वर्ष - 28
अंक - 15
30-03-2019

13 अप्रैल 2019 को कुख्यात जालियांवाला बाग जनसंहार के सौ वर्ष पूरे हो जाएंगे. भारत के उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता संग्राम और आज तक चलने वाली इसकी सामूहिक स्मृति पर इस जनसंहार का काफी गहरा और चिरस्थायी प्रभाव पड़ा था.

आज के भारत में जालियांवाला बाग का स्मरण करना महज इतिहास के किसी बीत चुके पन्ने को श्रद्धांजलि देने जैसी कार्रवाई  नहीं है. अप्रैल 2019 में हम एक महत्वपूर्ण चुनाव के दौर से गुजर रहे हैं जो यह निर्णय करेगा कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के साथ गद्दारी करने वाली ताकतें, जो भारत को सांप्रदायिक आधार पर बांट देने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं, पुनः सत्ता में आएंगी या नहीं. ऐसे समय में जालियांवाला बाग को स्मरण करने का मतलब यह याद करना है कि किस तरह से यह जनसंहार हिंदू-मुस्लिम एकता और एकताबद्ध प्रतिरोध से ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के मन में उपजे खौफ का नतीजा था µ इस प्रतिरोध ने उन उपनिवेशवादियों के सामने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का प्रेत खड़ा कर दिया था, जिस संग्राम में यह हिंदू-मुस्लिम एकता उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रीय भावना की शक्ल में पहले-पहल अभिव्यक्त हुई थी.

ब्रिटिश उपनिवेशवादी इतिहास में जालियांवाला बाग को अन्यथा एक कृपालु शासन के एक ‘दानवी’ अपवाद के बतौर - एक बुरे शख्स जनरल डायर द्वारा की गई एक ‘गैर-बरतानवी कार्रवाई’ के बतौर - याद करने की कोशिश की जाती है. लेकिन दरअसल, यह जनसंहार उस प्रणालीगत नस्लवाद और औपनिवेशिक दमन व  क्रूरता का नतीजा था जो शुरू से अंत तक ब्रिटिश राज की चारित्रिक विशेषता बना रहा था. जालियांबाग को रॉलेट ऐक्ट, राजद्रोह कानून, धारा 144 और अन्य काले औपनिवेशिक कानूनों के साथ जोड़कर ही समझा जा सकता है. आखिरकार, जालियांवाला बाग में तो लोग रॉलेट ऐक्ट और भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं की गिरफ्तारी व देश निकाले का प्रतिवाद करने के लिए ही इकट्ठा हुए थे, जिसे ब्रिटिश हुकूमत ने धारा 144 का उल्लंघन करने वाली ‘गैर-कानूनी जुटान’ कहा था: और यही उस जनसंहार का बहाना बना था.

अगर यही मामला था, तो जालियांवाला बाग को आज स्मरण करने का मतलब उनलोगों के द्वारा, जिन्हें भगत सिंह “काले अंगरेज” (अर्थात् आधुनिक भारतीय शासक वर्ग) बताते थे, के द्वारा चलाए जा रहे आज के शासन में मौजूद जालियांवाला बाग की काली छाया को याद करना भी है. भारतीय राज्य ने आज भी ब्रिटिश औपनिवेशिक औजारों - उसके एएफएसपीए, राजद्रोह कानून और धारा 144 - को क्यों बरकरार रखा है ; और ‘टाडा’, ‘पोटा’, ‘मकोकोआ’, यूएपीए जैसे अपने रॉलेट ऐक्ट सरीखे कानूनों को वह क्यों लागू करता है? क्या कश्मीर के हालात हमें जालियांवाला बाग की याद नहीं करा देते हैं? जब एक नागरिक को जीप से बांधकर दौड़ाने के लिए एक आर्मी मेजर को मेडल दिया जाता है तो कश्मीरी नागरिकों के मन में इसका असर जनरल डायर द्वारा घुटनों के बल पर रेंगने के लिए दिए गए हुक्म से भिन्न क्या हो सकता है ? स्वतंत्र भारत के इतिहास में निहत्थे प्रतिवादकारियों पर ; भूमिहीन दलित मजदूरों पर, आदिवासियों, किसानों, और खतरनाक परियोजनाओं का विरोध कर रहे लोगों पर ; पुलिस फायरिंग की लंबी फेहरिस्त दर्ज है. सरकार के बतौर अपनी एक अंतिम कार्रवाई में मोदी शासन ने सभी राज्यों को भारतीय वन कानून में एएफएसपीए जैसे संशोधन करने का प्रस्ताव भेजा है, ताकि किसी जवाबदारी के बगैर वन अधिकारियों को लोगों पर गोली चलवाने का अधिकार मिल जाए और किसी व्यक्ति को उसके पास से मिली सामग्रियों के आधार पर अपराधी करार दे दिया जाए.

