लोकसभा में निर्वाचन कानून (संशोधन) बिल 2021 को पारित करवाना भारत के लोकतंत्र को खत्म करने की दिशा में एक खतरनाक कदम है. इस प्रस्तावित संशोधन के जरिये मताधिकार को ‘आधार’ जांच से जोड़ने की कोशिश की जा रही है. अनेक जन-विरोधी कानूनों की तरह इस संशोधन को भी ध्वनि मत से लोकसभा में पारित करवा लिया गया; और कई विपक्षी नेताओं की इस मांग को नजरअंदाज कर दिया गया कि इस बिल को संसदीय समिति के पास भेजा जाए जो इसके फलाफल पर विचार करेगी और विशेषज्ञों से सलाह लेगी.
संविधान पीठ के 2017 के ऐतिहासिक फैसले में गोपनीयता के अधिकार को बुनियादी अधिकार के बतौर बुलंद किया गया था जिसे भारत सरकार ने ‘आधार यूनिक आइडेंटिफिकेशन (यूआइए)’ कार्यक्रम के बचाव में नकार दिया था. 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘आधार’ की संवैधानिक वैधता को स्वीकार किया था, लेकिन इसे राज्य-प्रायोजित कल्याण कार्यक्रमों में ही इस्तेमाल करने तक सीमित रखा था, और ‘राष्ट्रीय निर्वाचन सूची शुद्धीकरण तथा प्रमाणन कार्यक्रम’ को रोक देने वाले 2015 के सर्वाच्च न्यायालय के फैसले को बहाल रखा था – उस ‘कार्यक्रम’ के जरिये आधार को वोटर पहचान-पत्र के साथ जोड़ने की कोशिश की गई थी. 2013 में तेलंगाना और आंध्रप्रदेश की सरकारों ने सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का उल्लंघन किया था और आधार को वोटर पहचान-पत्र से जोड़ दिया था, जिसके परिणामस्वरूप कम से कम 55 लाख मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए थे.
आधार से जोड़ने के कारण तकनीकी विफलताओं के चलते पहले ही पीडीएस (सरकारी) राशन और ‘मनरेगा’ लाभों से गरीबों और जरूरतमंदों का बड़े पैमाने पर निष्कासन हो चुका है, जिसके परिणामस्वरूप भूख से कई मौतें तक हो चुकी हैं. आधार से जुड़ाव के कारण तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में मतदाताओं को बड़े पैमाने पर निष्कासित किया गया है. इसके साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि आधार जुड़ाव के जरिये मतदाता पहचान को उनके मोबाइल फोन और इस प्रकार सोशल मीडिया से भी जोड़ दिया जाएगा. नतीजतन, मतदाताओं को उनकी सामाजिक पहचान, राजनीतिक विचार और अन्य पसंदों के आधार पर चिन्हित करना बिल्कुल संभव हो जाएगा. इससे वोटरों की राजनीतिक और सामाजिक पहचान के आधार पर मतदाता सूची में हेराफेरी करना और वाटरों को सूची से बाहर निकालना आसान हो जाएगा. इसके चलते मतदाताओं को शासक पार्टी की धौंस-धमकियों और प्रलोभनों का भी शिकार बना दिया जा सकता है, क्योंकि शसक पार्टी कल्याणकारी योजनाओं के लाभों और मताधिकार को नियंत्रित करने में आधार का इस्तेमाल कर ले सकते है.
सरकार का यह दावा बिल्कुल भ्रामक है कि आधार से जुड़ाव ‘स्वैच्छिक’ होगा – ठीक उसी तरह, जिस तरह कि कल्याणकारी योजनाओं के साथ आधार के जुड़ाव ने अंततः इसको अनिवार्य बना दिया. यह दावा भी हास्यास्पद है कि आधर के जरिये आंकड़ों (डैटाबेस) को ‘शुद्ध’ किया जा सकता है, क्योंकि खुद ‘आधार’ ही मानवीय भूलों के साथ-साथ धोखाधड़ियों से भरा हुआ है, यहां तक कि मतदाता सूची से भी ज्यादा मात्रा में.
‘आधर’ हमारी नागरिकता का प्रमाण नहीं है. इसे मतदान से जोड़ना लोकतंत्र पर आघात होगा. लोकतंत्र का गला घोंटने के इस कदम को पूरी ताकत के साथ रोकना होगा.
मतदान के साथ ‘आधार’ को जोड़ने के प्रयास को नकार दें!