1. मोदी सरकार को सत्ता में आए आठ साल से ज्यादा हो चुके हैं। अगर इस सरकार का पहला कार्यकाल आगे आने वाली चीजों में बारे में अग्रिम चेतावनी था, तो दूसरे कार्यकाल में चौतरफ़ा हमले तेजी से बढ़े हैं। गृहमंत्री अमित शाह और सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की सरपरस्ती में राज्य लगातार ज्यादा दमनकारी और प्रतिहिंसक होता जा रहा है। सरकारी संरक्षण में उपद्रवी राज्य, निजी सेनाओं और स्वयंभू निगरानी गिरोहों के भार के नीचे हमारा संवैधानिक लोकतंत्र पिस रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर ‘आंतरिक शत्रुओं’ के खिलाफ राज्य-समर्थित उत्पीड़न और लगातार चलने वाले राज्य दमन का यह गठजोड़ ऐतिहासिक रूप से फासीवाद की पहचान रहा है। भारत में फासीवाद ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक हिंदू श्रेष्ठता या हिंदुत्व को राष्ट्रवाद का आधार बताता है। हिन्दू राष्ट्र की इस अवधारणा में मुसलमानों और ईसाइयों, जिनके धर्मों का उद्भव भारत के बाहर हुआ था, को ‘बाहरी’ बताया जाता है। खासकर मुसलमानों के लिए संघ-भाजपा के विमर्श में मुस्लिम विरोधी नफरत और हिंसा भड़काने के लिए तरह तरह के कूट शब्दों (जैसे आक्रमणकारी, घुसपैठिये, दंगाई और जिहादी, यहां तक कि राक्षस और दीमक भी) का प्रयोग किया जाता है। मुसलमानों के इस ‘अन्यीकरण’ और दानवीकरण को विस्तार देकर व्यापक दायरे के विचारधारात्मक और राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध प्रयोग किया जाता है और उन्हें ‘राष्ट्र विरोधी’ और पाकिस्तान भेजने के योग्य बताया जाता है।
2. संघ गिरोह विचारधारात्मक रूप से सदैव फासीवादी रहा है। अपने फ़ासीवादी एजेंडे को थोपने की इसकी क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि इसके पास सत्ता और सड़क की ताकत कितनी है। नफरत, झूठ, अफवाह के अपने अनथक अभियान, प्रमुख संस्थाओं में घुसपैठ और उन पर कब्जे के माध्यम से संघ गिरोह लगभग सौ सालों से यह ताकत जुटाता रहा है। राम मंदिर अभियान इसके उदय का सबसे आक्रामक दौर था, जिसने उत्तरी और पश्चिमी भारत के कई प्रांतों में भाजपा को सत्ता में पहुंचा दिया। हमने रथ यात्रा के उन्माद पर सवार भाजपा के इस उदय को केवल सांप्रदायिकता, कट्टरवाद या उन्माद के रूप में नहीं, बल्कि सांप्रदायिक फासीवाद के रूप में ठीक ही चिह्नित किया था क्योंकि हमने इस पूरे उभार को भारत की पहचान को फिर से परिभाषित करने और संवैधानिक लोकतंत्र के ढांचे को कमजोर करने की कोशिश के रूप में देखा था। 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस से लेकर 2002 में गुजरात में गोधरा के बाद जनसंहार तक, हमने इस सांप्रदायिक फासीवाद के घातक प्रसार और प्रभाव को देखा।
3. इस सांप्रदायिक फासीवाद ने समय-समय पर उन्माद पैदा किया, लेकिन चरम पर पहुंचने और इसका भांडा फूट जाने के बाद यह समय समय पर अलग-थलग पड़ा और कमजोर भी हुआ। गुजरात 2002 के बाद, एनडीए 2004 में चुनाव हार गया था। गुजरात जनसंहार के कारण नरेंद्र मोदी को अंतरराष्ट्रीय अभियोग/बदनामी का भी सामना करना पड़ा, अमेरिका और यूरोप ने उन्हें वीजा देने से इनकार कर दिया। इसी मोड़ पर भारत का कॉरपोरेट तबका ‘वाइब्रेंट गुजरात’ के झंडे तले नरेंद्र मोदी के इर्द-गिर्द जमा हो गया। कॉरपोरेट सत्ता के वफादार समर्थन ने संघ गिरोह को बहुत ताकत और गति दी और 2014 में सत्ता के लिए संघ गिरोह के अभियान को आगे बढ़ाया। तब से और तेजी से बढ़ते अदानी समूह और [टाटा भी अपनी खोई हुई जमीन को फिर से हासिल करते हुए] अंबानी समूह की अगुवाई में कॉरपोरेट और संघ गिरोह के बीच का गठजोड़ एक उपद्रवी बुलडोज़र की तरह काम कर रहा है। भारतीय कॉरपोरेट भाजपा को सरकार में बनाए रखने के लिए पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं और बदले में भाजपा क़ीमती प्राकृतिक संसाधनों, वित्त और सार्वजनिक क्षेत्र के ढाँचों समेत सब कुछ को कॉरपोरेटों के हाथ गिरवी रख रही है। बहुत साफ बात है कि कॉर्पोरेट लूट और फासीवादी हमला, दोनों एक दूसरे से गहरे जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे को ताकत दे रहे हैं।
4. हमने बाबरी मस्जिद विध्वंस को भारत में सांप्रदायिक फासीवाद के उदय के शुरुआती और पक्के चिन्ह के रूप में देखा। हमने इस बढ़ते खतरे के खिलाफ सतत वैचारिक-राजनीतिक अभियान शुरू किया। रांची कांग्रेस में हमने नरेंद्र मोदी को केंद्र में सत्ता में लाने के लिए बढ़ते कॉरपोरेट शोर पर ठीक ही ध्यान दिया था। हमने चिन्हित किया था कि भ्रष्टाचार और वंशवाद की राजनीति के खिलाफ बहुप्रतीक्षित ईमानदार विकल्प की चाहत के कारण कॉरपोरेट समर्थन के जरिये कैसे नरेंद्र मोदी को एक विकास पुरुष के रूप में उभारा जा रहा था और इसके जरिये फासीवाद सामाजिक और भौगोलिक रूप से कैसे नई जमीन हासिल करता जा रहा था। मार्च 2018 में जब हमने मानसा में अपना दसवाँ महाधिवेशन आयोजित किया, तब तक हम केंद्र में मोदी सरकार के लगभग