भारतीय राज्य तंत्र अभी तक भारत के गरीबों और हाशिये के लोगों के प्रति उसी उद्धत औपनिवेशिक तरीके से पेश आता है. भारत के प्रशासकों, पुलिस और सैन्य बलों में नस्लवाद, कट्टरता और यहां तक कि उत्पीड़ितों को ‘हिंसक और खतरनाक’ बताने की सनकभरी प्रवृत्ति आज भी भरी हुई है. आज जालियांवाला बाग को स्मरण करने का मतलब है इस औपनिवेशिक विरासत से भारत को मुक्त कराने और इसे बदल डालने का संकल्प लेना!

अप्रैल 1919 का उबाल

1919 के वसंत ने भारत और पंजाब में कई स्फूर्तिकारी खबरें लाई थीं: इनमें सबसे ज्यादा तो 1917 की रूसी क्रांति की खबर थी जो भारतीय नौजवानों के लिए खास तौर पर प्रेरणादायी थी. ‘गदर’-पंथियों ने (जिनमें ज्यादातर पंजाब के थे) अपना शौर्य दिखाया, लेकिन वे 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को दुहराने और भारत को औपनिवेशिक शासन से आजाद करा पाने में नाकामयाब रहे. लेकिन उनकी असफलता से विशेषतः नौजवान भारतीयों के लिए उनका आह्वान जरा भी कमजोर नहीं हुआ. प्रथम विश्वयुद्ध अभी-अभी ही खत्म हुआ था और चावल, दाल, बाजरा की कीमतें दुगुनी हो गई थीं;  नमक की कीमत तो तिगुनी हो गई थी.

मार्च 1919 में इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल ने ‘अराजकतावादी व क्रांतिकारी अपराध ऐक्ट (1919)’ पारित कर दिया, जिसे रॉलेट ऐक्ट के नाम से जाना जाता था. इस ऐक्ट के जरिए युद्धकालीन ‘डिफेंस ऑफ इंडिया ऐक्ट (1915)’ के कठोर प्रावधानों को भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की स्थायी विशेषता बनाने की कोशिश की गई थी. ब्रिटिश राज इसलिए यह कानून चाहता था, क्योंकि ये शासक ‘गदर’-किस्म के किसी क्रांतिकारी विद्रोह के पुनः फूट पड़ने की संभावना से भयभीत थे और वे भारत तथा अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों पर रूसी क्रांति की संभावित प्रभावों को लेकर भी दुश्चिंता में पड़े हुए थे.

इस ऐक्ट (जो एक जज सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में गठित रॉलेट कमेटी की सिफारिशों के आधार पर निर्मित हुआ था) ब्रिटिश सरकार को यह अधिकार दे रहा था कि वह आतंकवादी गतिविधियों के संदेह पर किसी को भी गिरफ्तार कर सके, किसी सुनवाई के बगैर उन्हें दो वर्ष तक कैद में रख सके, किसी वारंट के बगैर कहीं भी तलाशी ले सके और प्रेस की आजादी पर कड़े प्रतिबंध लगा सके. यह ऐक्ट मनमानी गिरफ्तारी और सजा की इजाजत देता था, क्योंकि इसमें आरोपी को यह जानने का अधिकार नहीं था कि अभियोग लगाने वाला कौन है और मुकदमे में किस साक्ष्य का उपयोग किया जा रहा है.

रॉलेट ऐक्ट के खिलाफ व्यापक प्रतिवाद हुए और गांधी जी द्वारा आहूत हड़ताल को भारी समर्थन हासिल हुआ. 6 अप्रैल को शुरू हुआ यह आंदोलन रॉलेट सत्याग्रह के रूप में विख्यात हुआ.

