वर्ष - 30
अंक - 44
30-10-2021


– सुखदर्शन सिंह नत्त

पंजाब में पार्टी के काम के दूसरे चरण की शुरुआत से कामरेड बृजबिहारी पांडे हमारे पहले पार्टी संगठक थे. बाद में उन्होंने एक बार खुद मुझे बताया था कि पार्टी के भूमिगत काम के दौर में 1975-77 में उन्होंने कुछ समय के लिए पंजाब में पार्टी संगठक के रूप में पहले भी काम किया था. उन्होंने मुझे उस दौर के कुछ साथियों के नाम भी बताए जो उस समय पंजाब में उनके संपर्क में रहे थे. इनमें दिवंगत कामरेड छोटा सिंह सुल्तानपुरी, टहिल सिंह ददाहूर, दलजीत सिंह और कुछ अन्य शामिल थे. लेकिन ये लोग टिकाऊ और अनुशासित क्रांतिकारी कार्यकर्ता होने की बजाय घूमंतू और अराजकतावादी तत्व साबित हुए, जिसके चलते उस समय पंजाब में पार्टी का कोई समाजिक-राजनीतिक आधार या स्थायी संगठनात्मक ढांचा विकसित नहीं हो सका था.

दूसरे चरण में, पंजाब में पार्टी का काम 1 से 3 नवंबर 1984 तक कोलकाता में आयोजित इंडियन पीपुल्स फ्रंट के दूसरे राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद शुरू हुआ था. कामरेड हाकिम सिंह समाओं और कामरेड अमर सिंह अच्चरवाल सहित पंजाब के कुल सात साथियों ने उस सम्मेलन में भाग लिया था. उनमें से एक चंडीगढ़ के रहने वाले तेजिंदर सिंह संधू थे, जिन्होंने आईआईटी, कानपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिग्री हासिल की थी. वहीं पर वे पार्टी के संपर्क में आए थे और पार्टी कार्यकर्ता बन गए थे. ऐसे ही एक और युवक थे – देवेंदर पाल. चूंकि उनके पिता झारखंड के धनबाद जिले में सिंदरी फर्टिलाइजर फैक्ट्री में कार्यरत थे, इसलिए देवेंदर पाल ने पहले सिंदरी में ही पढ़ाई की और बाद में दिल्ली से इंजीनियरिंग की. वहीं वे पार्टी से भी जुड़ गए. देवेंदर पाल बाद में पंजाब आ गए थे, लुधियाना में रहने लगे थे और उन्होंने औद्योगिक मजदूरों को संगठित करने का काम करना शुरू कर दिया था.

1984-85 में कामरेड बीबी पांडे इन दो युवा साथियों – दिवंगत तेजिंदर सिंह संधू उर्फ टीएस संधू और देवेंदर पाल की मदद से पंजाब में आने-जाने लगे. चंडीगढ़ पहुंचने पर उनका ठिकाना अक्सर टीएस संधू के पास और लुधियाना में देवेंदर पाल के घर पर हुआ करता था.

कामरेड समाओं और कामरेड अच्चरवाल से आगे संपर्क की तलाश में लगे कामरेड टीएस संधू को मानसा के एक युवा क्रांतिकारी कलाकार कामरेड सुरजीत गामी मिले. मेरे शहर के निवासी के रूप में वे मेरे भी मित्र थे. सुरजीत गामी ने ही 1985 के पूर्वार्ध में जालंधर में एक समारोह में कामरेड टीएस संधू से मेरा परिचय कराया था. पहली बैठक में जब कामरेड संधू ने इंडियन पीपुल्स फ्रंट के स्तर पर मुझसे बात करना शुरू किया तो मैंने उनसे कहा कि मुझे कामरेड समाओं जी से इसके बारे में बुनियादी जानकारी तो पहले ही मिल चुकी है. मैं जानना चाहता हूं कि आईपीएफ के पीछे काम कर रही क्रांतिकारी पार्टी कौन सी है और उसका कार्यक्रम और समझदारी क्या है? इस पर ज्यादा टिप्पणी करने की बजाय कामरेड संधू ने मेरा पता-ठिकाना नोट किया और कहा कि हम जल्द ही आपसे इस बारे में आगे बात करेंगे.