चार साल देख चुके थे। कुछ वामपंथी तबकों सहित भारत के अधिकांश विपक्षी दल तब भी फासीवाद की उस बढ़ती ताकत की खतरनाक हकीकत को स्वीकार नहीं कर रहे थे, जिसका हर तरह से विरोध करने की जरूरत थी। बेलगाम लालची पूँजीवाद, भयानक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और संविधान पर बढ़ते हमले को अलग-अलग तो स्वीकार किया गया, लेकिन इन प्रवृत्तियों और विशेषताओं को फासीवाद के भारतीय संस्करण के रूप में नहीं देखा गया था। माकपा सहित विपक्ष ने तब भी नहीं माना कि सांप्रदायिक फ़ासीवाद की बढ़ती ताकत और उसके चुनावी विस्तार का मतलब भारत के लिए एक अभूतपूर्व आपदा और तबाही है। साम्प्रदायिक फ़ासीवाद आधुनिक संवैधानिक गणराज्य के रूप में भारत के विचार और अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है। कुछ वामपंथी दलों ने तो ‘अधिनायकवाद’ शब्द से आगे जाने से इनकार कर दिया जिसके कारण वे नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार द्वारा उत्पन्न खतरे की वास्तविक अवस्था और प्रकृति को समझने में नाकाम रहे।
5. यह वैचारिक भ्रम तब भी कायम रहा जब भाजपा ने उत्तर-पूर्व में असम और त्रिपुरा, उत्तर में उत्तर प्रदेश और दक्षिण में कर्नाटक जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में अपनी सरकारें बना लीं। 2019 के लोकसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में प्रमुख विपक्ष के रूप में उभरी और 2021 के विधानसभा चुनाव में सत्ता हथियाने की धमकी दी। भाजपा को सत्ताधारी वर्ग की ही कोई ‘सामान्य’ पार्टी मानने के रवैये के खिलाफ केंद्र और कुछ राज्यों में सत्ताधारी व दूसरे राज्यों में विपक्ष की भूमिका वाली मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को हमारी पार्टी के मानसा अधिवेशन ने फ़ासीवादी हुकूमत के रूप में चिन्हित किया था और लगातार बढ़ते-मजबूत होते इस फ़ासीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ सम्पूर्ण प्रतिरोध का आह्वान किया था। हमने दृढ़ जन-संघर्षों के माध्यम से इस हमले के विरोध की ज़रूरत पर जोर दिया और साथ ही भाजपा विरोधी वोटों के विभाजन को रोकने के लिए विपक्षी दलों के बीच व्यापक चुनावी तालमेल की संभावनाएँ खोजने की बात की। हमारे देश का फासीवाद खुलेआम क्रोनी पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की चापलूसी, आक्रामक बहुसंख्यकवाद, संविधान और लोकतंत्र पर हमला, विचारधारात्मक मतभेद के निर्मम दमन और मजदूर वर्ग पर संगठित हमलों पर आधारित है। यह मुस्लिम, ईसाई, महिलाओं और दलितों के खिलाफ हिन्दू वर्चस्ववादियों के हाथों बढ़ती जातीय व पितृसत्तात्मक हिंसा व आक्रामकता के जरिये संचालित है। मोदी के शासन का यह समय अब व्यापक रूप से अघोषित पर सर्वव्यापी और स्थायी आपातकाल माना जा रहा है। सत्ता और संघ गिरोह के फासीवादी हमले के लगातार बढ़ने के साथ ही जन-प्रतिरोध की संभावना भी बढ़ रही है। हमें इस संभावना को फासीवाद-विरोधी प्रतिरोध की एक शक्तिशाली धारा में बदलना होगा।
6. फासीवाद ने एक उग्र प्रतिक्रियावादी वैचारिक-राजनीतिक प्रवृत्ति और अति-राष्ट्रवादी जन-आंदोलन के रूप में 20वीं शताब्दी की शुरुआत में जमीन हासिल करना शुरू कर दिया था। प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में यदि दुनिया ने पहली समाजवादी क्रांति की जीत देखी और नवंबर 1917 में सोवियत संघ के रूप में पहले समाजवादी राज्य का उदय देखा, तो पांच साल बाद ही इटली में पहले फासीवादी शासन का उदय भी देखा। इटली के बाद फासीवाद स्पेन और जर्मनी में सत्ता पर कब्जा करने में सफल रहा और पूरे यूरोप में समाजवाद के बढ़ते प्रभाव के विरोध में एक शक्तिशाली प्रवृत्ति के रूप में उभरा। उत्तर व दक्षिण अमेरिका में और भारत सहित एशिया में यह प्रवृत्ति बढ़ती गई। भारत में फासीवाद ने हिंदुत्व की विचारधारा में अपनी आवाज़ पाई थी। इस विचारधारा की जड़ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा 1857 के बाद के इतिहास के पुनर्लेखन में है जो इतिहास को हिंदुओं और तथाकथित मुस्लिम ‘आक्रांताओं’ के बीच अंतहीन संघर्ष मानता है।
7. द्वितीय विश्वयुद्ध अंततः फासीवाद के खिलाफ एक वैश्विक सैन्य प्रदर्शन बन गया, जिसके बाद इटली और जर्मनी के फासीवादी शासन का पतन हुआ। फ़ासीवाद की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हार हुई और फासीवादी विचारधारा व आंदोलन बुरी तरह बदनाम हो गया और अपनी वैधता खो दिया। जहां फासीवाद की सैन्य हार विश्वयुद्ध की विशिष्ट ऐतिहासिक परिस्थितियों और भू-राजनीति का उत्पाद थी, वहीं फासीवाद को समझने और उसका विरोध करने के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के अनुभव मौजूदा भारतीय फासीवाद के साथ हमारी मुठभेड़ के लिए प्रासंगिक संदर्भ बिंदु बने हुए हैं।
