-- दीपंकर भट्टाचार्य महासचिव, भाकपा (माले)
मई दिवस अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस है. इसकी प्रेरणा एक दिन में काम के घंटे तय करने के उन्नीसवीं सदी में हुए पहले बड़े संघर्ष से मिली. इस संघर्ष की मांग थी कि एक दिन में काम के आठ घंटे तय किये जायें. आज भी मई दिवस काम के घंटों के बारे में है. खासकर भारत आज के संदर्भ में जहां कोरोना महामारी आैर लॉकडाउन के बीच में सरकार एक दिन में काम के घंटे 8 से बढ़ाकर 12 करने जा रही है. मई दिवस सभी मजदूरों के लिए वेतन के साथ छुट्टी के अधिकार के बारे में है. लेकिन भारत में तो करोड़ों मजदूर ऐसे हैं, जिन्हें मजदूर का दर्जा ही नहीं दिया गया.
यकीनन इस साल का मजदूर दिवस आवश्यक सेवाआें से जुड़े उन मजदूरों के बारे में है जिन्हें इस महामारी आैर लॉकडाउन के बीच कोई मोहलत नहीं मिल सकी है. डॉक्टर, नर्स, पैरामेडिकल स्टाफ, सफाई कर्मचारी, ट्रांसपोर्ट में लगे मजदूर और पुलिसकर्मियों समेत कई सारे क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों के काम और काम के खतरे इस दौर में बहुत बढ़ गये हैं. ज्यादातर लोगों के पास तो इस खतरे का सामना करने के लिए सुरक्षा के सामान भी नहीं हैं. अगर उनकी बुनियादी और तात्कालित जरूरतें नहीं पूरी की जाती हैं तो उनके लिए ताली बजाने का मतलब केवल उनके जले पर नमक छिड़कना है.
मई दिवस मजदूरों के सम्मान और काम की जगह पर सुरक्षा के बारे में है. लेकिन सीवर में उतरकर अपनी जान गंवाने वाले मजदूरों को न तो सम्मान मिला है और न ही सुरक्षा. भारत में मजदूरों की बड़ी तादाद को अपने काम की जगहों पर हर दिन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है. इनमें जाति के आधार पर उत्पीड़न और यौन उत्पीड़न भी शामिल है. मई दिवस हमारे काम की पहचान, काम की सुरक्षित जगह और काम करने के लोकतांत्रिक और सम्मानजनक माहौल के लिए संघर्ष के बारे में है.
इस मई दिवस पर दुनिया भर में 'वर्क फ्राॅम होम' - घर से काम - करने पर चर्चा हो रही है और कई लोगों के लिए तो यह हकीकत बन चुका है. ऐसे समय में हमें सबसे पहले अपने उन भाइयों और बहनों को याद करना चाहिए जिनके पास न तो घर है और न ही काम. लाखों प्रवासी मजदूर अपने घरों से दूर फंसे हुए हैं. उनके पास न तो काम है न ही कोई आय. असुरक्षा, अपमान, भूख और लाचारी ही उनके साथी हैं. इनमें घर बनाने वाले वे मजदूर हैं जिनकी मेहनत से बने घरों में हमें सुरक्षित रहने के लिए कहा जा रहा है, लेकिन जिनके पास अपना कोई घर नहीं है.
आज हमें उन महिलाओं और बच्चों को भी याद करना चाहिए जिन्होंने हमेशा घरों में काम किया, जिन्होंने हमेशा घर से काम किया. लेकिन वे अदृश्य ही बने रहे, उनके योगदान पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया. इस समय हमें आईटी क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की बड़ी तादाद के बारे में भी सोचना चाहिए. उनके लिए घर और दफ्तर की सीमा मिट रही है, आैर काम से उपजे तनाव का दायरा लगातार फैलता जा रहा है. हमेशा घरों की चारदीवारी में कैद रहे लोगों से लेकर आज 'वर्क फ्रॅाम होम' की सुविधा के नाम पर अपने ही घर में काम के ज्यादा बोझ तले दबाये जा रहे लोग - इस बार का मई दिवस एेसे सारे मजदूरों के लिए है.