उस समय मैं मुकेरियां हाइडल चैनल नामक एक नई शुरू हुई नहर परियोजना पर एक जूनियर इंजीनियर के रूप में काम कर रहा था और मेरा मुख्यालय हिमाचल प्रदेश की सीमा के पास होशियारपुर जिले में स्थित तलवाड़ा टाउनशिप में था. लगभग एक महीने बाद एक शाम, अचानक, कामरेड संधू एक और अज्ञात साथी के साथ हमारे पास आए. परिचय के दौरान उन्होंने हमें बताया कि ये कामरेड जयंत जी हैं (यह उस समय पार्टी में पांडे जी का कोड नेम था) और भविष्य में पार्टी संबंधी आपसे संपर्क व बातचीत करना इनकी ही जिम्मेदारी होगी. हम – यानि मैं और मेरे कुछ सक्रिय साथी – उस गठीले शरीर व गोरे रंग के बड़े-से, मगर दयालु और हंसमुख चेहरे वाले गैर-पंजाबी कमरेड से कुछ शंका और आश्चर्य के साथ मिले. यद्यपि छात्र काल से ही मेरा जुड़ाव कामरेड एसएन सिंह के नेतृत्व वाली भाकपा(माले) (पीसीसी) से रहा होने के चलते पंजाब से बाहर के साथियों से मिलना मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी, लेकिन फिर भी मेरे मन में कुछ शंका थी कि नई पार्टी का यह नया आया भूमिगत कामरेड स्वभाव से न जाने कैसा होगा?

लेकिन उसी रात जब हमने कामरेड जयंत ऊर्फ पांडे जी को हमारे द्वारा उठाए गए सवालों और शंकाओं के जवाब में बिना किसी हिचकिचाहट के विस्तार से बोलते हुए देखा तो हमने महसूस किया कि ये कामरेड एक सूखा/खुश्क सिद्धांतवादी होने की बजाय ज्ञान का एक विशाल भंडार व गहरी साहित्यिक रुचि रखने वाले एक समर्थ व खुशमिजाज क्रांतिकारी नेता हैं. नतीजतन, उस पहली मुलाकात से उनके साथ हमारा एक आत्मीय और भरोसे का रिश्ता कायम हो गया जो अगले 36-37 साल तक और सही कहें तो उनकी आखिरी सांस तक वैसा का वैसा ही बना रहा.

उन्होंने विभिन्न बैठकों में बिना किसी झिझक के हमें भाकपा(माले) के इतिहास व बलिदानों के बारे में जानकारी देते हुए पार्टी में समय-समय पर चली वैचारिक बहसों, गंभीर गुटबाजी, बिखराव, पार्टी के द्वारा चलाये गये शुद्धिकरण अभियानों और पार्टी लाइन के विकास की प्रक्रिया के बारे में उपयोगी जानकारी भी प्रदान की. हमारे एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि जनता पार्टी, जो इमरजेंसी के बाद मार्च 1977 में भारी जनसमर्थन के साथ सत्ता में आई थी, के विघटन व टुट के परिणामस्वरूप लगभग ढाई साल के अंतराल के बाद, 1980 में जब इंदिरा कांग्रेस दोबारा सत्ता में आ गई, तो पार्टी ने देश की सच्ची वामपंथी और लोकतांत्रिक ताकतों को इंदिरा की तानाशाही के खतरे के खिलाफ एकजुट करने के उद्देश्य से एक खुले जन राजनीतिक मंच के रूप में ‘इंडियन पीपुल्स फ्रंट’ के निर्माण की आवश्यकता महसूस की थी. ऐसे ही उन्होंने हमारी मांग पर आईपीएफ और पार्टी के बीच के बहुआयामी संबंधों पर भी प्रकाश डाला. इतना ही नहीं, उन्होंने हमारे द्वारा बिना किसी योजना के किए जा रहे सैद्धांतिक अध्ययन की बजाय पार्टी द्वारा सैद्धांतिक अध्ययन के लिए तैयार किये गये पाठ्यक्रम से भी हमें परिचित कराया और हमारे लिए व्यवस्थित अध्ययन का एक पाठ्यक्रम भी तैयार किया. इस सबका परिणाम यह हुआ कि उम्र और अनुभव के बीच के भारी अंतर के बावजूद पांडे जी जल्द ही हमारे लिए महज एक नेता या कोई बाहरी व्यक्ति न रहकर हमारे एक ऐसे अच्छे मित्रा बन गए, जिनकी वापसी का हमें बेसब्री से इंतजार रहता था. उनकी एक आदत जो उनकी खासियत भी थी और जिसका उनकी गैरहाजिरी में हम अक्सर मजाक उड़ाते थे, यह थी कि वह बात करते-करते अपने लिए खैनी बनाते रहते थे. इस काम को वे कभी भी जल्दी में नहीं करते थे. वे आराम से अपनी जेब से एक छोटा-सा पैकेट निकालते, उसमें से कुछ खैनी अपनी हथेली पर डालते, उसमें थोड़ा-सा चूना मिलाते, बात करते जाते और धीरे-धीरे अपने अंगूठे से उस मिश्रण को रगड़ते रहते. बीच में कभी-कभी वे रुक जाते और ध्यान से उसमें से कुछ चुनकर बाहर फेंकते, फिर दूसरे हाथ से उस हाथ पर हल्की ताली बजाते और महीन धूल को हल्के से फूंक मारकर उड़ा देते और उसे फिर से रगड़ना शुरू कर देते. इस पूरी प्रक्रिया में काफी समय लगाता, लेकिन इस दौरान वह चर्चाधीन मुद्दे पर अपनी व्याख्या जारी रखते. अपनी बात के अंत में वे मेहनत से तैयार होनेवाले इस मसाले की एक चुटकी लेकर अपने होठों के हवाले कर लेते. हमारे पंजाबी कामरेडों को, जिनमें से कोई भी खैनी या तंबाकू का इस्तेमाल नहीं करता था, उनके द्वारा खैनी बनाने की यह पूरी प्रक्रिया शुरू में बहुत दिलचस्प लगती थी. ऐसे ही कोई मजाक या राजनीतिक व्यंग्य सुनने या सुनाने के बाद जोर से, दिल से और देर तक खुल कर हंसने की पांडे जी की आदत भी मुझे बड़ी अच्छी लगती थी, शायद इसलिए भी क्योंकि यह मेरे अपने स्वभाव से काफी मिलती-जुलती थी!