8. 1920 के दशक की शुरुआत से ही अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में फासीवाद पर बहस तेज हो गयी थी, लेकिन फासीवाद द्वारा उत्पन्न खतरे की भयावहता को समझने में काफी समय लगा। अन्तोनियो ग्राम्शी ने 1920 में कम्युनिस्ट इण्टरनेशल में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में इटली में तीखे प्रतिक्रियावादी उभार का पूर्वानुमान किया था। उसके दो साल बाद जब मुसोलिनी ने वहां की सत्ता पर सचमुच कब्जा कर लिया तो उन्होंने इसे एक अस्थायी परिस्थिति नहीं माना। अपने शुरूआती मूल्यांकन में उन्होंने इटली के फासीवाद को कृषि/ग्रामीण पूँजीपति वर्ग की प्रतिक्रिया के रूप में ज्यादा देखा था, उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि औद्योगिक पूँजीपति वर्ग भी इसमें शामिल हो कर मुसोलिनी के साथ खड़ा हो जायेगा। फासीवाद पर कोमिन्टर्न की पहली रिपोर्ट जून 1923 में कोमिन्टर्न की एक्जीक्यूटिव कमेटी के तीसरे प्लेनम में क्लारा जेटकिन ने पेश की थी। इसमें फासीवाद के जन-सामाजिक प्रभाव की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए स्पष्ट रूप से कहा गया कि ‘केवल सैन्य साधनों से इसे समाप्त नहीं किया जा सकता... हमें राजनीतिक और वैचारिक तौर पर इसका जमीन पर सामना करना होगा’। रिपोर्ट में प्रत्येक देश की विशिष्ट परिस्थितियों में फासीवाद के अलग-अलग चारित्रिक लक्षणों को स्वीकार करते हुए फासीवाद के दो आधारभूत तत्वों को चिन्हित किया गया- पहला ‘झूठा क्रांतिकारी कार्यक्रम जो बेहद चालाकी से व्यापक जनता की भावनाओं, हितों और मांगों से जुड़ता हो, और दूसरा, बर्बर एवं हिंसक आतंक का इस्तेमाल’।
9. फ़ासीवाद को लेकर समग्र विश्लेषण और रणनीति 1935 में कॉमिन्टर्न के ऐतिहासिक सातवें और आखिरी अधिवेशन में उभर कर आयी। बुल्गेरियाई कम्युनिस्ट नेता जॉर्जी दिमित्रोव ने फासीवादी राज्य को वित्तीय पूँजी के सबसे साम्राज्यवादी, सबसे प्रतिक्रियावादी और अति राष्ट्रवादी हिस्से की खुली आतंकी तानाशाही के रूप में परिभाषित किया। दिमित्रोव ने लीपज़िग मुकदमे में खुद अपना बचाव किया और राइखस्टाग में आग लगाने के झूठे आरोप से बरी हो गए थे। उनकी रिपोर्ट ने चेतावनी दी थी कि कम्युनिस्ट आंदोलन को फासीवादी शासन के सत्ता में आने को एक बुर्जुआ सरकार द्वारा दूसरी बुर्जुवा सरकार की बेदख़ली की नियमित परिघटना की तरह देखने की गलती नहीं करनी चाहिए। रिपोर्ट यह भी चेतावनी देती है कि बुर्जुआ-लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर फासीवादी विचारों और ताकतों के उदय की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। बहरहाल दिमित्रोव की रिपोर्ट केवल फासीवादी हुकूमतों के शुरुआती चरण में सत्ता के केंद्रीकरण का विश्लेषण करती है और फासीवादी हुकूमत के मातहत राज्य और शासन की प्रकृति पर ही विस्तार से बात करती है। लेकिन इस रिपोर्ट में नाज़ी परियोजना में यहूदी-विरोधी की केंद्रीयता के शुरुआती लक्षणों और फासीवाद द्वारा आक्रामक गोलबंदी और जन-आन्दोलन के पहलुओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया था।
10. 1945 में हिटलर की हार के बाद, दुनिया को ‘होलोकास्ट’ की विराट भयावहता के बारे में पता चला, जिसमें तक़रीबन 60 लाख यहूदियों का क़त्ले-आम हुआ था। लोकतंत्र के पूर्ण दमन और विपक्ष की चुप्पी ने नाज़ियों द्वारा चिन्हित ‘आंतरिक दुश्मनों’ (यहूदियों, घुमन्तू समुदायों, कम्युनिस्टों और समलैंगिकों) के खिलाफ विनाश का भयानक अभियान चलाने की राह आसान कर दी थी। नाजी जर्मनी के अनुभव ने फासीवाद की भयावहता के बारे में पूरी दुनिया में जागरूकता पैदा की और दुनिया भर में फासीवादी ताक़तें हारीं, बदनाम हुईं और पीछे धकेल दी गयीं। भारत में आरएसएस और हिन्दू महासभा जैसे हिन्दुत्ववादी संगठन, जो मुसोलिनी, हिटलर और नाजी विचारधारा से प्रेरणा लेते थे, आजादी के आन्दोलन के दौरान हाशिये पर ही सिमटे रहे और स्वतंत्रता के बाद विभाजन की तबाही के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ज्यादा अहमियत हासिल नहीं कर सका। क्योंकि भारत, संसदीय लोकतंत्र के संवैधानिक ढांचे के साथ आगे बढ़ा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संविधान और राष्ट्रीय ध्वज के खिलाफ था। गांधी की हत्या के जरिये वे नए भारतीय गणराज्य को अस्थिर करना चाह रहे थे। इस घटना ने आरएसएस को सांगठनिक और वैचारिक रूप से अलगाव में डाल दिया। भारत के पहले गृह मंत्री सरदार पटेल को आज आरएसएस और मोदी शासन पूरी बेशर्मी से हथियाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उन्हीं सरदार पटेल ने ‘देश को संकट में डालने वाली नफरत और बुराई की ताकतों’ को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फरवरी 1948 से जुलाई 1949 तक प्रतिबंधित कर दिया था। पीछे मुड़ कर देखने पर हम पाते हैं कि स्वतंत्रता के बाद आरएसएस के भारी अलगाव में पड़ने के बावजूद कई मौकों पर राज्य ने और सत्तासीन कांग्रेस पार्टी ने, या कई गैरकांग्रेसी विपक्षी पार्टियों ने भी, मूलभूत संवैधानिक मानदण्डों की भारी अवहेलना करते रहने के बावजूद आरएसएस और उसके राजनीतिक घटकों (पहले भारतीय जनसंघ और उसके बाद भारतीय जनता पार्टी) के साथ जोड़तोड़ करके इन्हें वैधता प्रदान की। इसके कारण आरएसएस मजबूत हुआ और अयोध्या आन्दोलन एवं बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बड़े ही नाटकीय ढंग से इसकी वापसी हुई।