इस बार का मई दिवस 2020 उस आसन्न मंदी के बारे में भी है, जिसकी तलवार हम सबके सर पर लटक रही है. अर्थव्यवस्था इस विनाशकारी झटके और गतिरोध से कैसे उबरेगी? अभी ही लाखों लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे हैं. मजदूरी कम की जा रही है, मंहगाई भत्ता बढ़ने से रोक दिया गया है, ज्यादातर उद्योग बड़े पैमाने पर छंटनी के बारे में बात कर रहे हैं और रोजमर्रा की जरूरी चीजों के दाम अभी से आसमान छूने लगे हैं. इस महामारी और आने वाली मंदी का बोझ पहले से ही बदहाली झेल रहे मजदूरों पर नहीं डाला जाना चाहिए. 2020 के मई दिवस पर हमारी मांग है कि अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने और लोगों को राहत पहुंचाने के लिए तत्काल 'कोविड संपत्ति कर' लगाया जाये.
उत्पादन के केन्द्र में मजदूर होते हैं. प्रकृति द्वारा दिये गये संसाधन मनुष्य के श्रम के जरिये उपभोग के सामानों और सेवाओं में तब्दील किये जाते हैं. यही उत्पाद एक छोटे समुदाय के पास संपत्ति के रूप में इकट्ठा हो गये हैं. उसी सम्पत्ति का अपने निर्माता मजदूरों के खिलाफ युद्ध में हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. मई दिवस 2020 के मौके पर हमें संपत्ति के इस उत्पादन, वितरण और संपत्ति पर कब्जे की इस पूरी व्यवस्था पर फिर से विचार करने की जरूरत है. हम लंबे समय से व्यापक जनता के लिए गरीबी और चंद लोगों के लिए अमीरी की व्यवस्था देख रहे हैं. जिसमें मुनाफे का निजीकरण कर घाटे को जनता के मत्थे मढ़ दिया जाता है आैर उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया पर कॉरपोरेटों का नियंत्रण बना रहता है. अब बहुत हो चुका. कोविड-19 का संदेश बिल्कुल स्पष्ट है - अब प्रकृति और मानव समाज को कॉरपोरेट लालच व लूट के शिकंजे से मुक्त होना ही होगा. यह नयी और न्यायपूर्ण दुनिया की स्थापना का वक़्त है.
अंबेडकर ने कहा था कि जाति श्रम का नहीं श्रमिकों का विभाजन है. मई दिवस इन्हीं श्रमिकों की एकता का दिन है. यह पूरी दुनिया के मजदूरों और उत्पीड़ितों की एकता का दिन है. पूरी दुनिया में कामगारों पर कोविड-19 की सबसे बुरी मार पड़ी है. इसके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण और उनका व्यवस्थित विनाश मुख्य रूप से जिम्मेदार है. साथ ही ज्यादातर सरकारों ने इस महामारी से निपटने में बहुत ही क्रूर और संवेदनहीन रुख अपनाया. सरकारें महामारी के समय में मजदूरों को दोषी ठहराने और उन्हें बांटने में लगी हुई हैं और अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुरा रही हैं. आज इस विभाजनकारी राजनीति को चुनौती देने की सबसे ज्यादा जरूरत है.
आज जब वैश्विक पूंजीवाद और मानव जाति के अस्तित्व के बीच का विरोध इतना साफ हो गया है तो एक नयी और बेहतर दुनिया बनाना अब बिल्कुल जरूरी है. इस दुनियां को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए. एक नयी दुनिया को जीतने आैर बनाने का यही वक्त है. हम लड़ेंगे, जीतेंगे.
(एमएल अपडेट, 28 अप्रैल- 4 मई 2020 में प्रकाशित : www.mlupdate.cpiml.net)