इस दौर में तलवाड़ा में घटी एक दिलचस्प घटना मेरे जेहन में आज भी ताजा है. 1986 या 1987 की बात है. तब पंजाब में खालिस्तानी गुटों द्वारा अक्सर  हत्याएं और बम विस्फोट होते रहते थे, जिसके परिणामस्वरूप राज्य में शीतकालीन बस सेवा शाम 5.30 बजे ही बंद हो जाती थी. ऐसे में ही एक बार कामरेड पांडे जी हमारे पास तलवाड़ा आए हुए थे और अगली शाम तक उन्हें चंडीगढ़ पहुंचना था, जहां उन्होंने एक साथी के साथ आवश्यक संपर्क तय कर रखा था. पठानकोट से चंडीगढ़ के लिए आखिरी बस शाम करीब साढ़े चार बजे तलवाड़ा टाउनशिप के सेक्टर-3 स्थित बस स्टाॅप से होकर गुजरती थी. यह बस हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा और ऊना जिलों से गुजरती हुई रात को नंगल (भाखड़ा) करीब साढ़े नौ बजे चंडीगढ़ पहुंचती थी. हिमाचल क्षेत्रा से गुजरने वाली यह सड़क अपेक्षाकृत सुरक्षित मानी जाती थी, इसीलिए ईधर से यातायात देर तक जारी रहता था. मैं और पांडे जी शाम करीब चार बजे सेक्टर-3 के बस स्टाॅप पर पहुंचे और छोटी-छोटी बातें करते हुए आखिरी बस का इंतजार करने लगे. बस समय पर आई, हमने रुकने के लिए हाथ भी दिया, लेकिन वह बिना रुके निकल गई. शायद ड्राइवर देर हो जाने के डर से जल्दी में था और उसने लोकल सवारी जान कर रूकना उचित नहीं समझा. पांडे जी बहुत परेशान हो गए क्योंकि उनका जाना बहुत जरूरी था और अब उनके पास चंडीगढ़ पहुंचने का कोई साधन भी नहीं था. मुझे इतना पता था कि चालक व संचालक के चाय पीने के लिए बस तलवाड़ा के मुख्य बस स्टैंड पर पांच-सात मिनट के लिए रुकेगी. लेकिन मुख्य बस स्टाॅप लगभग चार किलोमीटर दूर था और हमारे पास तुरंत वहां तक पहुंचने का भी कोई साधन नहीं था. हम किसी हारे हुए जुआरी की भांति वहां भ्रमित और हताश खड़े थे. अचानक मैंने देखा कि हमारी प्रोजेक्ट बसें जो प्रोजेक्ट के वर्कर्स को निर्माणाधीन बिजली घरों तक ले जाने व वापस लाने के लिए चलती थीं, में से एक इधर आ रही है. परियोजना कार्यकर्ताओं की रैलियों में एक ट्रेड यूनियन नेता के रूप में अक्सर बोलने के जरिए बनी हुई अपनी पहचान का फायदा उठाते हुए मैंने अंतिम उपाय के रूप में बीच सड़क पर खड़े होकर बस को रोकने का इशारा किया. हैरानी की बात कि उस खटारा टाइप की बस ने जोर से ब्रेक लगाया और एक तेज आवाज करते हुए एकदम से रूक गई. अंदर से ड्राइवर ने झटपट कहा – कामरेड जी, हुकम?! तब मैंने देखा कि चालक कामरेड बूटा सिंह था जो प्रोजेकट के बिजली कर्मचारी संगठन ‘टेक्नीकल वर्कर्स यूनियन’ का एक प्रमुख नेता और आईपीएफ का एक सक्रिय कार्यकर्ता था. मैंने झट से कहा – ‘बूटा सिंह, कामरेड जी को चंडीगढ़ जाना है और चंडीगढ़ की आखिरी बस बिना रुके ही निकल गई, उसे पकड़ना है.’ बूटा सिंह ने भी बिना समय बर्बाद किए एक ही शब्द कहा – ‘आओ!’ हम बस में चढ़े ही थे कि उसने बस को तेजी से दौड़ा लिया. बस में प्रोजेक्ट के दो-तीन मजदूर और भी थे जिन्हें रास्ते में उतरना था, लेकिन बूटा सिंह ने उनसे कहा कि पहले कामरेड जी को बस पकड़ा दूं, तुम्हें वापसी में उतारूंगा. उन मजदूरों की प्रतिक्रिया थी – कोई बात नहीं जी, पांच-सात मिनट की ही तो बात है. बूटा सिंह, जितना तेजी से संभव था, बस को दौड़ाते हुए बस स्टैंड तक पहुंचे. लेकिन हमने देखा कि चंडीगढ़ वाली वह बस हमारे सामने बस स्टैंड छोड़ कर अपनी अगली यात्रा के लिए निकल रही थी. हार का साया फिर हमारे चेहरे पर आ गया, मगर बूटा सिंह ने हार न मानते हुए रोडवेज की उस बस के पीछे ही अपनी बस भी बिना देरी किए उसी सड़क पर डाल दी. लेकिन कहां निर्माणाधीन बिजली घर तक रोजाना आराम से दस-बीस किलोमीटर तक के चक्कर लगाने वाली प्रोजेक्ट की फटीचर टाईप बस और कहां चंडीगढ़ से पठानकोट तक रोजाना करीब नौ सौ या एक हजार किलोमीटर का सफर तय करने वाली पंजाब रोडवेज की एक दम नई बस! इससे भी आगे आज से 34-35 वर्ष पूर्व उस अर्ध-पर्वतीय क्षेत्र की आधा-आधा किलोमीटर चौड़ी पहाड़ी खड्डों व पत्थरों-चट्टानों से भरा नाम निहाद रास्ता! इसप्रकार दो बसों के बीच एक अप्रत्याशित और खतरनाक दौड़ शुरू हो गई. तेज गति पर दौड़ने के कारण हमारी वाली पुरानी और टूटी-फूटी बस भयंकर शोर कर रही थी. ऐसा लगता था की यह किसी भी क्षण टूट कर बिखर जाएगी. बूटा सिंह ने अगली बस को रोकने के लिए बार-बार लाईट भी दी और लंबे हाॅर्न भी बजाए, लेकिन उसकी इन कोशिशों का पंजाब रोडवेज के ड्राइवर पर कोई असर नहीं हुआ. पांडे जी और मैं सीटों के सामने वाले पाइप को पकड़ कर मजबूती से सीटों पर चिपके हुए बैठे सोच रहे थे कि यह यात्रा हमारी आखिरी यात्रा भी बन सकती है. लेकिन कामरेड बूटा सिंह किसी भी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं थे. वे अगली बस से आगे निकलने के लिए अपनी पूरी ताकत से संघर्ष कर रहे थे. अंत में छह-सात किलोमीटर के बाद एक ग्रामीण बस स्टाप पर जब अगली बस के आगे कुछ रुकावट आई तो बूटा सिंह ने बिना समय गंवाये अपनी बस को साईड से आगे निकाल लिया. फिर उसने हाथ से रोडवेज के चालक को बस रोकने का इशारा किया. दोनों बसें रुकीं तो हम तेजी से उतरे और पांडे जी को पंजाब रोडवेज की बस में बिठाया. हमें अलविदा कहते हुए पांडे जीके शब्द थे – ‘कुछ किलोमीटर की यह विचित्र बस यात्रा शायद मुझे जिंदगी भर याद रहेगी!’

