वर्ष - 28
अंक - 39
14-09-2019

कश्मीर के मौजूदा हालात पर चर्चा करने के लिये बंगलौर के जय भीम भवन में 8 सितम्बर 2019 को एक-दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया गया. भाकपा(माले) और  महिला संगठन ऐपवा की नेता कविता कृष्णन ने, जिन्होंने 9 से 13 अगस्त 2019 को कश्मीर का दौरा किया था, कहा कि अभी वहां एक बड़े “जेलखाने” जैसी स्थिति है, हालांकि सरकार और मीडिया चैनल वहां सामान्य स्थिति होने का दावा कर रहे हैं. उन्होंने जिन कश्मीरियों से बात की वे अपने गुस्से का इजहार करते हुए कह रहे थे कि “धारा 370 शादी के करार जैसी चीज थी. अब भारत ने वह सम्बंध तोड़ दिया है, वे अब हमें सैनिक बल के जरिये ही अपने कब्जे में रख सकते हैं”. उन्होंने एक महीने से ज्यादा अरसे से चल रही नाकाबंदी को जनता के खिलाफ जंग और मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया. उन्होंने कश्मीरी महिलाओं को माल समझने की चर्चाओं की भी भर्त्सना की.

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जस्टिस (अवकाशप्राप्त) वी. गोपाला गौडा ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि धारा 370 संविधान का स्थायी चरित्र का प्रावधान है, जिसे एकतरफा ढंग से नहीं खारिज किया जा सकता. चूंकि धारा 370 में बदलाव से पहले संविधान सभा की आवश्यक सहमति नहीं प्राप्त की गई इसलिये यहां धारा 370 का उल्लंघन हुआ है. यह इंस्ट्रूमेंट आॅफ एक्सेशन (विलय का समझौता पत्र) की शर्तों का उल्लंघन है, जिसमें उन शर्तो का विवरण था जिनके आधार पर कश्मीर भारत का अंग बनने के लिये राजी हुआ था. उन्होंने पूछा कि अगर सरकार कश्मीरी महिलाओं के सशक्तीकरण के लिये इतनी चिंतित है तो वह संसद और न्यायपालिका में महिलाओं के लिये 50 प्रतिशत आरक्षण का कानून क्यों नहीं बनाती? उन्होंने कहा कि संघवाद को भारत के संविधान के बुनियादी ढांचे का अंग माना गया है, और महज राष्ट्रपति के एक आदेश के जरिये उस राज्य का पुनर्गठन कर देना इस उसूल का उल्लंघन है. जस्टिस गौडा ने कहा कि कश्मीर में अनुसूचित जाति/जनजाति के लिये कहीं ज्यादा प्रगतिशील नीतियां पहले से लागू हैं.

दलित संघर्ष समिति (भीमवाड़ा) के प्रतिनिधि मोहनराज ने कहा कि धारा 370 को रद्द किया जाना केवल कश्मीरियों के लिये ही समस्या नहीं है, क्योंकि यह इस बात का इशारा है कि सरकार के मन में संविधान के प्रति कोई सम्मान नहीं है. उन्होंने चेतावनी दी कि आज हमें इस बात का डर है कि यह सरकार क्या नहीं कर सकती है, क्योंकि हम नहीं जानते कि राष्ट्र आज जिस तरह है वह कल भी वैसा ही रहेगा, क्योंकि यह सरकार एक ही तरह का राष्ट्र चाहती है – एक धर्म और एक राष्ट्र – एक चुनाव.

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एडवोकेट मालविका प्रसाद ने कहा कि सम्पूर्ण नाकाबंदी और संचार बंदी के बीच धारा 370 में दर्जे का बदलाव असंवैधानिक आचरण का सबसे आश्चर्यजनक मामला है. उन्होंने कहा कि कानून केवल न्याय से सम्बंधित नहीं है, वह सत्ता से भी सम्बंधित है. संघवाद केन्द्र (संघ) और विभिन्न राज्यों के बीच निवास करने वाली जनता के बीच किया गया एक समझौता है. सरकार का यह कदम स्थितियों के बदलाव को सहमति देने के जनता के अधिकार की उपेक्षा है.

पेशेवर कलाकार और स्वतंत्र विचारों वाले विद्वान तनवीर अजसी ने कहा कि सरकार ने और न्यायपालिका ने भारत में अमल में लाये जा रहे ‘संविधान’ और ‘लोकतंत्र’ का इस्तेमाल कश्मीरियों के खिलाफ एक हथियार के बतौर किया है. उन्होंने उपस्थित लोगों से कहा कि क्या वे उन स्थितियों में रहने की कल्पना कर सकते हैं?