11. 1920 और 1940 के बीच के समय की तरह ही आज अंतरराष्ट्रीय प्रवृत्ति के रूप में फासीवाद एक बार फिर उभार पर है। पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में फासीवाद का उदय प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुआ था। जब चारों ओर युद्धोन्माद और अन्ध-राष्ट्रवाद हवा में पसरा हुआ था और महामंदी के कारण तीव्र आर्थिक संकट और निराशा का माहौल था तब यूरोप भर में समाजवाद के विस्तार के ‘खतरे’ के मद्देनज़र कई देशों में पूँजीपतियों ने फासीवाद की ओर कदम बढ़ा दिए थे। आज फिर वैश्विक पूँजीवाद गहरे संकट और अनिश्चितता में घिर गया है। इस संकट से बाहर निकलने का रास्ता वह युद्ध, फासीवाद को मज़बूत करने और बुर्जुआ लोकतंत्र को पूरी तरह से कमजोर करने के रास्ते तलाश रहा है। लेकिन बीसवीं सदी के फासीवाद की तरह ही इस दौर का फासीवाद भी अलग अलग राष्ट्रीय विशिष्टताओं के साथ सामने आ रहा है। लगभग एक सदी से फासीवादी परियोजना को पालने-पोसने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की केंद्रीय भूमिका के कारण हमारे देश में मामला ख़ासतौर पर अलग हो जाता है। हालाँकि भारत में फासीवाद का उदय मुख्य रूप से भारत के भीतर से ही हुआ है पर वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय माहौल इसे रणनीतिक समर्थन और वैधता दे रहा है।
12. जनसंहार व गैरन्यायिक आतंक के राज्य प्रायोजित इस्तेमाल द्वारा पिछले दो दशकों में गुजरात में सत्ता के सुदृढ़ीकरण और फिर उसी ‘गुजरात मॉडल’ को 2014 से अखिल भारतीय स्तर पर लागू करने के नाम पर मोदीराज के विकास और जर्मनी में नाजियों के उभार के बीच की समानताओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। इन समानताओं को हिटलर और मोदी की एक जैसी व्यक्ति पूजा की शैली या झूठ-आधारित प्रचार अभियान के चारित्रिक लक्षण के रूप में नहीं बल्कि विचारधारा, राजनीति, कानून और विधान के जरिये शासन चलाने के मामले में दोनों के बीच की समानता के रूप में देखना ज्यादा महत्वपूर्ण है। नाजी जर्मनी में यहूदी विरोधी अभियान को जहरीले प्रचार और यहूदी विरोधी कानूनों से ताकत मिली थी जिस कारण भयावह होलोकॉस्ट हुआ। न्यूरेमबर्ग कानूनों ने जर्मनी के अधिकांश यहूदियों को उनके अधिकारों से वंचित कर उनके लिए कानूनी और सामाजिक तौर पर असुरक्षित हालात बना दिये थे। इसके बाद उन पर जर्मन राज्य और नाजी विजीलान्ते (निगरानी) गिरोहों के बर्बर हमले और जनसंहार हुए। आज हम देख रहे हैं कि राज्यों व केन्द्रीय कानूनों एवं प्रशासकीय तरीकों से बिल्कुल उसी प्रकार से मुस्लिम समुदाय को उनकी आजीविका (पशु एवं मांस के व्यापार पर रोक), धार्मिक स्वतंत्रता (धर्म परिवर्तन, मस्जिदों का विध्वंस, हिजाब पर रोक, अन्तरधार्मिक विवाहों का अपराधीकरण, समान आचार संहिता और सार्वजनिक स्थलों पर नमाज पर पाबंदी), नागरिकता (सीएए कानून मुसलमानों से भेदभाव करता है) से लेकर जीवन की सुरक्षा (मुस्लिम घरों को बुलडोजर का निशाना बनाना, भीड़ द्वारा हत्या, खुले रूप में जनसंहार के आह्वानों और जगह-जगह बढ़ती हिंसा की घटनाओं) जैसे सवालों पर निशाना बनाया जा रहा है।
13. जबरदस्त समानताओं के बावजूद, साम्राज्यवादी लूट के अधीन रह चुके हमारे देश के फासीवाद का चरित्र, साम्राज्यवादी देशों के फासीवाद से अलग है। वैश्विक पूँजी और साम्राज्यवाद के साथ गहराई से जुड़े देशी अरबपति पूँजीपतियों द्वारा लोगों को लूटा जा रहा है। इसलिए यूरोप के फासीवाद के अनुभवों से अलग, हमारे देश में राष्ट्र से अपनी पहचान को जोड़कर देखने वाले बहुसंख्यक समुदाय के लिए दरअसल कोई आर्थिक फ़ायदा नहीं है। बल्कि देश के तथाकथित आंतरिक दुश्मनों के खिलाफ लगातार बढ़ती हिंसा के दृश्यों के जरिये उन्हें बहलाया जा रहा है। फासीवाद के वर्तमान दौर के पीछे वैश्विक नवउदारवाद है। इस दौर में पूँजी आक्रामक है। श्रमिकों के आंदोलनों से जो कुछ भी हासिल हुआ था उसे निजीकरण, भूमि-हड़प और पर्यावरण विनाश के बड़े अभियानों के जरिये पूँजी अपने संकट के इस दौर में वापस छीन रही है। जो भी सार्वजनिक संसाधन बचे हुए हैं, उन्हें हड़प रही है। यह मोदी जैसे फासीवादी शासकों के लिए उपजाऊ जमीन है जो लूट की इस प्रक्रिया को और आसान बना रहे हैं। इसीलिए मोदी के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय विरोध की संभावनायें कम हैं । 2002 के जनसंहार के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने थोड़ा बहुत प्रतिबंध झेला था पर आज उनके लिए अंतर्राष्ट्रीय दुनिया से सहयोग और वैधता पाने का रास्ता खुल चुका है।