पांडे जी के जरिए पार्टी से संपर्क होने से पहले हम कुछ सक्रिय साथी 1983-84 से ‘डेमोक्रेटिक पीपुल्स फ्रंट या डीपीएफ के बैनर तले स्वतंत्र रूप से काम कर रहे थे. मानसा और तलवाड़ा टाउनशिप हमारी गतिविधियों के दो मुख्य केंद्र थे. डीपीएफ के लिखित घोषणा पत्र व संविधान में हमने पहले ही दर्ज किया हुआ था कि डीपीएफ संक्रमणकालीन अवधि (Transitional Period) का एक स्थानीय संगठन है और जब भी हमें राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर एक समान विचारधारा वाला संगठन मिल जाएगा तो हम अपने संगठन को बिना किसी हिचक के उस में शामिल कर देंगे. जब हम ‘इंडियन पीपल्स फ्रंट’ के संपर्क में आए, जिसके नाम से लेकर सामाजिक-राजनीतिक समझ तक काफी कुछ हमारे संगठन से बिलकुल मिलता-जुलता था, तो हम उसमें शामिल होने के लिए सहर्ष तैयार हो गए. हमारी भागीदारी के कुछ ही समय बाद, 30 मार्च 1985 को मानसा में हुई एक महत्वपूर्ण बैठक में इंडियन पीपुल्स फ्रंट, पंजाब की 9 सदस्यों पर आधारित तदर्थ राज्य समिति का गठन किया गया. कामरेड हाकिम सिंह समाओं जी को इसका पहला राज्य संयोजक बनाया गया.

