वर्ष - 28
अंक - 26
15-06-2019

नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, सार्वजनिक ख्यातिप्राप्त बुद्धिजीवी और साम्प्रदायिकता-विरोधी अभियान के कार्यकर्ता गिरीश कर्नाड का 81 वर्ष की उम्र में 10 जून 2019 को बेंगलुरु स्थित उनके निवास पर निधन हो गया.

कर्नाड ने 1960 के दशक से कन्नड़ भाषा में सर्वोत्कृष्ट आधुनिक नाटक लिखे और इस मामले में वे उसी विरासत के प्रतीक हैं जिसका प्रतिनिध्त्वि मराठी में विजय तेंदुलकर, बांग्ला में बादल सरकार और हिंदी में मोहन राकेश करते हैं. जिस समय उन्होंने अंग्रेजी और अपनी मातृभाषा कोंकणी को छोड़कर कन्नड़ में लिखना शुरू किया उस समय कन्नड़ लेखकों पर पश्चिमी साहित्यिक पुनर्जागरण का गहरा प्रभाव था. लेखकों के बीच किसी ऐसी चीज के बारे में लिखने की होड़ थी जो स्थानीय लोगों के लिए बिल्कुल नयी थी. इसी समय कर्नाड ने ऐतिहासिक तथा पौराणिक पात्रों से तत्कालीन व्यवस्था को दर्शाने का तरीका अपनाया तथा काफी लोकप्रिय हुए. उनके नाटक ययाति (1961, प्रथम नाटक) तथा तुग़लक (1964), हयवदन, अंजुमल्लिगे, तलेदंड और नागमंडल ऐसे ही नाटकों का प्रतिनिधित्व करते हैं. तुगलक से कार्नाड को बहुत प्रसिद्धि मिली और इसका कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ. प्रमुख भारतीय निदेशकों - इब्राहीम अलकाजी, प्रसन्ना, अरविन्द गौड़ और बी.वी. कारंत ने इनका अलग-अलग तरीके से प्रभावी व यादगार निर्देशन किया हैं. उन्होंने कन्नड़ और हिंदी में फिल्मों का निर्देशन भी किया, जैसे कन्नड़ फिल्म संस्कार (1970), टब्बलियू नीनादे मगने (1977) और ओंडानोंडु कालाडल्ली (1978) और एक हिंदी फिल्म उत्सव (1984), जो चैथी शताब्दी के संस्कृत नाटक मृच्छकटिकम् पर आधरित है. उन्होंने कई कन्नड़ और हिंदी फिल्मों में अभिनय किया तथा खासकर मालगुडी डेज टीवी सीरियल में उनका अभिनय अविस्मरणीय है.

उन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण की उपाधि, कालिदास सम्मान, संगीत नाटक अकादमी, कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार और अंततः 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिले थे. वे पुणे स्थित फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के निदेशक भी रहे और संगीत नाटक अकादमी तथा नेशनल एकेडमी ऑफ परफार्मिंग आर्ट्स के अध्यक्ष भी रहे.

वे जैसे एक ओर साहित्यकार-कलाकार की विरासत छोड़ गये हैं, ठीक वैसे ही दूसरी ओर वे एक ऐसे नागरिक की अपनी विरासत भी छोड़ गये हैं जिन्होंने अपनी आखिरी सांस तक साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ डटकर आवाज उठाई. उन्होंने 2003 में बाबू बूदनगिरि की मजार पर गौरी लंकेश एवं कर्नाटक के अन्य बुद्धिजीवियों के साथ दौरा किया, जहां बजरंग दल उसको विध्वस्त करने के प्रयास में लगा हुआ था. अपने आखिरी दिनों में जब वे बीमार रहते थे, उन्होंने गौरी लंकेश की हत्या और मुस्लिम समुदाय के लोगों को पीट-पीटकर मारे जाने के खिलाफ बंगलौर की सड़कों पर हुए प्रतिवाद जुलूसों में हिस्सा लिया था. जब भाजपा सरकार और आरएसएस असहमति जाहिर करने वालों को गिरफ्तार करने का बहाना बनाने के लिये उन पर फ्अरबन नक्सलय् का ठप्पा लगाने लगे, तो गिरीश कर्नाड ने बंगलौर में गौरी लंकेश की स्मृति में हुए एक आयोजन में नाक में ऑक्सीजन टैंक की ट्यूब लगाये रहने स्थिति में हिस्सा लिया और अपनी गर्दन से एक प्लेकार्ड झुला लिया जिस पर पूरी निडरता से घोषणा की गई थी “ मैं भी अरबन नक्सल”.

जहां दुनिया भर में लोग गिरीश कर्नाड के निधन पर शोक मना रहे हैं, वहीं हिंदुत्व के बहुसंख्यकवादी कट्टरपंथी उनकी मौत पर उसी तरह का जश्न मना रहे हैं जैसा उन्होंने गौरी लंकेश की हत्या पर मनाया था. मगर कर्नाड की मृत्यु भी उतनी ही महान रही जितना उनका जीवन था. उनकी इच्छाओं का सम्मान करते हुए कर्नाड के परिवार वालों ने बिना किसी रीति-रस्म के सादगी से उनका अंतिम संस्कार किया और कर्नाटक सरकार द्वारा राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार करने के प्रस्ताव को विनम्रता से ठुकरा दिया.

अलविदा, गिरीश कर्नाड! तुम हमें सदैव याद आते रहोगे और हमको प्रेरणा भी देते रहोगे!