[ एम.एल.अपडेट 7—13 मई के सम्पादकीय का हिन्दी अनुवाद ]

2024 के लंबे चुनावों के लगभग बीच में ही भाजपा ने अपने चुनावी अभियान में सार्वभौमिक विकास और समावेश की बात करने वाले नारे 'सबका साथ सबका विकास' का साथ पूरी तरह से छोड़ कर सिर्फ बे-लगाम मुस्लिम विरोधी नफरत को अपना हमसफर बना लिया है. नरेंद्र मोदी और वरिष्ठ भाजपा नेताओं द्वारा विपक्ष के खिलाफ बिना सिर-पैर के लगाए गए आरोप तेज और जहरीले होते जा रहे हैं. इसकी शुरुआत मोदी इस बेतुके और अपमानजनक दावे के साथ कर रहे हैं कि कांग्रेस आम नागरिकों की निजी संपत्ति - महिलाओं के शादी के मंगलसूत्र, गहनों से लेकर घरों और मवेशियों तक - को जब्त कर लेगी और इसे मुसलमानों में फिर से बांट देगी. इसके बाद फिर दुर्भावनापूर्ण तरीके से झूठ बोलते प्रधानमंत्री मोदी ने दावा किया कि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित कोटा पर उनका हक छीनकर मुसलमानों को दे दिया जाएगा. और अब वे बेशर्मी से हमसे कह रहे हैं कि कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनने से पाकिस्तान में सबसे ज्यादा खुशी मनाई जाएगी. यह साफ है कि भाजपा ने अब सुशासन या राष्ट्रीय एकता का कोई ड्रामा न करके सांप्रदायिक विभाजन की आग को ही अपनी एकमात्र चुनावी रणनीति के रूप में गले लगा लिया है.

पाकिस्तान का मुद्दा निस्संदेह भाजपा की सबसे जांची-परखी रणनीतियों में से एक रहा है. गुजरात में 2002 से हर विधानसभा चुनाव में मोदी लगातार पाकिस्तान का मुद्दा उठाते रहे हैं. जब भाजपा को 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जेडीयू के समर्थन के बिना चुनाव लड़ना पड़ा था, तो अमित शाह ने पाकिस्तान का मुद्दा उठाकर बिहार के लोगों को डराने की कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पर इससे पहले मोदी और भाजपा के जरिए मुसलमानों का इस कदर हौवा खड़ा कर आम हिंदू भाइयों को अपनी संपत्ति और आरक्षण को मुसलमानों के हाथों में जाने से डराने के लिए कभी इस तरह से खुलकर नहीं भड़काया गया था. सीधे प्रधानमंत्री द्वारा अपने भाषणों में लगातार जनसंख्या विस्फोट के जरिए भारत पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे घुसपैठिए समुदाय के बतौर मुसलमानों को खलनायक बता निशाना साधना बेहद शर्मनाक और निंदनीय है.

मोदी को अहसास है कि आरक्षण का सवाल भारतीय संविधान के भविष्य के बारे में बढ़ती चिंता के मूल में है. विपक्षी इंडिया गठबंधन आरक्षण की बहस को सत्ता के विभिन्न तबके के सभी सामाजिक समूहों के बीच ले जाने में सफल रही है. इंडिया गठबंधन को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की दीर्घकालिक मांग को तीव्रता के साथ उठाने का श्रेय दिया जाना चाहिए. बिहार में जाति जनगणना और उसके बाद आरक्षण को 65% (10% EWS कोटा के अतिरिक्त) तक बढ़ाने के निर्णय ने पूरे देश के लिए एक खाका पेश कर दिया है. बिहार में जाति जनगणना का विरोध करने में असमर्थ भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर इस विचार का पुरजोर विरोध करती रही है, और परिणामस्वरूप एससी/एसटी/ओबीसी को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करके आरक्षण के विमर्श को सांप्रदायिक बनाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रही है.