एक राजनीतिक संगठक के रूप में कामरेड पांडे जी की महारत व एक गैर-सिख और गैर-पंजाबी के रूप में आसानी से पहचाने जाने के बावजूद, उस खतरनाक दौर में पंजाब के नये-पुराने क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं तक पहुंचने के लिए उन्होंने पंजाब के दूरदराज के बहुत से गांवों और कस्बों तक का निडरता से दौरा किया. इसका ही नतीजा था कि पंजाब में जल्द ही मानसा, तलवाड़ा, लुधियाना शहर, रायकोट-अच्चरवाल और चंडीगढ़ के रूप में पार्टी की गतिविधियों के कुछ स्थायी केंद्र विकसत हो गए. इसके ही आधार पर 1985 में ही गुप्त रूप से पार्टी की पहली स्टेट लीडिंग टीम का गठन किया गया था. इस लीडिंग टीम में जहां कामरेड हाकिम सिंह समाओं और शहीद कामरेड अमर सिंह अच्चरवाल जैसे पंजाब के नक्सली आंदोलन के प्रमुख और लोकप्रिय नेता थे, वहीं इसमें कामरेड तेजिंदर सिंह संधू (दिवंगत) और देवेंदर पाल जैसे युवा साथी भी शामिल थे. इस टीम के पहले सचिव भी कामरेड टीएस संधू ही थे.

