विगत 7 फरवरी को बिहार विधाानसभा का शताब्दी समारोह मनाया गया, जिसमें भाकपा(माले) विधायक दल की धमक दूर तक सुनाई पड़ी और उसमें बिहार की राजनीति में आने वाले बदलावों की आहटें भी दिखीं. दरअसल, नवगठित विधानसभा में इस बार एक तरफ जहां भाकपा(माले) व वामपंथी दलों की ताकत बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार का कद छोटा करने के बाद भाजपा विधानसभा को अपने ढंग से नियंत्रित करने की लगातार कोशिशों में लगी हुई है. अब खेत-खलिहानों-आंदोलनों के साथ-साथ विधानसभा में भी वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच की बढ़ती टकराहटें अपना स्वरूप ग्रहण करने लगी हैं. भाजपा ने अध्यक्ष का पद हड़प लिया है और आरएसएस की पृष्ठभूमि से आने वाले विजय कुमार सिन्हा को अध्यक्ष बनाया है. उन्होंने आते ही अपनी रंगत दिखलाई और अपनी पार्टी के विधायकों को महत्वपूर्ण स्थानों पर बैठाना आरंभ कर दिया. विधानसभा की गठित कमिटियों में उन्होंने मनमाना रवैया अपनाया. विधानसभा अध्यक्ष के इस अलोकतांत्रिक चरित्र और कमिटियों के गठन में अपनाई गई अलोकतांत्रिक पद्धति की भाकपा(माले) ने सार्वजनिक आलोचना की.
फिर भी, विधानसभा अध्यक्ष ने कोई सबक नहीं सीखा. विधानसभा जैसी गरिमामय संवैधानिक संस्था को भाजपा-आरएसएस की राजनीति को आगे बढ़ाने के अलोकतांत्रिक आचरण में वे अब भी लगे हुए हैं. शताब्दी समारोह-सह-प्रबोधन कार्यक्रम का नाम तो दिया गया – लोकतंत्र में विधायकों की भूमिका, लेकिन विपक्षी राजनीतिक दलों से इस कार्यक्रम की रूपरेखा पर न तो कोई बात की गई और न ही नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव को छोड़कर कोई विधायक वक्ता में शामिल किए गए. सब के सब सत्ताधारी पार्टी के लोग भरे हुए थे. पार्टी ने प्रेस बयान जारी करके इसकी कड़ी निंदा की और कहा कि विधानसभा अध्यक्ष को किसी एक पार्टी के इशारे पर काम करने की बजाए लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा को बनाए रखने की गारंटी करनी चाहिए. भाकपा-माले ने कार्यक्रम की आलोचना करते हुए कहा कि भाजपा व आरएसएस शताब्दी समारोह को हड़पने की कोशिश कर रही है. यह भाजपा की तानाशाही का परिचायक है, जो आज दिल्ली से लेकर पटना तक देखने को मिल रहा है.
बहरहाल, जब 7 फरवरी को शताब्दी समारोह कार्यक्रम आरंभ हुआ, तो पार्टी की इस कड़ी प्रतिक्रिया का असर देखा गया और कार्यक्रम में सभी विपक्षी दलों के विधायक दल के नेता को बोलने का अवसर मिला. पार्टी की ओर से विधायक दल के नेता महबूब आलम ने अपनी बातें रखीं, जिसकी चौतरफा चर्चा हुई. महबूब आलम ने कार्यक्रम के पीछे छिपे भाजपा की असली मंशा का पर्दाफाश कर दिया. राजनीतिक हलकों से यह जानकारी मिली कि दरअसल पूरा कार्यक्रम इस प्रकार बनाया गया था, जिसमें भाजपा की धमक सुनाई पड़े. अंदर खाते भाजपा इसे विजय दिवस के रूप में मना रही थी. यही कारण था कि उस दिन विधानसभा मंडल के बाहरी परिसर में स्थित शहीद स्मारक से लेकर पूरे वीरंचद पटेल पथ पर तिरंगे झंडे की जगह भाजपा के झंडे लहरा रहे थे.