14. फासीवाद काल्पनिक आंतरिक दुश्मनों को राज्य, राष्ट्र, सभ्यता, संस्कृति और यहां तक कि सार्वजनिक व्यवस्था और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खतरे के रूप में पेश करता है और उनके खिलाफ बड़े पैमाने पर उन्माद फैलाता है। ऐसा करने के लिए, एक तरफ तो फ़ासीवाद उत्पीड़न और अत्याचार की भावनाओं को उभारता है तो दूसरी तरफ गर्व और श्रेष्ठता के दावों का ढोल पीटता है। यह लगातार सुनहरे अतीत के मिथक और महान भविष्य के सपने का आह्वान करता है। हम आज अपने देश में इसे काफी व्यवस्थित रूप से होते हुए देख सकते हैं। संघ परिवार लगातार झूठे ‘इतिहास’ को प्रोत्साहित करके वैदिक युग को ज्ञान का शिखर बताता है और भारत को संवैधानिक गणराज्य के बदले एक सांस्कृतिक इकाई की तरह पेश करता है। यह भारत को ‘अखंड भारत’ में बदलने का वादा करता है, जिसके दायरे में न केवल आज का भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश, बल्कि पश्चिम में अफगानिस्तान, दक्षिण में श्रीलंका, उत्तर में तिब्बत, नेपाल और भूटान तथा पूरब में म्यांमार भी शामिल हैं। इस तरह संघ भारत को मोदी की भाषा में ‘विश्व गुरु’ के रूप में महाशक्ति का दर्जा हासिल करवाने का वादा करता है। हिटलर ने समाजवाद की लोकप्रिय अपील का फायदा उठाने के लिए फासीवाद को ‘राष्ट्रीय समाजवाद’ के मॉडल के बतौर पेश किया था। उसी तरह संघ और भाजपा स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की अपील का इस्तेमाल करते हुए फासीवाद को ही स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की नई ऊंचाई बताते हैं। ‘आत्मनिर्भर भारत’ के भाजपाई शब्दाडंबर के पीछे स्वदेशी की आर्थिक अंतर्वस्तु बिल्कुल नहीं है बल्कि यह ‘मेक इन इण्डिया’ के नाम पर भारत को वैश्विक पूँजी के हाथों गिरवी रख देना चाहता है।
15. इसी तरह यह गिरोह उपनिवेशवाद-विरोधी बयानबाजी तो करता है लेकिन कॉरपोरेट प्रभुत्व या साम्राज्यवाद के विरुद्ध नहीं बोलता बल्कि भारत के अपने अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों और ईसाइयों को निशाना बनाता है। इसे वे इस्लामोफोबिया के वर्तमान वैश्विक माहौल के साथ जोड़ कर भारत में मुस्लिम जनसंख्या विस्फोट, आप्रवासी और घुसपैठिया के नाम पर भारत में ही हिंदुओं के अल्पसंख्यक हो जाने का झूठा डर पैदा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। जर्मनी के नाजी मॉडल ने नस्ली शुद्धता हासिल करना चाहा था। इस यूटोपिया के लिए उन्होंने व्यवस्थित जनसंहार और सामूहिक नसबंदी का इस्तेमाल किया। उन्होंने तथाकथित आनुवंशिक रूप से रोगग्रस्त और विकलांग लोगों से छुटकारा पाने के लिए थोपी गई ‘इच्छामृत्यु’ का इस्तेमाल किया और जर्मन नस्ल की कथित रूप से ‘अनुवांशिक बेहतरी’ के लिए सुजनन तकनीकी (यूजेनिक्स) का इस्तेमाल किया। आज भारत में इसी तरह के व्यवस्थित जनसंहारों, शिविरों और नसबंदी के लिए नियमित रूप से राज्य-प्रायोजित आह्वान किये जा रहे हैं। ये आह्वान इस बात की अचूक चेतावनी हैं कि ये सब जल्द ही हकीकत बन सकता है। नाजी जर्मनी के अलावा मोदी का भारत इजरायली मॉडल से भी बहुत कुछ सीख रहा है। भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति इजरायल के सैन्य सिद्धांतों और सर्विलांस (निगरानी) तकनीकों का अनुसरण कर रही है। हिन्दुत्ववादी सोच भी वैचारिक स्तर पर इजरायल के यहूदी प्रभुत्ववादी परस्त आक्रामक नीति के काफी करीब है। जिस प्रकार अपनी फिलिस्तीन विरोधी नीति की आलोचनाओं को इजरायल, यहूदी विरोधी कह कर खारिज कर देता है उसी तरह मोदी शासन और आरसएस ने भी हिन्दूफोबिया शब्द का इस्तेमाल शुरू कर दिया है और संघ ब्रिगेड के हिन्दू प्रभुत्ववादी अभियान के प्रत्येक विरोध को, हिन्दूविरोधी घृणा कह कर दबा रहा है।
16. संघ-भाजपा गिरोह भय, घृणा, उत्पीड़न और श्रेष्ठताबोध के इर्द-गिर्द आम सहमति गढ़ने की व्यापक रणनीति अपनाता है। मोदी ने वंचना और उत्पीड़न से बेहाल जनता के व्यापक तबकों में व्याप्त आक्रोश की भावना का दोहन करने के लिए शुरू से ही अपनी मार्केटिंग व्यवस्था-विरोधी नायक के रूप में की। बड़ी चालाकी से उन्होंने यथास्थितिवाद से उपजी सभी बीमारियों को भ्रष्टाचार और परिवारवाद की राजनीति बता कर दीर्घकालीन कांग्रेसी शासन से जोड़ दिया। इस व्यवस्था विरोधी भावना को उन्होंने अपने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे से जोड़ लिया। केन्द्र में सत्ता में आ जाने के बावजूद तथाकथित ल्यूटियन्स दिल्ली के खिलाफ उनका विषवमन जारी है। जहां उनके सभी आर्थिक वादे जुमला साबित हुए और क्रोनी पूँजीवाद तथा संघ का बढ़ता प्रभुत्व खुल कर सामने आ गया, वहीं इसके बावजूद जनता के अच्छे खासे हिस्सों के लगभग सभी वर्गों व तबकों में, अब भी उनकी व्यवस्था विरोधी अपील का असर बना हुआ है।