इस तरह खालिस्तानी आतंकवाद के दबदबे वाले उस  महत्वपूर्ण दौर में, जब पंजाब में अपनी स्थापना के समय से ही सक्रिय सीपीआई, सीपीआइ(एम) और अधिकांश नक्सली गुट पंजाब मुद्दे व भारतीय स्टेट के बारे में अपनी त्रुटिपूर्ण राजनीतिक समझ और रणनीति के कारण अप्रासंगिक, कमजोर और खंडित होते जा रहे थे, ऐन उसी दौर में भाकपा(माले) लिबरेशन ने राज्य में अपनी राजनीतिक गतिविधियों और पार्टी निर्माण की सफलता से शुरुआत की. पार्टी ने शुरू से ही भारतीय स्टेट व केंद्रीय सरकार द्वारा निर्मित इस धारणा को खारिज कर दिया कि पंजाब का मुद्दा सांप्रदायिक आतंकवाद या अलगाववाद के रूप में सिर्फ कानून और व्यवस्था का मामला है, पार्टी का कहना था कि यह सिर्फ सरकारी आख्यान है. इसके विपरीत, सचाई यह है कि वास्तव में पंजाब मसला एक अहम समाजिक-राजनीतिक प्रश्न है. पार्टी का कहना था कि दरअसल यह मुद्दा ‘हरित क्रांति’ के रूप में कृषि के साम्राज्यवादी विकास माॅडल की विफलता, बहुसंख्यक किसानों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति और उन पर निरंतर बढ़ रहे कर्ज व युवाओं के बीच बढ़ती बेरोजगारी के फलस्वरूप प्रांत के देहाती क्षेत्र में निरन्तर बढ़ रही बेचैनी से उपजे गहरे आक्रोश की एक बहुआयामी अभिव्यक्ति है, जिसे असमान पूंजीवादी विकास के सम्मुख देश में एक वास्तविक संघीय ढांचे की स्थापना व राज्यों के लिए अधिक अधिकारों व शक्तियों के विकेंद्रीकरण की उभरती हुई मांगों के साथ-साथ, पंजाब से संबंधित कुछ विशेष मांगों व एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के बतौर सिख भाईचारे के कई महत्वपूर्ण मुद्दों को न्यायपूर्ण ढंग से संबोधित करने में शासक वर्ग की विफलता ने और भी जटिल बना दिया है. केंद्र की कांग्रेस सरकार की दमन, बंदूक और सैन्य कारवाई के माध्यम से शांति लाने की नीति को पूर्णतया खारिज करते हुए, पार्टी ने शुरू से ही सरकार के सीमाहीन दमन के खिलाफ आवाज उठाई और पंजाब मसले के न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक राजनीतिक समाधान का आह्वान किया. इस सही जनवादी दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप, एक ऐसे राज्य में जहां दोनों पारंपरिक वाम दलों के द्वारा केंद्र सरकार की ओर से उठाए गए सभी दमनात्मक कदमों का खुलकर समर्थन करने के चलते पंजाब की किसानी और सिख समुदाय में कम्युनिस्टों की छवि ‘दिल्ली दरबार के पिछलग्गुओं’ वाली बन चुकी थी, वहां आईपीएफ के बैनर तले प्रचार व गतिविधि करते हुए, भाकपा(माले) लिबरेशन ने जल्दी ही पुलिस व सरकार की मनमानी के खिलाफ लड़ने वाले एक लड़ाकू क्रांतिकारी संगठन के रूप में अपनी एक नई और विशिष्ट पहचान स्थापित कर ली. फलस्वरूप धीरे-धीरे ही सही, लेकिन पार्टी निश्चित रूप से विकास और विस्तार के रास्ते पर चल पड़ी. इसके अलावा, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से अपनी संकीर्ण राजनीतिक गणनाओं के आधार पर जून 1984 में किये गए ऑपरेशन ब्लू स्टार रूपी अमानवीय और खूनी कृत्य और नवंबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजधानी दिल्ली समेत देश के विभिन्न हिस्सों में सत्तारूढ़ कांग्रेस द्वारा निर्दाेष सिख पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के अमानवीय कत्लों, बलात्कारों, लूटपाट और आगजनी के रूप में तीन दिनों के संगठित नरसंहार अभियान के खिलाफ बहुसंख्यक आबादी के संभावित गुस्से और सामाजिक अलगाव का गंभीर खतरा मोल लेते हुए भी आईपीएफ-लिबरेशन की ओर से देश भर में जिस मजबूती से आवाज उठाई गई थी. उसके चलते पार्टी की पहले से ही देश के लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण हलकों, जिनमें सिख समुदाय भी शामिल है, में जो अच्छी पहचान उभरी थी, स्वाभाविक रूप से हमें पंजाब में पारंपरिक वामपंथियों से अलग पार्टी की एक नई पहचान स्थापित करने में उसका भी काफी लाभ मिला.

