो दो महीने बाद 7 नवंबर 2019 को पुनः अपर सचिव कार्मिक ने सभी विभागों के आला अफसरों को पत्र भेज कर पुरानी चिट्ठी की याद दिलाते हुए लिखा कि अधिकांश विभागों ने अधियाचन नहीं भेजे. रोजगार वर्ष की हकीकत यह भी है कि 2019 में बरसों के बाद फाॅरेस्ट गार्ड की भर्ती परीक्षा हुई और वह परीक्षा पेपर आउट होने के लिए सुर्खियों में रही. 2017 के बाद उत्तराखंड में कोई पीसीएस की परीक्षा आयोजित नहीं हुई, जबकि सरकारी विभागों में लगभग 56 हजार पद रिक्त हैं.

उत्तराखंड में बेरोजगारी चरम पर है. उत्तराखंड सरकार द्वारा तैयार कारवाई गई मानव संसाधन विकास रिपोर्ट कहती है कि राज्य में माध्यमिक स्तर से ऊपर के पढे-लिखे युवाओं में बेरोजगारी की दर 2004-05 में 9.8 प्रतिशत थी जो 2017 में बढ़ कर 17.4 प्रतिशत हो गई. लेकिन अब सरकारी रोजगार पर मितव्ययता का ताला लगा दिया गया है.

हमारी मितव्ययी सरकार रोजगार वर्ष में रोजगार दे पाई हो, न दे पायी हो; लेकिन बेरोजगारी वर्ष में बेरोजगारी तो दे ही सकती है.

– इन्द्रेश मैखुरी