बरतानियों के मन में 1857 का खौफ

इतिहासकार किम ए वागनर ने जालियांवाला बाग जनसंहार पर लिखी अपनी पुस्तक (जालियांवाला बाग: एन एम्पायर ऑफ फियर एंड द मेकिंग ऑफ द अमृतसर मैसेकर, पेंग्विन रैंडम हाउस, 2019) के पहले ही अध्याय में लिखा है कि “बृटिश औपनिवेशिक चिंतन में वह ‘म्युटिनी’ (सिपाही विद्रोह, 1857) भारत में कभी खत्म नहीं हुआ था ; शासक वर्ग के मन में देशी विद्रोह के खतरे की संभावना हमेशा मंडराती रहती थी. .... उनकी धारणा में वह ‘विद्रोह’ महज एक ऐतिहासिक घटना नहीं था, सिर्फ एक स्थायी किस्म के भय का कारण नहीं था, बल्कि उदाहरणीय दंड और अंधाधुंध हिंसा के रूप में औपनिवेशिक नियंत्रण बरकरार रखने का एक ‘ब्लूप्रिंट’ (खाका) भी था.” अप्रैल 1919 में अमृतसर में छोटी से छोटी चीजें भी ; गिरफ्तार किए गए और देश से निर्वासित अपने नेताओं डाक्टर सत्यपाल तथा डाक्टर सैफुद्दीन किचलू की रिहाई की मांग पर निहत्थे लोगों द्वारा किए गए अहिंसक प्रतिवाद और हिंदू-मुस्लिम एकता के  नारे भी ; उस शहर के बरतानवी हुक्मरानों के मन में 1857 की पुनरावृत्ति का भय पैदा करने तथा 1857 के बाद हुए भारतीयों के कत्लेआम को दुहराने के लिए तैयार मशीन गनों और सैन्य बलों की मांग करने के लिए पर्याप्त थीं.

बागनर के शब्दों में, खुद रॉलेट कमेटी की रिपोर्ट में “सावधानीपूर्वक रचित विमर्श पेश किया गया था” जिसमें “क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के खतरे” को नस्लवादी भाषा में “जहर” या “वायरस” बताया गया था जो एक संक्रामक रोग की तरह फैल जाता है. यही नस्लवादी भाषा 1857 के विद्रोह पर औपनिवेशिक बहसों भी खास तौर पर दिखाई पड़ती थी. उस रिपोर्ट में औपनिवेशिक नस्लवादी नजरिया जाहिर होता था जिसके अनुसार उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलनों को राजद्रोही “रिंगलीडर्स” (सरदारों) द्वारा फैलाई गई जन्मजात अविवेकपूर्ण घृणा की उपज माना गया था, क्योंकि गुलाम भारतीयों को तर्कसम्मत राजनीतिक उद्देश्यों के लायक ही नहीं समझा जाता था. और यदि उस समूचे आंदोलन को राजनीतिक आंदोलन समझने के बजाए मुट्ठी भर बदमाशों द्वारा उकसाए जा रहे विवेकहीन और “भटकाए गए नौजवानों” का ही मामला समझा जाए, तो निश्चय ही वार्ताएं व बातचीत नहीं, बल्कि दमन ही उसका एकमात्र उपचार हो सकता था. (यहां भी, आधुनिक भारत की वही तस्वीर हमारे जेहन में कौंध जाती है - जहां बस्तर के आदिवासी लोगों को या घाटी के  कश्मीरी अवाम को कुछ बाहरी लोगों द्वारा ‘भटकाए गए’ समूह के बतौर चित्रित किया जाता है ; जहां समूची नागरिक आबादी के दिमाग में, सैनिक नियंत्राण के तहत, उनपर शासन करने वाली ताकतों का भय आरोपित किया जाता है; और जहां जनता द्वारा उठाए गए राजनीतिक सवालों को दरकिनार कर दिया जाता है).

अमृतसर-स्थित सिविल सर्जन लेफ्रिटनेंट कर्नल स्मिथ, जो अमृतसर की गहरी समझ रखने का दावा करता था, ने पंजाब के लेफ्टीनेंट गवर्नर माइकल ओ’ डायर को सलाह देते हुए कहा था कि रॉलेट प्रतिवादों के पीछे “रूसी जर्मन बोल्शेविकवादी संगठन” का हाथ है, और कि यह संगठन 6 अप्रैल की हड़ताल के बाद एक दूसरी हड़ताल की योजना बना रहा था. सिविल सर्जन ने यह भी दावा किया कि उस मौके पर “हर जगह लाल झंडे लहरा उठेंगेय”. यह बिल्कुल बकवास थी, किंतु यह बात पंजाब के औपनिवेशिक हुक्मरानों के सनकी दिमाग में बैठ गई और उन्हें यकीन हो गया कि इस किस्म के विद्रोह से निपटने के लिए भारी सैन्य बल की तैनाती जरूरी है.