बेशक, उन जटिल राजनीतिक परिस्थितियों में यह काम इतना आसान नहीं था. लेकिन पांडे जी ने धीरे-धीरे ठरंमे से काम लेते हुए पार्टी के नए और पुराने साथियों की सोच में मौजूद तीखे विभाजन के बावजूद और हम जैसे नए साथियों के तीखे तर्कों-दलीलों का सामना करते हुए भी, अंतमः हम सब को पंजाब में पार्टी की सेंट्रल कमिटी की आम समझदारी के साथ मिल कर काम करने के लिए एकमत कर ही लिया.

1989-90 में, जब पार्टी अभी भी भूमिगत थी, पांडे जी को आधिकारिक तौर पर पार्टी द्वारा अपने खुले प्रवक्ता के रूप में नियुक्त किया गया था. इस नयी जिम्मेदारी के चलते उन्हें पंजाब की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया. बाद में उन्हें पार्टी के हिंदी साप्ताहिक ‘समकालीन लोकयुद्ध’ का संपादक बनाया गया और 10वें पार्टी महाधिवेशन में इसके साथ-साथ उन्हें पार्टी के सेंट्रल कंट्रोल कमीशन का अध्यक्ष भी चुन लिया गया था. हमेशा की तरह अपनी इन जिम्मेवारियों को भी उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक पूरी लगन और समर्पण के साथ निभाया. निःसंदेह उनके बाद केन्द्रीय कमेटी की ओर से समय-समय पर कामरेड शंकर मित्र, कामरेड दीपंकर जी और कामरेड स्वपन मुखर्जी भी पार्टी की पंजाब इकाई के प्रभारी रहे और हमने इन सबके साथ भी वैसे ही दोस्ताना माहौल में पार्टी का काम किया और कर रहे हैं. लेकिन भौगोलिक दूरियों के बावजूद कामरेड पांडे जी के साथ हमारी दोस्ती और प्यार जस का तस बना रहा. मेरे लिए वे एक अच्छे विश्वकोश या एक जीते-जागते, चलते-फिरते शब्दकोश की भांति भी थे. किसी लेख या दस्तावेज का अनुवाद करते वक्त जब भी कोई शब्द, अवधारणा या घटना मुझे समझ में नहीं आती थी, मैं तुरंत पांडे जी को फोन करता. वह समस्या पर विस्तार से प्रकाश डालने के लिए अक्सर कोई समय नहीं मांगते थे, जिससे मेरा काम बहुत आसान हो जाता.

पांडे जी की हिंदी भाषा और साहित्य पर तो अच्छी पकड़ थी ही, वे अंग्रेजी और बंगाली के साथ-साथ असमिया और उड़िया में भी पारंगत थे. यह माना जा सकता है कि यह सब तो उनके प्राथमिक कार्य क्षेत्र – बंगाल – के साथ निकटता से जुड़े हुए क्षेत्र की ही बोलियां हैं, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वे एक पूरी तरह से अलग भाषा – पंजाबी में भी पारंगत थे. हस्तलिखित तो नहीं, लेकिन टाइप या मुद्रित पंजाबी लेखन को पढ़ने या समझने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी. मुझे व्यक्तिगत रूप से पंजाबी पढ़ सकने की उनकी इस क्षमता से बहुत फायदा हुआ. मेरे लिए ठीक से हिंदी लिखना लगभग असंभव है. इसके बावजूद अगर मेरे कुछ लेख या रिपोर्ताज समकालीन लोकयुद्ध में प्रकाशित होते रहे हैं तो यह पांडे जी की पंजाबी पढ़ने की क्षमता का ही चमत्कार था. मैं उन्हें पंजाबी में टाइप की हुई अपनी लेखनी भेजता था और पांडे जी उसका हिंदी में अनुवाद करके उन्हें छाप देते थे. मेरे से उम्र, ज्ञान, अनुभव व पार्टी सीनियर्टी में कहीं ऊपर होने के बावजूद, ये उनका बड़प्पन या कामरेडशिप ही था कि वह हमारी टूटी-फूटी बेतरतीब लेखों को भी हिंदी में अनुवाद व ठीक-ठाक करके छपने लायक बना लेते थे. पांडे जी की इस कड़ी मेहनत का ही नतीजा है कि मेरे कुर्छ आर्टिकल पहले हिन्दी में, फिर हिंदी से आगे किसी और साथी की मेहनत से अंग्रेजी में अनुवाद होकर मासिक ‘लिबरेशन’ में भी छप सके.

