पिछले साल मार्च महीने में जब भारत के अनेक विपक्षी नेता कोरोना वायरस से निपटने में मोदी सरकार की तैयारी और योजना के अभाव के बारे में बता रहे थे, तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री उन पर ‘क्षुद्र राजनीति करने’ और ‘डर फैलाने’ का आरोप लगा रहे थे. उन्होंने विश्वास के साथ और जोर देकर कहा था कि सरकार किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने में पूरी तरह तैयार है. जहां स्वास्थ्य मंत्री भारत के राजनीतिक विपक्ष पर गरज-बरस रहे थे, वहीं उनका मंत्रालय आइसीएमआर के वैज्ञानिकों द्वारा दी जा रही चेतावनियों की अनदेखी कर रहा था, जिन्होंने शोध-पत्र प्रकाशित कर कड़े लाॅकडाउन के खिलाफ और महामारी से निपटने के लिए मुकम्मल रवैया अपनाने की हिदायत दी थी. हैरत की बात नहीं कि सरकार ने उन चेतावनियों पर कोई ध्यान नहीं दिया. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री का यह उद्धत, लापरवाह और घमंडी प्रत्युत्तर और साथ ही, आंकड़ों की हेराफेरी कोविड महामारी से निपटने में मोदी सरकार की जानी-पहचानी शैली बन गई है.
राष्ट्रीय स्तर पर लाॅकडाउन घोषित किए जाने के ठीक एक वर्ष बाद भारत अब कोविड की दूसरी घातक लहर का सामना कर रहा है – अस्पतालों में बेड नहीं हैं, अस्पतालों के दरवाजे पर रागियों की मौतें हो रही हैं, टेस्ट के नतीजे आने में लगभग एक सप्ताह लग रहे हैं और शव-दाह स्थलों पर भीड़ लगी हुई है. अनेक लोगों ने अपने परिवार, मित्रों और प्रियजनों को खो दिया है और जब तैयारी के अभाव के बारे में सरकार से सवाल पूछे जा रहे हैं तो केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल हमें बताते हैं कि लोग बहुत ज्यादा ऑक्सीजन की मांग कर रहे हैं! अपनी जिंदगी के लिए जूझते लोगों पर आरोप मढ़ने के साथ-साथ मोदी सरकार इस दूसरी लहर से उत्पन्न तबाही के लिए राज्य सरकारों पर तोहमत लगा रही है. एकतरफा तौर पर तमाम फैसले – जैसे कि, लाॅकडाउन लगाना, टेस्टिंग नीति बनाना तथा टीका उत्पादन और वितरण संबंधी निर्णय आदि – लेने के बाद अब नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि इस दूसरी लहर की पूरी जिम्मेदारी राज्य सरकारें अपने ऊपर ले लें.
20 अप्रैल 2021 को पीएम मोदी ने राष्ट्र के नाम दूसरे संबोधन में कहा कि वायरस के फैलाव को रोकने के लिए लाॅकडाउन अंतिम उपाय होना चाहिए. लेकिन, उन्होंने ही एक साल पहले ठीक उल्टी बात कही थी. 23 मार्च 2020 को उन्होंने सिर्फ चार घंटे की मोहलत देते हुए राष्ट्रीय लाॅकडाउन का एलान कर दिया था. किसी भी राज्य से मशविरा किए बगैर यह फैसला कर लिया गया था. किसी भी देश द्वारा लागू किया गया वह सबसे कठोर लाॅकडाउन था, और उसने दसियों लाख मजदूरों को जीवन का कोई साधन मुहैया कराए बगैर भूखा-प्यासा छोड़ दिया था. जैसा कि हमने जल्द ही देखा, वह लाॅकडाउन व्यर्थ हो गया. उसका सबसे प्रत्यक्ष नतीजा यह निकला कि दसियों लाख लोग अभाव व दरिद्रता के शिकार हो गए.
पत्रकार नितिन सेठी और कुमार संभव की जांच-पड़ताल से पता चला कि पिछले वर्ष इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) के वैज्ञानिकों ने मोदी को कहा था कि लाॅकडाउन से महज 20-25 प्रतिशत तक ही संक्रमण को रोकने में मदद मिलेगी. आइसीएमआर द्वारा किए गए एक अध्ययन से स्पष्ट हुआ कि कोरोना मामलों में बाद में आने वाले उभार को रोकने के लिए ही लाॅकडाउन का सर्वोत्तम इस्तेमाल हो सकता है, जैसा कि आज हम ठीक-ठीक देख पा रहे हैं. अब यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार ने एकतरफा तौर तो लाॅकडाउन का फैसला कर लिया था, लेकिन वह मेडिकल सुविधाएं, टेस्टिंग क्षमता, आइसीयू बेड और ऑक्सीजन सुवाधा बढ़ाने में पूरी तरह नाकाम रह गई. गत अक्टूबर माह में धूम-धड़ाके के साथ घोषणा की गई थी कि भारत के 150 जिले में ऑक्सीजन संयंत्रों का निर्माण कराया जाएगा. लेकिन न्यूज वेबसाइट स्क्राॅल की एक जांच-पड़ताल से उजागर हुआ है कि इसके लिए टेंडर जारी करने में ही 8 महीने निकल गए. ऐसे 162 संयंत्रों के निर्माण की योजना थी, लेकिन सिर्फ 33 संयंत्र ही बनाए जा सके. इस आपराधिक लापरवाही ने दूसरी लहर में सैकड़ों जिंदगी की कीमत वसूल कर ली, और अस्पतालों के दरवाजे पर वास्तव में लोग ऑक्सीजन की मांग करते हुए दम तोड़ रहे हैं. उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार विनय श्रीवास्तव ने अपनी मौत का लाइव ट्वीट किया था, जब वे अस्पताल में भर्ती नहीं किए जा सके और उन्हें ऑक्सीजन सिलिंडर नहीं मिल सका. आज समूचा देश इस दूसरी लहर के लिए मोदी सरकार की तैयारी नहीं रहने की कीमत चुका रहा है. मीडिया में चापलूस डाॅक्टर हमें कह सकते हैं कि इसके लिए ‘सब लोग बराबर’ के जिम्मेदार हैं, लेकिन यह मोदी सरकार की विफलता छिपाने का महज एक फरेब ही है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी सरकार ने ‘पीएम केयर्स’ नाम से एक फंड का निर्माण किया है, लेकिन उसके तहत धन-संग्रह और उसके उपयोग के बारे में कोई पारदर्शिता नहीं है. सीएमओ के अधीन संपूर्ण निर्णयकारी शक्ति का केंद्रीकरण करने वाले मोदी यह कहकर अपना मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि यह तो राज्यों की जिम्मेदारी है. जिम्मेदारी उनकी और उनकी सरकार पर ही जाती है.
24 अप्रैल 2020 को भारत सरकार के कोविड टास्क फोर्स के सदस्य वीके पाॅल ने एक संवाददाता सम्मेलन में एक ग्राफ जारी करके बताया कि संक्रमण की दर 16 मई 2020 को शून्य स्तर पर चली आएगी. अनेक लोगों के लिए यह हैरान करने वाली बात थी, क्योंकि वे इस दावे के पीछे के विज्ञान को बिल्कुल समझ ही नहीं पाए. महामारी के शुरूआती दिनों में इस रवैये से इतना तो पता चल ही गया कि सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं. मोदी सरकार की पहली प्राथमिकता यही रही है कि विजय की घोषणा कर दी जाए और कोविड के खिलाफ भारत की लड़ाई में हास्यास्पद ढंग से मोदी को हीरो बना दिया जाए.