17. संघ-भाजपा की रणनीति के दो केन्द्रीय तत्व हैं- सर्वोच्च नेता की अपील (आकर्षण) और हिंसा पर राज्य के एकाधिकार की जगह उसे निजी कानूनेतर संगठित गुंडा गिरोहों को सौंप देना। संघ अपनी नई सोशल इंजीनियरिंग के जरिये भारतीय मुसलमानों को ‘आंतरिक दुश्मन’ बताते हुए उनके फासीवादी अन्यीकरण को बढ़ावा दे रहा है और इससे इस्लामोफोबिया को मजबूत कर रहा है। इस रणनीति के तहत संघ विभिन्न राज्यों में सामाजिक गठबंधन बनाने का खेल खेलता है और इस काम को निचले तबक़ों की आवाज़ बता कर अपने मनुवादी चेहरे को छुपा लेता है। पिछड़ी जाति के प्रधानमंत्री और दलित व आदिवासी पृष्ठभूमि के राष्ट्रपति, संघ के ब्राह्मणवादी चरित्र को छुपाने के लिए आज की भाजपा के प्रचार-मुखौटे हैं। संघ-भाजपा का विमर्श, संविधान, सर्वोच्च न्यायालय, आधुनिक भारत के संस्थागत ढाँचों और आलोचनात्मक रुख वाले बुद्धिजीवियों पर हमला कर रहा है। खासकर अकादमिक और सांस्कृतिक दुनिया को पश्चिम से प्रभावित और कुलीन बता कर संघ-भाजपा गिरोह मोदी की व्यवस्था-विरोधी व विद्रोही छवि गढ़ने की कोशिश करता है। यह गिरोह जहां अधिकांश विपक्षी दलों को वंशवादी और पारिवारिक उद्यम के बतौर बदनाम करना चाहता है वहीं मोदी सरकार के शाही खर्चे पूर्व-औपनिवेशिक युग के साम्राज्यवादी ढर्रे पर हो रहे हैं। सत्ता में अपने कार्यकाल को इतिहास में दर्ज कर देने के लिए नए संसद भवन के साथ ही स्मारकों, मूर्तियों और मंदिरों का पूरा जाल बिछाया जा रहा है। अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों जिन्हें परम्परागत रूप से ब्राह्मणवादी अनुष्ठानों से दूर रखा जाता था, को शामिल कराने के लिए बड़े स्तर पर धार्मिक उत्सवों का इस्तेमाल किया जा रहा है। गहन सामाजिक रेजिमेन्टेशन, उत्पीड़न एवं बहिष्करण वाली ब्राह्मणवादी व पितृसत्तात्मक जाति व्यवस्था भारत में फासीवाद के लिए उपजाऊ जमीन का काम कर रही है। इसी कारण डा. अम्बेडकर ने हिन्दू राज को देश के लिए सबसे बड़ी आपदा कहा था।
18. भारतीय फासीवाद, शासन के मॉडल की औपनिवेशिक विरासत और लोकतांत्रिक संस्थाओं व संस्कृति की कमजोरी से भी ताकत ग्रहण करता है। भगत सिंह ने जब कहा था कि ‘आजादी का मतलब गोरे अंग्रेजों के हाथों से भूरे साहबों के हाथों में जाने वाली सत्ता नहीं होना चाहिए’ तो वे इस बात पर जोर दे रहे थे कि औपनिवेशिक युग के साथ आज़ाद भारत का कोई सम्बंध नहीं होना चाहिए। कांग्रेस के दीर्घकालीन शासन ने 1980 दशक के उत्तरार्ध में भाजपा के शक्तिशाली उदय से पहले लोकतांत्रिक संस्थानों की कमजोरी के मुद्दे को कभी संबोधित नहीं किया। उलटे इंदिरा गांधी ने 1975 में लोकतांत्रिक अधिकारों को रद्द करने के लिए संवैधानिक प्रावधान का इस्तेमाल करके ही आंतरिक आपातकाल लागू किया था।
19. आपातकाल ने तानाशाही शासन का एक मॉडल दिया था जिसे मोदी शासन ने अपने फासीवादी उद्देश्यों के लिए और परिष्कृत कर लिया है। आपातकाल ने भारत की न्यायव्यवस्था की कमजोरियों और कार्यपालिका द्वारा उसके गलत इस्तेमाल की संभावनाओं को उजागर किया था। इससे सीखते हुए मोदी सरकार ने न्याय व्यवस्था पर बड़े ही व्यवस्थित तरीके से मजबूत पकड़ बना कर अपने सभी स्वेच्छाचारी कदमों और संविधान के खुले उल्लंघनों के पक्ष में न्यायिक सहमति हासिल कर ली है। आपातकाल के दौरान प्रेस ने फिर भी अच्छी खासी स्वतंत्र भावना का परिचय दिया था। जिसके कारण आपातकाल के तानाशाही शासन को प्रेस सेन्सरशिप लागू करनी पड़ी थी। हालांकि ऐसा करने से लोकप्रिय विरोध और तेज ही हुआ था। आज तो शासन के वफादार कॉरपोरेट पिट्ठू मुख्यधारा के अधिकांश मीडिया, खासकर टीवी चैनलों को भी नियंत्रित कर रहे हैं। उनके सहयोग से मोदी सरकार तथा आरएसएस ने मीडिया के मूल चरित्र को ही बदल दिया है। जिसके चलते उसे लोग ‘गोदी मीडिया’ कह रहे हैं। बहरहाल अपना काम ईमानदारी से करने वाले पत्रकारों को उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है, यहां तक कि उनकी हत्यायें भी हो रही हैं।
20. आपातकाल देश पर बाहरी व आंतरिक खतरे का हौवा दिखा कर लागू किया गया था। इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा इन्दिरा गांधी के 1971 के चुनाव को अवैध घोषित करने के आदेश को इस खतरे का सबसे ठोस उदाहरण बताया गया था। जिसे बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने भी सही माना था। तत्कालीन सरकार को देश के समतुल्य बताने और उस सरकार के विरोध को राष्ट्रविरोधी कार्यवाही ठहराने का तर्क आपातकाल के केन्द्र में था। इसीलिए आपातकाल लागू करके लगभग सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं को जेल भेज दिया गया और सरकार द्वारा मनमाने तरीके से नीतियां बनाने एवं देश चलाने की मंशा से सभी राजनीतिक स्वतंत्रताओं को निलंबित कर दिया गया था। मोदी सरकार ने इसी तर्क और शासन के स्वरूप को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और इस्लामोफोबिया के अतिरिक्त हथियारों के साथ जोड़ कर और विस्तार दिया है। मोदी सरकार के विरोध को भारत विरोध और हिन्दू विरोध के रूप में देखा जा रहा है। दमनकारी कानूनों, झूठे मुकदमों, ट्रोल गिरोहों, तथा भीड़ द्वारा हत्या गिरोहों से लैस होकर संघ ब्रिगेड ने सरकार के विरुद्ध उठने वाली प्रत्येक आवाज को दबाने के लिए एक व्यापक तंत्र विकसित कर लिया है। डिजिटल तकनीक ने निगरानी (सर्विलांस) को बुरी तरह बढ़ा दिया है। इसका इस्तेमाल विरोधियों और मानवाधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों को झूठे आरोपों में फंसाने तथा गरीबों और हाशिये पर रह रहे लोगों को संसाधनों से वंचित करने के लिए हो रहा है।