हिंदू-मुस्लिम एकता

वागनर की पुस्तक में दर्ज है कि रामनवमी “मुख्यतः एक हिंदू त्योहार है, लेकिन 9 अप्रैल 1919 हिंदू-मुस्लिम एकता का दिन बन कर आया” जब हिंदू और मुसलमान एक ही बर्तन से पानी, दूध और शर्बत पी रहे थे. उस वर्ष अमृतसर में इस हर्षोल्लास का वर्णन करते हुए एक समकालीन पत्रकार केडी मालवीय का एक उद्धरण उस पुस्तक में है: “वह जुलूस हाल के वर्षों का सबसे शानदार  जुलूस था. डाक्टर किचलू की अगुवाई में हजारों मुसलमान हिंदू भगवान के विजय जुलूस में शामिल हो गए और उन लोगों ने ‘हिंदू-मुसलमान की जय’ के मर्मस्पर्शी नारे से आसमान गुंजा दिया. उन हजारों लोगों ने अपनी जोरदार आवाज में डाक्टर किचलू और डा. सत्यपाल को आशीर्वाद दिया और उस दिन के हर्षोल्लास में महात्मा गांधी को वे नहीं भूले.” वागनर ने लिखा है कि अमृतसर का डिपुटी कमिश्नर इरविंग “हिंदू” जुलूस के हिस्से के बतौर मुस्लिम लड़कों के उस सड़क प्रदर्शन को देखकर कैसे बौखला उठा था और आशंकित भी हो गया था. “हिंदू और मुसलमान सचमुच किसी साझी जमीन पर खड़े हो जा सकते हैं - यह अवबोध ही इरविंग जैसे लोगों के लिए भारी चिंता का सबब था. उनकी समझ से भारतीय समाज की ‘स्वाभाविक स्थिति’ सांप्रदायिक टकराव से परिभाषित होती थी और परिणामस्वरूप 9 अप्रैल के दिन प्रदर्शित उस एकता को वे सर्वाधिक संदेह की नजर से देख रहे थे.”

अब हम सोच सकते हैं कि आज के समय में हमारे लिए इसका क्या मतलब है. ब्रिटिश औपनिवेशिक शासक सांप्रदायिक टकराव को भारतीय समाज की स्वाभाविक स्थिति समझते थे, और हिंदू-मुस्लिम दोस्ती व एकता की सबसे गैर-नुकसानदेह अभिव्यक्तियों को भी वे संदेह की नजर से देखते थे µ ठीक वैसे ही, जैसे कि आज भाजपा और आरएसएस करते हैं !  यह सांप्रदायिक नजरिया, जो भाजपा-आरएसएस के सोशल मीडिया ट्रॉल गिरोहों को हिंदू व मुसलमान बच्चों के बीच दोस्ती दिखाने वाले एक डिटर्जेंट विज्ञापन को प्रतिबंधित करने की मांग उठाने तक ले जाता है, हर्गिज “भारतीय” नहीं है, यह तो ब्रिटिश औपनिवेशिक आयात है. यह वही ब्रिटिश औपनिवेशिक रवैया है, जिसे दीनदयाल उपाध्याय ने यह लिखते हुए जाहिर किया कि हमें “हिन्दू-मुस्लिम एकता की 30 वर्ष पुरानी नीति को बदल देना होगा... अगर हम एकता चाहते हैं, तो हमें भारतीय राष्ट्रवाद का इजहार करना होगा जो कि हिंदू राष्ट्रवाद है, और भारतीय संस्कृति प्रदर्शित करनी होगी जो कि हिंदू संस्कृति है” (उपाध्याय, अखंड भारत, 1953). और यही बात तब भी देखी जा सकती है, जब नरेंद्र मोदी की सामाजिक समरसता (किशोर मकवाना द्वारा संपादित और मोदी के अपने वेबसाइट पर उपलब्ध) शीर्षक किताब में ‘दलित मुस्लिम भाई भाई’ नारे का खुलकर विरोध किया गया है.

(अगले अंक में जारी)