महबूब आलम ने अपने वक्तव्य की शुरूआत में कहा कि जब वे विधानसभा के मुख्य द्वार से अंदर आ रहे थे, तो सतमूर्ति (शहीद स्मारक) पर भाजपा के झंडे को लगा देख असहज हो गए. आज उस ऐतिहासिक जगह और पूरे शहर में तिरंगा झंडा होना चाहिए था, क्योंकि यह किसी पार्टी का कार्यक्रम का नहीं बल्कि विधानसभा का कार्यक्रम है. लेकिन ऐसा लगता है कि भाजपा के लोग इसे अपने रंग में रंग देने का प्रयास कर रहे हैं. लोकतंत्र हमारे देश की मजबूत पहचान है और कार्यक्रम तो लोकतंत्र पर किया जा रहा है लेकिन उसे ही खत्म करने के प्रयास हो रहे हैं. यह ठीक नहीं है. महबूब आलम के इतना कहने पर भाजपा के लोग बैठक में हंगामा करने लगे. विधानसभा अध्यक्ष ने एक बार फिर अपना पूर्वाग्रह दिखलाया. उन्होंने कहा कि आज के विषय पर बातचीत की जाए, इधर-उधर की बात न की जाए और सकारात्मक सोच पर जोर दिया जाए. महबूब आलम ने अध्यक्ष के ऐसा कहने पर भी अपनी बातों को जारी रखा और कहा कि राज्य की जनता ने विपक्ष के विधायकों को सवाल पूछने और सरकार की कमियों के पर्दाफाश के लिए ही सदन में भेजा है. फिर हमारे सवालों से सत्ता पक्ष असहज क्यों हो रहा है? इसके बाद फिर एक बार भाजपा के सदस्यों ने हंगामा कर दिया. सदन के अंदर से ही माले विधायक सत्यदेव राम ने उठकर भाजपा द्वारा किए जा रहे हंगामे का कड़ा विरोध दर्ज किया और कहा कि हम सब आपलोगों की साजिशें अच्छे से समझते हैं. आपलोग लोकतंत्र का जनाजा निकालने वाले लोग हैं. मंच पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी विराजमान थे. महबूब आलम ने उनके ऊपर भी तंज कसा और विगत दिनों बिहार सरकार के दो आदेशों की चर्चा (सोशल मीडिया को नियंत्रित करने और धरना-प्रदर्शन में शामिल लोगों को नौकरी व ठेका न देने का आदेश) करते हुए कहा कि आजकल हमारे मुख्यमंत्री भी हर बात पर असहज हो जाते हैं और उन्हें विरोध की आवाज पसंद नहीं आ रही है. यह कैसा लोकतंत्र है? हमारे प्रश्नों का जवाब देने की बजाए सरकार तानाशाही की भाषा क्यों बोलती है? ऐसी स्थिति में लोकतंत्र पर सेमिनार करने का क्या मतलब है?
महबूब आलम के पूरे संबोधन के दौरान मुख्यमंत्री से लेकर पूरा सत्ता पक्ष असहज नजर आया. बाद में पत्रकारों से निजी वार्ता में मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया कि आखिरकार माले के लोग अपना ऐंगल ढूंढ ही लेते हैं. महबूब आलम के वक्तव्य की मीडिया में भी खासी चर्चा रही.
उसी दिन शाम में आगामी 19 फरवरी से आरंभ हो रहे बिहार विधानसभा के बजट सत्र को लेकर भाकपा(माले) विधायक दल की एकदिवसीय बैठक पटना के छज्जूबाग स्थित कार्यालय में संपन्न हुई. बैठक में माले राज्य सचिव कुणाल, विधायक दल के प्रभारी राजाराम सिंह, विधायक दल के नेता महबूब आलम व माले के पोलित ब्यूरो के सदस्य धीरेन्द्र झा शामिल हुए. उनके अलावा बैठक में माले विधाायक दल के उपनेता सत्यदेव राम, सचेतक अरूण सिंह, मनोज मंजिल, संदीप सौरभ, वीरेन्द्र प्रसाद गुप्ता, सुदामा प्रसाद, रामबलि सिंह यादव, महानंद सिंह, गोपाल रविदास और अजीत कुशवाहा भी उपस्थित थे.
बैठक में भाकपा(माले) विधाायक दल ने गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को अविलंब रिहाई और उनके इलाज की उच्चतम व्यवस्था की मांग करने का प्रस्ताव लिया. आगामी बजट सत्र में सरकार को सदन में घेरने पर चर्चा के दौरान वामपंथी दलों व महागठबंधन के अन्य दलों के विधायकों के साथ इस पर जल्द ही चर्चा कर एक राय बनाई जाएगी कि विधानसभा के भीतर सरकार की असफलताओं को कैसे कारगर तरीके से पर्दाफाश किया जाए. विधानसभा के आगामी सत्र में मोदी सरकार द्वारा देश पर थोप दिए गए तीनों किसान विरोधी कानूनों के खिलाफ प्रस्ताव लाने की मांग पर भी चर्चा हुई. साथ ही, दिल्ली की तर्ज पर बिहार में भी भाजपा-जदयू सरकार की बढ़ती तानाशाही, आशा, रसोइया, शिक्षक आदि तबकों के सवालों को प्रमुखता से उठाने पर सहमति बनी.
विधानसभा सत्र के पहले पार्टी के सभी विधायक अपने इलाकों में जनसंवाद का भी कार्यक्रम चला रहे हैं. इन कार्यक्रमों में जनता से आए सवालों को एकत्रित किया जा रहा है और उसे विधानसभा के पटल पर रखने की योजना बनाई जा रही है.
– कुमार परवेज