अध्यक्षीय टिप्पणी में अखिल भारतीय जनवाद मानिल संगठना ने कहा कि देश में मानवीय मूल्यों का क्षरण किया जा रहा है. आज भारत में जो कुछ हो रहा है वह लोकतंत्रा का मखौल है. सेमिनार का आयोजन ऐडवा, एआईपीएफ, ऐपवा, बयालु बलागा, भाकपा(माले)-लिबरेशन, सीएसएमआर, डीएसएस (बी), दलित समर सेने, ईएसजी, जीडब्लूसी, जीएटीडब्लूयू, जीएलयू, केजेएस, केओओजीयू, केआरआरएस, मारा, एनएपीएम, पीयूसीएल-के, राही, साधना महिला संघ, एसडीएस, एसआईईडीएस, स्लम जनांदोलन, स्लम जनरा संगठने, एसयूके, स्वराज इंडिया, और विमोचना ने मिलकर किया था.

 

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सर्वोच्च न्यायालय का रवैया चिंताजनक – कविता

(का. कविता कृष्णन ने कश्मीर की जारी तालाबंदी पर 6 सितंबर को कोलकाता प्रेस क्लब में एक संवाददाता सम्मेलन को भी संबोधित किया. इस प्रेस सम्मेलन में  से 13 अगस्त 2019 को कश्मीर का दौरा करनेवाली जांच टीम की रिपोर्ट को शामिल करते हुए एक पुस्तिका जारी की गई और जांच टीम द्वारा तैयार की गई  ‘कश्मीर केज्ड’ नामक एक विडियो रिपोर्ट भी प्रदर्शित की गई.)

कविता कृष्णन ने कहा कि कश्मीर में सैनिक-तानाशाही के लिए मोदी सरकार को ही जवाबदेह बनाया जाना चाहिए. अब कश्मीर में कोई निर्वाचित प्रतिनिधित्व नहीं है, कोई स्वतंत्र प्रेस नहीं है, बोलने की आजादी नहीं है; राजनीतिक नेताओं व कार्यकर्ताओं के साथ-साथ छोटे बच्चों और पुरुषों की गैर-कानूनी धरपकड़ और गिरफ्तारी हो रही है; विदेशी पत्रकारों को घाटी से रिपोर्ट भेजने पर रोका जा रहा है; घाटी में जीवन-रक्षक दवाओं और इलाज की किल्लत के बारे में बोलने वाले डाॅक्टरों को पकड़ा जा रहा है, और यातना तो आम बात हो गई है.

संचार साधनों (फोन व इंटरनेट) का बंद किया जाना कोई ‘छोटी-मोटी असुविधा’ नहीं है – यह न केवल भारत के अपने संविधान का, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार विधानों का भी घोर उल्लंघन है. इससे जीवन के अधिकार और मर्यादा के अधिकार का अतिक्रमण होता है. इस 21वीं सदी में फोन व इंटरनेट संपर्क का काटा जाना पानी और बिजली आपूर्ति बंद किए जाने के समतुल्य है. यह मानवता के खिलाफ अपराध है इंटरनेट सुविधा न मिलने से गरीब मरीजों का अस्पताल में रियायती डायलसिस नहीं हो पा रहा है; इस तालाबंदी ने दवाओं का घोर अभाव पैदा कर दिया है.

इस असंवैधानिक किस्म की तालाबंदी को चुनौती देने वाली याचिका को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार न करना गंभीर चिंता का विषय है. जिस सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में पार्किंग के तुच्छ मसले को लेकर आदेश जारी किए, उसने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर पांच दिन में सुनवाई की. सर्वोच्च न्यायालय का यह आचरण हमें आपातकाल के दौरान जबलपुर के कुख्यात एडीएम मुकदमे की याद दिला देता है, जिसमें कोर्ट ने नागरिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध को जायज ठहरा दिया था.

कश्मीर पर भारत के कूटनीतिक अभियान के हिस्से के बतौर अमेरिका में भारतीय राजदूत हर्ष श्रृंगला ने धुर-दक्षिणपंथी नस्लवादी और इस्लामभीति विचारक रूटीव बैनन से मुलाकात की और ट्वीट में यहां तक कह दिया कि बैनन “धर्म योद्धा” हैं ! यह ट्वीट (जिसे बाद में हटा दिया गया) आरएसएस-मार्का फासीवाद और अंतरराष्ट्रीय श्वेत-वर्चस्ववादी, नस्लवादी और इस्लामभीतिक नेटवर्क के बीच बढ़ते रिश्तों का ही संकेतक है.