यह दावा कि ओबीसी का कोटा मुसलमानों को दिया जा रहा है, पूरी तरह से झूठा और दुर्भावनापूर्ण है. भारत में अनेक मुस्लिम जातियों को गुजरात सहित भारत के दस से ज्यादा राज्यों में लंबे समय से ओबीसी सूची में शामिल रखा गया है. उन्हें मुस्लिम के बतौर नहीं, बल्कि उनके व्यवसाय और व्यापक सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर ओबीसी के बतौर मान्यता की वजह से आरक्षण मिलता है. गुजरात में शायद ऐसी जातियों की सबसे लंबी सूची है, और  ANI के साथ 2022 के एक साक्षात्कार में मोदी को गर्व से यह कहते हुए देखा जा सकता है कि उन्होंने गुजरात में 70 मुस्लिम समूहों को ओबीसी लाभ प्रदान किए हैं. बिहार में, मुस्लिम जातियों को ओबीसी श्रेणी में शामिल करना कर्पूरी ठाकुर के जमाने से शुरू हुआ, जो वीपी सिंह सरकार की 1990 की मंडल आयोग की ओबीसी आरक्षण सिफारिशों को लागू करने की घोषणा से पहले का है. बाद में ओबीसी श्रेणी में कई मुस्लिम जातियों को भी शामिल किया गया, और सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने ओबीसी आरक्षण की वैधता पर अपने ऐतिहासिक 1992 के फैसले में इसे बरकरार रखा.

भाजपा हाल के दिनों में पिछड़े और वंचित 'पसमांदा' मुसलमानों के लिए अभियान चला कर और 'सूफी संवाद' जैसे करके समावेशी दिखने की पुरजोर कोशिश में लगी थी. हालांकि, भाजपा को यह जरूर अहसास होगा कि 2014 और 2019 के चुनावों में उसे मिले वोटों की बड़ी तादात उसके पारंपरिक समर्थन आधार से परे थी, जिसकी मुख्य वजह चुनावी चर्चाओं में भ्रष्टाचार और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दे का उभरना था. जैसे-जैसे आगामी चुनावों की गति आगे बढ़ती जा रही है, भाजपा मुस्लिम विरोधी भावनाओं को खुले तौर पर भड़का देने के पक्ष में समावेशिता, विकास और सुशासन के अपने मुखौटे को उतार कर कोर वोटरों को सक्रिय करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है. हालाँकि यह रणनीति गुजरात में कामयाब होती रही है, लेकिन भारत के लिए नफरत से भरे इस विभाजनकारी नजरिए को  खारिज करना होगा और इसके बजाय हमें संविधान की बुनियादी मान्यताओं को मजबूत करते हुए सांस्कृतिक विविधता को अपना कर सभी के लिए समान नागरिकता सुनिश्चित करना सबसे महत्वपूर्ण है.

भाजपा द्वारा 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए अयोध्या में राम मंदिर पर बहुत अधिक भरोसा करने की चुनावी रणनीति नाकाम हो गई है. वे सोच रहे थे कि 22 जनवरी को अयोध्या में एक अधूरे मंदिर का भव्य उद्घाटन एक शानदार घटना के बतौर चुनावी कथानक पर हावी हो जाएगी. 'जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे' जैसे गीत 2024 को चुनावों में लोगों की जुबान पर चढ़ने की उम्मीद थी, लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए राम मंदिर के नाम का उपयोग करने की भाजपा की कोशिश इन चुनावों में सफल नहीं हो रही है. तीसरे चरण के चुनाव से ठीक पहले अयोध्या में मोदी का रोड शो, साथ ही यह कह जनता को भड़काना कि अगर सपा और कांग्रेस सत्ता में आती हैं तो मंदिर को अस्पताल में बदल देगी सिर्फ मौजूदा तानाशाह की हताशा को दिखाता है. तीसरे चरण में 543 सीटों में से आधे से अधिक सीटों पर मतदान पूरा हो चुकने के बाद बिलकुल साफ दिखाई पड़ रहा है कि इंडिया' गठबंधन आगे चल रहा है. अब अगले चार चरणों में तानाशाह मोदी सरकार के विनाशकारी शासन का खात्मा करने इस बढ़त को मजबूत बहुमत में बदलना होगा.