21. आपातकाल के बाद के दौर में मंडल आयोग की सिफारिशों के आंशिक क्रियान्वयन और पंचायती-राज प्रणाली को संस्थाबद्ध करने के माध्यम से सामाजिक समावेशन और लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण का थोड़ा विस्तार दिखा। लेकिन 1990 दशक की शुरुआत में नव-उदारवादी नीतिगत ढाँचा अपनाने के कारण समाजार्थिक विषमता फिर से बढ़ती गयी और लोकतांत्रिक अधिकारों का लगातार क्षरण हुआ। भूमि तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों का जबरन अधिग्रहण, आदिवासियों व किसानों का विस्थापन और ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे संसाधन संपन्न क्षेत्रों में माओवाद के नाम पर आंदोलनकारियों का दमन अब रोज-रोज की बात हो चली है। मोदी शासन इस हमलावर नव-उदारवादी नीति को नए आक्रामक स्तर पर ले गया है। जिसके चलते भारी विस्थापन व वंचना एवं भयानक बेरोजगारी के हालात बन गये हैं। श्रम कानूनों और नौकरियों में भर्ती के नियमों को इस तरह बदला जा रहा ताकि संगठित मजदूर वर्ग बंट जाय और उसकी संघर्ष करने की ताकत एवं ऐतिहासिक रूप में हासिल अधिकारों में क्षरण हो। लेकिन बढ़ती आर्थिक बदहाली और अनिश्चय के खिलाफ पनप रहे जनता के गुस्से को गुमराह करके संघ गिरोह अपने व्यापक घृणा अभियान का हथियार बना रहा है। संघी प्रचार भाग्यवाद और रूढि़वाद का सहारा लेकर जनता को ऐसा बनाना चाहता है कि वह अपनी हर समस्या के लिए सरकार के अलावा किसी को भी जिम्मेदार मान ले। इसके लिए वह हिन्दू पहचान की सर्वोच्चता को सामने ला कर जनता को इन काल्पनिक खतरों से बचाने को मोदी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि बताता है कि अन्य सभी जरूरी मुद्दे उसके सामने बिल्कुल महत्वहीन लगने लगें।
22. फासीवादी आपदा और विनाश के इस भंवर से अपने देश को बचाना आज क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के सामने सबसे जरूरी चुनौती है। यह चुनौती निश्चित ही सभी लोकतांत्रिक ताकतों और वैचारिक धाराओं के बीच व्यापकतम संभव एकता और सहयोग की मांग करती है। यह एकता हमारे देश में लोकप्रिय रूप में संविधान की रक्षा करने, आजादी के आंदोलन की विरासत की हिफ़ाज़त करने, देश, उसके संसाधनों और बुनियादी ढांचे के कॉरपोरेट अधिग्रहण से बचाने जैसे मुद्दों में व्यक्त होती है। इस बीच संविधान की रक्षा और निजीकरण के खिलाफ शक्तिशाली आंदोलन उभरे हैं जो एकता और संकल्प के मामले में अभूतपूर्व हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन और मोदी सरकार द्वारा भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था के कॉर्पोरेट अधिग्रहण को सुगम बनाने की कोशिश के खिलाफ ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने यह साफ़ कर दिया है। क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को फासीवादी शासन के उत्पीड़न का सामना कर रहे नागरिक-समाज के कार्यकर्ताओं के साहस को वर्तमान आन्दोलनों की एकता एवं दृढ़ता से जोड़ना होगा ताकि विपक्ष को ऊर्जा देते हुए चौतरफ़ा प्रतिरोध को मजबूत बनाया जा सके। नागरिक समाज और जन आंदोलनों के उलट, पैसे के लालच, ब्लैकमेल या प्रतिशोध आदि के डर से बुर्जुआ विपक्ष आम तौर पर फासीवादी हमले के सामने नाकाम साबित हुआ है। भारत के राजनीतिक परिदृश्य की विविधता और जटिलता, कांग्रेस का निरंतर पतन और किसी अन्य शक्तिशाली पार्टी की अखिल भारतीय अनुपस्थिति ने मौजूदा दौर को भाजपा के अनुकूल बना दिया है। भाजपा आज भले ही सबसे बड़ी पार्टी है लेकिन जैसा कि कुछ प्रदेशों में देखा भी गया, वह चुनावी मैदान में वह अजेय नहीं है। प्रमुख प्रदेशों और अखिल भारतीय स्तर पर एक गतिशील, दृढ़ और एकजुट विपक्ष का गठन, भाजपा को कमजोर करने और आने वाली चुनावी लड़ाई में मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए महत्वपूर्ण है।
23. हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत में बन रही वर्तमान विपक्षी एकता अभी तक फासीवाद विरोधी चेतना या प्रतिबद्धता से लैस नहीं है। एक ओर सत्ता को आरएसएस के नेटवर्क से ताकत मिल रही है तो दूसरी ओर बहुत से विपक्षी दल आरएसएस का विरोध करने अथवा घृणा, झूठ और आतंक के जहरीले संघी अभियान को चुनौती देने के लिए तैयार नहीं है। अधिकांश विपक्षी दलों के बीच नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और अमेरिका परस्त विदेश नीति के सवालों पर आम सहमति कायम है। विरोध की आवाज उठाने वाले नागरिकों और जनआन्दोलनों के विरुद्ध दमनकारी कानूनों के इस्तेमाल, राज्य-दमन और उत्पीड़न के सवाल भी विपक्षी एजेण्डे में पूरी तरह उपेक्षित हैं। इसीलिए विपक्षी दलों और ताकतों के साथ अधिकतम सम्भव एकता बनाने व बढ़ाने के साथ-साथ कम्युनिस्टों को फासीवाद के विरुद्ध समग्र एवं प्रभावी प्रतिरोध विकसित करने के लिए अपनी सम्पूर्ण राजनीतिक व वैचारिक स्वतंत्रता कायम रखते हुए ही काम करना होगा।
