भारत की आजादी के लिए चला आंदोलन विश्व इतिहास में अपने ढंग का एक बड़ा और कई महत्वपूर्ण बदलावों वाला आंदोलन था. औपनिवेशिक शोषण व्यवस्था के खिलाफ लगभग 200 वर्षों तक जनता के विभिन्न हिस्सों का चलने वाले इस अनवरत संषर्ष के केन्द्र में एक नए व आधुनिक भारत के निर्माण का सपना था. 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1942 के आंदोलन के दरम्यानी समय में करोड़ों-करोड़ जनता आंदोलित हुई. आंदोलन के दौरान लाखों गिरफ्तारियां व हजारों शहादतें हुईं लेकिन लोग लड़ते रहे – यह हमारे इतिहास का स्वर्णिम पक्ष है.
आजादी के लिए चलने वाले आंदोलन में अनेकानेक धारायें सक्रिय थीं. महात्मा गांधी के नेतृत्व के साथ यदि कांग्रेस राष्ट्रवादी मुख्यधाारा का प्रतिनिधि बनकर उभरी तो अनेकानेक दूसरी मजबूत आवाजें भी थीं. मजदूर-किसानों का आंदोलन, क्रांतिकारी व कम्युनिस्टों के संघर्ष, हर मोर्च पर स्त्रियों-अल्पसंख्यकों की बराबर की भागीदारी, दलित समुदाय का जागरण अथवा आदिवासियों के अनवरत संघर्ष – सब की सब धारायें औपनिवेशिक शासन और साथ ही साथ सामाजिक स्तर के शोषण व गुलामी से मुक्ति चाहती थीं. भारतीय समाज में गहन आंतरिक तनाव थे और आजादी के उद्देश्यों को लेकर भी मतभेद थे. इसके बावजूद 1947 में जब देश आजाद हुआ तो उसने देश की एकता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र संबंधी मूल्यों को ही अपनी बुनियाद घोषित की. क्योंकि आजादी गहरी पीड़ा व विभाजन के साथ आई थी लेकिन साझी संस्कृति-साझी विरासत की जड़ें आजादी के आंदोलन में इतनी गहरी धंसी हुई थीं कि आजाद भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित हुआ.
देश के समक्ष सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में तीव्र रूपांतरण समय की मांग थी. भगत सिंह, गांधी और अंबेदकर सरीखे नेताओं और आजादी के दौर में चले गहरे सामाजिक आंदोलनों के बावजूद दलितों-आदिवासियों-महिलाओं और समाज के निचले स्तर पर रह रहे अन्य लोगों का सामाजिक-आर्थिक शोषण जारी था. किसानों को जमीन पर हक दिलाना और मजदूरों के लिए सम्मानजनक जीवन की व्यवस्था करना – यह काम भी बाकी था.
राष्ट्रीय आंदोलन की यदि सबसे कमजोर कड़ी की चर्चा करें तो वह भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ-साथ सांप्रदायिक तत्वों का विकास था. 1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन से अंग्रेजों ने एक खास बात सीखी थी. वह यह कि यदि इस देश में शासन करना है तो हिंदु-मुसलमानों को विभाजित करने की राजनीति करते रहो. 1857 में हिंदु-मुसलमानों की अभूतपूर्व एकता ने लगभग अंग्रेजों को देश से बाहर ही कर दिया था. 1888 में तत्कालीन वायसराय डफरिन ने मुसलमानों में विभाजन के उद्देश्य से कहा था कि वह मुसलमानों को पांच करोड़ का समांग पिछड़ा हुआ समुदाय मानता है. 1870 के बाद के हिंदु पुनरूत्थानवादियों से लेकर सावरकर, हिंदु महासभा और आरएसएस दो राष्ट्र के सिद्धांत के इर्द-गिर्द अपनी राजनीति करते रहे और आजादी के आंदोलन से न केवल दूरी बनाए रखे बल्कि कई स्थानों पर उनके नेताओं के माफीनामा के पर्याप्त सबूत आज हमारे पास उपलब्ध हैं. लेकिन आजादी का आंदोलन इतना सशक्त था कि फूटपरस्ती की धारायें उस दौर में कभी महत्वपूर्ण जगह नहीं बना सकी.
विडंबना है कि आज जब देश आजादी के 75वें साल की ओर बढ़ रहा है, सांप्रदायिक विचारधाारा ही देश की गद्दी पर है, और वह अपनी ताकत व सत्ता का इस्तेमाल करते हुए आजादी के आंदोलन के पूरे अंतर्य को ही बदल देना चाहती है. यहां तक कि इतिहास लेखन के मान्य मानदंडों की भी खुली अवहेलना हो रही है और तथ्यों को भी तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है. ऐसी स्थिति में आजादी के सपनों व मूल्यों को एक बार फिर से स्थापित करना ही सही अर्थों में आजादी के 75 साल का जश्न होगा. इस दिशा में बिहार में एक पहलकदमी हुई है,जिसमें व्यापक स्तर पर इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को जोड़ते हुए 2 साल तक ‘आजादी के 75 साल’ नाम से एक जनअभियान चलाने का निर्णय लिया गया है.