हालांकि पांडे जी, जब भी उन्हें ऐसा करने का कोई उपयुक्त अवसर मिलता दर्शन, सिद्धांत, इतिहास, साहित्य और संस्कृति के बारे में  धीरे-धीरे, मगर बहुत विस्तार से बात करते थे. उस विषय से जुड़ी हर साईड स्टोरी या हर डिटेल को रखते हुए बिना किसी जल्दबाजी के. मगर उन्होंने अपनी पृष्ठभूमि, अपने परिवार या पार्टी व नक्सल आंदोलन में अपने शुरुआती दिनों या उस दौर की अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में हमसे कभी बात नहीं की. नतीजतन, मुझे उन के परिवार को जानने या मिलने का मौका भी बहुत बाद में तब मिला, जब मैंने पार्टी के कार्यक्रमों या बैठकों के लिए बिहार, यूपी आदि राज्यों में जाना-आना शुरु किया. पांडे जी के साथ मेरी आखिरी मुलाकात भी दिसंबर 2020 में पार्टी के पटना कार्यालय में तब हुई, जब मैं दिल्ली किसान मोर्चे से सीधा पार्टी की केंद्रीय कमिटी की बैठक में भाग लेने के लिए पटना गया था. उनका आवास, वहीं पार्टी कार्यालय में ही था. वे लंबी बीमारी से उबरे थे. वहां पांडे जी और उनकी पत्नी कामरेड विभा गुप्ता के साथ कुछ देर तक मधुर और गर्मजोशी भरी बातचीत हुई. ‘मैं अब बेहतर महसूस कर रहा हूं और मैंने फिर से पढ़ना और लिखना शुरू कर दिया है.’ – उन्होंने कहा. मैंने पहले भी कई बार किया जा चुका अपना प्रश्न उनके आगे तब एक बार फिर दोहराया – ‘पांडे जी, क्या आपने अपने संस्मरण या आत्मकथा लिखना शुरू किया है या नहीं?  उसका जवाब भी पहले जैसा ही था – ‘हां, मैं इसे शुरू करने की सोच रहा हूं, लेकिन पहले कुछ और जरूरी काम निपटाने हैं, वे कर लूं, फिर लिखूंगा!’

वैसे, इस मुद्दे पर मुझे पांडे जी से गहरी नाराजगी है, जिसका दूर होना (26 अगस्त, 2021 को) उनके हमेशा के लिए चले जाने के बाद, अब असंभव ही हो गया है! मैं उनसे बहुत पहले से अपने संस्मरण या आत्मकथा लिखने का आग्रह करता आ रहा था, ताकि वे और उनके करीबी दोस्त कामरेड विनोद मिश्र, जो कम उम्र में ही क्रांतिकारी आंदोलन में कूद पड़े थे तथा उनके अन्य समकालीन साथियों और शहीदों की अनमोल यादें, आंदोलन और पार्टी जीवन के कई कड़वे और मीठे सबक, विभिन्न तरह के समृद्ध क्रांतिकारी अनुभव एक प्रत्यक्षदर्शी के सटीक अपने शब्दों के साथ, हमेशा के लिए सुरक्षित किए जा सकें. लेकिन वे इस कार्य को आगे और आगे टालते रहे.

इसीलिए पांडे जी जैसे तमाम कर्मयोगी साथियों के जीवन, उनकी खासियतों, आदतों और स्वभाव, उनकी ओर से अपनी और अपने परिवार की कीमत पर आंदोलन और पार्टी के लिए ताउम्र की गई सख्त मेहनत के बारे में लिखने-लिखाने की जिम्मेवारी, पीछे छूट गए साथियों के ही हिस्से आती है. सामाजिक परिवर्तन के लिए चल रहे क्रांतिकारी संघर्ष में शामिल सभी प्रमुख नेताओं का और कल को इतिहास बनने वाली सभी महत्वपूर्ण घटनाओं का सटीक विवरण दर्ज करने के लिए अपनी दिन-प्रतिदिन की राजनीतिक व्यस्तताओं में से किसी तरह कुछ समय निकाल कर हमें अपनी यह जिम्मेदारी लाजिमी तौर पर अदा करनी चाहिए.