24. हमें ध्यान रखना चाहिए कि मोदी सरकार को चुनावों में शिकस्त देकर फासीवाद को निर्णायक रूप में परास्त नहीं किया जा सकता। एक-दो चुनावी हारों को झेलने लायक ताकत संघ ब्रिगेड को मिल चुकी है। जरूरत है कि इसकी विचारधारा और राजनीति को जोरदार तरीके से खारिज करते हुए एक बार फिर इसे भारतीय राजनीति और समाज के हाशिये पर पहुंचा दिया जाय। नरेन्द्र मोदी स्पष्ट तौर पर इस फासीवादी हमले को आगे बढ़ाने की केन्द्रीय भूमिका में अखिल भारतीय स्तर पर भाजपा के लिए पर्याप्त मात्रा में वोट जुटा रहे हैं। मोदी के पर्सनैलिटी कल्ट (व्यक्ति पूजा की संस्कृति) के आगे संघी अस्तबल के बाकी नेता बौने साबित हो रहे हैं लेकिन ऐतिहासिक रूप से संघ प्रत्येक दौर में नेताओं की लम्बी कतारें पैदा करता रहा है। फासीवादी हमले का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए सुदृढ़ लोकतंत्र और क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव के चैम्पियन के रूप में कम्युनिस्टों को एक दीर्घकालीन और क्रांतिकारी प्रतिरोध संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिए। अम्बेडकर ने कहा था कि संविधान इस अलोकतांत्रिक जमीन पर लोकतंत्र की सजावट भर है। उन्होंने जाति को आधुनिक भारत के लिए सबसे बड़ी बाधा के रूप में पहचाना था और सामाजिक बराबरी तथा आजादी सुनिश्चित करने के लिए इसके पूर्ण ख़ात्मे का आह्वान किया था। सर्वाधिक प्रतिगामी विचारों, प्रवृत्तियों और तौर-तरीकों की जड़ें भारत के दमनकारी सामाजिक ढांचे, खासकर ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था एवं पितृसत्ता में हैं। यह फासीवादी हमले के लिए ईंधन का काम करते हुए लोकतंत्र विरोधी वातावरण में उसे और भी मजबूती एवं वैधता दे रहा है। फासीवाद को शिकस्त देने के लिए कम्युनिस्टों को चल रहे विभिन्न वर्गों और जनता के विभिन्न तबकों के संघर्षों के साथ खड़े होकर भारतीय इतिहास व संस्कृति के प्रत्येक प्रगतिशील एवं परिवर्तनकामी पहलू को, खासतौर पर शक्तिशाली जातिभेद-विरोधी और पितृसत्ताविरोधी संघर्षों को तथा भारतीय समाज एवं इतिहास में मौजूद बराबरी, तार्किकता और बहुलता के पहलुओं को उभारना होगा।
25. फासीवाद भारत के सामने एक बड़ी आपदा है। फासीवाद-विरोधी आंदोलन का लक्ष्य भारत को बचाना और उसका पुनर्निर्माण करना है ताकि इस आपदा और इसके नाते होने वाले नुक़सान और तबाही को ख़त्म किया जा सके। भारत की राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया की कमजोरियों व विसंगतियों, सामंती अवशेषों, औपनिवेशिक दासता और साम्राज्यवादी रीति-नीति के साथ भारत के बुर्जुआ-लोकतंत्र के समझौते और मिलीभगत ने फासीवादी ताकतों को भारतीय राष्ट्रवाद को पुर्नपरिभाषित करने के जरिये सत्ता हथियाने और हिंदुत्व के आधार पर भारतीय शासन व्यवस्था को नए सिरे से गढ़ने में सक्षम बनाया है। कानून के शासन की नीति को एक बड़ा झटका लग चुका है। इस फासीवादी शासन का बढ़ाव और मज़बूती आधुनिक भारत के संवैधानिक नजरिये और ढांचे को पटरी से उतार देगा। इसलिए भारत को फासीवाद के चंगुल से छुड़ाने के लिए क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को दीर्घकालीन, व्यापक और दृढ़ प्रतिरोध संघर्ष के लिए तैयार होना होगा। उन्हें भारत के सभी वर्गों के लिए सामाजिक-राजनीतिक आजादी तथा सांस्कृतिक विविधता सुनिश्चित करने वाले मजबूत और क्रांतिकारी लोकतंत्र के आधार पर भारत का पुनर्निर्माण करना होगा। ‘संविधान बचाओ’ का नारा कोई रक्षात्मक अथवा यथास्थितिवादी नारा नहीं है। इसका अर्थ संविधान के प्रिएम्बल (उद्देशिका) में घोषित प्रतिबद्धताओं को हासिल करना है जिसमें भारत को सम्प्रभु, लोकतांत्रिक, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र के रूप में परिभाषित किया गया है और सभी नागरिकों से स्वतंत्रता, बराबरी, भाईचारा और समग्र न्याय (सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक) का वायदा किया गया है। इसका अर्थ यह भी है कि बढ़ रहे पूंजीवादी पतन और अस्थिरता के बरखिलाफ ज्यादा मानवीय और समतामूलक अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में जद्दोजहद तेज की जाय। जहां फासीवाद भारत में लोकतंत्र को बरबाद करने और हमें पीछे धकेलने की धमकी दे रहा है, वहीं फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध की जीत गणतंत्र को पुनर्स्थापित करेगी। यह जनता की ऊर्जा और पहलकदमी को मुक्त करेगी तथा एक मजबूत लोकतंत्र एवं जनता के समग्र अधिकारों के मजबूत गढ़ के रूप में भारत को पूरी तरह से रूपांतरित करेगी।