इस जन अभियान के जरिए हम आज देश की सत्ता पर काबिज साम्राज्यवाद-कारपोरेट परस्त सांप्रदायिक-फासीवादी ताकतों द्वारा अपने देश की आजादी की लड़ाई में घुसपैठ करने, उसके साथ छेड़-छाड़ करने तथा उसके नाम पर जन मानस में सांप्रदायिक जहर फैलाने की साजिशों को भी चुनौती दे सकते हैं.
हम जानते हैं कि शहीद भगत सिंह, अंबेडकर, पेरियार, ज्योतिबा फूले, सावित्राी बाई फूले, रमा बाई, शेख फातिमा आदि के सामाजिक विचार हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं और राष्ट्रीय आंदोलन में मजदूर वर्ग, किसान समुदाय, आदिवासियों, महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदाय की भूमिका भी जबरदस्त रही है.
व्यक्तियों, आर्काइव, ओरल इतिहास आदि विविध स्रोतों से स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ी सामग्री को हासिल करना और उसका डाॅक्यूमेंटेशन करना तथा साथ ही छोटे-छोटे पर्चों, लीफलेट आदि के जरिए ग्रासरूट स्तर पर प्रचार चलाना, पोस्टर प्रदर्शनी, कविता पाठ, फिल्मों का मंचन, आजादी के आंदोलन के गीतों का संकलन, उनका कैसेट तैयार करना, सोशल मीडिया पर प्रचार संगठित करना, कुछ खास इलाकों में स्मारक व पार्क का निर्माण करना – अभियान को आगे बढ़ाने के तरीके होंगे.
18 नवंबर को बटुकेश्वर दत्त के जन्म दिवस पर पटना के जक्कनुपर में श्रद्धांजलि सभा और भारतीय नृत्य कला मंदिर में एक कन्वेंशन आयोजित करने के जरिए इस अभियान की शुरूआत होगी.
- कुमार परवेज
1857 के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बिहार के अनछुए पहलूओं को सामने लाना. कुंवर सिंह के साथ-साथ भोजपुर के निशान सिंह, हरकिशन सिंह व खासकर महिलाओं की भूमिका को सामने लाना व उनका डाॅक्यूमेंटशन करना व उन पर कार्यक्रम आयोजित करना.
अरवल में 1857 के महान स्वतंत्रता सेनानी जीवधर सिंह पार्क का निर्माण करना.
पटना में शहीद पीर अली के साथियों के स्मारक (गुलजारबाग) का जीर्णोधार करना.
नवादा जिले 1857 के बाद भी लगभग 10 वर्षों तक जारी रजवार विद्रोह का डाॅक्यूमेंटेशन करना व नवादा में उस पर कार्यक्रम आयोजित करना.
चंपारण में महात्मा गांधी के सत्याग्रह आंदोलन के आंदोलनकारियों, खासकर शेख गुलाब, बत्तख मियां सरीखे लोगों के इतिहास को सामने लाना तथा चंपारण से गांधी की वापसी के बाद भी वहां नीलहों-जमींदारों के खिलाफ चले किसान आंदोलन के इतिहास का दस्तावेजीकरण करना.
1942 के आंदोलन में शहीद हुए लगभग 500 शहीदों की सूची निकालकर यथासंभव उनके स्मारक बनाना तथा आंदोलन के दौरान बिहार में गठित समानान्तर सरकार (बाढ़-बड़हिया) के इतिहास को सामने लाना.
अविभक्त बिहार में आदिवासियों का जुझारू आंदोलन हमारे इतिहास का एक स्वर्णिम पन्ना है. भागलपुर-पूर्णिया क्षेत्र में आदिवासियों के आंदोलनों के इतिहास, खासकर उसके अनछुए पहलूओं को सामने लाना.
शाहाबाद, मगध, सारण व मिथिला में चले ऐतिहासिक किसान आंदोलनों का डाॅक्यूमेंटेशन तथा गया में यदुनंदन शर्मा के आश्रम का पुनर्निर्माण.
अंडमान के जेल में बंद बिहार के स्वतंत्रता सेनानियों व शहीदों का इतिहास लेखन व स्वतंत्रता आंदोलन के इन नेताओं के जीवन व कर्म को सामने लाना और उनकी स्मृति को सुरक्षित करने का प्रयास करना.
नछतर मालाकार (अररिया)
बिस्मिल अजीमाबादी (पटना)
बद्री अहीर (भोजपुर)
तकी रहीम (पटना)
पृथ्वीराज सिंह (जहानाबाद)
रमाकांत द्विवेदी रमता (भोजपुर)
जुब्बा सहनी (मुजफ्फरपुर)
तारामुनी देवी (सारण)
शेख गुलाब (चंपारण)
बत्तख मियां (चंपारण) आदि.